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बुधवार, 27 मई 2009

धर्म का विकल्‍प: एक पुनर्विचार

अपने सुधि एवं विचारशील साथियो के लिए कुछ वैचारिक लेख इस ब्‍लॉग में दे रहा हूं। ये विभिन्‍नलघु पत्र पत्रिकाओं में समय समय पर प्रकाशित हुए हैं।

सबसे पहले धर्म विषयक‍ आलेख।
प्रस्‍तुत लेख काफी बड़ा है इसलिए इसे चार किश्‍तों में दिया जा रहा है।
यह लेख वसुधा मे प्रकाशित हुआ था।

धर्म के विकल्प की परिकल्पना
चीजों को बहुत विवादास्पद न बनाया जाए और अतािर्कक हठधर्मिता न पाली जाए तो बात कुल एक पंक्ति की है: `धर्म´ का विकल्प `वैज्ञानिक दृष्टिकोण´ हो सकता है तथा `धर्म में विश्वास´ का विकल्प `मनुष्य प्रजाति की ऐतिहासिकता में विश्वास´ में मुमकिन है। लेकिन हम जानते हैं कि मामला इतना सीधा और स्वीकार्य नहीं हो सकता, इसलिए मजबूरी है कि हम `धर्म´ के विस्तार में जाएँ, इक्कीसवीं सदी तक आते-आते उसकी भूमिका, उपयोगिता और स्वभाव पर एक बार फिर दृष्टिपात करें और धर्म की प्रतिक्रियावादी, यथास्थितिवादी, अवैज्ञानिक-अंधविश्वासवादी, अविवेकी प्रकृति को भी देखें ताकि इस प्रक्रिया में `धर्म का विकल्प´ खोजे जाने का औचित्य भी रेखांकित हो सके।


क्षीण संभावना की कौंध

मध्‍यकाल से लेकर आज तक पूरे संसार में धर्म को लेकर, उसकी प्रासंगिकता, उपादेयता, भयावहता, उपकरणवादिता के संदर्भ में अनेकानेक विचार होते रहे हैं किंतु हर बार जनता के बीच `धर्म´ की विजय होती रही है। इक्कीसवीं सदी में भी इस बात की संभावना क्षीण है कि फिलहाल धर्म को किसी आधुनिक, वैज्ञानिक विचारधारा से अपदस्थ किया जा सकेगा। लेकिन यही `क्षीण संभावना´ वह खिड़की भी खोलती है जहाँ से हवा-प्रकाश आ सकता है। इसी क्षीण संभावना में वह कौंध छिपी हुयी है जो हर बुद्धिजीवी, विचारक और अन्वेषी को आकर्षित करती है और सूचना देती है कि `विकल्प का यह विचार´ दुर्निवार नहीं है।


यहाँ उन अनेक प्रगतिशील विचारकों की निराशा को याद करना भी उचित होगा जो धर्म के विकल्प का प्रश्न उठते ही `धर्म की तथाकथित अच्छाइयों´ को याद करने लगते हैं या फिर `धर्म के साथ आधुनिकता जोड़ने, संग-साथ निर्वाह करने´ के सुझाव को विकल्प बताने की कोशिश करते हैं। कहना होगा कि ऐसे लोग धर्म का विकल्प खोजना ही नहीं चाहते। दरअसल उन्होंने स्वयं ही `वैज्ञानिक दृष्टिकोण´, `भौतिकवादी दर्शन´ को इस तरह अर्जित नहीं किया होता है कि वे उसमें असंदिग्ध विश्वास जता सकें तथा गलत को `लगातार और सदैव´ गलत कह सकने का साहस और विवेक दर्शा सकें। इसलिए जब भी यह कहा जाता है कि धर्म का कोई विकल्प नहीं है तब देखना चाहिये कि कहनेवाले ने इस दिशा में सम्यक विचार किया भी है या नहीं। कहीं वह धर्म के दैत्याकार, अपरिमित और अतीव बलशाली रूप को देखकर स्तुति में तो नहीं खड़ा रह गया है। लेकिन यहाँ तक आते हुये हमें याद कर सकते हैं कि हीगेल,मार्क्‍स, बर्टेण्‍ड रसेल ने खासतौर पर और अपनी-अपनी तरह से ड्यूहरिंग, कांट, कोपरनिकस, ब्रूनो, गैलीलियो, न्यूटन, रूसो और डार्विन सहित सैंकड़ों ज्ञात-अज्ञात विचारकों-वैज्ञानिकों- साहित्यकारों ने लगातार और विपुल कार्य हमारे सामने रखा है जिससे धर्म की आलोचना, अत्यंत वैज्ञानिक एवं तािर्कक आधार पर हो सके। इनमें मार्क्‍स, बर्टेण्‍ड रसेल का विमर्श न केवल आधुनिकतम है बल्कि वह इस विमर्श को अनवरत ठोस रूप में आगे बढ़ाये जा सकने की संभावना का मार्ग भी प्रशस्त करता है।


जरूरी है कि चर्चा की जाए कि यहाँ `धर्म´ से हमारा क्या अभिप्रेत है! पहला अर्थ संस्कृत भाषा के परिप्रेक्ष्य में देखें : धर्म `धृ´ धातु से बना है, जिसका तात्पर्य है धारण करना, आलम्बन देना, पालन करना। दूसरा, religion के अर्थ में देखें तो religare शब्द से निकला है जिसका अर्थ है -`बाँधना´। अथाZत यहाँ भी वही अर्थ निकलता है कि ऐसे नियमों के समुच्चय जो धारण किये जाएँ, जिनका पालन किया जाएँ अर्थात् समाज को ऐसे (नैतिक) नियमों से बाँधा जाए जिनका पालन बाध्यकारी हो और समाज का संचालन हो सके।


यहाँ तक धर्म को स्वीकार करने में कोई हर्ज नहीं हो सकता क्योंकि समाज में रहने के कुछ नियम तो बनाये ही जाएँगे (जैसे अभी कानून, नियम, अधिनियम बनाये जाते हैं), ताकि अराजकता न फैले, सामूहिकता सुचारु रूप में संचरित हो सके। तब जाहिर है कि इन नियमों को बदलते समाज, समय और आवश्यकताओं के अनुरूप सहज ही परिवर्तित भी किया जा सकता है। किया जाना चाहिये, क्योंकि जिन्होंने भी धर्म के बहाने ये `नियम´ बनाये, उनमें अपने युग की, उनके निजी ज्ञान की, स्वार्थ, तथा वर्चस्वांकाक्षा की दिलचिस्पयाँ भी सहज शामिल थीं। धर्म के बारे में विस्तार से उपलब्ध आलोचना और बहस से स्पष्ट है कि `धर्म´ के जरिये समाज के वर्ग-विशेष ने अपनी स्थिति निरंकुश बनायी और बहुसंख्यक लोगों पर, खासतौर पर स्त्रियों तथा कमजोर वंचितवर्ग पर शासन ही नहीं किया, उत्पीड़न भी किया। सामान्यजन उन नियमों को `बाध्यतानुसार´ मानते रहें इसलिए `धर्म´ को धीरे-धीरे अलौकिकता, ईश्वरीय आदेश या परम सत्ता से जोड़ा गया।


धर्म ईश्वर से भारित है

`धर्म´ को ईश्वर से जोड़ते ही उसकी लौकिकता प्रभावित हो जाती है, उसका `नैतिक रूप´ एवं `धारण करने योग्य चरित्र´ खंडित हो जाता है क्योंकि तब वह एक अपरिवर्तनीय, सर्वशक्तिमान आदेश के रूप में हमारे सामने प्रस्तुत होता है। जिस पर कोई बहस करना पाप है, अधर्म है और जो सिर्फ स्वीकार करते चले जाने के लिए है। पीढ़ी दर पीढ़ी। एक शताब्दी से गुजरते हुये दूसरी शताब्दी तक। हम यहाँ इसी `धर्म´ की बात करना चाह रहे हैं जो अलौकिक हो चुका है, ईश्वरीय हो चुका है और जाहिर है कि घनघोर अवैज्ञानिक हो चुका है। वह अपने `नैतिक नियमों´ की आकांक्षा और प्रतिज्ञा से ही भटक गया है। उसमें अब एक भी ऐसा लक्षण नहीं बचा है जो `नैतिकता´ में सहज ही होते हैं। यदि फिर भी कहें कि धर्म, धारण करने योग्य नैतिकता का संक्षेप है तो वह नैतिकता कैसे स्वीकार्य हो सकती है जो जड़ हो, अवैज्ञानिक हो, तर्कविरोधी हो, अपरिवर्तनशील हो, अविनाशी हो, अपना औचित्य समाज की सत्ता और मनुष्य की मुक्ति, गतिशीलता और स्वतंत्रता में न खोजती हो। जो सर्वोपरि हो जाना चाहती हो और जिसका अब शब्दकोषीय अर्थ है: Religion- a belief in one or more gods. एवं ब्रिटेनिका विश्वकोष के अनुसार- ^Religion is commonly regarded as consisting of a person's relation to God or to gods or spirits.

'बहुसंख्यक विवेचना और पारिभाषिक विश्लेषण के अनुसार धर्म में तीन तत्व अनिवार्य रूप से पाये जाते हैं: 1.अलौकिक शक्ति के प्रति विश्वास 2.कर्मकाण्ड-पूजापद्धति-अवतार 3.धर्मग्रंथ। यद्यपि पाण्डुरंग वामन काणे ने हिन्दुओं में धर्म को धार्मिक विधियों/क्रियाओं/कर्तव्यों के रूप में ही विश्लेषित किया है। संदर्भ लें - `ऋगवेद की ऋचाओं में धर्म ज्यादातर स्थानों पर धार्मिक विधियों या धार्मिक क्रिया संस्कारों के रूप में प्रयुक्त हुआ है। अथर्ववेद में धर्म शब्द का प्रयोग `धार्मिक क्रिया संस्कार करने से अर्जित गुण´ के अर्थ में है। एतरेय ब्राहम्ण में धर्म शब्द `सकल धार्मिक कर्तव्यों´ के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।´ छान्दोग्योपनिषद, मनुस्मृति, याज्ञवलक्यस्मृति तक आते-आते धर्म के 5 स्वरूप मान लिए गये: वर्णधर्म, आश्रमधर्म, वर्णाश्रम धर्म, नैमित्तिक धर्म ओर राजादि के गुणधर्म (कर्तव्यादि)। इन्हीं आधारों पर धर्मसूत्र (आर्यजाति के सदस्यों के लिए आचार-नियम) बनाये गये, जैसे गौतमधर्मसूत्र, वसिष्ठधर्मसूत्र, कौटिल्य का अर्थशास्त्र आदि-इत्यादि। अर्थात् आर्यजाति के लिए `धर्म का अर्थ´ आचार-विधि का परिचायक, कर्तव्यों, बंधनों का द्योतक है। (धर्मशास्त्र का इतिहास, भाग-1, लेखक: भारत रत्न महामहोपाध्याय डॉ. पाण्डुरंग वामन काणे।)

यहाँ हम इन सूत्रों-स्मृतियों को `नियमों´ का दर्जा दे भी दें तब भी आज विचारशील एवं बहुसंख्यक हिन्दुओं/आर्यजाति को मनुस्मृति सहित तमाम स्मृतियों और धर्मसूत्रों के ये नियम मान्य नहीं हैं, न ही हो सकते हैं क्योंकि इनमें वर्ण के आधार पर उच्चवर्णों का भारी पक्ष लिया गया है तथा शूद्रों (दलितों) और स्त्रियों को वंशानुगत रूप से जन्मना ही प्रताड़ित कर दिया गया है। इनमें अनेकानेक मानवविरोधी लक्षण विद्यमान हैंं। यहाँ इसके विवरण में न जाते हुये यह कहना पर्याप्त होगा कि `धर्म´ के नाम पर ये आचार-नियम ब्राहम्णों/उच्चवर्णों की तानाशाही और वर्चस्व बनाये रखने की संहिताओं के अलावा कुछ नहींं हैं और इन्हें कतई नैतिक-नियम नहीं कहा जा सकता क्योंकि अपनी प्रकृति और आकांक्षा में इनसे अधिक अनैतिक कुछ नहीं हो सकता। आधुनिक विचारकों ने, राजनीतिज्ञों ने इन वैदिक नियमों का खुला विरोध भी इसलिए किया है क्योंकि ये सामाजिक अन्याय के जनक और पोषक हैं।
यहाँ डॉ. वामन काणे इस पक्ष की उपेक्षा कर देते हैं कि इन आचार-संहिताओं में तमाम कर्मकाण्डी पद्धतियों का समावेश है और इन्हें भी अंतत: ईश्वरीय आदेशों और भगवत् इच्छा से जोड़ा गया था ताकि उनका पालन कराने में कोई व्यवहारिक कठिनाई न हो तथा राज्य (state) को नागरिक-विवेक की जगह पुरोहितीय सुविधा से चलाया जा सके एवं अभिजात्य और शासकवर्ग को चुनौती न दी जा सके।
इस तरह हमारे सामने संसार का जो भी `धर्म´ उपस्थित है वह ईश्वर या अलौकिकता और परमसत्ता से भारित (loaded) है। इसी ओट में वह नियंत्रक, परम, निरंकुश और शक्तिमान होता है। यहाँ एँगेल्स को याद करें तो `हर प्रकार का धर्म, मनुष्यों के दिमागों में उन बाह्य शक्तियों के काल्पनिक प्रतिबिंब के अलावा कुछ नहीं है जो उनके दैनिक जीवन को शासित करती हैं। इस प्रतिबिंब में पार्थिव शक्तियाँ, अलौकिक शक्तियों का रूप धारण कर लेती हैं।´ अस्तु अब कोई भी धर्म मूल अर्थों (अर्थात धारण करने योग्य आचरण) में `धर्म´ नहीं है क्योंकि वह `नागरिक या मानवमात्र के लिए´ नैतिक नियमों को प्रस्तावित नहीं करता, अपितु वह अपने अनुयायी समाज के लिए महज धार्मिक क्रियाओं, अंधविश्वासों, प्रदर्शनों, धार्मिक संस्कारों एवं कर्मकाण्डों की रक्षा करने में जुटा हुआ है और अलौकिक सत्ता से `लोडेड´ है। हमारा आशय इसी धर्म से है। यहाँ, जहाँ भी `धर्म´ शब्द का प्रयोग है, वह धर्म के इसी आशय और संदर्भ में है। `धर्म´ के इसी स्वरूप ने आज प्रत्येक मानवसमाज को नानाप्रकार के रोगों से घेरकर रखा है और सत्ताधारी, पूँजीपति, अधिनायकवादी, धार्मिक नेतृत्व कर रहे लोग इस धर्म का उपयोग जनता को तमाम अंधविश्वासों में बनाये रखकर, उसके शोषण में करते चले आ रहे हैं।
धर्म के खिलाफ होने, उसे अपदस्थ करने या उसका विकल्प खोजने के प्रयास हेतु अनेक कारण हैं। जैसे वह पिछड़े, सामंती समाज का अग्रदूत और सखा है, निरंकुश है, आलोचना के विरुद्ध है, यथास्थितिवादी, अवैज्ञानिक, अंधविश्वासी है, वह ईश्वर-भारित होकर मानव समाज को खास तरह से अशिक्षित, नियतिवादी और मनुष्यविरोधी बनाये रखने में अपनी अग्रणी भूमिका निबाहता है। (यह किस हद तक मानवविरोधी बनाता है इसके लिए केवल यह विख्यात तथ्य पर्याप्त होगा कि संसार में तमाम युद्धों में जितने लोग मारे गये हैं, उससे कई गुना अधिक मनुष्य धर्मयुद्धों या धार्मिक विद्वेष के झगड़ों-फसादों में मारे गये हैं।) लेकिन धर्म के खिलाफ, जैसा कि हम जानते हैं, महत्वपूर्ण आरोप यह है कि वह समतावादी, न्यायवादी, मानवतावादी, लोकतंत्रवादी और शोषणरहित समाज के निर्माण में सबसे बड़ी बाधा है। यह एक अकेला आरोप ही इतना संगीन है जिसका सुस्पष्ट निष्कर्ष है कि `धर्म´ के रहते मानव की सच्ची मुक्ति संभव नहीं। मनुष्य की स्वतंत्रता मुमकिन नहीं।
`धर्म´ अंतत: ईश्वरीय या परमसत्ता की संरचना, आदेश, अपेक्षित नैतिकता, उपदेश आदि के रूप में ही प्रस्तुत किया गया है। धर्म में जो भी संशोधन हुये, (जैसे हिन्दू धर्म में बुद्ध या जैन), वे भी कालांतर में ईश्वर या अवतारों की ओर से किये गये संशोधन मान लिए गये और उनका हश्र भी वही हुआ जो प्रारूपिक (typical) `धर्मों´ का हो सकता है। (हालाँकि वामन काणे सहित अन्य विद्वानों के अध्ययन को केंद्र में रखकर देख सकते हैं कि हिन्दू धर्म अपने प्रारंभ में ईश्वराधारित नहीं था बल्कि समाज पर नियंत्रण करने के प्रभुत्वशाली (ब्राह्मणवगाZदि) लोगों द्वारा बनायी गयी आचरणपद्धति थी जो इस वर्ग को असीम ताकत देती थी, निरंकुश बनाती थी और आमबहुजन समाज को, स्त्रियों को, यंत्रणापूर्ण, दासतापूर्ण जीवन की ओर धकेलती थी। एक तरह से यह राजकीय स्तर की, उत्पीड़न को मान्यता देती हुयी समानांतर शासन व्यवस्था थी। लेकिन भविष्य में इसका बने रहना तब ही संभव था जबकि इसे ईश्वरीय आदेश से जोड़ दिया जाएँ ऐसा ही किया गया, खासतौर पर जब बौद्ध धर्म ने इसमें संशोधन और तत्संबंधी प्रतिरोध किया। तब श्रीमद्भगवत् गीता प्रकाश में आती है और वह आज के हिन्दू धर्म का मार्गदशीZ धार्मिक ग्रंथ है। यह ग्रंथ सीधा विष्णुअवतार कृष्ण के मुख से निसृत हुआ है और इसलिए ईश्वरीय आदेश है। अत: अब यह कहना कि हिन्दू धर्म सिर्फ एक जीवनप्रणाली है अथवा आचरण प्रणाली है, एक अधूरा, पुराना और गलत बयान है।)
अतएव हिन्दू धर्म सहित, संसार के प्रत्येक धर्म में न केवल ईश्वर या अवतार या पैगम्बर की उपस्थिति एक प्रमुख तत्व है बल्कि वह इसी कारण अपरिवर्तनीय भी है। उसमें किसी तरह का संशोधन, पहली बात तो लगभग नामुमकिन है, क्योंकि उसके अनुयायी ऐसा करने ही नहीं देंगे और यदि किसी तरह वह संशोधन हुआ भी तो एक नया धर्म सामने आ जाएगा, जिसमें संशोधनकर्ता को पैगम्बर या अवतार की मान्यता मिलेगी और इस तरह वह भी उतनी ही समस्याओं तथा बुराइयों से लैस होगा, जितना कोई भी धर्म हो सकता है। विस्तार से यह बात इसलिए कि धर्म में परिवर्तन या सुधार करने की बात बेमानी है, ढोंग है, नासमझी है। धर्म का निषेध ही किया जाना चाहिये और उसकी जगह व्यापक, विवेक सम्मत, तािर्कक, न्यायपूर्ण दृष्टि को मिलना चाहिये। कह सकते हैं कि यह दृष्टि `वैज्ञानिक दृष्टिकोण´ के रूप में उपलब्ध है।

शेष अगली किश्‍तों में