'पहल'-124 में प्रकाशित यह किंचित लंबी कविता नये प्रारूप में
यहाँ उपलब्ध है।
प्रकाशित कविताओं पर भी कुछ काम करता हूँ, यह नयी संरचना उसी कवयाद का हिस्सा है।
लंबी कविता
शोक सभा
न्याय मुमकिन नहीं रहा
मुआवज़े के लिए कर सकते हैं आवेदन
जैसा सबके पिताओं ने सबको बताया
कि छलछलाती नदियों के साथ चलते
रास्ता भटकते, खोजते हम यहाँ तक आए थे
लेकिन आज इस सूखी नदी के घाट पर
हमारी थकान, भूख और नींद से लथपथ
यह वापस पैदल चलकर आने की तस्वीर है
अब सामने हैं अपरिचित-सी तकलीफ़ें
या यह जगह ऐसी हो गई है कि तकलीफ़ें
नये सिरे से नयी हो गई हैं
जो अनेक ज़िदगियों और आत्मीय चीज़ों की
मृत्यु से निकलकर हम तक तक आई हैं
यहाँ हर चीज़ पर शोक की छाया है
बेचिराग़ हो चुके हैं गाँव
अनेक डूब गए पानी में, जंगल जल गए तृषा में
एक पूरा इलाक़ा बंद पड़ा है हवालात में
काग़ज़ों पर आत्महत्या लिखकर लगा दिया गया है ख़ात्मा
जीवन की ढीठता यह है कि एक दिन
मृतक दबे रह जाते हैं पाताल में
राख उड़ जाती है आकाश में
और आदमी वहाँ भी रहने लगते हैं
जहाँ नागफनी भी उगती है मुश्किल से
जो ख़सरों-खतौनियों में दिखाई जाती है बंजर
आर टी आई लगाओ तो जवाब में
आबाद जगहों को भी बताया जाता है बेचिराग़
इसलिए किसी को ओलाग्रस्त फ़सलों का
किसी को महामारियों का, किसी को अधिग्रहण का
किसी को मर गए लोगों का मुआवज़ा नहीं मिलता
तब हमने सत्तावाचक संज्ञाओं से विशेषण रद्द कर दिए
और विस्मयादि बोधक प्रश्न चिह्न लगाए
तो कहा गया भाषा में इतना विस्मय
इतने सवाल देवभूमि में मुमकिन नहीं
यह आफ़त किसी दूसरे ग्रह से आए
लोगों से हो सकती है
इस तरह एक स्थानीय बात उड़कर
चली जाती है उड़नतश्तरियों तक
सवालों, जिज्ञासाओं, आपत्तियों को
फेंक दिया जाता है शताब्दी के पिछवाड़े में
और नागरिक पहचान के मुद्दे घाटियों में,
मैदानों में लावारिस लाशों की तरह बिखर जाते हैं
फिर अफ़रा-तफ़री में किसी का परिचय पत्र नहीं मिलता
किसी की अंकसूची किसी की डिग्री
किसी का चेहरा नहीं मिलता
किसी का जन्म स्थान तो मिलता है
अस्पताल का पर्चा नहीं
कि तब वहाँ कोई अस्पताल नहीं था एक अँधेरा था
जिसमें मृत्यु सहज थी और बच जाना अपवाद
विडंबनाओं की ताज़ा तस्वीरों में
जीवन बह रहा है ख़तरे के निशान से ऊपर
हम एक स्वर्ग चाहते थे
अब बड़बड़ाते हैं यह नरक भी हमारा नहीं
जो कहने को विशाल वसुधा का कुटुंब है अछोर
लेकिन मुखिया वही होगा जिसकी छाती हो वज्र कठोर
अब नरक और स्वर्ग के दरम्यान, युद्ध और शांति के बीच
लाईब्रेरी और चंडूख़ाने, गुएर्निका और स्वस्तिक के बीच
चाह सकने की ताक़त और भूल न सकने की कमज़ोरी के बीच
केवल एक प्रेमिल अभिलाषा और लँगड़ी आशा का फ़र्क है
जिसे कई बार कुली की तरह पीठ पर लादकर चलना पड़ता है
थकान ज़्यादा होती है लेकिन चलना पड़ता है
और जब एक बुज़ुर्ग मुस्कराकर कोसता है इस ज़माने को
याद करता है तमाम अपमान, निराशाएँ, नाकामियाँ
कहता है बूढ़े बीमार आदमी से भागते हैं सब लोग दूर
सबसे पहले उसकी संतानें
फिर घुमा-फिराकर हर बात का संबंध जोड़ता है
अपनी तर्जनी पर लगे अमर निशान से
जो अब किसी चोट की नीलिमा की तरह दिखता है
सब उसकी बातों पर हँसते हैं कि कहानी है कितनी मज़ेदार
क्रिएटिव क़िस्म का पत्रकार इसे देखता है रिपोर्ताज की तरह
पूछता है क्या आप यह सब चाणक्य फ़ौन्ट में लिखकर दे सकते है
बूढ़ा तो महज़ इसलिए मुस्करा रहा था
कि उसके वे दुर्दिन बीत चुके हैं और ये जो नये सामने हैं
उनके ख़िलाफ़ बस इतनी तैयारी है कि वह मुस्करा सकता है
जो उसका मज़ाक़ बना रहे हैं वे समझ नहीं पा रहे हैं
यह प्रहसन उन्हें 8% चक्रवृद्धि ब्याज पर
मिल चुका है उत्तराधिकार में
उधर दूर खड़ा एक अधेड़
मध्यवर्गीय दूरबीन से देखता है अपना वर्तमान
सोचता है उसके ऊपर सच्ची जिम्मेदारी क्या है
परिवार की, मोहल्ले की, देश की, पूरे संसार की
वह झटके में तय करता है सबसे बड़ी जवाबदेही है
कि वह जैसे-तैसे किसी तरह ख़ुद जीवित बना रहे
इसी दरम्यान उसे हलाल करने लगता है यह ख़याल
कि ऐसा क्या है जो वह रतिक्रिया के
ठीक बीच में रोने बैठ जाता है फिर सुबह उठकर
सबको दिलाना चाहता है विश्वास वह नपुंसक नहीं है
परंतु वेदना यही बची रहती है कोई नहीं करता विश्वास
दरअसल उसकी नौकरी हर नब्बे दिन में छूट जाती है
सौम्य सपाट जीवन हर तरफ़ से हो जाता है किरकिरा
उजड़ने लगती है वह गृहस्थी जो पहले से ही उजड़ी थी
और सिर्फ़ बेडरूम की दीवार पर एक पुरानी तस्वीर में बची थी
अब उसका होना किसी दृश्य में किसी फ़्रेम में नहीं अँट पाता
वह परिवार के ग्रुप फ़ोटो सहित धड़ाम
गिर पड़ता है रसातल में और अपने चारों तरफ़ मची
मारो-काटो-बचाओ चिल्लपों के बीच
देता है ख़ुद को दिलासा
कि यह नहीं है उसका अपना व्यक्तिगत पतन
यह तो निफ़्टी का बहुसंख्यक महास्खलन है
सबसे बड़ा संकट है
विदूषक भूल गया है वह विदूषक है
यह फूल को पत्थर होने से बचाने की चुनौती थी
और पत्थर को पत्थर की तरह बचाये रखने की नैतिकता
लेकिन स्वेच्छाचारिता के अंत में बचता कुछ नहीं है
सिवाय आर्तनाद, चीख़ और रुदन के
सिवाय संताप और हाहाकार के
इन्हीं सबने जीवन के सुरों को कर दिया है विस्थापित
अब कोई सुर नहीं मिलता दूसरे सुर से
संगीत कुछ दूसरी बात कह रहा है
संवादों में चल रही है अलग कहानी
दृश्य में दिखाई दे रहे हैं कुछ और ही दृश्य
लेकिन सबका मतलब एक हो चुका है
अब तो यह महज़ संगीत की बात नहीं रही
कि प्रतिभा होगी मोत्सार्ट के पास
तो महत्वाकांक्षा रहेगी राग दरबारी के मन में
और मूर्खता निवास करेगी सम्राट के मुकुट में
हमारे सामने है सिंहासनों का इतिहास और वर्तमान
इसीसे लिख सकते हैं भविष्य जिसका आधार वाक्य है-
विधर्मियों की हत्याओं पर घरों में की जाएगी रोशनी
एक पवित्र स्थायी अशांति का नाम है 'प्रॉमिस्ड लैण्ड'
आख़िर में किसी को नहीं मिलती अपनी ज़मीन
सुई की नोक बराबर भी नहीं मिलता अधिकार
एक सनातन युद्ध मिलता है
हम अख़बार पढ़ते थे
जैसे मध्यकाल का इतिहास
फिर दम तोड़ देती है मनुष्य होने की नैतिकता
मेहनत के बरअक्स परचम लहराती है रईसी की नैतिकता
हर देश-काल में चुनौती बनती है स्त्री की नैतिकता
धर्मालयों में बजती रहती हैं घंटियाँ, चीख़ते हैं लाऊड स्पीकर
गुंबदों पर चढ़ती चली जाती है ऐश्वर्य की नैतिकता
जैसे कुंठा और ताक़त के मिश्रण की नैतिकता
जैसे विधायक या बुलडोज़र होने की नैतिकता
समरथ को नहीं दोस गुसाईं की नैतिकता
पूँजी-क्रिया विशेषण कार्पोरेटी संधि-समास की नैतिकता
अनैतिक नैतिकताओं की आनुवंशिकता है लंबी
सभी के फ़िंगर प्रिंट्स एक हैं, एक है डीएनए
सत्य लेकिन विचित्र एक हैं सबके घोषणा पत्र
यह लाखों साल पुरानी बात हुई सो परंपरा हुई
कि चरम सभ्यताओं को नष्ट कर देती हैं चरम असभ्यताएँ
हत्याओं के फ़ैसलों के बाद भी साबुत रहती है क़लम की नोक
घर-घर में, गली-गली में लगी हैं सूलियाँ, टपकता है ख़ून
पारा चढ़कर पहुँच जाता है 451 डिग्री फ़ैरनहाइट
धू-धू करके जल उठती हैं ज्ञान-विज्ञान-साहित्य की किताबें
बुद्धि के अंत से निकलकर आते हैं संसार के योद्धा निर्मम
यह साधारण वसंत नहीं
इस पर मोरपंखी चकत्ते हैं
अब शृंगार हो ऐसा
कि विनाश का मलबा दिखे वसंत की तरह
दुराचार कर ही लेगा सदाचार का अभिनय
धर्मयुद्ध में सभी दुराचार हो जाते हैं सदाचार
महापुरुषीय हिंसा तो अहिंसा है
आम चुनाव में भी जमा नहीं कराए जा सकते उनके हथियार
जनप्रतिनिधि की हिंसा हिंसा नहीं रायशुमारी है
कैबिनेट की हिंसा हिंसा नहीं अधिनियम है
जैसे न्यायालय की हिंसा हिंसा नहीं न्याय है
एंकर की हिंसा हिंसा नहीं समाचार है
पुलिस की हिंसा हिंसा नहीं
व्यवस्था है
फ़रियादी गुहार लगाता है न्याय चाहिए
वकील कहता है यह न्याायालय अवमानना है
अभी तो रिमाण्ड चाहिए
मानवाधिकारी न्यायाधीश देते हैं सलाह
थाने में क़तई न की जाए मारपीट
इंस्पेक्टर अर्ज़ करता है- यातना देने के औज़ार
खरीदे हैं सरकारी बजट से, हुआ है उनका लेखा परीक्षण
कुछ मिले हैं दान में एन आर भाइयों से
समिति की रिपोर्ट है थर्ड डिग्री से कोई नहीं मरता
ज़मानत न होने से मरता है
लेकिन यह तो न्याय का मसला है
पिटता हुआ आदमी चीख़ता है मैं नागरिक हूँ
मुझे मेरे अधिकार दो, प्रताड़क करता है अट्टहास
कोई नहीं है यहाँ नागरिक, तुम एक धर्म हो, जाति हो,
प्रांत हो, तुम एक भाषा हो, केंद्र शासित हो, कर्फ़्यूग्रस्त हो
दरअसल तुम एक फटी हुई जेब हो
और दुनिया की विशालतम पार्टी के सदस्य तक नहीं हो
फिर भी चाहते हो अहिंसा, सदाचार
चाहते हो सत्यमेव जयते तो देखो सामने दीवार पर
तस्वीर के नीचे हमने लिख दिए हैं सारे सुभाषित
तस्वीर का आदमी तो रहा नहीं संसार में
परंतु हमारे मन में है इतना सम्मान कि गर्वनर तक
इसी तस्वीर के बग़लगीर होकर करते हैं दस्तख़त
वह प्रत्याशित को भी
कर सकता था अप्रत्याशित तरीक़े से
अगस्त की एक रात में होती है तेज़ बारिश
पौ फटने तक बह जाते हैं सारे रास्ते
टूट चुके होते हैं तमाम पुल, बंद हो जाते हैं दर्रे
यह बर्फ़बारी का मौसम नहीं है मगर बर्फ़ के नीचे
दब जाते हैं फूल, इच्छाएँ, आशाएँ और घास
केवल यातनाएँ चमकती रहती हैं बर्फ़ के ऊपर
अब आप कह सकते हैं- अगस्त सबसे क्रूर महीना है
अगस्त में ही हुआ था सबसे बड़ा धमाका
अगस्त की तारीख़ों में से उठता था विकिरण
अगस्त में ही मज़लूमों का आत्मसमर्पण
अगस्त में हुए देह के दो टुकड़े
अगस्त में ही आत्म गौरव का शिलान्यास
विपदाओं के बाद बचे रहते हैं जर्जर शरणार्थी दिल
जो उठाते रहते हैं सारी मुसीबतें चुपचाप
लेकिन आप मत कहिए हम किसी यातना शिविर में हैं
हमारी ये उजड़ी तस्वीरें झूठी हैं, झूठी है सुबह की यह कालिमा
झूठी हैं हम पर तनी बंदूक़ें, सायरन की ये आवाज़ें झूठी हैं
ख़ून की लकीरें झूठी हैं, झूठे हैं एनकाउंटर्स, ये चीख़ें झूठी हैं,
झूठे हैं ये घायल जिस्म, चींथ दी गईं स्त्रियाँ झूठी हैं
घर की दीवारों पर झूठे हैं गोलियों के निशान
संगीनों पर टँगी लाशें झूठ की प्रतिलिपि हैं, महाझूठी हैं
कौन कह सकता है हम यातना शिविर में हैं
जो कह देगा वह शख़्सियत झूठी है
सच्ची है सिर्फ़ हमारी चुप्पी लेकिन सच्चाई हमारी झूठी है
हमारा कुछ कहना इस क़दर बेमतलब है
कह दें तो मानेगा कौन, न कहें तो समझेगा कौन
हमारी आवाज़ पर निगाह है, निगाह है की-बोर्ड पर
हमारी आँख की पुतलियों पर है निगरानी
अब नहीं बचा कुछ भी व्यक्तिगत
न प्रेम, न विश्वास, न बर्बरता, न मृत्यु
इसलिए सार्वजनिक चौपाल पर यूनिकोड में लिखते हैं
कि जब तक मुमकिन है ज़िंदा हैं
तुम बंदूक़ तानकर कहते हो मान लो तो मान लेते हैं
हम नहीं हैं किसी यातना शिविर में
अब हम हँसकर सोचते हैं
तो तुम्हें लगता है डरकर सोचते हैं
चुप हो जाते हैं तो तुम सोचते हो डर चुके हैं
हमारी यह हँसी, यह चुप्पी तो मुश्किलों से जूझने के
पुराने तरीक़ों का कुछ अफ़सोस है, कुछ नवीनीकरण
जबकि सैटेलाईट से हो रहा है मुनादी का सीधा प्रसारण
शैतान को गले लगाकर प्यार करो
हार्दिकता से, शांति के लिए, अपने मोक्ष के लिए प्यार करो
यही नियम है, संधि है, यही परंपरा की लकीर है
कोई कह नहीं सकता ग़लत है क़ानून
चौराहे पर घेर कर मारने की नज़ीर है
कई चीज़ों के लिए हम अग्रिम हैं
कई चीज़ों के लिए हो चुकी है देर
शेष आदमियों की जेब से बरामद होता है
वही एक सनातन शोक-गीत-
‘‘आदमी को ज़िंदा रहने के लिए
विचार, प्यार, सम्मान और बेहतरी
सबकी ज़रूरत एक साथ होती है
वरना आदमी सोचने लगता है
मैं अब किसी पर बोझ नहीं बन सकता
न किसी आकांक्षा या कंधे पर, न किसी हृदय पर
और न ही इस अनुर्वर दृश्य पर
बेहतर है मेरा बोझ लोहे की कड़ी उठाए
कितने लोग याद आते हैं
जिजीविषा से भरे प्यारे लेखक,
संगीतज्ञ, चित्रकार और पड़ोस की वह लड़की
जो हँसकर मौसम का मिज़ाज ठीक करती थी
वे सब लोग कायर नहीं थे
इसके लिए विराट साहस की दरकार होती है
मरने के लिए काफ़ी है ज़रा सी शर्मिंदगी
कमीनगी ही लंबी आयु की कामना करती है
कायर अक्सर लौट आते हैं कगारों से
जीवन केवल तब पूरा नहीं होता
जब वैंटिलेटर हटा लिया जाता है
और एक सर्द राहत फैलती है बरामदे में
इतनी लिजलिजी प्रतीक्षा नहीं की जा सकती
अब क्या बात रोकती है तुम्हें?
आनेवाले बच्चे की हँसी, मादक केशराशि
सदियों से भुलावा देता एक फूल, कोई सहानुभूति
प्रेम की किरच, हवाओं में उड़ते इच्छाओं के रेशे
फ़सल कटाई के गीत, सूर्योदय का दृश्य
समुद्र का किनारा या चाँदनी रात
ज़्यादा वासना ठीक नहीं
सूखी पत्तियाँ उड़ती हैं, फिर वसंत आएगा
यह सोचना चीज़ों को व्यर्थ लंबा खींचना है
उम्मीद कभी ख़त्म न होने वाली सुरंग है
और तुम थक चुके हो
तुम्हारे जन्म पर तुम्हारा कोई वश न था
लेकिन इस वजह से किसी को
विवश नहीं किया जाना चाहिए
मेरा हासिल है मैंने असंतोष के साथ जीवन जिया।’
अंधी नहीं रही न्याय की देवी
राजनीति ने खोल दी हैं उसकी आँखें
मृत्यु हमेशा की तरह यशस्वी है
कोई मर जाता है भीड़ में फँसकर
कोई बंद कमरे में निर्विकार और तटस्थ
अकाल मृत्यु किसी का यश नहीं
कोशिश रहती है दृश्य में प्रतीत हो ऐसा
मानो लोग मरे हैं किसी प्राकृतिक दुर्घटना में
यों भी हत्याएँ हमारा आंतरिक मामला हैं
किसी को नहीं, किसी दूसरे देश को क़तई नहीं
संयुक्त राष्ट्र संघ को भी नहीं हस्तक्षेप का अधिकार
जनता रैली में गोलीबारी के बाद
पीछे छूटे जूते-चप्पलों की तस्वीर
प्रकाशित है पूरे पृष्ठ पर चेतावनी की तरह
विज्ञापन ही हैं अब अंतिम चेतावनियाँ
तब घेरता है एक संशय एक स्यातवाद एक सवाल
कि इक़बाल की शायरी सच मानी जाये
या नानावटी-मेहता कमीशन की रिपोर्ट
या ज़मानत के लिए मोहताज उस आदमी की गवाही
जो अकेला ही लड़ रहा है अपनी हत्या का अग्रिम मुक़दमा
मारे जा चुके हैं गवाह
मुख्य आरोपी जेल से बाहर आया है इतना प्रसन्न
भंडारे के परचों से पट गए हैं एअरपोर्ट के पेशाबघर तक
कुछ पीड़ित बचे हुए हैं अभी
कि बने रह सकें बेइज़्ज़त
वह करता था हर मुसीबत का
एक आध्यात्मिक अनुवाद
शताब्दियों से चीज़ें बिल्कुल वैसी नहीं हैं
जैसा उपदेशक-ग्रंथ भरमाता है
और जिसे सुलेमान अपना गीत ऊँची आवाज़ में गाता है
कि हर चीज़ का अपना एक वक़्त होता है
और हर काम का अपना एक समय
मगर आप देख सकते हैं दो हज़ार साल बाद भी
हमारे लिए किसी बात का कोई ठीक समय नहीं
इस आकाश के नीचे किसी चीज़ का
हमारे लिए कोई वक़्त मुक़र्रर नहीं
हम अपने प्रसव के वक़्त से पहले पैदा हुए
हम मर जाएँगें इंसानों के मरने के वाजिब समय से पहले
हमारे पास अपनी ज़मीन नहीं, खेत नहीं, पानी नहीं
हमारे लिए कैसे तय हो सकता है कोई समय
रोपाई का, निंदाई या फ़सल कटाई का
हमारे तो दुत्कारे जाने का भी कोई समय नहीं
न बीमार रहने का वक़्त है, न स्वस्थ रहने का
न चोट खाने का और न ही जख़्म भरने का
कोई समय नहीं हमारे हँसने-रोने का
न शोक करने का वक़्त है, न नाच-गाने का
न पत्थर फेंकने का, न उन्हें समेटने का
आलिंगन करने, विदा लेने का कोई समय नहीं
कुछ पाने के वक़्त के बारे में तो हम सोच भी नहीं सकते
लेकिन खो देने का सही वक़्त हमेशा हमारे पास है
नहीं पता कौन-सा वक़्त अच्छा है हमारे बोलने
या ख़ामोश रहने का
हम तो जब भी हम कोशिश करते हैं कुछ कहने की
वही बन जाता है हमारे लिए बुरा वक़्त
प्यार करने, बैर करने का कोई समय नहीं
हम फँसे रहते हैं किसी न किसी चक्रव्यूह में
उलझे रहते हैं दूसरों के झंझट में
और शांति के समय की कामना करना
जैसे कुफ़्र है
आकाश में अनुपस्थित चंद्रमा ने बताया
कृष्ण पक्ष में हमें कुछ इंतज़ार करना चाहिए
कई बार हम उम्मीद रखते हैं
लेकिन साहस खो देते हैं
तो यह ऐसा ही है कि उम्मीद भी खो देते हैं
किसी को एकांगी एकाकी पाने का मतलब है उसे खो देना
हम क्रोध भी करते हैं तो अपनी ही आँतें
सबसे सस्ती सबसे वैभवशाली कैंटीन में लटका देते हैं
लो, खाओ यह हमारी तरफ़ से है सीधा अनुदान
एक लंबा सिलसिला है कुम्हलाई आँतों का
लेकिन इस से भी अव्यवस्थित हो जाती है व्यवस्थाएँ
जो निगाह रखती हैं और रजिस्टर करती हैं
कि आख़िर अपनी मुश्किलों में हम
कहाँ जाकर शरण लेते हैं- शराबख़ानों में, जंघाओं में,
घबराहट में, रैलियों में, शब्दों में, दंतकथाओं में
संगीत में, पेंटिंग में, प्रार्थनाओं में या फ्लुऑक्सेटीन में
एक उड़ती चिड़िया दिखाकर
धोखे से कर दी है सामूहिक अंगविच्छेद की रस्म
एक फ़ायटर जेट दिखाकर पूरे क़बीले पर चला दी गई है गोली
जबकि वे सब तो यों भी भूख, अपमान, उपेक्षा और शर्म से
और पहचान-पत्र न होने से दो-चार दिन में मरने ही वाले थे
रोज 'ओडेसा स्टेप्स' पर होती है सच्ची रिहर्सल
लोग लुढ़कते हैं तो सचमुच लुढ़कते ही चले जाते हैं
एक प्रेसवार्ता, दो भाषण और तीन नारों की ओट में
रख दी गई हैं लाशें
देर रात उन्हें बुहार दिया जाएगा झाड़ू से
बनी रहेगी सबसे स्वच्छ शहर होने की उम्मीद
और वह मलिन दृश्य जिसमें से
हम गुज़ारते हैं अपना यह रोजाना का जीवन
और उसे बनाना चाहते हैं इतना भर सहने लायक
कि दुर्गंध के ऊपर न लगाना पड़े गमलों की पाँत
मगर हमारी यह आकांक्षा भी हर बार
हो जाती है किसी आत्मीय संबोधन का शिकार
हम जो जान गए हैं पत्थरों से लेकर तीर कमान तक
गोफन से डायनामाईट और कंप्यूटर तक
मिसाइल से मोबाइल और ए आई तक
यह सफ़र एक दिन का नहीं, लंबी तीर्थयात्रा है
जिसके मुक़ाम पर पहुँचकर ख़बर मिली है
विकास मंदिर तो एक खण्डहर है
जबकि मुद्दा यह था कि तुम एक सूखे तिनके से
नालों में धँसे सफ़ाईकर्मी और एक बिलखती स्त्री से
कैसा व्यवहार करते हो
और उस उदासी को देखते हो किस तरह
जब सूर्योदय होते ही समानांतर याददाश्त भर जाती है
अग्रेषित संदेशों के जयकारों से
वास्तविकताएँ गुम जाती हैं अवास्तव की झाड़ियों में
और स्मृति के कोटर में इतनी जगह भी नहीं बचती
कि जहाँ रखा जा सके अपना कोई विस्मय
या अवसाद का छोटा-सा टुकड़ा
यह तकलीफ़ लोकतंत्र से नहीं
उसके अपेन्डिक्स से हो सकती है
सुनते हैं एक मनुष्य भी चौबीसों घंटे मनुष्य नहीं रह पाता
बीच में एक-आध घंटे के लिए हो जाता है अमानुष
तो तय है कि एक अमानुष भी
चौबीसों घंटे नहीं रह सकता अमानवीय
बीच में कुछ देर के लिए हो जाता होगा मनुष्य
इसी आशा में कितने लोग आपको बताते रहते हैं अपने दुख
करते हैं सवाल, भेजते रहते हैं आवेदन नानाप्रकार-
''हम लाखों सालों से इस पृथ्वी के वासी
हम जय श्रमिक, जय किसान
हम सब उठाये जा रहे हैं ठेके पर
हम नहीं छोड़ना चाहते पुरखों की जगह
बस, इतना ही अपराध
हम आए हैं कुछ कहने, सुनो हमारी बात
जब चुनावी सभा और ऑटो एक्सपो के लिए
आवास मेलों और सैकण्ड्स की सेल के लिए
बीच शहर में इस चौराहे पर सबको है जगह
तो हमारे लिए भी होना चाहिए कुछ जगह
ये सब शहर की छाती पर
तान लेते हैं तंबू कीला गाड़कर
जिन्हें सब कुछ हासिल है बिना अनशन
क़ानून है, नियम है, अनुमति है इतनी
कि अगर चले जाते हैं वे दूसरे देश भी
तो उनकी संपत्ति करती है यहाँ शासन
हमारे पास उस जगह का भी पट्टा नहीं
जहाँ रहे चले आते हैं कई सदियों से
आप कहते हैं हम कोढ़ हैं हम खाज हैं
जबकि हम सिर्फ़ दुखी हैं और नाराज़ हैं
थोड़ी जगह दो हमें जहाँ बैठकर कह सकें
हम भी इसी देश इसी गणतंत्र के हैं
आपके निर्माण में हमारी भी कुछ मिट्टी है
कुछ ख़ून है, पसीना है, कुछ नासमझी है
मगर सब तरफ़ लगे हैं बैरिकेड्स
लाठियाँ, पैलेट गन और आँसू गैस
आप धमकाते हैं इस नये राजकाज में
शहर के बीच नहीं हो सकता अनशन
कि हम शहर में पैदा करते हैं दिक़्क़त
दुनिया भर में कर देते हैं बदनामी
और इतना भी नहीं समझते यह जगह है
एक लाख रुपये प्रति स्क़्वायर फ़ुट की
ख़बर दी जा रही है जैसे किया जा रहा है ख़बरदार
बत्तीस मील दूर बनायी गई है अनशन की जगह
फिर भी आए हैं हम यहाँ शहर के बीचों बीच
जानते हैं यही है शहर में अनशन की सच्ची जगह
कहा जा रहा है नहीं, यहाँ नहीं, बिल्कुल नहीं
ज़िलाधीश ने तय कर दी है जो जगह जाएँ वहीं
समझा रहे हैं इनोवा पर लगे लाउडस्पीकर से
जतलाया है फिर हैं दूसरे तरीक़े भी
निवेदन बस इतना है माननीय
अब हम भी समझने लगे हैं काफ़ी कुछ तरीक़े
आवेदन के अंत में आपकी समझाइश के जवाब में
ढीठ सवाल यही है कि अनशन करने
हम भवदीय इतनी दूर कैसे जाएँ
और क्यों जाएँ?''
यह उस अफ़सोस का निशान है
जिसमें हमने अपना सिर पटक दिया था
सामाजिक आपदा है विकट
जिन्हें ठीक से रहना चाहिए जीवित
वे मौक़ा आने पर हड़बड़ाकर ख़ुद ही मरते चले जाते हैं
तो बाक़ी लोगों के लिए कारगर हो जाता है पुराना तरीक़ा
आदमी का पीछा करो, लगातार पीछा करो
उसे महसूस होता रहे, किया जा रहा है पीछा
सड़क पर पीछा करो, नींद में पीछा करो
आधार बनाकर पीछा करो, ऐप लगाकर पीछा करो
और किसी सपने में पकड़ लो रंगे हाथों
बंद कर दो समर्थन के पिंजरे में
कहो, इसे वापस शेर बनाया जा सकता है
लेकिन इसके लिए ज़रूरत होगी दो तिहाई बहुमत की
कुछ लोग मर गए हैं तो इसमें
किसी को डरने की ज़रूरत नहीं
जो लोग मरे हैं वे सुदूर अहिंदी भाषी प्रांत में मरे हैं
अपने जबड़ों की चौकोर हडि़्डयों की वजह से मरे हैं
उनकी मिचमिचाती आँखें भी कुछ कम गुनहगार न थीं
उन पुतलियों में नहीं चमकती थी हमारी विरासत
व्यवस्था किसी के जबड़े
या किसी की आँखें नहीं बदल सकती
परंतु उनसे निजात दिला सकती है
उस राज्य से सरकार को बहुत आशाएँ थीं
मगर वह लगातार जा रहा था घाटे में
करना पड़ा उसका निजीकरण
विनिवेशीकरण की सूचना अख़बार में कल आएगी
दसों दिशाओं से उठती ये आवाज़ें, यह जुलूस, यह क़व्वाली,
यह कावड़, यह संकीर्तन, ये प्रार्थनाएँ हैं जन-गण-मन के लिए
कभी मुसीबत आएगी, ज़लज़ला आएगा, तूफान आएगा
पड़ोस से निकलकर ही आएगा कोई हत्यारा
तो आपको क़ानून नहीं बचाएगा
संविधान नहीं आएगा रक्षा करने
तब आपको हमारा धर्म बचाएगा
कार्यकर्ता बचाएगा, ड्रेस कोड बचाएगा
जो आप दे रहे हैं वह चंदा बचाएगा
सैंसर्ड फ़िल्म को मिले हैं
चालीस नामांकन और सत्ताईस पुरस्कार
बुरे दिनों की अच्छाई है कि वे इंसानों को
दुर्दिनों में भी कई तरह से जीना सिखाते हैं
अब कलाप्रिय कलाकारों को चाहिए कि यथार्थ को
इस तरह पेश करें कि जीवन उतना ख़तरनाक न दिखे
जितना वह दरअसल है
इस तरह वह युग आता है
जब कलाएँ झूठ रखने के लिए
बन जाती हैं सबसे सुरक्षित संदूक
प्रतिरोध के शिल्प में गाये जाते हैं प्रशंसा गीत
मगर राहत है और आफ़त है एक साथ
कि बने रहते हैं कुछ लोग हर काल अकाल में
जो अपनी क़ै में लिथड़कर भी
बकते रहते हैं जुनूँ में न जाने क्या़-क्या
कुछ अभिधा में, कुछ व्यंजना में, कुछ ग़ुस्से में
कुछ व्यग्रता में, कुछ दुस्साहस में
मिलते हैं अनसोचे सीमांतों पर
ज्वालामुखियों के किनारे, अंतिम मुहानों पर
लिखते हैं, बोलते हैं, पुकारते चले जाते हैं
इतनी दूरी तक कि कोहरे में खो जाते हैं
उनकी सुनी-अनसुनी पुकारों में दर्ज हैं
हमारे लोगों के तमाम धोखे, मौक़ापरस्तियाँ और लालच
उन्होंने वहीं लिख दिए हैं दुख और दुखों के कारण
वहीं लिखा है उनका निवारण भी
और जो मारे जा चुके हैं हर पंक्ति, हर पैराग्राफ़ में
हर हिस्से में, हर भाषा, हर एक अध्याय में
यह शोक सभा उन्हीं की है
यही है अग्रिम शोक सभा उनकी भी
जो सोचते हैं कि वे बचे रहेंगे बाक़ी।
०००
कुमार अम्बुज
फ़ुटनोट्स-
गुएर्निका- 1937 में मशहूर चित्रकार पाब्लो पिकासो द्वारा बनायी गई एक युद्ध विरोधी पेंटिंग।
निफ्टी- नेशनल फिफ्टी; नेशनल स्टॉक एक्सचेंज में सूचीबद्ध 50 प्रमुख शेयरों का सूचकांक।
मोत्सार्ट- संसार प्रसिद्ध, अत्यंत प्रतिभासंपन्न, ऑस्ट्रियन संगीतकार।
एन आर- नॉन रेजिडेंट; अनिवासी।
अगस्त सबसे क्रूर महीना है- टी एस एलियट की कविता 'द वेस्ट लैंड' की एक पंक्ति से प्रेरित।
फ्लुऑक्सेटीन- अवसाद के इलाज़ हेतु प्रयुक्त होनेवाली दवा।
ए आई- आर्टिफ़ीशल इंटैलिजैंस; कृत्रिम बुद्धिमत्ता।
ओडेसा स्टेप्स- 1926 की महान फ़िल्म 'बैटलशिप पोटेमकिन' में, यूक्रेन के ओडेसा शहर की सीढि़यों पर,
अपने ही निहत्थे नागरिकों पर गोली चलाने का मर्मांतक दृश्य।
451 डिग्री- फ़ैरनहाइट इकाई में वह तापक्रम जब काग़ज़ अपने आप जलने लगते हैं।
सुलेमान का गीत संदर्भित हिस्सा बाइबिल के एक प्रसंग से प्रेरित।