मित्रो,
'धर्म का विकल्प: एक पुनर्विचार' शीर्षक लेख की यह दूसरी किश्त।
धर्म कोई निजी मान्यता या परिघटना नहीं है
जो कहते हैं कि धर्म एक निजी आस्था, विश्वास और मान्यता की बात है। वे दरअसल भोले हैं या चालाक। जैसे भ्रष्टाचार, ईमानदारी, बेईमानी, चरित्रहीनता, बुद्धिमानी देखने-सुनने में निजी लगती है लेकिन अंतत: वह एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति के बीच में ही घटित होती है और इस तरह व्यक्तियों के समूह में और पूरे समाज में। फिर धर्म तो कतई निजी बात नहीं है। जैसा कि स्पष्ट है कि वह परमसत्ता द्वारा उपदेशित, संभव समूह/अनुयायियों को संबोधित और प्राय: जन्मजात प्राप्त और थोपी हुयी अवधारणा है इसलिए उसको किसी के निजी खाते में डाल कर मुक्त हो जाना विचारहीनता है, शरारत है। यदि वह इतनी निजी है तो फिर मनुष्य को यह आजादी सभी धर्म क्यों नहीं देते कि वह वयस्क होने पर अपनी पसंद का धर्म चुन ले या कोई धर्म न चुने। बच्चे को उसकी अबोध अवस्था से ही परिजन या समाज के लोग धर्म विशेष की पद्धतियों, प्रशिक्षण एवं प्रक्रियाओं से क्यों गुजारने लगते हैं? धर्म पूरे समाज को प्रभावित कर रहा है और उसे कतई निज तक सीमित कहकर बरगलाया नहीं जा सकता।
सभ्यता विकास के क्रम में ज्ञान-दर्शन-विज्ञान के प्रत्येक क्षेत्र में पर्याप्त विकास हुआ है और हो रहा है। अब प्रकृति के रहस्यपूर्ण उत्तरों के लिए धर्म के पास जाना हास्यास्पद है। वहाँ जो भी लिखा हुआ है उसमें तत्कालीन समय, समाज के ज्ञान की सीमा और अज्ञान का प्रभाव है। और सबसे बड़ी बात यह कि उसे चुनौती नहीं दी जा सकती, क्योंकि वह परमसत्ता के आदेश के रूप में प्रतिष्ठित है। विज्ञान के पास जिन सवालों के सटीक और अंतिम उत्तर नहीं हैं, वहाँ विज्ञान तार्किक रूप से कुछ संभावनाओं की ओर इशारा करने में सक्षम है और कहता है कि इस दिशा में खोज की जाएगी। लेकिन धर्म सिर्फ अहंकारी रूप से सब कुछ जानने का दावा करता है जबकि जानता कुछ नहीं है। यदि धर्म इतना ही जानकार है तो वह विज्ञान की कसौटियों पर कसे जाने के लिए खुद को प्रस्तुत क्यों नहीं करता? स्वयं को आधुनिकतम ज्ञान-विज्ञान की सरणियों में से क्यों नहीं गुजरता?
बेट्रोल्ट ब्रेष्ट ने `गेलीलियो का जीवन´ नाटक में, धर्मग्रंथों में उिल्लखित खगोलीय घटनाओं एवं स्थितियों के परिप्रेक्ष्य में सटीक व्यंग्य करते हुये ठीक ही प्रश्न किया है: `क्या ईश्वर ने धर्मग्रंथ लिखने से पहले खगोलशास्त्र ध्यान से नहीं पढ़ा होगा?´ (प्रसंगवश यहाँ एक उदाहरण दिलचस्प होगा जो इस लेखक, कुछ मौलवियों और हिन्दू धर्म में आस्था रखनेवाले युवाओं के साथ, एक ट्रेन यात्रा में बातचीत के दौरान घटित हुआ। जब इन मौलवियों और हिन्दू युवाओं द्वारा बार-बार स्थापना रखी गयी कि सब कुछ कुरान और वेदों में लिख दिया गया है। मैंने उनसे प्रश्न किया कि आप सबके बच्चों ने या आपने जब स्कूल-कॉलेज की परीक्षायें दी होंगी और यह पूछे जाने पर कि पृथ्वी, संसार, मानव सभ्यता का निर्माण और विकास कैसे हुआ तब आपने अपने धर्म के अनुसार उत्तर क्यों नहीं लिखे? इस प्रश्न ने उन सबको विचलित कर दिया और वे अप्रासंगिक, असंदर्भित बहस करने लगे। थोड़ी शांति होने पर मैंने उनसे पुन: कहा कि यदि संसार बनने, सभ्यता विकसित होने के विश्वसनीय उत्तर धार्मिक ग्रंथों में ही हैं तो फिर वे ईसाइयों, हिन्दुओं, मुस्लिमों के ग्रंथों में अलग-अलग क्यों हैं और यदि विज्ञान सही है तो फिर आप सब मिलकर इन धर्मग्रंथों की अवधारणाओं को ठीक क्यों नहीं करते? पुरातनकाल से, जब सब मनुष्य साथ-साथ विकसित होते हुये इस सदी तक आ गये हैं तो उनकी उत्पत्ति और विकास के सिद्धांत, धर्म के आधार पर अलग-अलग कैसे हो सकते है?? विज्ञान-भूगोल की परीक्षाओं में आपको क्योंकर विज्ञान का ही सहारा लेना पड़ता है। जाहिर है, इनका तार्किक या समाधानकारी उत्तर उनके पास न था।)
कहा जा सकता है कि धर्म को सर्वज्ञ मानने की जिद का अर्थ है- किसी स्थान पर बिजली की सुविधा और उपलब्धता होने पर भी चिमनी जलाने की जिद।
धर्म की नैतिकता
यहाँ देखना उचित होगा कि धर्म की नैतिकता, वस्तुत: नैतिकता नहीं है। क्योंकि नैतिकता के जो प्रमुख लक्षण होते हैं वे इसमें नहीं हैं। मसलन-
1. नैतिकता मनुष्यमात्र के लिए संबोधित होती है, न कि किसी समूह या खास विचारों में यकीन रखनेवाले व्यक्तियों के लिए। नैतिकता इस तरह धर्मनिरपेक्ष होती है।
2. नैतिकता समाज और मनुष्य आधारित ही हो सकती है न कि ईश्वराधारित या आत्माधारित।
3. नैतिकता एक विवेकसम्मत, सुविचारित, पारस्परिक निर्णय है, न कि कोई अलौकिक या पैगम्बरीय संदेश।
4. नैतिकता पाप-पुण्य की अवधारणा से परे होती है और हर हाल में सभी मनुष्यों (लिंग, रंग या जाति इत्यादि के भेद के बिना) पर एकसमान लागू होती है।
5. नैतिकता समाजाधारित है, मनुष्यनिर्मित है इसलिए देश-काल-परिस्थिति अनुसार आलोच्य होकर, परिवर्तनशील एवं संशोधनयोग्य है, क्योंकि समाज भी परिवर्तित होता रहता है। जबकि धर्म, नैतिकता को स्थिर, जड़ बनाता है, उसकी गतिशीलता को रोकता है।
6. धार्मिक नैतिकता प्राय: सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों को नजरअंदाज करती है। (जैसे किसी भी धर्माधारित नैतिक उपदेश द्वारा `चोरी करना´ नहीं रोका जा सकता, जब तक कि समाज में एक बड़ा हिस्सा वंचितों का है। इसी तरह `सदा सत्य बोलो´ का कोई व्यावहारिक अर्थ नहीं है।)
इसीलिए दृष्टव्य है कि जैसे-जैसे नागरिक समाज एवं राष्ट्र की अवधारणा विकसित होती गयी है, धार्मिक नैतिकताओं या धर्म-सूत्रों का स्थान नागरिक-कानून लेते गये हैं। कुछ कानून तो वैश्विक स्तर पर बनाये गये हैं जिन्हें हम अंतर्राष्ट्रीय कानूनों की तरह जानते हैं। क्योंकि धार्मिक सूत्र केवल धर्म विशेष के अनुयायियों पर ही लागू किये जा सकते हैं जबकि नागरिक कानून पूरे देश, किसी समाज या पूरे संसार पर। लेकिन अभी इस विषयक प्राय: हर देश में समस्याएँ बनी हुयी हैं। अनेक धार्मिक रीतियों, आदेशों और रिवाजों को समुदाय विशेषों में अहमियत मिली हुयी है और कानूनों का अनुपालन वहाँ नहीं है। जैसे, हमारे देश में ही विरासत, विवाह, तलाक, संपत्ति विवाद, धर्मस्थल विवाद, धार्मिक आयोजनों आदि अनेक मामलों में हिन्दु-मुस्लिम-सिख-ईसाई आदि के धर्मग्रंथों एवं उनकी धार्मिक परंपराओं को प्राथमिकता दी जाती है। आज जबकि कोई भी विकसित देश किसी जाति या धर्म विशेष से मिलकर नहीं बन सकता, इसलिए समान नागरिक कानून की महती आवश्यकता है, जो हमारी कालसापेक्ष एवं समाजसापेक्ष नैतिकताओं का निर्माण और क्रियान्वयन कर सके।
धर्म और पूँजी की शामिल हिंसा
तमाम नैतिकताओं के उलट, धर्म में हिंसा का उपदेश निहित है। अपने धर्म को फैलाने, धर्मान्तरण करने या रोकने, धर्मविरोध होने, धर्म विषयक तर्क या आलोचना करने, धर्म की रक्षा करने आदि बिंदुओं पर, धर्म हिंसा को जायज ठहराता है, हिंसा का आदेश देता है। यही नहीं, बलि आदि के महत्त्व से पशु-पक्षियों को ही नहीं, मनुष्य को भी स्वाह कर देने को प्रतििष्ठत करता है। वह इस तरह की हिंसा करनेवाले को दण्ड के नहीं, यश, कीर्ति, और कर्तव्य के हिस्से में रखता है। (हिन्दुओं में तो तमाम देवी-देवता हथियारधारी हैं। हर प्रमुख देवी-देवता और हर धर्म के ईश्वरीय अवतारों ने अनेक हत्यायें की हैं। खुद हिंसा भरे कष्ट उठाए हैं, काफिरों को परास्त किया है या मार गिराया है। हिंसा की ये कथायें मुग्धभाव, गौरवभाव से सुनी-सुनायी जाती हैं।) अनेक वैज्ञानिकों, दार्शनिकों और विद्वानों को धर्म विषयक असहमतियों के चलते या नये आविष्कार करने के जुर्म में, धर्म के झण्डाबरदारों ने यातनायें दीं और जलाकर, जहर देकर या अन्यान्य तरीकों से मार डाला। जिस तरह पूँजी कई अपराधों और हिंसा की जनक होती है, उसी तरह धर्म भी। जिस तरह पूँजी अपने पक्ष में किये गये अपराधों के दोषियों की रक्षा करने में सक्षम हो जाती है, उसी तरह धर्म भी। इसलिए ही धर्म और पूँजी का गठजोड़ बहुत आसानी से हो जाता है। इसी मायने में धर्म एक सुगठित माफिया-प्रमुख की तरह पेश आता है। यही वजह है कि अपने को धार्मिक कहनेवाले लोग, अन्य धर्मावलंबियों के साथ की गयी हिंसा, बलात्कार, कत्ल तक को जायज ठहरा देते हैं। कश्मीर में जेहाद और हाल ही में गुजरात में घटित मुस्लिमों के नरसंहार को अपने-अपने धर्मावलंबियों द्वारा उचित ठहराया गया है। हर धर्म का इतिहास ऐसी घटनाओं से, मानवरक्त से सना हुआ है। वह अपने स्वभाव में बर्बर है, साम्राज्यवादी है, तानाशाह है। इसलिए उन्नत, आधुनिक, मानवीय समाज में धर्म को अपदस्थ किये जाने की आवश्यकता बनी रहेगी।
धर्म सामान्य जनजीवन में भी अपराधों को प्रेरित करता है: व्यभिचार, हत्या, बलात्कार, चोरी, झूठ, धोखा आदि कर्मों के लिए धर्म के पास कन्फेशन, पश्चाताप, प्रार्थना, यज्ञ, बलि, दान सहित पाप-मुक्ति की अनेक क्रियाएँ हैं। हिन्दू धर्म में स्त्री और शूद्रों के लिए तो मौत तक की सजाएँ हैं लेकिन बाकी सबके लिए उपाय हैं। तुलसी ने कहा ही है कि `समरथ को नहीं दोष गुसाईं।´ साथ ही, वह मनुष्यों के बीच लिंग, वर्ण, जाति, सामाजिक स्थिति, राजकीय स्थिति, रंग, नस्ल आदि के आधार पर भेद करता है। यह विकसित, सभ्य समाज की अवधारणा के विरुद्ध है, अन्यायपूर्ण तो है ही। देवदासी, साध्वियाँ, शिष्यायें बनाने जैसी प्रथाओं के जरिये वह हर तरह के अन्याय और वंचना को जगह देता है, महिमामंडित करता है और धार्मिक महंतों, पुजारियों, आचार्यों आदि के उपभोग के शोषण को वैधता और गरिमा प्रदान करता है।
धर्म मनुष्य को अलौकिकता के जाल में फँसाता है। वह मानव जीवन के दुखों और मृत्यु के बाद के जीवन की ऐसी कहानी प्रचारित करता है जिसमें सत्य का लेशमात्र अंश भी नहीं है। मोक्ष, स्वर्ग, नर्क, कयामत, श्राद्ध, पुनर्जन्म, पूर्वजीवन के कर्म, पाप, पुण्य, पराशक्तियों आदि कल्पनाओं का प्रक्षेपण करता है, जनता को कर्मकाण्ड में, व्यर्थ की पूजापद्धतियों, भाग्यवाद, ज्योतिष, ग्रहों के प्रभावों, सितारों की गतियों और प्रार्थनाओं में फँसाता है। इस तरह जनता के इस लोक के वास्तविक दुखों के कारणों पर तथा दुखों-कष्टों को पैदा करनेवाले मनुष्यों एवं सामाजिक-राजनैतिक कारकों पर पर्दा डालता है। असमानता, अन्याय फैलानेवाले सत्ताधारी, पूँजीपतियों और सामंती लोगों का कवच बनता है, उन्हें बरी करता है। वह भुला देता है कि हमारे वास्तविक शत्रु भूख, गरीबी, अज्ञान, अन्याय, असमानता और बीमारियाँ आदि हैं और इनका हल इसी समाज में, इसी जीवन में है। फलस्वरूप वह समाज में बेहतरी, बदलाव और प्रगतिवादी क्रांति के बीच कुचालक (bad conductor) का काम करता है। अलौकिकता के विस्तार और अंतरंग में जाकर वह आध्यात्मिकता को पुष्ट करता है। आध्यात्मिकता अपार्थिवता, अभौतिकता की तरफ ले जाती है और धर्म को ही गरिमा देती है। ये दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं, एक-दूसरे का मान बढ़ाने वाले हैं। रेखांकित किया जाना चाहिये कि आध्यात्मिकता किसी भौतिक दर्शन या वाद की तरफ यात्रा नहीं करती है। जो `धर्म या आध्यात्मिकता´ में से आध्यात्मिकता का गर्वीला चुनाव करते हैं, वे सूक्ष्म और अप्रत्यक्ष तरीके से धर्म की ही ध्वजा उठाते हैं।
जारी। तीसरी किश्त एकाध दिन में।