मंगलवार, 26 जून 2012

भूखे आदमी से अहिंसात्‍मक आंदोलन की उम्‍मीद नहीं की जा सकती



भूखे आदमी से अहिंसात्‍मक आंदोलन की 

उम्‍मीद नहीं की जा सकती


जानी-मानी लेखिका और बुकर सम्मान से सम्मानित अरुंधति राय जब भी कुछ लिखती हैं या फिर बोलती हैं तो वे विवादों से घिर जाती हैं। वे अपनी बेबाक टिप्पणी के लिए पूरी दुनिया में जानी जाती हैं। इस इंटरव्यू के दौरान अरुंधति ने न सिर्फ विस्थापन पर बेबाकी से अपनी बात रखी बल्कि अयोध्या फैसले,केन्द्र सरकार और भाजपा कांग्रेस की नीतियों पर भी सवालिया निशान लगाया है। अरुंधति से खास बातचीत की आशीष महर्षि ने। प्रस्तुत हैं इस बातचीत के प्रमुख अंश-


पूरे देश में बड़े पैमाने पर विस्थापन हो रहा है। लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में कहीं भी कोई भी बच्चों के अधिकारों की बात नहीं कर रहा है।
ऐसी परिस्थिति में बच्चे न तो घर वालों की प्राथमिकता में रहते हैं और न सरकार की। लोग खुद की जिंदगी को बचाने में ही लग जाते हैं। लेकिन सबसे अधिक अफसोस की बात यह है कि सरकार की जिम्मेदारी है कि वह हरेक के मूल अधिकारों की न सिर्फ रक्षा करे बल्कि वह देखे कि हर बच्चे को शिक्षा व स्वास्थ्य से जोड़ा जाए। लेकिन हो नहीं रहा है।
विस्थापन को आप किस प्रकार से देखती हैं, खासतौर से जंगलों से जिन लोगों को बेदखल किया जा रहा है।
संविधान में साफ शब्दों में लिखा है कि जल, जंगल और जमीन से उन पर आश्रित लोगों को नहीं हटाया जा सकता है। लेकिन अफसोस सरकार संविधान की भावना को ताक पर रखकर करोड़ों लोगों को सिर्फ इसलिए विस्थापित कर रही है ताकि कुछेक मुट्ठी भर लोगों की तिजोरियों को भरा जाए। दंतेवाड़ा में सात सौ गांवों को खाली करा लिया गया। वहां से करीब साढ़े तीन लाख लोग दर-दर भटक रहे हैं। लेकिन उन्हें पूछने वाला कोई नहीं है। यह हाल सिर्फ दंतेवाड़ा का नहीं है। मध्य प्रदेश हो या फिर झारखंड, जंगलों को निजी कम्पनियों के लिए खाली कराने का काम तेजी से चल रहा है।
अहिंसात्मक आंदोलन पर आप क्या कहेगीं ?
देखिये, आप किसी भूखे आदमी से अहिंसात्मक आंदोलन की उम्मीद नहीं कर सकते हैं। आंदोलनों में विविधता होना जरुरी है। यदि कोई व्यक्ति जंतर मंतर पर अहिंसात्मक तरीक से आंदोलन कर रहा है तो वही व्यक्ति जंगलों में अपने तरीके से आंदोलन कर सकता है। अहिंसात्मक आंदोलन ही झूठ है। हमें इस तरीके से आजादी नहीं मिली है। भारत पाक विभाजन के दौरान भयानक हिंसा हुई। इसमें दस लाख लोग मारे गए थे। इसे आप इस सदी की सबसे भयानक हिंसा कह सकते हैं। मौजूदा वक्त में आप भूखे आदमी से इस तरीके से आंदोलन की उम्मीद नहीं कर सकते हैं। गरीबों के संघर्ष में इस तरह के आंदोलन का कोई अर्थ नहीं है।
नर्मदा बचाओ आंदोलन से दूरी क्यों ?
नहीं उनसे मेरी कोई दूरी नहीं है। यह तो मीडिया के एक तबके के द्वारा फैलाई गई अफवाह है। मैं पहले भी नर्मदा आंदोलन के साथ थी और आज भी हूं।
आप नक्सलवाद और नक्सलवादियों को बड़े रुमानी अंदाज में पेश करती हैं।
बिलकुल करती हूं। और इस पर मुझे गर्व है। मुझे हर उस इंसान और विचारधारा पर गर्व है जो गरीब आदिवासियों के हक में अपनी आवाज बुलंद करता है। यदि नक्सली ऐसा करते हैं तो इसमें क्या गलत है। आखिर लोग रोमांच से क्यों डरते हैं। दुनिया में हर व्यक्ति को रोमांच करना चाहिए। इस पर गर्व होना चाहिए। मैं हर उस आंदोलन से रोमांच करती रहूंगी जो गरीबों के लिए लड़ा जा रहा है।
अयोध्या के विवादित फैसले पर आप क्या कहेंगी ?
बहुत अफसोसजनक। मुझे एक बात समझ में नहीं आती है कि दुनिया की कोई भी अदालत यह कैसे तय कर सकती है कि भगवान राम कहां पैदा हुए थे और कहां नहीं। ऐसे फैसले पर तो अफसोस ही जताया जा सकता है। लेकिन इससे साफ हो गया है कि न्यायपालिका का भी साम्प्रदायिकरण हो गया है। कोर्ट ने भगवान को इंसान मान लिया। इससे तो भगवान राम का अपमान ही हुआ है और वे छोटे हुए हैं। मुझे समझ में नहीं आता है कि अदालत जब यह फैसला दे रही थी तो उसका दिमाग कहां चला गया था।
गृहमंत्री से कोई खास नाराजगी ?
गृहमंत्री पी चिदंबरम आदिवासियों, दलितों और गरीबों के हितों के खिलाफ हैं और मैं इन सब के साथ। तो खुद ब खुद मैं इनके साथ और गृहमंत्री की विरोधी हो जाती हूं। जो कोई भी आदिवासी और गरीब किसानों की लड़ाई लड़ता है, वह सरकार की नजर में माओवादी घोषित हो जाता है। और मामला यहीं खत्म नहीं होता है, सरकार उन्हें हर तरह से कुचलने की कोशिश करती है। यही मंत्री विदेशों में जाकर देश की हर उस चीज के निजीकरण की वकालत करते हैं जो गरीबों से जुड़ी हैं।
माओवादियों की हिंसा  पर आप क्या कहेंगी ?
देखिए ऐसा नहीं है कि माओवादी सिर्फ बंदूकों के बल पर ही आंदोलन चला रहे हैं। वे लगातार तीस सालों से लड़ रहे हैं। वे जंगलों में बसे आदिवासियों के हितों के लिए न सिर्फ व्यवस्था से लड़ रहे हैं बल्कि राज्य से भी लोहा ले रहे हैं। वे सिर्फ बंदूकों से लड़ते तो शायद इतनी लंबी लड़ाई वे भी नहीं लड़ पाते। वे आदिवासियों के भले के लिए भी समानान्तर कुछ न कुछ करते ही रहते हैं।
भाजपा कांग्रेस में कोई अंतर नजर आता है आपको ?
सही बताऊं तो बिल्कुल नहीं। इनके नाम सिर्फ अलग हैं, नीतियां एक ही हैं। वे यह है कि निजी कम्पनियों को अधिक से अधिक लाभ कमवाना है। इसके लिए उन्हें चाहे आदिवासियों की जमीन उन्हें देनी हो या फिर किसानों को जमीन से बेदखल करना। वे इसके लिए हमेशा तैयार रहती हैं।
                                                                                                                                                 साभार- खबरकोश डॉट कॉम

बुधवार, 13 जून 2012

अच्‍छा काव्‍य पाठ


अच्छा काव्य पाठ

(तथाकथित अच्छे काव्य पाठ के बारे में कुछ अन्‍यथा विचार)


एक दिलचस्प आरोप समकालीन कविता के कवियों पर अकसर लगाया जाता रहा है। कि अधिकांश कवि, अच्छे कवि भी, अपनी कविताओं का पाठ प्रभावी ढंग से नहीं करते। या कहें कि नहीं कर पाते हैं। मुझे अनेक अर्थों में यह एक विलक्षण माँग लगती है। कविता लिखना और पाठ करना, दो अलग अलग कलाएँ हैं। और एक ही व्यक्ति में ये दोनों उत्कृष्ट रूप में हों, यह प्रायः दुर्लभ है।

जैसे एक जमाने में फिल्मों में नायक के लिए गायन कला में पारंगत होना लगभग अनिवार्य शर्त थी। और इसकी अपनी मुश्किलें थीं, साथ ही यदि कोई अच्छा अभिनेता है लेकिन गायक नहीं है तो उसकी अभिनय प्रतिभा को भी नायकत्व के अवसर असंभव नहीं लेकिन दुष्कर अवश्य ही थे। इस तरह के आग्रह, एक उत्कृष्टता को कमतर देखते चले जाने का या उसकी उपेक्षा का अनजाने ही कारण बनता है। जैसे एक कलाकार से आप एक न्यूनतम ‘पैकेज’ की माँग कर रहे हैं। संगीत की समझ, संगीतकार होना, गायक होना, कविता या गीत लिखना और मंच पर पाठ, ये सब अलग-अलग प्रतिभाओं की माँग करती हैं। कुछ लोगों में ये सारी अथवा कुछ प्रतिभाएँ एक साथ हो सकती हैं मगर अधिकांशतः ऐसा नहीं होता।

यहाँ प्रभावी काव्य पाठ के आशय भी पृथक हो सकते हैं। किसी के लिए वह साफ उच्चारण और कुछ धीमी गति से पढ़ना पर्याप्त होगा। किसी के लिए पूरे हावभाव, अभिनय के साथ प्रभावशील प्रतीत होगा और किसी के लिए प्रचुर नाटकीयता का तत्व जरूरी लग सकता है। किसी की आवाज भारी, गूँज भरी या अन्य रूप से प्रभावी हो सकती है और इसका उलट भी, जिसमें उसका अपना योगदान लगभग कुछ नहीं होता। वह प्राकृतिक रूप से प्रदत्त है। काव्य पाठ में कवि का व्यक्तित्व, उसका चेहरा-मोहरा और उसकी सहज, नैसर्गिक देह भंगिमाएँ भी शामिल हो जाती हैं। इन सबके समुच्चय में काव्य पाठ होता है, जिसमें कुछ चीजें प्राकृतिक होती हैं, कुछ का विकास किया गया होता है और कुछ अभिनयमूलक। हकलहाट, तुतलाहट, अटकना और उच्चारण दोष के बावजूद किसी का कुल पाठ अच्छा लग सकता है। या कहें कि उससे हमारा तादात्मय बैठ जाता है। दरअसल, कविता पाठ में कोई कवि कुछ ही पक्षों में, कुछ ही हद तक सुधार कर सकता है। हमेशा इसकी एक सीमा बन जाएगी। इसका कोई आदर्श रूप बना पाना अवांछित और कठिन है। जितने कवि, उतनी तरह का काव्य पाठ। यही सच है। यही आकर्षण है। 

मुझे तो लगभग अपना हर प्रिय कवि, जिसका भी काव्यपाठ मैंने सुना है, वह अपने सहज, प्राकृतिक ढंग में ही प्रिय लगता रहा है। वही उसकी विशिष्टता भी बन जाती है। कविता सुनना भी एक कला है जिसे हर श्रोता अपने ढंग से अर्जित करता है। और यह अपने कवि से, प्रस्तुत काव्यपाठ से तादात्मय बैठाने से गहरा संबंध रखता है। कविमुख से कविता सुनने के आनंद में यह शामिल है कि ‘कवि की अपनी प्राकृतिकता में, उसकी अपनी शक्तियों और सीमाओं के साथ सुनने से प्राप्त आनंद।’ और इसका कोई मानकीकरण नहीं हो सकता। यदि आप इसमें आनंदित नहीं हो सकते तो बेहतर है कि उसे किसी अन्य के मुख से सुना जाए।

यहाँ अनेक ऐसे कवि भी ध्यान में आ सकते हैं जो अपनी निष्प्रभावी और कमतर कविताओं का भी गजब, प्रभावी पाठ कर पाते हैं। किसी के लिए इसमें बहुत हद तक स्वाभाविक, प्रकृति प्रदत्त सहयोग भी मिला होता है। नाद, पाठ, स्वर, सटीक उच्चारण और अंग संचालन से उत्पन्न प्रभावी पाठ की अपेक्षा सभी कवियों से, बल्कि अधिकांश कवियों से करना एक अतिरिक्त माँग है। इस आधार पर उनकी आलोचना तो दुराग्रह ही है। यदि यह आग्रह रखना ही है तो ऐसे काव्य प्रेमियों का दल विकसित किया जाना चाहिए जो भले ही कवि न हों लेकिन अच्छा काव्य पाठ कर सकते हों। और वे कविताओं का पाठ करें। जैसा मराठी, मलयालम, अंग्रेजी और अन्य यूरोपियन भाषाओं में कहानियों के पाठ विकसित किए गए और स्टोरी टेलर की एक आदरणीय, लोकप्रिय जमात पल्लवित हुई। ‘पोएट्री रिसाइटल’ के लिए भी ऐसी जमात को प्रेरित किया जाना कहीं बेहतर और व्यावहारिक होगा ताकि ‘काव्य पाठ’ के असर को संप्रेषणीयता और प्रचार के उच्चतम स्तर तक पहुँचाया जा सके। उनकी विशेषज्ञता किसी भी श्रेष्ठ पाठ करनेवाले कवि से बेहतर ही होगी।

अपने में गुम, संकोच, संशय और सहज मानवीय कमजोरियों के साथ किए गए अनेक कवियों के काव्यपाठ, अप्रतिम काव्यानुभव के कारण भुलाए नहीं भूलते। और जिन कवियों के काव्यपाठ की बड़ी प्रशंसा है, अनेक अवसरों पर उनकी नाटकीयता, आवाज पर उनका आत्मविश्वास और उच्चारण की शुद्धता ही अकसर बाकी चीजों को ढाँप लेती है। तथाकथित अच्छा पाठ, खराब कविता के लिए ओट भी बन सकता है। बनता रहा है।  

न्यूनतम अपेक्षा शायद यह हो सकती है कि उच्चारण यथासंभव ठीक हो और श्रोता तक आवाज पहुँच सके।  इसे किसी कवि द्वारा धीरे धीरे अर्जित भी किया जा सकता है और कविता सुनाये जाने के लिए इतनी भर अपेक्षा जायज प्रतीत होती है। हालांकि, क्षेत्रीय बोली-भाषा से प्राप्‍त उच्‍चारण और स्‍वरदोष आसानी से दूर नहीं हो सकते।

एक अर्थ में तथाकथितअच्छे  काव्य पाठ का आग्रह, अन्‍यथा एक रूपवादी, रूमानी आग्रह भी हो सकता है।
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