मंगलवार, 16 जून 2009

वैज्ञानिकता को धोखा


धर्म पर पुनर्विचार करते हुए लिखे गए इस लेख की अंतिम किश्‍त।
इतने लंबे लेख को, किश्‍तों में ही सही, पढ़ने के लिए पाठकों के प्रति आभार। और संलग्‍न आशा कि इस विमर्श को वे अपने-अपने स्‍तर पर बढ़ाएंगे।


वैज्ञानिकता को धोखा
धर्म से जुड़े चमत्कार हमेशा व्यक्तिगत प्रमाणों और अनुभवों के आधार पर प्रचलित और मान्य होते हैं। यथा- मैंने प्रेत देखा, ध्यानावस्था में मुझे जमीन से ऊपर उठने की अनुभूति हुयी, कल रात हनुमानजी या प्रभु ईशु मेरे सपने में आये, संत के आशीर्वाद से हमारे यहाँ बच्चा हुआ, गुरूकृपा से या किसी मजार पर चादर चढ़ाने से मैं उत्तीर्ण हुआ आदि-इत्यादि। इन व्यक्तिगत अनुभवों (जो दरअसल कल्पनाओं, चिंताओं, उम्मीदों, दिवास्वप्नों के मनोभावों से जुड़ी हैं और कोई भी मनोवैज्ञानिक उनका ज्यादा अच्छा स्पष्टीकरण दे सकता है) का कोई अर्थ समाज की प्रगति में नहीं है। इन निजी अनुभवों के गुब्बारे सामूहिकता के स्तर पर, विज्ञान के मानदंडों की कसौटी पर कसते ही फुस्स होकर फूट जाते हैं। इन व्यक्तिगत अनुभवों में कितना झूठ, सम्मोहन, आस्था-श्रद्धा, मनोरोग और कितना भक्ति-मुग्धभाव शामिल हो सकता है, यह सहज ही समझा जा सकता है।
नि:संदेह विज्ञान की सीमायें हैं और रहेंगी क्योंकि प्रकृति असीम है, मनुष्य सहित समस्त प्राणी जगत की संरचना अत्यंत जटिल है लेकिन विज्ञान जो भी जानता-बताता है वह प्रयोगों और पुष्टि के आधार पर ही। किसी भी गलत अवधारणा को वह तत्काल संशोधित करता है और कतई अंधविश्वास नहीं फैलाता। जो लोग विज्ञान से हर बात का प्रमाण का माँगते हैं, उससे तार्किक होने की अपेक्षा रखते हैं (याद रखें कि वह प्रमाण और तर्क देता भी है), वे लोग धर्म से क्यों किसी बात का प्रमाण नहीं माँगते? उससे तार्किक रूप से पेश क्यों नहीं आते? सीधा-सादा जबाव है कि वे धर्म को लेकर अंधविश्वासी हैं। इसकी हद यह है कि वे जब विज्ञान के आधुनिकतम आविष्कार जैसे कार या मोटरसायकिल खरीदते हैं तो उसकी भी पूजा करते हैं और कंप्यूटर खरीदते हैं तो सबसे पहले मॉनीटर पर साँतिया बना देते हैं।
वैज्ञानिक दृष्टिकोण या तार्किक जीवन प्रणाली के फैलाव को रोकने में विरोधी शक्तियाँ तो सक्रिय रहती ही हैं क्योंकि उनका काम ही यह ठहरा लेकिन प्रगतिशील- जनवादी-वामपंथी चेतना से जुडे़ लोग भी जाने-अनजाने यह भूमिका निभा देते हैं। परंपरा, संस्कृति और व्यवहारिकता के नाम पर वे काफी कुछ ढकोसले अपने जीवन में पाले रहते हैं। रैकी, टेलिपैथी जैसी चीजों के प्रति उनका आकर्षण और समझ ठीक वैसे ही काम करती है जैसे किसी अतार्किक व्यक्ति की। इसमें क्या और कितना वैज्ञानिक है, कितना ग्राह्य है और कितना अग्राह्य, इसका विश्लेषण भी वे प्राय: करते नजर नहीं आते। वे इन क्रियाओं को महज धार्मिक, आध्‍यात्मिक उपलब्धियों का अंग मानकर कुछ इस तरह पेश आते हैं कि उनका आचरण धर्म को, ईश्वर को, पुनरुत्थानवाद को सहायता पहुँचाता नजर आता है। टेलिपैथी जैसी धारणाएँ `संभाव्यता के नियम´ का लाभ उठाती हैं। जो आपका प्रिय है या संबंधी है, उसके बारे में आप अथवा आपके बारे में वह, एक साथ-एक ही समय में विचार कर सकता है। ऐसा सैंकड़ों बार हो सकता है और इसकी संभावना है कि दो-चार बार कुछ विचार सटीक बैठ जाएँ। यह गणितीय दृष्टि से, संभावना के नियम से सहज अपेक्षित है। इसी तरह, प्राय: ही हम अपने किसी प्रियजन के लिए आशंका से भर जाते हैं, उसकी दुर्घटना या मृत्यु तक की कल्पना कर बैठते हैं। अनेक बार ऐसा सोचते हुये, एकाध बार यह आशंका सही भी हो सकती है लेकिन इसका अर्थ कतई दैवीय आभास नहीं है। यह सहज संभावित है क्योंकि ट्रैफिक बढ़ रहा है, अनुशासन कम हो रहा है और आप बार-बार दुर्घटनाओं के बारे में विचार किये चले जा रहे हैं। यहाँ आप उन हजारों अवसरों को इस प्रसंग में भुला दे रहे हैं कि जब आपने दुर्घटना की आशंकाएँ की थीं लेकिन कुछ भी बुरा घटित नहीं हुआ। तब आपका यह पूर्वाभास कहाँ था?
हमारे ऐसे ही जन साठ की उम्र के आसपास पहुँचने पर अचानक मृत्युपार के जीवन पर विचार करने लगते हैं, घबराये दिखते हैं और धार्मिक मान्यताओं में अपनी घबराहट शांत करते नजर आते हैं। रूढ़िगत, परंपरागत, धार्मिक कृत्य तो वे करते दिखते ही हैं। (जैसे, मेरे एक प्रिय लेखक और विद्वान, जिनसे हम मार्क्‍सवाद सीखते रहे, अचानक मुंडनावस्था में मिले। मालुम हुआ कि कोई बुजुर्ग रिश्तेदार नहीं रहे। कहने लगे, मजबूरी में कराना पड़ा, मेरी माँ का आदेश हो गया था और मैं नहीं चाहता था कि 72 साल की माँ को पीड़ा पहुँचाऊँ। मैंने उनसे इतना भर पूछा कि क्या आपने पहले कभी अपनी माँ को किसी प्रसंग में पीड़ा नहीं पहुँचायी? वे चुप हो गये क्योंकि सुरापान, परनारी प्रसंग, सहज दैनिक अवज्ञा आदि अनेक प्रकरणों में वे अपनी माँ को ही नहीं, पूरे घर भर को कष्ट पहुँचाते रहे हैं।) दरअसल, ये लोग वैज्ञानिकता के पक्ष में अपना कुछ भी दाँव पर नहीं लगाना चाहते, अपने परिजनों का शिक्षण नहीं करते, जीवन में प्रतिबद्धता नहीं बताते, जरूरी दैनिक लड़ाइयाँ नहीं लड़ते और अंतत: अंधविश्वासों, रूढ़ियों की रक्षा करते हैं। अपने व्यक्ति-स्वातंत्र्य और मनमानियों के लिए वे घर में बखेड़ा खड़ा कर देंगे लेकिन वैज्ञानिक सोच, प्रगतिशील आचरण और नवाचार के अवसरों पर समझौते कर लेंगे। वस्तुत: ये लोग वैज्ञानिकता के, वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विरोधी हैं। ये अधजल गगरी हैं, आंतरिक शत्रु हैं और अधिक घातक हैं। इनका यह आचरण भी उत्तरदायी है कि हमारे देश में वैज्ञानिकता के पक्ष में प्रबल वातावरण नहीं बन पा रहा है। यह दुर्भाग्य है कि भारत में वामपंथी विचार से जुड़े अधिसंख्य लोग, अपने निजी जीवन में ऐसे ही उदाहरण पेश कर रहे हैं। यही नहीं, जहाँ वामपंथी लोग सत्ता में हैं या अन्य रूप से शक्तिसंपन्न हैं, वे भी वैज्ञानिकता का सघन, व्यवस्थित, योजनाबद्ध प्रचार करते नजर नहीं आते। और जिन लोगों ने सचमुच कुछ काम किया है वह विपुल आवश्यकता के बरअक्स ऊँट के मुँह में जीरा ही साबित हुआ है।

ऑपरेटिंग सिस्टम का सवाल
इस वैज्ञानिक दृष्टिकोण के प्रसार के लिए, आज भी ऐसे दैनिक अखबारों की जरूरत है जो जनता को जागरूक बनायें, अंधविश्वासों से बाहर लायें, प्रगतिशील विचारों का प्रसार करे। इसी तरह इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में चार-छ: चैनल्स होने चाहिये जो वैज्ञानिकता का, बुद्धिवाद का, भौतिकवाद का, तार्किकता का प्रचार करे और लोगों को उनके शोषण के बारे में सजग करे। दुनिया-जहान के विकास की ऐतिहासिक जानकारी दे, आदि-आदि। इसी तरह की अनेक प्रगतिशील, जनवादी, प्रगतिगामी संस्थाओं की आवश्यकता है। जो सचमुच सक्रिय हों और लंबी योजना के साथ प्रस्तुत हों। अपने समाज को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से संपन्न किये बिना, कोई भी प्रगतिमूलक, समाजवादी बदलाव नहीं हो सकता, और यदि हो भी जाए तो टिक नहीं सकता। मार्क्‍स ने तो बार-बार जोर देकर कहा है कि समाज में, जनमानस में बदलाव करो, जनशिक्षा बढ़ाओ और बौद्धिक रूप से ताकतवर बनाओ। इसे कंप्यूटर के उदाहरण से समझें कि `ऑपरेटिंग सिस्टम´ ही ठीक नहीं होगा तो उस पर कोई `सॉटवेयर´ कैसे काम करेगा! या कहें कि जैसा `ऑपरेटिंग सिस्टम´ होगा, वैसा ही सॉटवेयर काम करेगा। जाहिर है कि धर्म को, अंधविश्वासों को हटाये बिना, वैज्ञानिक समाजवाद, साम्यवाद आ ही नहीं सकता। भारत में तो धर्म ने वर्ण और जाति के आधार पर और ज्यादा जटिल समस्यायें पैदा कर दी हैं। हमारे समाज में धर्म-ईश्वर नामक ऑपरेटिंग सिस्टम है इसलिए इस पर पूँजीवादी, सामंती और घालमेलवादी सॉटवेयर आसानी से चल रहे हैं।
यहाँ यह जान लेना उचित होगा कि वैज्ञानिक, इंजीनियर, डॉक्टर, प्रशासक, थलसेनाध्यक्ष या प्रधानमंत्री होने से जरूरी नहीं कि कोई मनुष्य वैज्ञानिक दृष्टि से भी लैस हो जाएँ इन पदों तक कोई भी आदमी अकादेमिक-तकनीकी शिक्षा, प्रशासन या राजनीति में रुचि और दक्षता के कारण पहुँचता है। जैसे सायकिल की मरम्मत करना एक तरह की दक्षता है और हवाईजहाज उड़ाना दूसरे प्रकार की दक्षता किंतु यह जरूरी नहीं कि इन कार्यों में निपुणता रखनेवाले वैज्ञानिक दृष्टि भी रखते हों। वैज्ञानिक दृष्टि का संबंध इस बात से है कि आपको बचपन से, घर-परिवार और समाज में तथा अकादमिक तौर पर आखिर सिखाया-पढ़ाया क्या गया है! यदि आप धर्म या अन्य अंधविश्वासों को लेकर वयस्क होने पर भी महज आस्थावान और श्रद्धालु बने रहे हैं तो वैज्ञानिक दृष्टि का विकास हो ही नहीं सकता। एक अनपढ़ किसान या मजदूर भी वैज्ञानिक दृष्टि संपन्न हो सकता है, यदि उसने ऐसी दृष्टि पाने का वैचारिक, बौद्धिक उपक्रम किया है। यदि वह जिज्ञासु, संदेहशील होकर विचारशीलता की तरफ बढ़ा है।
जाहिर है कि विशाल स्तर पर प्रयास करने, वातावरण बनाने, तािर्ककता और बौद्धिकता के पक्ष में काम करते रहने पर समाज के वृहत्तर हिस्से को वैज्ञानिक दृष्टिसंपन्न बनाया जा सकता है। पाठ्यपुस्तकों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का शिक्षण शामिल करने एवं अवैज्ञानिक सामग्री को बाहर करते हुये भी इस काम को आगे बढ़ाया जा सकता है। अखबारों में, दूरदर्शन पर ज्योतिष सहित अन्य प्रकार के अंधविश्वास फैलाने को रोकने की मुहिम चलायी जा सकती है। (जैसे भाजपा द्वारा ज्योतिष को पढ़ाये जाने की मुहिम चलायी गयी।) जाहिर है कि इस तरह के सारे कदम और इसी क्रम में अन्य अनेक कदमों को योजनाबद्ध तरीकों से ही लागू किया जा सकता है। वैज्ञानिकता के प्रति सहज उत्सुकता नहीं होती क्योंकि वह बुद्धि-व्यापार के साथ एक तरह का आत्म-संघर्ष भी है, इसलिए नानाप्रकार के कदम उठाने होंगे। धर्म को `वैज्ञानिक दृष्टि´ से ही अपदस्थ किया जा सकता है। इसके पीछे राजनीतिक समर्थन और क्रियान्वयन भी जुटाना होगा। एक दिक्कत यह है कि हमारे देश में वामपंथ और वामपंथी आंदोलन संसदीय लोकतंत्र के जरिये चुनावी दलदल में फँस गया है और उसे लोकप्रियता की चिंता सताती है। वह डरता है कि धार्मिक मामले संवेदनशील हैं और जनता कहीं नाराज न हो जाएँ लेकिन इस तरह वह अपनी विचारधारा और जनता, दोनों के साथ धोखे कर रहा है। यह इतना बड़ा धोखा है कि आगे आने वाली नस्लों को वास्तविक काम करना दूभर हो जाएगा।
यदि
वैज्ञानिक दृष्टि की सबसे बड़ी विशेषता है कि वह कल्पनाशील तो होती है लेकिन किसी भी अमूर्त चिंतन का विरोध करती है। वह विवेक, विश्लेषण, अन्वेषण, बौद्धिक साहस और मानवीय श्रम को प्रोत्साहन देती है। यह दृष्टि कहती है कि बेहतर समाज के लिए, अपने आसपास के वातावरण को और परिस्थितियों को भी बदलना होगा, तदानुसार खुद की मान्यताओं को भी। पूरा मार्क्‍सवाद, `ब्ल्यू प्रिंट´ के साथ इसकी सामाजिक- आर्थिक व्याख्या करता है। धर्म-सुधार आंदोलन करते हुये बुद्ध ने एक कदम आगे जाकर कहा था- `संसार में दुख है´, मार्क्‍स ने एक और डग आगे बढ़कर कहा- `इस दुख के कारण और इसकी जड़ें समाज में हैं´। बुद्ध ने कहा-`दुखों को दूर किया जा सकता है´। मार्क्‍स ने कहा- `हाँ, अन्याय और शोषण को दूर करके, दुखों को दूर किया जा सकता है। सामाजिक क्रांति सब तरह के दुख दूर करने में समर्थ है।´ इन 5-6 शब्दों ने सब कुछ बदल दिया। और इस तरह एक नयी, बेहतर दुनिया का विकल्प सामने रख दिया। यह वैज्ञानिक दृष्टि संपन्नता होने के कारण ही हो सका।
`धर्म´ हर समाज में लंबे समय (हजारों वर्षों) के बाद ही विकसित और मान्य हो सका। धर्म का विकल्प भी विकसित होने में कुछ समय लेगा लेकिन उस दिशा में गंभीर, विचारपरक, योजनाबद्ध और प्रतिबद्ध काम तो शुरू हो। यह काम राजनीतिक और सामाजिक स्तर पर एक साथ शुरू करना होगा। भले ही हास्यास्पद लगे लेकिन मोटा अनुमान लगाते हुये कहा जा सकता है कि यदि आज से तमाम प्रगतिशील- जनवादी-वामपंथी-मानवतावादी शक्तियाँ जुट जाएँ तो 25-30 वर्षों में स्थिति काफी बेहतर हो सकती है और तब संभवत: `वैज्ञानिक दृष्टि´ धीरे-धीरे धर्म का विकल्प बनने लगे। यह `यदि´ महत्वपूर्ण है। और चुनौतीपूर्ण भी।
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बुधवार, 10 जून 2009

धर्म एक अंधविश्‍वास है


धर्म के विकल्‍प पर पु‍नर्विचार की श्रंखला में यह चौथी किश्‍त।
अंतिम किश्‍त जल्‍दी ही।


धर्म की अपराजेयता
अभी तक धर्म अपराजेय चला आ रहा है। उसके कुछ प्रमुख कारणों पर, संक्षेप में विचार करें तो सबसे पहला बिंदु यही उभरकर आता है कि वह एक अंधविश्वास है और उसे कुछ भी सिद्ध नहीं करना है। उसे आस्थामूलक, तर्कातीत बनाया गया है। धर्म के अंतर्गत जो लिखा है, जिन ग्रंथों में लिखा है उन्हें अपार प्रतिष्ठा दी जा चुकी है इसलिए अब वे प्रश्नातीत हैं।
दूसरा, वह ऐसे वायवीय प्रश्नों पर अचूक उत्तर देने का भ्रम फैलाता है, जिनका उत्तर देना वस्तुत: किसी के लिए भी लगभग असंभव है। जैसे मृत्यु, मृत्यु के बाद का जीवन, स्वर्ग-नरक की अवधारणा, पुनर्जन्म आदि की कपोल कथायें। (इन उत्तरों के जरिये भी उसे कुछ सिद्ध नहीं करना है, सिर्फ कह देना है और सुनने-जानने वाले को मान लेना है।)
तीसरे, उसमें संस्थागत लक्षण है और प्रचारक का गुण है। श्रद्धा का विषय तो वह बना ही दिया गया है अतएव उसे सुनने, मानने का सहज क्रियाकलाप समाज में मौजूद होता गया है।
चौथा, हर परिवार में, प्रत्येक घर में बच्चा पैदा होते ही उसे धार्मिक वातावरण एवं शिक्षा देना शुरू हो जाता है। बच्चा अपनी अबोध अवस्था में ही, धीरे-धीरे, रोज-रोज धार्मिक और कर्मकांडी बना दिया जाता है। धर्म के खिलाफ कुछ भी सोचने के लिए उसका वंध्यकरण कर दिया जाता है। और अंत में यह कि धर्म को `विश्वास का विषय´ बनाकर पेश किया जाता है।
बर्टेण्‍ड रसेल ने विश्वास के बारे में ठीक ही इंगित किया है: विश्वास अर्थात् किसी चीज को बिना प्रमाण के मानना। ऐसा विश्वास आखिर अंधविश्वास तो है ही।
वास्तविकता यह है कि संसार के किसी भी धर्म के सूत्र, आदेश या नियम कतई ईश्वरीय नहीं हैं बल्कि वे प्रकरांतर से अपने युग के अभिजात्यों, सामंतों, पुरोहितों, सत्ताधारकों अथवा सत्ता का प्रतिरोध कर रहे विचारकों, विद्वानों के आदेश भर हैं जो उन्होंने अपने पीढ़ी दर पीढ़ी चल सकनेवाले वर्चस्व के लिए, यश कामना के लिए अथवा पंथनिर्माण के लिए बनाये, उन्हें महिमामंडित किया और दंड-विधान के साथ लागू किया। विद्वान दार्शनिकों ने भी बीच-बीच में धर्म में सुधारात्मक रवैया अपनाया और प्राय: अपना एक धर्म खड़ा कर दिया। इसलिए महापंडित राहुल सांकृत्यायन ठीक ही निष्कर्ष निकालते हैं कि धर्म को ईश्वर से अलग करने पर वह महज एक बेहद पुराने जमाने के, अब अप्रासंगिक हो चुके आचरणसूत्र में विघटित और न्यून होकर रह जाएगा।
धर्म को ईश्वर से जोड़ देने के कारण ही वह आदेशात्मक और प्रभुत्ववादी हो उठता है। अब वह वैसा सर्प हो जाता है जिसमें मारक विष भी है। अब वह भयोत्पादक है और पूजनीय भी। इसी कारण वह परंपरा, स्मृति और संस्कृति से भी उच्चतर एवं अनुलघंनीय गरिमा प्राप्त कर लेता है। एक बार फिर मार्क्‍स का ही कथन यहाँ सहज याद आता है: `विश्व से परे किसी दर्शन का कोई अस्तित्व नहीं होता, जैसे कि मनुष्य के परे मस्तिष्क का कोई अस्तित्व नहीं होता।.....आप (धर्माचार्य) लोक-परलोक का आश्वासन देते हैं, दर्शन सत्य के अतिरिक्त किसी चीज का आश्वासन नहीं देता।´ जाहिर है कि यहाँ दर्शन का व्यापक भौतिकवादी अर्थ है और उसे इस उद्धरण की पहली पंक्ति में देखा जा सकता है।

वैज्ञानिक दृष्टिकोण
मोती जैसा कोहरा
सबसे पहले `गेलीलियो का जीवन´ (बेर्टोल्ट ब्रेष्ट) नाटक में से गेलीलियो के बड़े डॉयलाग के कुछ अंश देखे जाएँ, जो संशलिष्ट रूप में धर्म की साजिश, वैज्ञानिक दृष्टिकोण और वैज्ञानिकों के दायित्वबोध पर भी प्रकाश डालता है : `.....विज्ञान का अनुसरण भी मेरे मुताबिक, संदेह द्वारा पाये गये ज्ञान से है। विज्ञान सभी लोगों को सभी चीजों के बारे में ज्ञान उपलब्ध कराकर उनको अविश्वासी बनाने की कोशिश करता है। (यह अविश्वासी बनाना ही उनके विवेक को जाग्रत करना है तथा तर्क पद्वति का, स्वतंत्र चेतना का विकास करना है।-कुअं) जनसंख्या का एक बड़ा भाग उनके राजकुमारों, जमींदारों और पादरियों द्वारा (सत्ताधारी, अभिजात्य एवं पुरोहित वर्ग द्वारा) अंधविश्वासों और प्राचीन शब्दों के उस मोती जैसे कोहरे में रखा जाता है जो इन लोगों की साजिशों को ढक लेता है। अनेक लोगों की दरिद्रता पर्वतों की तरह पुरानी है और चर्च (धर्म) के प्रवचन-मंच और डेस्क से इसे पर्वतों की तरह अनश्वर बताया जाता है। सितारों की गतियाँ तो स्पष्ट हो गयी हैं मगर जनसाधारण के लिए अभी तक उनके मालिकों की गतियों का अनुमान लगाना असंभव है। संदेह के (ज्ञान के) द्वारा नक्षत्रों को नाप लेने की लड़ाई तो जीत ली गयी है लेकिन गृहणी की दूध के लिए लड़ाई, उसके (अंध)विश्वास के कारण बार-बार हारी जा रही है। विज्ञान का वास्ता दोनों तरह की लड़ाइयों से है। हजारों साल पुराने इस मोती जैसे सफेद कोहरे में ठोकर खाती यह मानवजाति, जो अपनी ही शक्तियों को पूरी तरह विकसित करना नहीं जानेगी तो यह तुम्हारे द्वारा दिखाई गयी प्राकृतिक शक्तियों को भी विकसित करने में असमर्थ होगी। तुम लोग किसलिए काम कर रहे हो? मेरा विश्वास है कि विज्ञान का एकमात्र उद्देश्य सिर्फ मानवीय अस्तित्व के घोर कष्टों को कम करना है। स्वार्थी सत्ताधारियों से डरकर जब वैज्ञानिक सिर्फ ज्ञान के लिए ही ज्ञान संचय करने लग जाते हैं तो विज्ञान विकलांग हो जाता है और तुम्हारी नयी मशीनें सिर्फ अत्याचर के नये तरीकों का प्रतिनिधित्व करती हैं।´
वैज्ञानिक दृष्टिकोण, जाहिर है मनुष्य को प्रश्नाकुल बनाता है, रहस्यों का उत्तर खोजने के लिए प्रेरित करता है लेकिन रहस्यवादी होने से बचाता है। अवैज्ञानिक दृष्टिकोण (जैसे धर्म) डराता है, उलझाता है, बहकाता है, ठगी करता है और ऐसे उत्तर देता है जिन्हें सिद्ध न किया जाए, स्वयंसिद्ध मान लिया जाएँ वैज्ञानिक दृष्टिकोण ही हमारे समय-समाज की प्रमुख समस्याओं का निदान बता सकता है। जैसे: गरीबी, अशिक्षा, जनसंख्यावृद्धि, बेरोजगारी, गैर-बराबरी के वस्तुगत और सच्चे उत्तर दे सकता है। किसी भी देश में ये सब समस्यायें बेहतर प्रबंधन, नियोजन, शिक्षाप्रसार, युक्तियुक्त कानून-नियमों-दंडप्रावधानों और अंधविश्वासों को दूर करते हुये खतम की जा सकती हैं। इसी संसार में अनेक समाजों-देशों में यह संभव हुआ है और कुछ देशों ने इन समस्याओं पर काफी हद तक विजय पायी है। यहाँ तक कि बाढ़, सूखा, भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदायें भी किस तरह मनुष्यनिर्मित हैं अथवा किस तरह इन आपदाओं से पार पा सकते हैं, यह भी वैज्ञानिक दृष्टिकोण से जानना संभव है। प्रख्यात अर्थशास्त्री अमर्त्‍य सेन को इसी केंद्रीय काम के लिए ही नोबेल पुरस्कार दिया गया है।
वैज्ञानिक दृष्टिकोण के जरिये मनुष्य अपने सुख-दुख के कारणों को, दुर्घटनाओं और अवसरों के कारणों को बेहतर तरीके से समझ सकता है, उन्हें विश्लेषित कर सकता है और सबसे बड़ी बात, भाग्यवादी या नियतिवादी न होकर, अपनी परिस्थितियों का मुकाबला करने के लिए और आवश्यकतानुसार उन्हें बदलने के लिए उद्यत हो सकता है। तब उसे किसी झूठे ईश्वरीय सहारे की जरूरत नहीं रहेगी और न ही किसी काल्पनिक सत्ता के होने की सांत्वना की जरूरत। यह सब एक दिन में नहीं होगा किंतु वैज्ञानिक दृष्टि के प्रसार, प्रचार और वातावरण बनाये जाने की गति और उत्साह पर निर्भर करेगा कि कितने समय में यह जगह बन सकेगी। संभव है इसमें दो सौ बर्ष भी लगें। या पचास वर्ष भी। यदि इसके पक्ष में काम नहीं किया जाएगा तो जाहिर है कि हजार सालों में भी कुछ नहीं होगा।
वैज्ञानिक दृष्टिकोण और विज्ञान मिलकर उन सब चीजों की वास्तविक व्याख्या कर सकने में समर्थ हैं, जिसका झूठा दावा धर्म करता है। एक उदाहरण से बात स्पष्ट की जा सकती है। मृत्यु के बाद क्या होता है, मनुष्य (प्राणी) कहाँ जाता है?? इसके संभव धार्मिक उत्तर हैं कि वह 1. पुनर्जन्म के जरिये अपनी योनि में वापस आता है। 2. किसी दूसरी योनि में चला जाता है। 3. स्वर्ग या नर्कवासी होता है और फिर बाद में कभी किसी योनि में जन्म लेता है। 4. मोक्ष/निर्वाण को प्राप्त होकर परमपिता का अंश बनता है।
ये सारे उत्तर काल्पनिक हैं और आज तक इन्हें कोई सिद्ध नहीं कर सका है, न संत, न योगी, न मठाधीश और न ही संसार का कोई धर्म। बहरहाल, वैज्ञानिक संभव उत्तर यह हो सकता है: संसार में जितने भी जीवित प्राणी हैं, वे अपने `जैविक अवयवों के समुच्चय´ ( biological setup) होने के कारण जीवित, ऊर्जावान और सक्रिय हैं। । जैसे मनुष्य को ही लें, तो अकेले हृदय, किडनी, लीवर, हाथ, पैर या मस्तिष्क को मनुष्य नहीं कहा जा सकता, ये सब और अनंत शिराओं-कोशिकाओं से मिलकर ही मनुष्य का `जैविक संयोजन´ बनता है। हर संयोजन का या उसके अवयवों का, विकासमान अवस्था के साथ एक आयुष्य होता है, चाहे वह जैविक प्रकृति हो या पदार्थों/तत्वों का संयोजन। यह संयोजन जैसे ही गड़बड़ाता है उसे हम बीमारी कहते हैं और उसका इलाज भी संभव है लेकिन जैसे ही वह प्राकृतिक तौर पर या दुर्घटना में नष्ट होता है या आयुष्य को पूरा होता है, मनुष्य/प्राणी का जीवन समाप्त हो जाता है। इसमें किसी अन्य लोक में जाने या मृत्योपरांत जीवन का प्रश्न ही कहाँ उठता है। यह ठीक वैसा ही है जैसे कंप्यूटर या रोबोट के जीवन के साथ होता है। फर्क यह है कि ये `इलेक्ट्रॉनिक सेटअप´ हैं। इनके अवयवों की भी एक आयु होती है, एक सीमा तक इन्हें ठीक (repair) किया जा सकता है और अंतत: एक दिन इनका भी जीवन पूरा हो जाता है। जैसे ये किसी अन्य लोक में नहीं जाते हैं, उसी तरह मनुष्य भी मृत्यु के बाद कहीं नहीं जाता।
लेकिन धर्म ठीक उलटी, मनगढंत बातें प्रचारित कर, जनता का जीवन लगातार दुखमय करता है। झूठे आश्वासन देकर, कष्टों के मूल कारणों से उसे अपरिचित रखता है। ब्राह्मणों, पुरोहितों, पंडों का जीवन-यापन तो इसी तरह के अनेक गपोड़पनों पर चल रहा है। इस तरह के तमाम सवालों, शंकाओं का उत्तर भी वैज्ञानिक दृष्टिकोण से ही दिया जाना संभव है। यदि किसी बात का उत्तर विज्ञान के पास आज नहीं है तो कल जरूर होगा, जैसे सौ-पचास वर्ष पहले उठे सैंकड़ों प्रश्नों के उत्तर उस समय के विज्ञान के पास भले न रहे हों किंतु आज उनके उत्तर विज्ञान के पास हैं। लेकिन धर्म के पास न तो आज उसके उत्तर हैं और न ही भविष्य में कभी हो सकते हैं क्योंकि वह विशुद्ध अंधविश्वास है।

सोमवार, 1 जून 2009

धर्म नशा है


धर्म का विकल्‍प: एक पुनर्विचार लेख की यह तीसरी किश्‍त।


धर्म नशा ही है
धर्म नशा है। अफीम से भी कहीं ज्यादा बड़ा नशा।
कीर्तन करते-कराते समूहों, हथियार लहराते, नानाप्रकार के क्रियाकलाप करते, नाचते-गाते या छाती पीटते धार्मिक जुलूसों, सांप्रदायिक दंगों (वस्तुत: वे धार्मिक दंगे हैं) में भयानक हिंसा का प्रदर्शन। इन सबको तटस्थ भाव से विश्लेषित कीजिये और देखिए, जो उनके अंग-संचालनों की स्थिति, मानसिक उत्ताप, अतािर्कक अवस्था, असहजता, अस्वस्थता होती है वह किसी भी बड़े और घातक नशे के दौरान ही संभव हो सकती है। सामूहिकता या भीड़ भी इस नशे को बढ़ाती है। सत्संग, कीर्तन, प्रार्थना, नमाज आदि के समय दिया गया प्रत्येक उपदेश उपस्थित समूह पर, उनके मनोजगत पर वशीकरण (हिप्नोटिज्म) की तरह काम करता है। इस अवसर पर दिया जानेवाला फतवा या धर्मादेश हिंसा फैलाने में सक्षम है। इसके रोजमर्रा के जीवन में ही अनेक उदाहरण हम देखते हैं। अनुयायियों को भड़काना आसान है क्योंकि धर्म उन्हें नशे में उन्मत्त तो कर ही चुका होता है। धार्मिकता की प्रत्येक अवस्था में भक्त केवल श्रद्धालु, आज्ञाकारी, अतािर्कक होता है और उसे विवेक प्रयोग करने की तो जैसे अनुमति ही नहीं होती। यह सब `नशा´ पैदा करके ही संभव है और धर्म यह करता है। चिकित्सीय कोण से देखें तो `धर्म के नशे से पैदा मानसिक उत्ताप या अवसाद´ बाकायदा एक मनोरोग है जिसकी विशिष्ट, निर्दिष्ट दवायें हैं: उदाहरण के लिए हौम्योपैथी में वेरेट्रम और स्ट्रेमोनियम। (संदर्भ: डॉ. जे.टी. केन्ट और डॉ बोरिक की रेपर्टरी)
`धर्म से उत्पन्न नशे´ की पृष्ठभूमि में ही चमत्कारों, अंधविश्वासों, अधूरी ज्ञान पद्धतियों, जादू-टोनों और कर्मकाण्डों को स्थापित कर पाना आसान है। क्योंकि नशे में अब विवेक नष्ट है, आस्था और जुनून प्रबल है। ज्योतिष-गणनाओं, भविष्यवाणियों, नक्षत्रगतियों, ग्रहप्रभावों, वरदानों, शापों, मंत्रों, रूढ़ियों आदि के लिए वह संरक्षक की भूमिका निबाहता है। ईश्वर नामक अंधविश्वास को प्रतिष्ठा देता है। (मदर टेरेसा को पोप द्वारा मरणोपरांत संत घोषित कर सकने के लिए दो चमत्कारों की माँग करना इसी श्रेणी का उदाहरण है।) हिन्दू-मुस्लिम-सिख-बौद्ध-जैन-ईसाई-पारसी आदि सभी धर्मों में, उनकी कथाओं में, अवतारी नायकों के चरित्रों में, चमत्कारी कथाओं का प्रमुख और आदरणीय स्थान है। इसीका परिणाम है कि मजार, कुटियों, आश्रमों सहित तमाम धार्मिक स्थानों और उनमें विराजमान धार्मिक लोगों के साथ करिश्मों के किस्से जोड़ दिये जाते हैं ताकि जनता उनके आस्थाजन्य प्रभामंडल का शिकार होती रहे। चूँकि बुद्धि सक्रिय, चेतन तत्व है और आस्था एक निष्क्रिय शरणागत स्थिति इसलिए वह चेतना का, बौद्धिक सक्रियता का, तािर्ककता का विरोध करता है। वह बुद्धि और आस्था में, आस्था को महत्व देता है, भक्ति, श्रद्धा आदि को वरेण्य मानता है। इस तरह वह मनुष्य की मेधा, श्रम और शक्ति को कुंठित करने में सहायक है।
धर्म की कुछ समस्यायें भी समय के साथ-साथ आधुनिक होती गयी हैं जो इस `नशे´ को नयी उपयोगिताओं में धकेलती हैं। पहली व्यवसायीकरण। इसके तहत अब धर्म एक विशाल वित्तीय संस्था का रूप ले चुका है। बड़ी संख्या में चर्चों, मंदिरों, मजारों, गुरुद्वारों, मिस्जदों, आश्रमों और अन्य धार्मिक स्थलों-स्थानों की स्थिति पूँजीपतियों की है। वहाँ इतना पैसा और संपत्ति है कि उत्तराधिकार, गद्दीनशीनी और पुजारी या ग्रंथी होने के लिए हिंसक झगड़े होना आम लक्षण है। इनके पास यह अकूत संपत्ति बेहिसाब है, प्राय: किसी प्रकार के कर और अन्य दायित्वों से मुक्त है और ये सारे स्थान इनसे जुड़े उच्च धर्मप्रमुखों के लिए सत्ता, भोग और इंद्रिय आनंद के केंद्र हैं। इस कारण प्रत्येक धर्म अब एक संस्थान (कार्पोरेट) है जिसके व्यवसाय का टर्नओव्हर खरबों रुपये है। इसी आर्थिक शक्ति के कारण इन धर्मप्रमुखों और संस्थानों ने पूरे संसार में प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का भरपूर उपयोग शुरू कर दिया है। ये विज्ञापन प्रकाशित कराते हैं, चैनल्स को भुगतान करते हुये उपदेश देते हैं और अपने भक्तों (ग्राहकों) की संख्या बढ़ाते हैं। यह इनके व्यवसायिक होने का ही प्रधान लक्षण है। इस प्रक्रिया में ये अपनी साख, प्रतिष्ठा, संपत्ति (दान, आयोजनों द्वारा) बढ़ाते चले जाते हैं। चूँकि इनके पास असीम पूँजी है इसलिए इनका व्यवहार, सत्ता में हस्तक्षेप और जनता को विमूढ़ रखते चले जाने की भूमिका ठीक वैसी है जैसी किसी पूँजीपति की होती है। बल्कि ये पूँजीपतियों से भी अधिक घातक हैं क्योंकि इनके पास धर्म की प्रभामंडलीय ओट और धर्म का ही हथियार है। इन आश्रमों, धर्मस्थलों, धर्मप्रधानों की तटस्थ, सघन जाँच की अनुपस्थिति ने इनका असली चेहरा कभी सामने नहीं आने दिया है। और कभी फुटकर उदाहरणों में सामने आया भी है तो इसके `नशामूलक´ असर के कारण जनता ने इन्हें वस्तुत: अपराधी माना ही नहीं। यह धर्म के प्रभाव की अनेक विडंबनाओं में से एक है।
दूसरी समस्या है, धर्म का राजनीतिकरण। जो पूरे संसार में, खासतौर पर भारत की दिनचर्या में कुछ ज्यादा ही बढ़ चुका है। कहा जा सकता है कि धर्म का यदि किसी जगह सर्वाधिक उपयोग किया जा रहा है तो वह राजनीति है। इससे सांप्रदायिकता की समस्या सीधे-सीधे जुड़ी है। मजेदार बात यह है कि यहाँ धर्म का आशय धर्मावलंबियों की संख्या, धार्मिक स्थानों तथा धार्मिक प्रतीकों में न्यून कर दिया गया है और तमाम मानवीयता, नैतिकता, मनुष्य की नागरिक समस्याओं - भोजन, गरीबी, पीने का पानी, न्याय, परिवहन, समता, मानवाधिकार, आवास आदि को दरकिनार करते हुये, किसी पार्टी विशेष की जीत को धर्म की जीत बताने की जुर्रत की जाती है। इस राजनीतिकरण के बारे में, इसके दुष्प्रभावों और अमानवीयता के बारे में सजग पत्रकारों-लेखकों द्वारा लगातार लिखा जा रहा है इसलिए यहाँ इतना कहना ही उचित है कि जो लोग सोचते हैं कि धर्म और सांप्रदायिकता अलग-अलग चीजें हैं, वे वस्तुत: अंगूर और अंगूर की शराब में जानबूझकर भेद नहीं करना चाहते हैं। अंगूर से जब तक शराब नहीं बनती, वह एक फल है, लेकिन अंगूर की शराब जब बनेगी तो अंगूर से ही बनेगी। इसी तरह प्रत्येक धर्म-विश्वासी सांप्रदायिक हो, यह कतई जरूरी नहीं, लेकिन प्रत्येक सांप्रदायिक आदमी किसी न किसी धर्म में, उपासना पद्धति में विश्वास करनेवाला होता ही है। धर्म की वजह से मनुष्य नैतिक, परोपकारी, समतावादी, न्यायवादी, सत्यप्रिय और मानवतावादी हो गया होता तो आज संसार में दृश्य कुछ और होता, तब धर्म के विरोध में यह सब सोचने-बताने की जरूरत ही नहीं पड़ती। जो धार्मिक हैं और बेहतर मनुष्य भी हैं, वे अपनी व्यक्तिगत वजहों, सामाजिक शिक्षा, निजी विवेक और प्रज्ञा इत्यादि के कारण ऐसे हैं। अन्यथा धार्मिक लोगों की संख्या समाज में कम से कम नब्बे प्रतिशत तो है ही और ऐसी स्थिति में लगभग नब्बे प्रतिशत लोग श्रेष्ठ मनुष्य होने चाहिये थे जबकि व्यवहार में हम देखते हैं कि स्थिति ठीक उलटी है। इसलिए धर्म को अपदस्थ करना एक कार्यभार भी है।

धर्म एक पुराना, भोंथरा, जंग लगा औजार
धर्म दरअसल अब एक पुराना, भोंथरा, जंग लगा औजार है। अस्तु, वह समााजरूपी शरीर को केवल हानि पहुँचा सकता है। जिस तरह आज पुराने औजारों से कोई डॉक्टर ऑपरेशन नहीं करता, जंग लगे औजारों से तो कतई नहीं। उसी तरह धर्म भी अब एक आधुनिक औजार नहीं है। बल्कि आधुनिक समाज के निर्माण के परिप्रेक्ष्य में तो वह जंग खाये हुये छुरे से अधिक कुछ नहीं, जो रक्षा का खतरनाक आश्वासन भी देता है लेकिन बदले में नयी-नयी संक्रामक बीमारियाँ फैलाता है। धर्म को क्रियान्वयित करने के लिए जो किताबें हैं (जिन्हें पवित्र धार्मिक मार्गदर्शी पुस्तकों का या धर्म-साहित्य का दर्जा प्राप्त है), उनके उपदेशों, नसीहतों, सिद्धांतों या अमृत-वचनों में वे सब बातें भी हैं जो किसी समाज को पुरातन, रूढ़िवादी, अंधविश्वासी और पिछड़ा बनाये रखने के लिए पर्याप्त हैं। अब या तो इन किताबों में संशोधन किया जाए, उनमें हस्तक्षेप कर उन्हें आधुनिक बनाया जाए अथवा उन्हें मार्गदर्शक न माना जाएँ लेकिन हम सहज ही समझ सकते हैं कि किसी धर्म में, कोई संस्था या व्यक्ति ऐसा नहीं है जो इन ग्रंथों में संशोधन कर सके, उसे स्वीकृत करा सके इसलिए उचित यही होगा कि प्रगतिशील, बुद्धिजीवियों द्वारा यह उपचार लगातार किया जाए कि वे अपराजेय, अपरिवर्तनीय मार्गदर्शक ग्रंथों या मेनुअल्स की तरह अपने-अपने समुदाय पर कुशासन न करती रह सकें। वे इन पुस्तकों को गरिमा देने का कार्य बाधित करें और कट्टरपंथियों, उदारपंथियों के संभव भय और विरोध के बरअक्स भी यह कहते रह सकें कि ये `कोड-मेनुअल्स´ आधुनिक समाज के काम नहीं आ सकते, इन पर निर्भरता खत्म होनी चाहिये।
मार्क्‍स सहित तमाम दार्शनिकों-विचारकों ने उचित ही स्पष्ट किया है कि धर्म आलोचना की चेतना को बाधित करता है, उस पर रोक लगाता है, `कंडीशनिंग´ करता है। हम समझ सकते हैं कि आलोचना की चेतना नहीं रहेगी तो सबसे पहले स्वाधीनता, न्याय, विद्रोह और समता की चेतना खंडित होती है। अपनी आलोचना के मामले में धर्म ने सदैव असहिष्णुता का परिचय दिया है। इस तरह वह सभ्यता के सम्यक विकास में ही अवरोध बन जाता है। धार्मिकता और भौतिकवाद में छत्तीस का आँकड़ा है। जैसे `उदारवादी भ्रष्टाचारिता´ और भ्रष्टाचारिता में कोई फर्क नहीं है, इसी तरह `उदारवादी धार्मिकता´ और `धार्मिकता´ में भी कोई फर्क नहीं होता। ये प्रत्यय लड़ाई के रास्ते से बचने के लिए ही प्रयुक्त किये जा सकते हैं। धर्म के प्रति लड़ाई संपूर्णता में लड़नी होगी और उन सब नजरियों के प्रति भी जो धर्म को रुतबा देते हैं।
धर्म का यह आधुनिक स्वरूप सामंती समाज की उपज है इसलिए वह अपने पूरे चरित्र में सामंती, तानाशाह और निरंकुश हो जाना चाहता है। वह न केवल अपने जन्म के समय (युग) की रूढ़ियों और अज्ञानता से जकड़ा है बल्कि वहीं अड़ा हुआ है। वह सत्ताओं से अपनी मित्रता करता है। प्रत्येक धर्म सत्ताओं के जरिये ही, व्यापक रूप से फैलाया गया है। उधर सत्तायें धर्म के जरिये अपना अस्तित्व कायम रखती हैं। सदियों से यही गठजोड़ चला आ रहा है। वे एक-दूसरे से टकराती नहीं हैं, मित्रता निबाहती हैं। वे आपस में सहयोगी हैं, एक-दूसरे की रक्षक हैं। उनका वैमनस्य दो-चार दिन भी नहीं चल पाता। वे एक-दूसरे के पूरक हैं। जैसा कि देख सकते हैं, पूँजीवादी समाज में धर्म ने पूँजीवाद से भी मित्रता कर ली है, अपने आपको संस्थाबद्ध कर लिया है और वित्तीय शक्ति प्राप्त कर ली है। धर्म अपनी उच्चतर, विकसित संस्थागत अवस्था में पूरी क्रूरता के साथ पेश आता है। जाहिर है कि प्रगतिशील विचारकों, मानवतावादी और जनपक्षधर लोगों के समक्ष इस सामंती, निरंकुश, सत्ताकांक्षी और अब पूँजीवादी धर्म के खिलाफ अनवरत संघर्ष करने की चुनौती है।

धर्म की सकारात्मक भूमिकाएँ
देखें, धर्म की समाज में प्रमुख सकारात्मक भूमिकाएँ, जो आज भी प्रासंगिक हो, क्या हो सकती हैं? उदाहरणार्थ, वह पारलौकिक विश्वासों के आधार पर व्यक्तियों को मानसिक सुरक्षा प्रदान करता है और उन्हें अपने असफल, दरिद्र, निराश क्षणों में यह विश्वास और संबल दिलाता है कि आगामी समय में अथवा अगले जन्म में तो चीजें़ बेहतर हो सकती हैं। हर घटना, जिस पर मनुष्य का व्यक्तिगत या सामूहिक वश नहीं चल पाता, उसे नियति से जोड़कर उसे तत्काल एक आश्वासन उपलब्ध कराता है। साथ ही, वह अपनी समझ और सीमा के अनुसार नैतिक विचारों एवं मूल्यों का प्रसार करता है। वह उस पूरे समाज को, जहाँ उसका प्रभाव और मान्यता है, नियंत्रित करते हुये, अपनी तरह की सामूहिकता, सामाजिकता और नैतिकता का निर्माण भी करता है।
उपरोक्‍त भूमिकाओं का जरा-सा भी सावधान विश्लेषण यह स्पष्ट कर देता है कि इस कुल भूमिका के परिणामस्वरूप मानवसमाज कूकपोलकल्पनाधारी, कूपमंडूप, अनावश्यक संतोषी, यथास्थितिवादी, अकर्मण्य, अपनी स्थिति के लिए खुद को जबावदेह न माननेवाला, अवतारों की प्रतीक्षा करनेवाला, प्रगतिविरोधी, कट्टर, अंधविश्वासी होता चला जाता है। इस धार्मिक दृष्टि और वैज्ञानिक दृष्टि में मूलरूप से गहरा मतभेद है क्योंकि जहाँ वैज्ञानिक दृष्टिकोण कार्य-कारण, निरीक्षण-परीक्षण-अन्वेषण-खोज एवं तािर्कक-औचित्यपूर्ण व्याख्याओं में खुद को प्रस्तुत करता है, वहीं धार्मिक दृष्टिकोण अलौकिक शक्ति, अवतारवाद, कर्मकाण्ड, भाग्यवादिता में विश्वास करता है। धर्म के इस प्रभाव में मनुष्य मान लेता है कि उसके सुख-दुख का दाता कोई परमशक्ति है, इस तरह वह सांत्वना प्राप्त कर लेता है। धर्म की इसी भूमिका के कारण वह सत्ताप्रिय होता है क्योंकि सत्ता के अपराधों, गलतियों और चूकों की वह जाने-अनजाने रक्षा करता है और सत्ता के प्रति किसी भी विरोध एवं विद्रोह का शमन कर सकता है। इसीलिए मार्क्‍स का यह कथन सटीक है कि धर्म जनता की अफीम है।
कुछ लोगों ने इधर तर्क दिया है कि मार्क्‍स ने अपने लेख में दरअसल धर्म की प्रशंसा यह कहते हुये की है कि `धर्म उत्पीड़ित प्राणी की आह है, निर्दय संसार का मर्म है, निरुत्साह परिस्थितियों का उत्साह है।´ लेकिन पूरे पैराग्राफ और लेख को पढ़ते हुये साफ हो जाता है कि ये सब वाक्य इस सुविचारित आक्रामक वाक्य की ही पुष्टि एवं ध्वनियाँ हैं कि धर्म जनता की अफीम है। संदर्भित लेख में वे फिर आगे लिखते ही हैं कि `धर्म के उन्मूलन का अर्थ है जनता के वास्तविक सुख की माँग करना.....धर्म की आलोचना मनुष्य का मोहभंग कर देती है ताकि वह मनुष्य अब विवेक के साथ चिन्तन और कर्म कर सके.....`धर्म की आलोचना´ इस सीख पर खतम होती है कि मनुष्य के लिए मनुष्य सर्वोच्च प्राणी है जिससे यह अनिवार्यता उजागर होती है कि उन समस्त संबंधों का खात्मा कर दिया जाए जो मनुष्य का दर्जा पतित, पराधीन, परित्यक्त या घृणास्पद बनाते हैं। (हेगेल के न्यायदर्शन की समालोचना का प्रयास-कार्ल मार्क्‍स।
एक कुतर्क और सामने आया है कि मार्क्‍स की धर्म संबंधी आलोचना दरअसल हिन्दू धर्म की आलोचना नहीं है। यह ऐसा ही है जैसे कि अमेरीका या जापान में बैठकर किये गये भ्रष्टाचार के अध्ययन को यह कहकर खारिज किया जाए कि यह भारत में चल रहे भ्रष्टाचार की आलोचना नहीं है, इसलिए भारतीय भ्रष्टाचार आलोच्य नहीं है।
मार्क्‍स स्पष्ट करते हैं कि धर्म एक काल्पनिक सुख देता है और वह सुख वास्तविकता में कभी प्राप्त नहीं हो सकता।
इसलिए धर्म का उन्मूलन अथवा वैज्ञानिक दृष्टि का विकास, जनता के लिए वास्तविक सुख की माँग करना है। ताकि मनुष्य अपने लिए, समाज के लिए वास्तविक और प्राप्य सुखों की माँग कर सके। स्वतंत्रता, समता, न्याय और मानवीय अधिकारों की माँग कर सके और लड़ सके और जान सके कि उसके साथ जो भी अन्याय, दुख, गरीबी और त्रास संलग्न है वह किसी भी अलौकिकता, पूर्वजन्मों के पाप आदि की वजहों से नहीं बल्कि इसी समाज में रह रहे नियामकों, सत्ताधारियों, धार्मिक आश्वस्तियों और पूँजीपतियों के शामिल खेल की वजह से है। जो लोग कहते हैं कि धर्म वैज्ञानिक है, तार्किक है, समाज को प्रगति की तरफ ले जानेवाला है उनसे तो यह फ्रांसीसी कहावत ही कही जा सकती है- `आप लिखते हैं `लंदन´ और पढ़ते-बोलते हैं `कुस्तुनतुनिया´।´