गुरुवार, 30 अक्टूबर 2008

आज की रात लिख सकता हूं मैं

पॉब्‍लो नेरुदा की 20 प्रेम कविताओं में से इस कविता के संसार में अनेक भाषाओं में अनगिन अनुवाद हुए हैं। हिन्‍दी में ही इसके कम से कम दस से अधिक अनुवाद किए गए हैं। इससे जाहिर है कि यह कविता अछोर व्‍यंजना, प्रेम, उदासी और हार्दिकता से भरी है। यह कविता बता सकती है कि कविता का अनुवाद नहीं, उसका पुनर्लेखन ही संभव होता है। बहरहाल।

सबसे उदास पंक्तियॉं
पाब्लो नेरुदा

आज की रात लिख सकता हूँ मैं सबसे उदास पंक्तियाँ।

लिख सकता जैसे- यह तारों भरी रात है
और तारे नीले हैं सुदूर और कांपते हैं।

रात की हवा चक्कर खाती है आसमान में और गाती है।

आज की रात मैं लिख सकता सबसे उदास पंक्तियाँ
मैंने उससे प्यार किया और कभी-कभी उसने भी मुझे प्यार किया।

ऐसी आज की तरह की रातों में वह मेरी बाहों में रही
मैंने उसे अनंत आकाश के नीचे बार-बार चूमा।

उसने मुझे प्यार किया, कभी-कभी मैंने भी उसे प्यार किया
आखिर कोई उसकी सुंदर निश्चल आखों को प्यार कैसे न करता।

आज की रात मैं लिख सकता सबसे उदास पंक्तियॉं
यह ख्याल करते हुए कि अब वह मेरे पास नहीं
यह सोचते हुए कि मैंने उसे खो दिया।

इस असीम रात को सुनते हुए, जो उसके बिना और असीम है
और कविता गिरती है आत्मा पर जैसे घास पर ओस।

क्या हुआ जो मेरा प्रेम उसे रोक नहीं पाया
यह तारों भरी रात है और वह मेरे साथ नहीं है।

बस। दूर कोई गा रहा है। बहुत दूर।
मेरी आत्मा बेचैन है कि वह मुझसे खो गयी।
मेरी निगाह उसे खोजती है कि उसे मैं पास ला सकूँ
मेरा हृदय उसके लिए विकल है, और वह मेरे साथ नहीं है।

वैसी ही रात उसी तरह, उन्हीं पेड़ों को चाँदनी का बना रही है
हम ही, जैसे थे, अब वैसे नहीं रह गए हैं।

तय है, अब मैं उसे प्यार नहीं करता, मगर मैंने उसे कितना प्यार किया।
मेरी आवाज उस हवा को खोजती है कि उसकी आवाज को छू सके।

किसी और की। वह किसी और की होगी।
जैसे पहले वह मेरे चुंबनों के लिए थी।
उसकी आवाज। उसकी उज्जवल देह। उसकी वे असीम आँखें।

सच है कि अब मैं उसे प्यार नहीं करता
पर मुमकिन है कि अब भी करता होऊँ
प्रेम इतना ही संक्षिप्त होता है और विस्मृति में इतना लंबा वक्त।

ऐसी ही रातों में भरता रहा मैं उसे बाहों में
मेरी आत्मा अशांत है कि उसे मैंने खो दिया।

मुमकिन है कि यह आखिरी वेदना है जो वह मुझे दे रही है
और मुमकिन है, ये आखिरी पंक्तियाँ हैं जो मैं उसके लिए लिख रहा हूँ । 00000

शुक्रवार, 24 अक्टूबर 2008

सब तुम्हें नहीं कर सकते प्यार

यह मुमकिन ही नहीं कि सब तुम्हें करें प्यार
यह जो तुम बार-बार नाक सिकोड़ते हो
और माथे पर जो बल आते हैं
हो सकता है किसी एक को इस पर आए प्यार
लेकिन इसी वजह से ही कई लोग चले जाएंगें तुमसे दूर
सड़क पार करने की घबराहट खाना खाने में जल्दबाजी
या ज़रा-सी बात पर उदास होने की आदत
कई लोगों को तुम्हें प्यार करने से रोक ही देगी

फिर किसी को पसंद नहीं आएगी तुम्हारी चाल
किसी को ऑंख में ऑंख डालकर बात करना गुज़रेगा नागवार
चलते-चलते रुक कर इमली के पेड़ को देखना
एक बार फिर तुम्हारे खिलाफ जाएगा
फिर भी यदि तुमसे बहुत से लोग एक साथ कहें
कि वे सब तुमको करते हैं प्यार तो रुको और सोचो
यह बात जीवन की साधारणता के विरोध में जा रही है
देखो, इस शराब का रंग नीला तो नहीं हो रहा

यह होगा ही
कि तुम धीरे-धीरे अपनी तरह का जीवन जीओगे
और अपने प्यार करने वालों को
अजीब मुश्किल में डालते चले जाओगे

जो उन्नीस सौ चौहत्तर में और जो उन्नीस सौ नवासी में
करते थे तुमसे प्यार
उगते हुए पौधे की तरह देते थे पानी
जो थोड़ी-सी जगह छोड़ कर खड़े होते थे कि तुम्हें मिले प्रकाश
वे भी एक दिन इसलिए दूर जा सकते हैं कि अब
तुम्हारे होने की परछाईं उनकी जगह तक पहुँचती है

तुम्हारे पक्ष में सिर्फ यही उम्मीद हो सकती है
कि कुछ लोग तुम्हारे खुरदरेपन की वज़ह से भी
करने लगते हैं तुम्हें प्यार

जीवन में उस रंगीन चिडिया की तरफ देखो
जो किसी एक का मन मोहती है
और ठीक उसी वक्त एक दूसरा उसे देखता है
अपने शिकार की तरह।
0000

सोमवार, 20 अक्टूबर 2008

मेरी हँसी में मेरे पिता की हँसी शामिल है।


'पहल-71' में जो डायरी प्रकाशित हुई थी, उसमें से यह एक अंश यहाँ दे रहा हूँ। इसमें केवल एक पंक्ति अभी तीन महीने पहले और शामिल हुई है। शायद यह दिलचस्‍प लगे।

मेरी हँसी में मेरे पिता की हँसी शामिल है।
27-06-98
रचनाशीलता में मौलिकता एक तरह का मिथ है।

जिस तरह एक मौलिक मनुष्य असंभव है उसी तरह एक मौलिक रचना नामुमकिन है। मौलिकता एक अवस्थिति भर है। (जैसे शतरंज के चौसठ खानों में बत्तीसों या कम ज़ादा मोहरों के रहते, तमाम स्थितियॉं बनती-बिगड़ती रह सकती हैं और एक मोहरा इधर-उधर करने से भी एक नितांत नई अवस्थिति बन जाती है।) एक दी हुई दुनिया है जिसमें आपको अपनी एक दुनिया को जन्म देना है। अपनी अवस्थिति का निर्माण करना है। दी हुई दुनिया का अतिक्रमण भी करना है। यही रचनाशीलता है। यह अवस्थिति मौलिकता है।

सर्जक अपनी रचनाशीलता में कुछ ऐसा ही करते हैं कि एक मोहरे को, कुछ मोहरों को इस तरह रखते हैं कि वह एक नया संयोजन हो जाए। पूरा जीवन विस्तृत खानों से भरा संसार है। शब्द मोहरे हैं। विचार, संयोजन की आधारशिलाऍं हैं। कारक हैं। गणित में संख्याऍं हैं। उनसे असीमित संभावनाओं को, अनगिन संयोजनों को जन्म दिया जाना संभव है। वह सब कुछ अगण्य है। इस सब कुछ में से रचनाकार अपनी सर्जनात्मकता के जरिए, एक परिप्रेक्ष्य देता है। यह परिप्रेक्ष्य कुछ हद तक `मौलिकता´ जैसा समझा जा सकता है।

मेरी हँसी में मेरे पिता की हँसी शामिल है। मेरी चाल में मेरे पितामह हैं। और मेरी जल्दबाजी मुझे मेरे नाना से मिली है। यही मेरी मौलिकता है। एक नया संयोजन। मैं इसमें कुछ अपनी तरफ से भी जोड़ रहा होउँगा। जिसके बारे में यह दावा भी हास्यास्पद होगा कि वह वस्तुत: सिर्फ मेरा ही है। लेकिन उससे एक नयी अवस्थिति बनती है। यह मौलिकता का मिथ है।

अवयव मौलिक नहीं हो सकते। वे हमारे माध्यम के हिस्से हैं। संयोजन नया हो सकता है। तथाकथित मौलिकताऍं यदि कुछ हैं भी तो वे समाज में, जीवन में बनती हैं, साहित्य में उनकी छायाओं को दर्ज भर किया जा सकता है। इसी सब के बीच रचना की कोई मौलिकता, यदि वह वाकई हो सकती है तो, छिपी हो सकती है। यही सर्वाधिक नैसर्गिक है। एक रचनाकार सबका कर्ज़दार होता है। उसके आसपास की हर जीवित-अजीवित चीज का। दृश्य-अदृश्य का। वही उसकी पूँजी है। कर्ज की पूँजी मौलिक नहीं होती। और यह पूँजी समाज में लंबे कालखंड से विद्यमान है। उसके निवेश और उसके उपयोग का तरीका अलग हो सकता है। यही मौलिकता का मिथ है।

मैं और मेरी रचना उतनी ही मौलिक है जितना कि इस संसार में मेरा अस्तित्व मौलिक है। मेरी मौलिकता पूरे जड़-चेतन से सापेक्ष है, निरपेक्ष नहीं। इसलिए ही वह किसी शुद्ध मौलिकता की तरह मौलिक नहीं।

हॉं, एक बात और: हमारी अज्ञानता भी कई चीजों को, मौलिकता के पद (Term) में `मौलिक´ घोषित कर सकती है।
00000
पुन:

17 जुलाई 2008
रचनाशीलता में मौलिकता दरअसल एक तरह का अंधविश्‍वास है।
कुमार अम्‍बुज

सोमवार, 13 अक्टूबर 2008

मैं क्यों लिखता हूँ ?


तुर्की लेखक ओरहान पामुक ने नोबेल पुरस्कार ग्रहण करते समय `माय फादर्स सूटकेस´ शीर्षक से अपना `नोबेल लेक्चर´ दिया था। इस लंबे भाषण का एक हिस्सा पढ़ते हुए मुझे लगा कि इसमें लिखने के लिए जो आस्था, कारण और प्रतिबद्धता प्रकट की गई है, वह कुछ खास मायनों में अधिसंख्य लेखकों की आकांक्षा से मेल खा सकती है। उनके अपने औचित्य के साथ भी खड़ी हो सकती है।

पैराग्राफिंग बदलते हुए मैंने इसका अनुवाद किया है। यह छोटा सा गद्य मुझे बहुत प्रिय है। इसे रुचिवान लोगों के बीच रखते हुए मुझे खुशी हो रही है।

मैं क्यों लिखता हूँ ?

मैं लिखता हूँ क्योंकि लिखना मेरी एक आंतरिक आवश्यकता है। मैं लिखता हूँ क्योंकि मैं वे सारे साधारण कामकाज नहीं कर सकता जो अन्य दूसरे लोग करते हैं। मैं लिखता हूँ क्योंकि मैं आप सबसे नाराज हूँ, हर एक से नाराज हूँ। मैं लिखता हूँ क्योंकि मैं इसी तरह वास्तविक जीवन में बदलाव लाने में अपनी हिस्सेदारी कर सकता हूँ।


मैं लिखता हूँ क्योंकि मुझे कागज, कलम और स्याही की गंध पसंद है।


मैं लिखता हूँ क्योंकि अन्य किसी भी चीज से ज्यादा मुझे साहित्य में विश्वास है। मैं लिखता हूँ क्योंकि यह एक आदत है, एक जुनून है। मैं लिखता हूँ क्योंकि मैं विस्मृत कर दिये जाने से डरता हूँ। मैं लिखता हूँ क्योंकि मैं उस यश और अभिरुचि को चाहता हूँ जो लिखने से मिलती है।


मैं अकेला होने के लिये लिखता हूँ।


मैं लिखता हूँ क्योंकि मुझे आशा है कि शायद इस तरह मैं समझ सकूँगा कि मैं आप सबसे, हर एक से, बहुत, बहुत ज्यादा नाराज क्यों हूँ। मैं लिखता हूँ क्योंकि मैं चाहता हूँ कि लोग मुझे पढ़ें। मैं लिखता हूँ क्योंकि जब एक बार कुछ लिखना शुरू कर देता हूँ तो मैं उसे पूरा कर देना चाहता हूँ।


मैं लिखता हूँ क्योंकि हर कोई मुझसे लिखने की अपेक्षा करता है।


मैं लिखता हूँ क्योंकि मुझे पुस्तकालयों की अमरता में एक नादान-सा विश्वास है, और मेरी उन पुस्तकों में, जो अलमारी में रखी हुई हैं। मैं लिखता हूँ क्योंकि जीवन की सुंदरताओं और वैभव को शब्दों में रूपायित करना एक उत्तेजक अनुभव है। मैं लिखता हूँ क्योंकि मैं कभी खुश नहीं रह सका हूँ।


मैं खुश होने के लिये लिखता हूँ।
000000
ओरहान पामुक
नोबेल लेक्चर से एक संपादित अंश:

अनुवाद: कुमार अम्‍बुज

नया मोबाईल नम्‍बर-09424474678

शुक्रवार, 10 अक्टूबर 2008

एक स्‍त्री मेरा इं‍तजार करती है

अमेरिकी कवि वॉल्‍ट व्हिटमैन ने अपने जीवनकाल में कुल एक ही कविता संग्रह 'लीव्‍ज ऑव ग्रास' प्रकाशित कराया और इसे ही वे जीवन भर अद्यतन करते रहे।
प्रस्‍तुत कविता दैहिकता से शुरू होकर गहरी सामाजिकता में बदलती जाती है। इसमें स्‍त्रीवाद के वे सूत्र भी देखे जा सकते हैं, जो आगे जाकर समाजशास्त्रियों और विचारकों ने विकसित किए। इसमें वे अग्रगामी स्त्रियों की कामना करते हैं और उस गुणधर्म को संतत‍ि की नयी पीढि्यों में देखना चाहते हैं।
इसे कुछ हद तक विडम्‍बना कह सकते हैं कि अमेरिकी राजनैतिक संततियॉं उतनी उदात्‍त और मानवीय नहीं हो सकीं, जितनी एक कवि की आकांक्षा में रहती हैं। इस कविता में अनेक विमर्श विन्‍यस्‍त हैं।
- कुमार अंबुज

एक स्‍त्री मेरा इंतजार करती है

वॉल्‍ट व्हिटमैन

एक स्त्री मेरा इंतजार करती है, वह हर तरह से परिपूर्ण है,
उसमें कुछ भी कमी नहीं है
लेकिन सब कुछ व्यर्थ है यदि वहाँ रति नहीं
सब कुछ की कमी है यदि उसके पास एक सच्चे पुरुष की नमी नहीं।

रति में सब कुछ समाया है, शरीर, आत्माऍं,
अर्थ, प्रमाण, पवित्रताऍं, कोमलताऍं, परिणाम, घोषणाएँ,
गीत, आज्ञाएँ, स्वास्थ्य, गौरव, मातृात्मक रहस्य, वीर्य
संसार की सभी आशाएँ, परोपकार, तोहफे, वासनाएँ, प्रेम,
सुंदरताएँ, प्रसन्नताएँ,
दुनिया की सभी सरकारें, न्यायाधीश, ईश्वर, आगत मनुष्य
ये सब शामिल हैं रति में
उसके अपने अंश की तरह और अपने ही औचित्य की तरह।

जो मुझे पसंद है, वह पुरुष जानता है और बेझिझक स्वीकारता है
अपनी रति का स्वाद
वह स्त्री भी, जो मुझे पसंद है, जानती है और स्वीकार करती है।

अब मैं नहीं जाऊँगा उत्साहहीन स्त्रियों के पास
मैं उस स्त्री के पास जाऊँगा और रहूँगा जो मेरी प्रतीक्षा करती है
और उन स्त्रियों के पास जो मेरे लिए पर्याप्त ऊष्ण हैं
मैं समझता हूँ कि वे मुझे समझेंगी और मुझे इनकार नहीं करेंगी
मैं देखूँगा कि वे मेरे लायक हैं, मैं उनका बलिष्ठ पति साबित होऊँगा।

वे मुझसे जरा भी कम नहीं होंगी
उनके चेहरे तेज धूप और हवाओं से ताँबई होंगे
उनके शरीर में प्राचीन दैवीय कोमलता और ताकत होगी
वे तैरना जानती होंगी और नाव खेना, घुड़सवारी, कुश्ती, निशानेबाजी,
दौड़ना, वार करना, बचना, आगे बढ़ना, प्रतिरोध करना,
अपनी रक्षा करना जानती होंगी
वे शांत, स्पष्ट, आत्मनियंत्रित होंगी- अपने आप में संपूर्ण।

स्त्री, तुम्हें मैं अपने करीब खींचता हूँ
मैं तुम्हें जाने नहीं दूँगा, तुम्हारे लिए मैं अच्छा करूँगा,
मैं तुम्हारे लिए हूँ, तुम हो मेरे लिए, केवल हमारी अपनी खातिर नहीं,
शेष सभी की खातिर
तुम्हारे भीतर सोए हुए हैं महान नायक और कवि,
जो किसी पुरुष के स्पर्श से नहीं जागेंगे, सिवाय मेरे।

यह मैं हूँ, ऐ स्त्री, मैं अपनी राह बनाता हूँ,
मैं दृढ़ हूँ, कठोर हूँ , बड़ा हूँ, अडिग हूँ लेकिन तुम्हें प्यार करता हूँ ,
मैं तुम्हें उससे ज्यादा चोट नहीं पहुँचाऊँगा जितनी तुम्हारे लिए जरूरी है
मैं अपना सत् उँडेलता हूँ कि इन राष्ट्रों के लिए
उपयुक्त बेटे और बेटियाँ मिल सकें
मैं धीमे से, सख्त माँसपेशी से तुम्हें दबाता हूँ
निर्णायक ढंग से आबद्ध होता हूँ, मैं कोई अनुनय नहीं सुनूँगा,
मैं तब तक अलग नहीं होऊँगा जब तक कि अपने भीतर
जो कुछ लंबे समय से संचित है, उसे तुम्हें सौंप नहीं दूँगा।

तुम्हारे जरिये मैं अपनी रुकी हुयी नदियों को रिक्त करता हूँ
तुम्हें मैं आनेवाले हजारों वर्षों से आच्छादित करता हूँ
तुममें मैं अपनी सर्वाधिक प्रिय और अमेरिका की कलमों को रोपता हूँ
जो बूँदें मैं तुममें सींचता हूँ वे लड़ाकू और कसरती लड़कियों में बदलेंगी,
नये कलाकारों में, संगीतकारों और गायकों में बदलेंगी,
जो संततियाँ मैं तुम्हें दूँगा वे भी संततियाँ पैदा करेंगी
मैं अपने संसर्ग से पूर्ण पुरुषों और पूर्ण स्त्रियों की चाह रखता हूँ
मैं उनसे अपेक्षा करूँगा कि वे भी एक-दूसरे में अंत:प्रवेश करें
जैसे तुम और मैं अभी एक-दूसरे के भीतर तक प्रवेश कर रहे हैं
मैं उन फलों की आशा करता हूँ जो उनकी तेज बौछारों से प्रकट होंगे
जैसे अभी मैं आश्वस्त हूँ उन फलों के लिए
जो इन प्रवाही धाराओं से फलेंगे जिन्हें मैं तुम पर न्यौछावर करता हूँ।

मैं आगत प्यारी फसल की
जन्म, जीवन, मृत्यु और अनश्वरता में प्रतीक्षा करता हूँ ,
जिसे मैं इतने प्रेम से यहाँ रोपता हूँ।
00000

रविवार, 5 अक्टूबर 2008

उसके विशाल पहलू में किसी मनुष्‍य के लिए जगह खाली है।

दोस्‍तो, अनेक सुझावों में संलग्‍न आग्रहों की रक्षा करते हुए यहां अंतराल ज्‍यादा न करते हुए, एक नयी पोस्‍ट डाल रहा हूं। यह कविता भाई यूनुस खान, आकाशवाणी, के लिए और उनसे क्षमायाचना सहित भी।

लेकिन जल्‍दी ही अपना कुछ गद्य और दूंगा। और वॉल्‍ट व्हिटमैन की एक कविता का अनुवाद भी जो मुझे बहुत पंसद है। दरअसल, कविताओं के बिना तो मैं सिर्फ धुआं हो सकता हूं।

पियानो

उसका चेहरा हमेशा उस आदमी की तरह दिखता है
जो उसे बजाता है
उसके विशाल पहलू में किसी मनुष्य के लिये जगह खाली है
वह जगह दिन-रात तुम्हारी प्रतीक्षा करती है

उसे वही बजा सकता है
जिसे कुछ अंदाजा हो जीवन की मुश्किलों का
जो रात का गाढ़ापन, तारों का प्रकाश और चांद का एकांत याद रखता है

उसमें से, तुमने सुना होगा, मादक आवाज उठती है
जिसमें शामिल होता है एक रुंधा हुआ स्वर
जो किसी बेचैन आदमी का ही हो सकता है
जिसने कभी अपनी आवाज का सौदा नहीं किया
वही आवाज तुम्हें रोक लेती है बाजू पकड़कर
जैसे वह किसी धीरोदात्त का टूटता हुआ संयम है
अपनी कथा कह देने के लिये आखिर उद्यत

उसे सुनो और महसूस करो
उसके भीतर भी तुम्हारी तरह कोई संताप है
और धीरे-धीरे उठती हुयी उमंग
जिसने हरदम तुम्हारे लिये पके गले से उठते सुर
और एक कठिन नोट को संजोकर रखा है

उसे तमाम वाद्ययंत्रों के बीच देखो
वह उस राजा की तरह दिखेगा
जो संगीत के पक्ष में अपना राजपाट ठुकराकर यहां आ गया है
यह भी कह सकते हैं कि वह अपने होने में जंगल में शेर की तरह है
लेकिन मैं उसे हाथी कहना पसंद करूंगा
ध्यान दें, उसकी धीर गंभीर और बिलखती आवाज में
गुर्राहट नहीं, अपने को रोकती, खुद को पीती हुयी एक चिंघाड़ है
जो भीतर के विलाप और क्रोध को बदल देती है संगीत में

क्या तुमने वह दृश्य देखा है
जब उसके कंधे पर सिर रखकर कोई उसे बजाता है
और वह अपना सब कुछ अपनी आवाज को सौंपता है
यहां दिखाई दे सकती है समुद्र और हवा के खेल में उसकी दिलचस्पी

उसे कौन छुयेगा ?
वही, सिर्फ वही-
जो अपनी पहचान उसकी पहचान में खो सकता है।
0000

शुक्रवार, 3 अक्टूबर 2008

अपना शहर एक असमाप्त खोज है

शुरुआत के लिए यह एक गद्य है।
कुछ कविताएं ठहरकर।

बड़े शहरों का आकर्षण विचित्र है। वे लोगों को उस तरह अपनी तरफ खींचते हैं जैसे आलपिनों को कोई बड़ा चुंबक। उनकी परिधि और प्रभाव क्षेत्र में आनेवाले तमाम गांव-कस्बे उनमें धीरे-धीरे समा जाते हैं। आसपास एक निर्वात-सा बनता है, जिसे शहर अपनी परछाइयों से, अपने वैभव से और अपने कूड़े से भरता जाता है।

विस्थापन की यह एक अबाध, अनवरत् प्रक्रिया है। इसे रोकना कठिन लगता है क्योंकि यही अब हमारे देश में विकास की अवधारणा का मॉडल है। कभी-कभी खुद से ही पूछता हूं कि क्या मनुष्य जीवन कुल पचास-साठ महानगरों में सीमित हो सकता है? या फिर छोटे-बड़े-मंझोले कुल तीन-चार सौ शहरों में। बाकी जगहों पर जीवन के सिर्फ अवशेष रहेंगे। उठते-गिरते, आसमान की तरफ देखते, अभिशप्त जीवन के उदाहरण। या वे जिजीविषा से भर उठेंगे और अपने होने को फिर साबित करेंगे?

जो भी हो, लेकिन अपना गांव कस्बा या शहर छोड़ देना, उसे अपने लिए एक स्थायी इतिहास बना देना सदैव ही सबसे मुश्किल काम है। और इसका कोई बहुत बड़ा, व्यावहारिक बुदिध से लबरेज, लाभ-हानिवाला कारण बताना लगभग नामुमकिन है। याद करें, `नसीम´ फिल्म में बूढ़े दादाजी, इस सवाल पर कि हम भी पाकिस्तान क्यों नहीं चले गये, अपनी पोती से कहते हैं कि `तुम्हारी दादी को यह सामने लगा नीम का पेड बहुत पसंद था, इसलिए।´ अब इस कारण को समझना बेहद आसान भी है और अत्यंत मुश्किल भी। इन्हीं वजहों से साहित्य में विस्थापन को लेकर, अपनी जगह-जमीन को लेकर महान रचनाएं संभव होती रही हैं।

दरअसल, शहर और आप, दोनों साथ-साथ विकसित होते हैं। पल्लवित होते हैं और एक साथ टूटते-फूटते हैं। कभी शहर में फूल खिलते हैं, नये पत्ते आते हैं तो आपके भीतर भी वे सब दर्ज होते हैं और जब आपके भीतर फुलवारी खिलती है तो आप देखते हैं कि शहर में भी जगह-जगह गुलमोहर फूल गया है। जब भी आप उदास होते हैं, अवसाद या दुख में होते हैं तो शहर अपनी किसी पुलिया के साथ, किसी पुराने पेड़ की छाया और उसके विशाल तने के साथ, अपने मैदान में ढलती शाम के आत्मीय अंधेरे के साथ आपके लिए उपस्थित हो जाता है। जैसे आप शहर के हर उस कोने-किनारे को जानते हैं, उन जलप्रपातों, कंदराओं और आ¡चल को जानते हैं जहा¡ जाकर एकदम किलकारी भर सकते हैं या सुबक सकते हैं। और जानते हैं कि यह शहर आपकी किसी मूर्खता, भावुकता और तकलीफ को इस तरह जगजाहिर नहीं होने देगा कि आपको शर्मिंदगी हो। यह अपना शहर है, यह आपको उबार लेगा। और मौका आने पर आज भी अपने कंधे पर बैठा लेगा। शहर की ठोकरों के निशान आपके माथे और आत्मा पर कुछ कम नहीं हैं लेकिन कुछ रसायन हैं जो तब ही बनते हैं जब आप अपने शहर में होते हैं। भीतर कुछ धातुएं हैं, घंटियां हैं, जिनका संगीत शहर में होने से ही फूटता है। जब आप अपने शहर में नहीं हैं तब भी एक तरह का संगीत, एक सिम्फनी बजती रहती है, लेकिन उसका राग कुछ अलग होता है।

आप जानते हैं कि काफी हद तक ये सब रूमानियत और भावुकता से भरी बातें हैं। यथार्थ का धरातल रोजी-रोटी है। कस्बों और छोटे शहरों का अनियोजित विकास, टूटी सड़कें, फूटी नालियां, तंग गलियां, धूल, गंदगी, जाहिली-काहिली हमारे सामने वास्तविकता के बड़े हिस्से की तरह प्रकट है। लेकिन यह भी सच्चाई है कि हर आदमी को जैसे अपना एक शरीर मिलता है, वैसे ही उसे अपना एक शहर मिलता है। जीवन में सिर्फ एक बार। लेकिन चाहते हुये भी आप हमेशा अपने शरीर में वास नहीं कर सकते। दूसरी देहों में भी आपको रहना पड़ता है। यह कायांतरण जीवन की विडंबना है, लेकिन है। इस कायांतरण में आपको तिलचट्टे की देह मिल सकती है या मुमकिन है कि आपको किसी सुंदर पक्षी या चीते की देह मिल जाये। लेकिन फिर आप हमेशा ही अपने शरीर की खोज करते हैं कि आपका पुनर्वास हो सके। आपकी हर ऊंची उड़ान, हर अकल्पनीय छलांग या वेदनापूर्वक घिसटने की नियति, त्रासदी या उल्लास जैसे अपनी उस देह को फिर से पा लेने की ही कोई कोशिश है। हर दूसरा शहर, हर दूसरा शरीर जैसे कोई अस्थायी राहत-शिविर है। सराय है। तम्बू है।

दूसरे शरीर में रहते हुये, चाहे वह कितना ही सुंदर, सुगंधित, सामथ्र्यवान क्यों न हो, एक परायेपन, अचकचाहट और प्रवासी होने का बोध बना रहता है। जैसे आप निष्कासन पर हैं। और अपनी देह कितनी ही कुरूप हो, धूल-धक्कड़ से भरी हो, चुंबनों या घावों से लबरेज हो और उसमें कितनी ही मुश्किलें बन गयी हों मगर आपको लगता है कि यहा¡ आप अजनबी नहीं हैं। आश्वस्त है कि आप इस शरीर के सारे रास्ते जान सकते हैं। सारी गलियां, धमनियां, सारे चौराहे, घाटियां, खाइयां और गूमड़। उन स्पंदनों, संवेगों और तरंगों के साथ सहज रह सकते हैं जो आपकी देह में से उठती हैं। चूंकि शरीर की तरह, शहर-गांव भी एक ही बार आपको प्राप्त होता है इसलिए छूट गये शहर से आपकी मुक्ति संभव नहीं। वह आपका था, आपका है। आप उससे दूर हैं लेकिन वह आपका है। वह नष्ट हो रहा है तब भी और उठान पर है तब भी। दोनों स्थितियों में वह आपको व्यग्र बनाता है।

जग जाहिर है कि बड़े शहरों की मुश्किलें भी बड़ी हैं। अपरिचित भीड़ से उपजा अवसाद, दो सौ परिवारों के बीच में रहने से पैदा अकेलापन, प्रदूषण के तमाम प्रकार, अनियंत्रित जनसमूह, पार्किंग, ट्रैफिकजाम, भागमभाग, थकान और यांत्रिकता। यह सूची बहुत लंबी हो सकती है। लेकिन यहीं रोशनियां हैं, आधुनिकता है, नयी आवाजें और तसवीरें हैं। वे एकांतिक क्षण संभव हैं जब अपरिचय भी वरदान है, सभ्यता के अनेक स्तर हैं, जीवंत उठापटक है और वे चबूतरे, वे रोशनदान भी हैं जहां से आप दूर तक देख सकते हैं। हर शहर, अपने आकार और संपन्नता के अनुपात में उतना ही बड़ा एक चुंबक है। वह लोहे को ही नहीं, हर उस चीज को खींचता है, जो उसके करीब से गुजरती है। मैं भी पिछले वर्षों से इसकी गिरत में हूं। बीसियों बार अपने शहर गुना का मकान बेचकर, यहां भोपाल में छोटा-सा घर लेने के उपक्रम में फंसता हूं। लेकिन ठीक उस वक्त जब सब चीजें निर्णय में जाना चाहती हैं, मैं उस खेल को जाने-अनजाने, चाहे-अनचाहे बिगाड़ देता हूं। अब यह खेल जैसा ही कुछ हो गया है। जैसे मैं बड़े शहरों से मुक्त होना चाहता हूं। उन्हें परास्त कर देना चाहता हूं। उनके रूप, लावण्य, गरिमा और गर्व को आहत करना चाहता हूं। उनके गुरुत्वाकर्षण के खिलाफ जाकर अपनी गुम पृथ्वी पर लौट आना चाहता हूं। यह एक जटिल खोज है, जटिल लड़ाई है। इसके अनेक मोर्चे हैं, अनगिन पहलू। मैं कभी कंदरा में छिपता हूं, कभी मैदान में आकर लड़ता हूं। लगता है कि एक दिन अपनी काया को वापस पा लू¡गा। कभी लगता है कि अब वह अलभ्य है।

और यदि कभी आपको अपना शहर वापस मिलता है, भले ही थोड़े-से वक्त के लिए, तो आप देखकर विस्मित और अवाक् हो सकते हैं कि यह वह शहर नहीं जिसे आपने खो दिया था। इस तरह अपने शहर को आप एक बार फिर खो देते हैं, और फिर से अपने खो गये शहर को खोजने की यात्रा शुरू होती है। अब हम उन चिन्हों, उन सितारों, मैदानों और सूर्यास्तों को, उन कोनों-किनारों, रास्तों और पुलियों को फिर से खोजते हैं। उस उमंग, उत्साह, उत्ताप और आनंद को छू लेना चाहते हैं जो भीतर बसा और धंसा रह गया था। लगता है जैसे यह खोज अपनी किशोरावस्था की, युवा दिनों की, वनस्पतियों, तालाबों, गलियों और उन मित्रों की खोज भी है जो दरअसल बीत गये हैं और ऐसी जगह जाकर फंस गये हैं कि उनकी वापसी संभव नहीं। कई बार तो अपने शहर में रहते हुये भी आप उसे खो देते हैं और बेसाख्ता आपके मुंह से निकलता है- `अब यह शहर वैसा नहीं रहा।´ इस तरह हम अपनी ही देह, अपनी ही उम्र के गुजर जाने की सूचना भी चस्पा करते हैं।

कभी-कभी अपने शहर की अब तक अदेखी गली या किसी नयी बन रही जगह को देखकर लगता है कि अरे, इतने वर्ष हो गये, इस तरफ तो आना ही नहीं हुआ। सड़क के भीतर कुछ ध¡सकर उग आये बांस के झरमुट, शांत चट्टान या अब तक अलक्षित किसी टूटी दीवार को देखकर भी ऐसा ही भाव आता है कि अभी इस शहर के कई रंग हैं, कई रूप, जिन्हें देखना हमेशा शेष रहेगा। तकलीफें, उम्मीदें और जिज्ञासाएं आपका पीछा नहीं छोड़तीं। यह एक बहुआयामी अन्वेषण है। एक अनवरत खोज।

लेकिन हर उस शहर का, जिसमें आप फिलहाल रहते हैं और जो भले आपका न हो, एक सौंदर्य होता ही है। उसके स्थापत्य का, उसकी ह¡सी का, उसकी रातों का और उसकी सुबहों का एक मायाजाल होता है। कुछ दिन साथ रहने से उपजा आपसी प्रेम होता है। इनका सामना आप हर बार अपने कस्बे की गंध से, स्मृतियों से और छबियों से करते हैं। लेकिन ये कोई अस्त्र-शस्त्र नहीं हैं। आप हर बार निहत्थे हैं। चीजें आपको लुभाती चली जाती हैं। और यह देखकर, यह जानकर कि आखिर हर बड़ा शहर अपने आप में एक `शेल्टर हाऊस´ है, आप एक बार फिर शरणार्थी होने का अनुभव करते हैं।

तब यह जीवन जैसे अपने शरीर और अपने शहर को वापस पा लेने की, पुनर्वास की आकांक्षा की, एक अशांत और आशावान दिनचर्या से भर जाता है।
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शुक्रवार, 26 सितंबर 2008

आखिर हमें कुछ प्रतीक्षा करना ही होता है।

जल्‍दी ही हम नए शब्‍दों के साथ मुलाक़ात करेंगे।
हरेक इतवार की सुबह से यह नई शुरुआत होती रहेगी।