रविवार, 27 मार्च 2011

एक तारा टूटने से भी वीरान होता है आकाश

स्मृतिशेष कमला प्रसाद

उन्हें किसी धोखे से ही
खत्म किया जा सकता था


हमारे समय में लेखन, विचार और संगठन की यदि कोई संघीय, गणतांत्रिक और लोकतांत्रिक उपस्थिति है तो कह सकते हैं कि उसका एक प्रमुख स्तंभ गिर गया है।
सातवें दशक से लेकर अब तक प्रगतिशील लेखक संघ के पुनर्निर्माण में, उसे सक्रिय, गतिशील और स्पंदित रखने में कमला प्रसाद का अतुलनीय, असंदिग्ध और अप्रतिम योगदान है। प्रलेसं के प्रति प्रतिबद्धता से विचलन का या उससे विलग होने का किंचित विचार भी उनके मन में कभी नहीं आया। अवांछित आरोपों, मुश्किलों और मोहभंग के कुछ दुर्लभ क्षणों में भी वे इस विवेक को बचाये रखते थे कि संगठन ही सर्वोपरि है। दरअसल, धीरे-धीरे वे अनेक क्षुद्रताओं से ऊपर हो गए थे। उन्होंने अपने काम को, प्रलेसं से अपने जुड़ाव को कभी संकुचित या सीमित नहीं होने दिया और व्यापक वामपंथी लेखकीय एकता का स्वप्न भी देखते रहे।
अविभाजित मध्य प्रदेश के साथ ही पिछले कुछ वर्षों से राष्ट्रीय महासचिव के दायित्वों का निर्वहन करते हुए उन्होंने पूरे भारतवर्ष का दौरा किया और जगह-जगह इकाइयाँ बनाने, अचल को पुनर्जीवित करने का महती काम किया। अपने लेखन की वृहत्तर संभावनाओं और महत्वाकांक्षा को भी उन्होंने सांगठनिक क्रियाशीलता में खपा दिया। कहा ही जाना चाहिए कि यदि उनकी इतनी संलग्नता, सक्रियता न होती तो देश-प्रदेश में प्रलेसं की इतनी इकाइयाँ और हलचल संभव न होती।
यही नहीं, ‘वसुधा’ में लिखे अनेक संपादकीयों, सम्मेलनों-आयोजनों में दिए गए भाषणों, व्याख्यानों से जाहिर है कि उन्होंने वामपंथी, प्रगतिशील-जनवादी विचार को जीवंत रखने का, पक्षधरता बनाये रखने का काम लगातार किया। यह वह पक्ष है जिसे कमला प्रसाद के संदर्भ में अकसर गौण किया जाता रहा है या कम महत्व दिया गया है। उनके लिखे व उच्चरित शब्दों को यदि किसी क्रमवार तरीके से संकलित किया जाए तो उनकी यह भूमिका बेहतर रेखांकित हो जायेगी। इन्हीं सबके बीच आलोचनाकर्म को वे पूरी गंभीरता और सैद्धांतिकी के साथ करते रहे, उनकी आलोचना संबंधी प्रकाशित पुस्तकें और समीक्षाएँ इसका बेहतर साक्ष्य हैं। ‘पहल’ पत्रिका के सहयोगी रहते हुए उन वर्षों में उन्होंने काफी जमीनी काम भी किया।
इधर कमला प्रसाद कमाण्डर, सर, गुरूजी और आचार्य के संबोधनों से जाने जाते रहे यद्यपि इनमें से ‘कमाण्डर’ ही सर्वाधिक लोकप्रिय और सर्वमान्य हो गया था। अद्भुत सांगठनिक क्षमता, अनुशासित आयोजनधर्मिता और नेतृत्वशीलता के कारण उन्हें दिया गया यह संबोधन जैसे किसी बहुमत के अधीन सबको सहज ग्राह्य हो गया था।
उनका एक दुर्लभतम गुण थाः आत्मीय रिश्ते बनाना, पारिवारिकता कायम करना। वे इसे माक्र्सवादी लक्षण की तरह लेते थे। कि संगठन ही विस्तारित, सच्चा परिवार है। उनके व्यवहार में यह सहजता, निश्चलता, उदारता और अपनावा था कि उनसे किसी भी रूप में संपर्क में आये प्रत्येक व्यक्ति को, खासतौर पर लेखक समुदाय को, यह अधिकार हो जाता था कि वह कभी भी उनके घर आ सकता है, खाना खा सकता है और संकट के समय आश्रय भी पा ही सकता है। और वे भी अपने साथियों पर ऐसा अधिकार मानते थे, भले वे कभी-कभार ही इस अधिकार का उपयोग कर पाये हों। वे एक बार बन गये आत्मीय संबंधों को बहुत महत्व देते थे। लेखक साथियों की व्यक्तिगत परेशानियों में खुद को हिस्सेदार बना लेते थे, कई बार तो भोक्ता से ज्यादा वे चिंतित रहते। मैंने उनकी दैनिक कार्यसूची में ऐसे अनेक काम लिखे देखे हैं जो दिल्ली, पटना, मण्डी, गुवाहटी, कालीकट, विदिशा, मुंबई, बिलासपुर, आरा, होशियारपुर या अशोकनगर में रह रहे लेखक साथियों के निजी काम थे। इस संबंध में अपने संपर्कों के उपयोग में कोई संकोच नहीं बरतते थे। वे इन कामों में जुट जाते और असफल रहने पर दुख मनाते लेकिन सफलता का प्रचार नहीं करते थे।
इधर तो यह खूब हुआ कि नयी सामाजिक, राजनैतिक-आर्थिक और नैतिक वंचनाओं, व्यक्तिगत प्रतिबद्धताओं की कमी और निष्क्रियताओं से उपजी भीतरी सांगठनिक असफलताओं का ठीकरा भी कमला प्रसाद के माथे फोड़ दिया जाता। जैसे इस क्षयग्रस्त सामूहिकता के वे व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी हों। जीवन के उत्तरार्द्ध में सर्वाधिक कष्ट उन्हें इसी बात का रहा। उनकी निजी किसी चूक को भी संगठन की भूल की तरह प्रचारित किया गया। लेकिन इस तरह उनके कार्य का, उनकी महत्ता का अवमूल्यन संभव नहीं और मूल्याकंन तो कतई नहीं। उनका अपना प्रतिबद्ध दुःसाहस तो इस हद तक था कि गहन बीमारी में भी वे अभी एक महीने पहले प्रगतिशील लेखक संघ की राष्ट्रीय कार्यकारिणी समिति की बैठक में कालीकट चले गये। उनके संपादन में ‘वसुधा’ पत्रिका लगातार अधिक विचारशीलता और सर्जनात्मकता की तरफ यात्रा कर रही थी।
उनके पास एक बड़े परिवार के भरण-पोषण का जिम्मा था और आर्थिक मोर्चे पर वे ऐसे संपन्न नहीं थे कि बेपरवाही, असजगता या अराजक अव्यावहारिकता से रहा जा सके। समृद्ध, संपन्न और आत्मलीन लोगों ने उनकी इस स्थिति पर भी टिप्पणियाँ करने से गुरेज नहीं किया। लेकिन हम देख सकते हैं कि जीवन और विचार की लड़ाइयाँ उन्होंने सामने से लड़ीं। वे चुपचाप नहीं रहे, उन्होंने जवाब दिए, असहमतियाँ दर्ज कीं, हस्तक्षेप किया, अनंत मित्र बनाए और आवश्यकता लगने पर शत्रु बनाने में भी पीछे नहीं रहे। लेकिन रूठकर किसी कोने में बैठ जाना उनका स्वभाव नहीं रहा, वे हमेशा संवादी रहे। अनेक पीढि़यों को उन्होंने वैचारिक रूप से शिक्षित किया। सर्जनात्मक रचना-शिविरों को संभव किया। अनगिन लेखकों को प्रोत्साहन दिया। वे साथियों पर विश्वास करते थे और साथियों का विश्वास अर्जित करते थे। उन्हें सिर्फ धोखे से खत्म किया जा सकता था। कैंसर ने अपनी विषम अवस्था में यकायक प्रकट होकर, चुपचाप रक्तकोशिकाओं को घेरकर उन्हें धोखे से ही खत्म किया। निजी तौर पर उन्हें बेहद करीब से, दो महीनों में धीरे-धीरे इस तरह जाते हुए देखना एक त्रासद, अमिट, दारुण अनुभव है। दरअसल, हमने सक्रियता और ऊर्जा की दृष्टि से युवकोचित उत्साह के एक साथी को भी खो दिया है। उन्होंने एक कॉमरेड का जीवन चुना, साहित्य के क्षेत्र का वरण किया और उसी में जिये-मरे।
भोपाल में निराला नगर, जहाँ आज अनेक लेखक-पत्रकार रहते हैं, उसकी परिकल्पना और निर्माण में कमला प्रसाद की भूमिका थी, वहाँ जाना अब एक अशेष स्तब्धता और खालीपन को अनुभव करना है। एक की कमी भी बहुवचनीय होती है और कमला प्रसाद के प्रसंग में तो यह बहुगुणित है। ‘एक तारा टूटने से भी वीरान होता है आकाश’, इस पंक्ति को कमला प्रसाद के संदर्भ में याद करना औचित्यपूर्ण तो है लेकिन साथ ही एक व्यापक, असीम दुख के अंतरिक्ष में प्रवेश करना है।
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शनिवार, 12 मार्च 2011

अपमान


अपमान

वह नियमों में शामिल है और सड़क पर चलने में भी

सबसे ज्यादा तो प्यार करने के तरीकों में

वह रोजी-रोटी की लिखित शर्त है

और अब तो कोई आपत्ति भी नहीं लेता

सब लोग दस्तखत कर देते हैं


मुश्किल है रोज-रोज उसे अलग से पहचानना

वह घुलनशील है हमारे भीतर और पानी के रंग का है

वह हर बारिश के साथ होता है और अक्सर हम

आसमान की तरफ देखकर भी उसकी प्रतीक्षा करते हैं


आप देख सकते हैं : यदि आपके पास चप्पलें या स्वेटर नहीं हैं

तो कोई आपको चप्पल या कपड़े नहीं देगा सिर्फ अपमानित करेगा

या इतना बड़ा अभियान चलायेगा और इतनी चप्पलें

इतने चावल और इतने कपड़े इकट्ठे हो जायेंगे

कि अपमान एक मेला लगाकर होगा

कहीं-कहीं वह बारीक अक्षरों में लिखा रहता है

और अनेक जगहों पर दरवाजे के ठीक बाहर तख्ती पर


ठीक से अपमान किया जा सके इसके लिए बड़ी तनख्वाहें हैं

हर जगह अपमान के लक्ष्य हैं

कुछ अपमान पैदा होते ही मिल जाते हैं

कुछ न चाहने पर भी और कुछ इसलिए कि तरक्की होती रहे


वह शास्त्रोक्त है

उसके जरिये वध भी हो जाता है

और हत्या का कलंक भी नहीं लगता।