नरेन्द्र जैन की कविताऍं
अभी आधार प्रकाशन,एस सी एफ 267, सेक्टर 16, पंचकूला, 134 113 हरियाणा से वरिष्ठ कवि नरेन्द्र जैन का सातवां कविता संग्रह 'चौराहे पर लोहार' प्रकाशित हुआ है। मध्यम और निम्नवर्गीय जीवन के दैनिक प्रसंगों से नरेन्द्र जैन की कविता अपना उत्स ग्रहण करती रही है। आज जब हिन्दी कविता का अधिकांश कलावाद को प्रगतिशील मुखौटे और अभिनय के साथ अपने भीतर सुखद जगह देने में व्यस्त दिखता है और उस कविता से अपने समाज और वृहत्तर यथार्थ की दृश्यावली लगभग विलुप्त है, नरेन्द्र जैन उन थोड़े से कवियों में हैं जिनकी कविता वंचित, उपेक्षित और असहाय वर्ग के लोगों को, उनके कार्य व्यापार को, विडंबनाजन्य और विवश फाकामस्ती को जगह देती है। भूमण्डलीकरण को वे अपने कस्बे के भूखण्ड में घट रही घटनाओं के माध्यम से चिन्हित करते हैं। उनकी कविता एकवचनीय स्थानीयता को बहुवचनीय विपुलता से भर देती है और विशाल कांपती हुई परिधि को जैसे केन्द्रीयता प्रदान करती है। नरेन्द्र अपने चिर परिचित मुहावरे में ही अपनी बात कहते आ रहे हैं,कथ्य की विविधता पर ही उन्हें कहीं अधिक विश्वास है बजाय शिल्पाश्रित होने के।
इस संग्रह से शीर्षक कविता सहित दो कविताऍं, यहॉं।
चौराहे पर लोहार
विदिशा का लोहाबाजार जहॉं से शुरू होता है
वहीं चौराहे पर सड़कें चारों दिशाओं की ओर जाती हैं
एक बॉंसकुली की तरफ
एक स्टेशन की तरफ
एक बस अड्डे
और एक श्माशनघाट
वहीं सोमवार के हाट के दिन
सड़क के एक ओर लोहार बैठते हैं
हँसिये,कुल्हाड़ी,सरौते
और खुरपी लेकर
कुछ खरीदने के लिए हर आने-जानेवाले से
अनुनय करते रहते हैं वे
शाम गये तक बिक पाती हैं
बमुश्किल दो-चार चीजें
वहीं आगे बढ़कर
लोहे के व्यापारी
मोहसीन अली फखरुद्दीन की दुकान पर
एक नया बोर्ड नुमायां है
'तेज धार और मजबूती के लिये
खरीदिये टाटा के हँसिये'
यह वहीं हँसिया है टाटा का
जिसका शिल्प वामपंथी दलों के चुनावी
निशान से मिलता जुलता है
टाटा के पास हँसिया है
हथौड़ा है, गेहूँ की बाली और नमक भी है
चौराहे पर बैठे लोहार के पास क्या है
एक मुकम्मिल भूख के सिवा।
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विदिशा डायरी सीरीज से नवीं कविता
जिन घरों में बड़े भाई की कमीज
छोटे भाई के काम आ जाती है
इसी तरह जूते, चप्पल और पतलून तक
साल दर साल उपयोग में आते ही रहते हैं
वे कभी कभार आते हैं बांसकुली
पतलून कमर से एक इंच छोटी करवाने
या घुटने पर फटे वस्त्र को रफू करवाने
अक्सर इन घरों में यदि पिता हुए तो
वे बीसियों बारिश झेल चुकी जैकिट पहनते हैं
और फलालैन की बदरंग कमीज
जिन्हें सूत के बटन भी अब मयस्सर नहीं होते
रफूगर की दुकान से
दस कदम आगे रईस अहमद
पुराने वाद्ययंत्रों के बीच बैठे
क्लेरनेट पर बजाते रहते हैं कोई उदास धुन
यह धुन होती है कि
अपने चाक वक्त को रफू कर रहे होते हैं वे।
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