गुरुवार, 1 जनवरी 2009
डर
लंबे समय के बाद एक बार फिर ब्लॉग पर हूं।
नये वर्ष की शुभकामनाएं।
रिल्के की तमाम सुंदर कविताओं में से यह एक कविता
मनुष्य के मनोजगत के भय और आशंका की दिलचस्प
पड्ताल करती है।
डर
रिल्के
मैं पाँचवी मंजिल पर अपने बिस्तर में लेटा हूँ और मेरा दिन
जिसमें कोई रोक-टोक नहीं है, एक ऐसी घडी के चेहरे की तरह
है जिसके हाथ नहीं हैं। जैसे कुछ जो बहुत पहले खो गया था,
एक सुबह यकायक वापस मिलता है सुरक्षित और सकुशल अपनी
पुरानी जगह पर- जैसा गुम हुआ था उससे भी बेहतर- जैसे इस बीच
कोई उसकी रक्षा करता रहा, इसलिए अब मेरे कंबल पर यहाँ-वहॉं
बचपन की खोई हुईं अनुभूतियॉं हैं- जैसे एकदम नयी और ताजा।
खोये हुए सारे डर भी यहॉं जमा हो गये हैं।
जैसे यह डर कि मेरे कंबल की मगजी में से निकलता हुआ ऊन
का धागा अचानक कठोर हो सकता है, कठोर और नुकीला, जैसे सूई
का सिरा। यह डर कि रात की पोषाक का यह छोटा-सा बटन यकायक
बडा होता चला जायेगा, मेरे सिर से भी बडा और भारी और यह डर
कि बिस्तर से गिरता ब्रेड का यह टुकडा किसी कॉंच में बदलकर फर्श
से टकराते ही चूर-चूर हो जायेगा और यह भयानक चिंता कि ऐसा
होते ही हर एक चीज हमेशा के लिए टूट-फूट जायेगी और यह डर कि
फटे हुए लिफाफे के भीतर चिट्ठी रह जायेगी यों ही अनदेखी, जैसे कोई
बेशकीमती चीज जिसके लिए कमरे में कोई भी जगह महफूज नहीं- यह
डर कि यदि मैं सो गया तो सिगडी के सामने पडा अंगार निगल सकता
हूँ या यह कि कोई संख्या मेरे मस्तिष्क में बढती ही चली जाएगी
जब तक कि मेरे दिमाग के कोने-कोने को न भर दे, और यह डर कि
मैं एक ग्रेनाईट पर, भूरे ग्रेनाईट पर सोया हुआ हूँ या यह डर कि मैं
अचानक चीखना शुरू कर सकता हूँ- लोग दौडे आऍंगे, तोड देंगे मेरे
कमरे का दरवाजा और यह डर कि मैं खुद को ही दे दूँगा एक दिन
धोखा और सब कुछ कह दूँगा- मैं डरता हूँ कि कहीं मैं कुछ भी कहने
लायक न रहूँ क्योंकि सब कुछ अंतत: अकथनीय है- और भी डर हैं-
डर ही डर।
मैंने अपने बचपन को पाने के लिए की थी प्रार्थना और वह वापस
सामने है और उतना ही मुश्किलों से भरा है जितना हुआ करता था-
और आज तक मेरे वयस्क होते जाने का कोई मतलब नहीं रह गया है।
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