बुधवार, 25 जून 2014

पिछले साठ वर्षों से हिंदी कविता का स्थायी मिज़ाज जन-पक्षधरता का रहा है



श्री विष्‍णु खरे द्वारा लिखित 'प्रतिनिधि कविताऍं' की भूमिका के कुछ अंश, जिनमें पिछले कुछ वर्षों की हिंदी कविता का एक जायजा शामिल है। शायद यह रुचिवान पाठकों को दिलचस्‍प लगेगा।

1970 तक यह लगभग तय हो चुका था कि हिंदी कविता की प्रासंगिक (चाहें तो उसे ‘प्रमुख’ या ‘केन्द्रीय’ भी कह लें) धारा मुक्तिबोध की आधारभूत प्रतिबद्ध चराचर चेतना, अधुनातन वैचारिकता, वैज्ञानिक ब्रह्मांडीय मीमांसा तथा रघुवीर सहाय के दैनंदिन, ज़मीनी, जन-पक्षधर राजनीति-बोध से मिलकर ही बनेगी, यद्यपि दोनों में निजी जीवन-तत्व भी कम महत्वपूर्ण नहीं हैं. बेशक़ इसमें सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, नागार्जुन, शमशेर बहादुर सिंह, भवानी प्रसाद मिश्र, त्रिलोचन आदि का न्यूनाधिक योगदान भी स्पष्ट देखा जाएगा और जो समर्थ युवतर कवि ‘चाँद का मुँह टेढ़ा है’ (मुक्तिबोध,१९६४) और ‘आत्महत्या के विरुद्ध’ (रघुवीर सहाय,१९६७) के आसपास उस मुख्यधारा से जुड़े वे भी अपने तब तक के अनुभवों और प्रतिभा से उसमें कुछ निजी और नया जोड़ पाए. स्वयं रघुवीर सहाय ने 1980 तक अकुंठ-भाव से पहचान लिया था कि उनके सिलसिले में, भले ही कुछ अलग, एक कनिष्ठ पीढ़ी काव्य-परिदृश्य पर आ चुकी है.

इस युवतर पुश्त ने शायद यह समझ लिया था कि कविता का दायरा अब उत्तरोत्तर फैलता ही जाएगा – उसे अंतर्राष्ट्रीय राजनीति, विचारधारा और कविता का भी वह समुत्सुक और समझदार अहसास था जो उससे पहले हिंदी में उतना कभी नहीं था – और एक प्रतिबद्ध विवेकशील विश्व-बोध के अंतर्गत वह एक साथ ‘सभी कुछ’ की और ‘अभी की नहीं तो कभी की नहीं’ कविता होती चली जाएगी. इस कविता के लिए किंचित् नई भाषा,शैली और शिल्प की दरकार होगी और सभी जड़-चेतन को, सम्पूर्ण सृष्टि को देखने का मानस-विन्यास भी न्यूनाधिक बदलना होगा – बल्कि नई स्थिति में यह सब स्वयं बदलते जाएँगे. इस प्रक्रिया में वह पहले कभी मुक्तिदायिनी समझी गई किन्तु अब कभी-कभी अवरोधक ‘पद्यात्मकता’ के बंधों को खोलती हुई एक जोखिम-भरी लेकिन सर्वसुलभ ‘आभासी’ ‘गद्यात्मकता’ तक पहुँच जाया करेगी.

यदि कहा जा रहा है कि ब्रह्मांड भी एक नहीं, अनेक हैं तो कविता को भी अपनी नई-नई समष्टियाँ खोजनी-बनानी-उच्चारनी होंगी – सिर्फ दो चीज़ें नहीं बदलेंगी, बदलने नहीं दी जाएँगी – सारी कायनात में जो श्रेयस्कर है उसे सर्वथा बचाने में सहयोग और जो कुछ भी उसे नष्ट करना चाहे उसे पूरे पूर्वाग्रह के साथ नष्ट कर डालने का समर्थन. 1964-67 के बीच मुक्तिबोध और रघुवीर सहाय के कारण हिंदी कविता ने जो सघन एजेंडा हासिल किया, 1970 के दशक की पीढ़ी ने उसका लगभग कल्पनातीत, किन्तु अधिक व्यावहारिक, अनुप्रयोज्य विस्तार करना शुरू किया और कविता की जिम्मेदारियों को हमेशा के लिए अभिव्यक्ति के सभी खतरे उठाने की अप्रत्यावर्ती सीमाओं तक पहुँचा दिया; इस तरह आज मौजूद सारी प्रासंगिक कवि-पीढ़ियों के सामने जहाँ सृजनशीलता के अक्षुण्ण संसार खोल दिए गए, वहीं सार्थक, प्रतिबद्ध, उत्कृष्ट कविता लिख पाना एक चुनौती-भरा उपक्रम बन गया. इस दुनिया में प्रवेश सब का था, शर्त सृजन-संकल्प और अपनी जगह खुद खोजने-बनाने की थी.

जब हम यह कहते हैं कि 1980 के दशक के युवा कवियों को मुक्तिबोध-रघुवीर सहाय-1970-79 की कविता उपलब्ध थी तो हम यह भी मान रहे होते हैं कि उनका परिचय प्रत्यक्ष या परोक्ष, गंभीर या सरसरी तौर पर 1950-60-70 के दशकों की वृहत्तर कविता से भी रहा होगा. यह तीस वर्ष सहज ही आधुनिक हिंदी काव्य के सर्वाधिक महत्वपूर्ण, केन्द्रीय वर्ष कहे जा सकते हैं जिनमें मैथिलीशरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी, जयशंकर प्रसाद को छोड़कर तीनों बड़े ‘छायावादी’, तीनों सप्तकों के सारे कवि, अनेक क्लासिकल और नव-प्रगतिवादी कवि, राष्ट्रवादी और स्वच्छंदतावादी कवि, ’नई कविता’ के कवि,’ आधुनिकतावादी’ कवि, ’नवगीतात्मकतावादी’ कवि, ’अकविता’ के कवि, अनेक प्रकार के ‘मंचीय’ कवि, सक्रियतावादी वामपंथी कवि और फिर उपरोक्त ’70 की दहाई के अपेक्षाकृत युवा कवि, अपनी-अपनी प्रासंगिकताओं-अप्रासंगिकताओं के साथ, कभी एक ही अवधि में कभी अलग-अलग, कभी समूहों में कभी व्यष्टिक, मौजूद थे. यूँ तो कोई भी ‘दशक’ किसी भी पंचांग, तिथि और घड़ी से सुनिर्धारित नहीं होता, फिर वह पिछले ‘दशक’ का ‘विस्तार’ और आगामी ‘दशक’ का ‘स्रोत’ ही होता है, यानी जब तक कोई असंदिग्ध एलियटीय ‘संवेद्यता-विच्छेद’ (‘डिसोसिएशन ऑफ़ सेंसिबिलिटी’) न हो तब तक सारी कथित समय-अवधियाँ अलग लगती हुई भी एक-दूसरी से गुँथी हुई ही होती हैं, फिर भी उपरोक्त तीस वर्षों का कविता- काल-खंड, सब कुछ के बावजूद, हैमिंग्वे के पैरिस-जैसा “मूवेबिल फ़ीस्ट” था, जब, वर्ड्सवर्थीय शब्दों में, “ब्लिस इट वाज़ इन दैट डॉन टु बि अलाइव, बट टु बि यंग वाज़ वैरी हैवन !”

काव्यलोक का विस्तार और वैविध्य ‘निराला’, शमशेर, भवानीप्रसाद, त्रिलोचन, मुक्तिबोध और रघुवीर सहाय में अलग-अलग मिज़ाज और मात्रा का है लेकिन उनमें से ‘निराला’ और शमशेर ने अपेक्षाकृत संकोचहीनता से अपने निजी ब्यौरों,  हताशाओं,पराजयों को छिपाया नहीं, उनकी तरसप्रेरक नुमाइश नहीं की – औरों ने भी नहीं की – क्योंकि उन्होंने स्वयं को अवतार-पुरुष या अतिमानव नहीं बल्कि आम इंसान ही बताया. काव्य में वैविध्य केवल बाह्य का नहीं, आंतरिक या ‘आत्म’ अथवा ‘स्व’ का भी है और यह मात्र कोई आध्यात्मिक योगमुद्रा नहीं है, इसका वास्ता बहुत ‘सांसारिक’ मनोलोक से है. संस्कृत का कवि तो निर्वैयक्तिक है, वह अपने जीवन, मनोलोक, भावनाओं की बात तो दूर, अपना नाम तक सार्वजनिक करने में संकोच करता है. उसने एलिअट से सदियों पहले व्यक्तित्व-विलोपन कर रखा था. अपनी विचारधारा, आस्था, पक्षधरता, विद्रोह, जय-पराजय, परिवेश, अपराध-बोध, आत्मकथा के ब्यौरे आदि हिंदी में पहली बार इतने दो-टूक और निस्संकोच रूप से शायद कबीर में आते हैं, कुछ मीरा में, आंशिक रूप से तुलसीदास के मानसेतर काव्य में और उसके बाद इतनी शिद्दत से ‘निराला’ में. फिर हिंदी कविता अनेक तरीकों से अपने निजी संघर्षों को भी मुखरित करने की सारी पर्दादारी तर्क कर देती है. उर्दू शाइरी का एक हिस्सा हमेशा-से इकबालिया रहा है लेकिन हिंदी में बाकायदा वैसा हुए अभी सौ बरस भी नहीं हुए हैं. अब हिंदी कवि सिर्फ खुद को नहीं देखता बल्कि अपने निकटतम परिवार,मित्रों,परिचितों-अपरिचितों, पहले और आख़िरी बार मिल या दिख जानेवालों, सजीव-निर्जीव वस्तुओं-प्राणियों,घटनाओं,स्थितियों ’स्टिल लाइफ़’ – गोया जितनी भी मुमकिन हो उतनी दुनिया - को अपनी कविता में जगह और ज़ुबान देने लगता है. यह प्रक्रिया,जो ‘मैक्रो’ और ‘माइक्रो’ दोनों स्तर पर है, ’70 के दशक से कविता को अधिकाधिक लोकतंत्रीय और वैश्विक बनाने लगती है और वाक़ई सिद्ध कर देती है कि कविता के क्षेत्र में प्रबुद्ध और प्रतिबद्ध कवि के लिए कुछ भी और कोई  भी वर्जित, ’आउट ऑफ़ बाउन्ड्स’ नहीं है. ब्रह्माण्ड में कुछ भी अकाव्यात्मक नहीं है – जो कविता में है वही बाहर है और जो कविता में नहीं है वह कहीं नहीं है. कविता में वर्ग-व्यवस्था, वर्ण-व्यवस्था, जाति-भेद, लिंग-भेद, धर्म-भेद नष्ट होने लगते हैं.

पिछले साठ वर्षों से हिंदी कविता का स्थायी, अभिभावी मिज़ाज जन-पक्षधरता का रहा है, भले ही अधिकांश कवि पार्टी-या यूनियन-सदस्य न हों न होना चाहें, न क्लासिकल या नव-मार्क्सवाद पढ़े हों, बल्कि कुछ  पढ़ना भी न चाहते हों – एक आधारभूत साम्यवाद तो हमेशा मानवता में रहा है और रहेगा - यहाँ तक कि उनमें से कुछ को अलग-अलग कारणों से मार्क्स और मार्क्सवादियों से एक स्वस्थ नफ़रत हो या वे उन्हें कुछ कुतूहल और परिहास-भाव से देखते हों. इसका एक कारण तो यही है कि अधिकांश घटिया पत्रिकाओं में और सभी परिवारों के वामपंथी लेखक-संघों में धूर्त, मौक़ापरस्त, छद्म, कैरिअरवादी और शुद्ध मूर्ख मार्क्सबाज़ पापे छा गए. इनमें अकादमिक ग़ैर-अकादमिक ‘आलोचक’ भी घुस गए हैं. ज़ाहिर है लेखन भी इन ढोंगियों से बचा न होगा. लेकिन साहित्य में अब भी कुछ ऐसा है, और इसकी तफ़्तीश और विश्लेषण बहुत मनोरंजक  हो सकते हैं, कि जो ‘होक्स’ और ‘फ्रॉड’ हैं वे भी जानते-मानते हैं कि कौन असली है और कौन उनकी (व्यापक) बिरादरी का. मेरा हमेशा यह मानना रहा है कि कलाकार के रूप में आप अपना सर्वोत्तम और मार्क्सवादी के रूप में अपना क्रूरतम नैतिक देने की महत्तम कोशिश नहीं करते तो आप न तो सही आर्टिस्ट हैं न सही मार्क्सिस्ट.