धर्म पर पुनर्विचार करते हुए लिखे गए इस लेख की अंतिम किश्त।
इतने लंबे लेख को, किश्तों में ही सही, पढ़ने के लिए पाठकों के प्रति आभार। और संलग्न आशा कि इस विमर्श को वे अपने-अपने स्तर पर बढ़ाएंगे।
वैज्ञानिकता को धोखा
धर्म से जुड़े चमत्कार हमेशा व्यक्तिगत प्रमाणों और अनुभवों के आधार पर प्रचलित और मान्य होते हैं। यथा- मैंने प्रेत देखा, ध्यानावस्था में मुझे जमीन से ऊपर उठने की अनुभूति हुयी, कल रात हनुमानजी या प्रभु ईशु मेरे सपने में आये, संत के आशीर्वाद से हमारे यहाँ बच्चा हुआ, गुरूकृपा से या किसी मजार पर चादर चढ़ाने से मैं उत्तीर्ण हुआ आदि-इत्यादि। इन व्यक्तिगत अनुभवों (जो दरअसल कल्पनाओं, चिंताओं, उम्मीदों, दिवास्वप्नों के मनोभावों से जुड़ी हैं और कोई भी मनोवैज्ञानिक उनका ज्यादा अच्छा स्पष्टीकरण दे सकता है) का कोई अर्थ समाज की प्रगति में नहीं है। इन निजी अनुभवों के गुब्बारे सामूहिकता के स्तर पर, विज्ञान के मानदंडों की कसौटी पर कसते ही फुस्स होकर फूट जाते हैं। इन व्यक्तिगत अनुभवों में कितना झूठ, सम्मोहन, आस्था-श्रद्धा, मनोरोग और कितना भक्ति-मुग्धभाव शामिल हो सकता है, यह सहज ही समझा जा सकता है।
नि:संदेह विज्ञान की सीमायें हैं और रहेंगी क्योंकि प्रकृति असीम है, मनुष्य सहित समस्त प्राणी जगत की संरचना अत्यंत जटिल है लेकिन विज्ञान जो भी जानता-बताता है वह प्रयोगों और पुष्टि के आधार पर ही। किसी भी गलत अवधारणा को वह तत्काल संशोधित करता है और कतई अंधविश्वास नहीं फैलाता। जो लोग विज्ञान से हर बात का प्रमाण का माँगते हैं, उससे तार्किक होने की अपेक्षा रखते हैं (याद रखें कि वह प्रमाण और तर्क देता भी है), वे लोग धर्म से क्यों किसी बात का प्रमाण नहीं माँगते? उससे तार्किक रूप से पेश क्यों नहीं आते? सीधा-सादा जबाव है कि वे धर्म को लेकर अंधविश्वासी हैं। इसकी हद यह है कि वे जब विज्ञान के आधुनिकतम आविष्कार जैसे कार या मोटरसायकिल खरीदते हैं तो उसकी भी पूजा करते हैं और कंप्यूटर खरीदते हैं तो सबसे पहले मॉनीटर पर साँतिया बना देते हैं।
वैज्ञानिक दृष्टिकोण या तार्किक जीवन प्रणाली के फैलाव को रोकने में विरोधी शक्तियाँ तो सक्रिय रहती ही हैं क्योंकि उनका काम ही यह ठहरा लेकिन प्रगतिशील- जनवादी-वामपंथी चेतना से जुडे़ लोग भी जाने-अनजाने यह भूमिका निभा देते हैं। परंपरा, संस्कृति और व्यवहारिकता के नाम पर वे काफी कुछ ढकोसले अपने जीवन में पाले रहते हैं। रैकी, टेलिपैथी जैसी चीजों के प्रति उनका आकर्षण और समझ ठीक वैसे ही काम करती है जैसे किसी अतार्किक व्यक्ति की। इसमें क्या और कितना वैज्ञानिक है, कितना ग्राह्य है और कितना अग्राह्य, इसका विश्लेषण भी वे प्राय: करते नजर नहीं आते। वे इन क्रियाओं को महज धार्मिक, आध्यात्मिक उपलब्धियों का अंग मानकर कुछ इस तरह पेश आते हैं कि उनका आचरण धर्म को, ईश्वर को, पुनरुत्थानवाद को सहायता पहुँचाता नजर आता है। टेलिपैथी जैसी धारणाएँ `संभाव्यता के नियम´ का लाभ उठाती हैं। जो आपका प्रिय है या संबंधी है, उसके बारे में आप अथवा आपके बारे में वह, एक साथ-एक ही समय में विचार कर सकता है। ऐसा सैंकड़ों बार हो सकता है और इसकी संभावना है कि दो-चार बार कुछ विचार सटीक बैठ जाएँ। यह गणितीय दृष्टि से, संभावना के नियम से सहज अपेक्षित है। इसी तरह, प्राय: ही हम अपने किसी प्रियजन के लिए आशंका से भर जाते हैं, उसकी दुर्घटना या मृत्यु तक की कल्पना कर बैठते हैं। अनेक बार ऐसा सोचते हुये, एकाध बार यह आशंका सही भी हो सकती है लेकिन इसका अर्थ कतई दैवीय आभास नहीं है। यह सहज संभावित है क्योंकि ट्रैफिक बढ़ रहा है, अनुशासन कम हो रहा है और आप बार-बार दुर्घटनाओं के बारे में विचार किये चले जा रहे हैं। यहाँ आप उन हजारों अवसरों को इस प्रसंग में भुला दे रहे हैं कि जब आपने दुर्घटना की आशंकाएँ की थीं लेकिन कुछ भी बुरा घटित नहीं हुआ। तब आपका यह पूर्वाभास कहाँ था?
हमारे ऐसे ही जन साठ की उम्र के आसपास पहुँचने पर अचानक मृत्युपार के जीवन पर विचार करने लगते हैं, घबराये दिखते हैं और धार्मिक मान्यताओं में अपनी घबराहट शांत करते नजर आते हैं। रूढ़िगत, परंपरागत, धार्मिक कृत्य तो वे करते दिखते ही हैं। (जैसे, मेरे एक प्रिय लेखक और विद्वान, जिनसे हम मार्क्सवाद सीखते रहे, अचानक मुंडनावस्था में मिले। मालुम हुआ कि कोई बुजुर्ग रिश्तेदार नहीं रहे। कहने लगे, मजबूरी में कराना पड़ा, मेरी माँ का आदेश हो गया था और मैं नहीं चाहता था कि 72 साल की माँ को पीड़ा पहुँचाऊँ। मैंने उनसे इतना भर पूछा कि क्या आपने पहले कभी अपनी माँ को किसी प्रसंग में पीड़ा नहीं पहुँचायी? वे चुप हो गये क्योंकि सुरापान, परनारी प्रसंग, सहज दैनिक अवज्ञा आदि अनेक प्रकरणों में वे अपनी माँ को ही नहीं, पूरे घर भर को कष्ट पहुँचाते रहे हैं।) दरअसल, ये लोग वैज्ञानिकता के पक्ष में अपना कुछ भी दाँव पर नहीं लगाना चाहते, अपने परिजनों का शिक्षण नहीं करते, जीवन में प्रतिबद्धता नहीं बताते, जरूरी दैनिक लड़ाइयाँ नहीं लड़ते और अंतत: अंधविश्वासों, रूढ़ियों की रक्षा करते हैं। अपने व्यक्ति-स्वातंत्र्य और मनमानियों के लिए वे घर में बखेड़ा खड़ा कर देंगे लेकिन वैज्ञानिक सोच, प्रगतिशील आचरण और नवाचार के अवसरों पर समझौते कर लेंगे। वस्तुत: ये लोग वैज्ञानिकता के, वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विरोधी हैं। ये अधजल गगरी हैं, आंतरिक शत्रु हैं और अधिक घातक हैं। इनका यह आचरण भी उत्तरदायी है कि हमारे देश में वैज्ञानिकता के पक्ष में प्रबल वातावरण नहीं बन पा रहा है। यह दुर्भाग्य है कि भारत में वामपंथी विचार से जुड़े अधिसंख्य लोग, अपने निजी जीवन में ऐसे ही उदाहरण पेश कर रहे हैं। यही नहीं, जहाँ वामपंथी लोग सत्ता में हैं या अन्य रूप से शक्तिसंपन्न हैं, वे भी वैज्ञानिकता का सघन, व्यवस्थित, योजनाबद्ध प्रचार करते नजर नहीं आते। और जिन लोगों ने सचमुच कुछ काम किया है वह विपुल आवश्यकता के बरअक्स ऊँट के मुँह में जीरा ही साबित हुआ है।
ऑपरेटिंग सिस्टम का सवाल
इस वैज्ञानिक दृष्टिकोण के प्रसार के लिए, आज भी ऐसे दैनिक अखबारों की जरूरत है जो जनता को जागरूक बनायें, अंधविश्वासों से बाहर लायें, प्रगतिशील विचारों का प्रसार करे। इसी तरह इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में चार-छ: चैनल्स होने चाहिये जो वैज्ञानिकता का, बुद्धिवाद का, भौतिकवाद का, तार्किकता का प्रचार करे और लोगों को उनके शोषण के बारे में सजग करे। दुनिया-जहान के विकास की ऐतिहासिक जानकारी दे, आदि-आदि। इसी तरह की अनेक प्रगतिशील, जनवादी, प्रगतिगामी संस्थाओं की आवश्यकता है। जो सचमुच सक्रिय हों और लंबी योजना के साथ प्रस्तुत हों। अपने समाज को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से संपन्न किये बिना, कोई भी प्रगतिमूलक, समाजवादी बदलाव नहीं हो सकता, और यदि हो भी जाए तो टिक नहीं सकता। मार्क्स ने तो बार-बार जोर देकर कहा है कि समाज में, जनमानस में बदलाव करो, जनशिक्षा बढ़ाओ और बौद्धिक रूप से ताकतवर बनाओ। इसे कंप्यूटर के उदाहरण से समझें कि `ऑपरेटिंग सिस्टम´ ही ठीक नहीं होगा तो उस पर कोई `सॉटवेयर´ कैसे काम करेगा! या कहें कि जैसा `ऑपरेटिंग सिस्टम´ होगा, वैसा ही सॉटवेयर काम करेगा। जाहिर है कि धर्म को, अंधविश्वासों को हटाये बिना, वैज्ञानिक समाजवाद, साम्यवाद आ ही नहीं सकता। भारत में तो धर्म ने वर्ण और जाति के आधार पर और ज्यादा जटिल समस्यायें पैदा कर दी हैं। हमारे समाज में धर्म-ईश्वर नामक ऑपरेटिंग सिस्टम है इसलिए इस पर पूँजीवादी, सामंती और घालमेलवादी सॉटवेयर आसानी से चल रहे हैं।
यहाँ यह जान लेना उचित होगा कि वैज्ञानिक, इंजीनियर, डॉक्टर, प्रशासक, थलसेनाध्यक्ष या प्रधानमंत्री होने से जरूरी नहीं कि कोई मनुष्य वैज्ञानिक दृष्टि से भी लैस हो जाएँ इन पदों तक कोई भी आदमी अकादेमिक-तकनीकी शिक्षा, प्रशासन या राजनीति में रुचि और दक्षता के कारण पहुँचता है। जैसे सायकिल की मरम्मत करना एक तरह की दक्षता है और हवाईजहाज उड़ाना दूसरे प्रकार की दक्षता किंतु यह जरूरी नहीं कि इन कार्यों में निपुणता रखनेवाले वैज्ञानिक दृष्टि भी रखते हों। वैज्ञानिक दृष्टि का संबंध इस बात से है कि आपको बचपन से, घर-परिवार और समाज में तथा अकादमिक तौर पर आखिर सिखाया-पढ़ाया क्या गया है! यदि आप धर्म या अन्य अंधविश्वासों को लेकर वयस्क होने पर भी महज आस्थावान और श्रद्धालु बने रहे हैं तो वैज्ञानिक दृष्टि का विकास हो ही नहीं सकता। एक अनपढ़ किसान या मजदूर भी वैज्ञानिक दृष्टि संपन्न हो सकता है, यदि उसने ऐसी दृष्टि पाने का वैचारिक, बौद्धिक उपक्रम किया है। यदि वह जिज्ञासु, संदेहशील होकर विचारशीलता की तरफ बढ़ा है।
जाहिर है कि विशाल स्तर पर प्रयास करने, वातावरण बनाने, तािर्ककता और बौद्धिकता के पक्ष में काम करते रहने पर समाज के वृहत्तर हिस्से को वैज्ञानिक दृष्टिसंपन्न बनाया जा सकता है। पाठ्यपुस्तकों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का शिक्षण शामिल करने एवं अवैज्ञानिक सामग्री को बाहर करते हुये भी इस काम को आगे बढ़ाया जा सकता है। अखबारों में, दूरदर्शन पर ज्योतिष सहित अन्य प्रकार के अंधविश्वास फैलाने को रोकने की मुहिम चलायी जा सकती है। (जैसे भाजपा द्वारा ज्योतिष को पढ़ाये जाने की मुहिम चलायी गयी।) जाहिर है कि इस तरह के सारे कदम और इसी क्रम में अन्य अनेक कदमों को योजनाबद्ध तरीकों से ही लागू किया जा सकता है। वैज्ञानिकता के प्रति सहज उत्सुकता नहीं होती क्योंकि वह बुद्धि-व्यापार के साथ एक तरह का आत्म-संघर्ष भी है, इसलिए नानाप्रकार के कदम उठाने होंगे। धर्म को `वैज्ञानिक दृष्टि´ से ही अपदस्थ किया जा सकता है। इसके पीछे राजनीतिक समर्थन और क्रियान्वयन भी जुटाना होगा। एक दिक्कत यह है कि हमारे देश में वामपंथ और वामपंथी आंदोलन संसदीय लोकतंत्र के जरिये चुनावी दलदल में फँस गया है और उसे लोकप्रियता की चिंता सताती है। वह डरता है कि धार्मिक मामले संवेदनशील हैं और जनता कहीं नाराज न हो जाएँ लेकिन इस तरह वह अपनी विचारधारा और जनता, दोनों के साथ धोखे कर रहा है। यह इतना बड़ा धोखा है कि आगे आने वाली नस्लों को वास्तविक काम करना दूभर हो जाएगा।
यदि
वैज्ञानिक दृष्टि की सबसे बड़ी विशेषता है कि वह कल्पनाशील तो होती है लेकिन किसी भी अमूर्त चिंतन का विरोध करती है। वह विवेक, विश्लेषण, अन्वेषण, बौद्धिक साहस और मानवीय श्रम को प्रोत्साहन देती है। यह दृष्टि कहती है कि बेहतर समाज के लिए, अपने आसपास के वातावरण को और परिस्थितियों को भी बदलना होगा, तदानुसार खुद की मान्यताओं को भी। पूरा मार्क्सवाद, `ब्ल्यू प्रिंट´ के साथ इसकी सामाजिक- आर्थिक व्याख्या करता है। धर्म-सुधार आंदोलन करते हुये बुद्ध ने एक कदम आगे जाकर कहा था- `संसार में दुख है´, मार्क्स ने एक और डग आगे बढ़कर कहा- `इस दुख के कारण और इसकी जड़ें समाज में हैं´। बुद्ध ने कहा-`दुखों को दूर किया जा सकता है´। मार्क्स ने कहा- `हाँ, अन्याय और शोषण को दूर करके, दुखों को दूर किया जा सकता है। सामाजिक क्रांति सब तरह के दुख दूर करने में समर्थ है।´ इन 5-6 शब्दों ने सब कुछ बदल दिया। और इस तरह एक नयी, बेहतर दुनिया का विकल्प सामने रख दिया। यह वैज्ञानिक दृष्टि संपन्नता होने के कारण ही हो सका।
`धर्म´ हर समाज में लंबे समय (हजारों वर्षों) के बाद ही विकसित और मान्य हो सका। धर्म का विकल्प भी विकसित होने में कुछ समय लेगा लेकिन उस दिशा में गंभीर, विचारपरक, योजनाबद्ध और प्रतिबद्ध काम तो शुरू हो। यह काम राजनीतिक और सामाजिक स्तर पर एक साथ शुरू करना होगा। भले ही हास्यास्पद लगे लेकिन मोटा अनुमान लगाते हुये कहा जा सकता है कि यदि आज से तमाम प्रगतिशील- जनवादी-वामपंथी-मानवतावादी शक्तियाँ जुट जाएँ तो 25-30 वर्षों में स्थिति काफी बेहतर हो सकती है और तब संभवत: `वैज्ञानिक दृष्टि´ धीरे-धीरे धर्म का विकल्प बनने लगे। यह `यदि´ महत्वपूर्ण है। और चुनौतीपूर्ण भी।
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