मंगलवार, 21 जुलाई 2009

खाना बनातीं स्त्रियाँ

अनेक दोस्‍तों के आग्रह पर यह कविता यहां दे रहा हूं। शायद पसंद की जायेगी।
पसंदगी से ज्‍यादा शायद इस स्थिति पर विचार किया जाये, जैसी इस समाज में हमने स्त्रियों की बना ही दी है। नियति की तरह।
खाना बनातीं स्त्रियाँजब वे बुलबुल थीं उन्होंने खाना बनाया
फिर हिरणी होकर
फिर फूलों की डाली होकर
जब नन्ही दूब भी झूम रही थी हवाओं के साथ
जब सब तरफ फैली हुई थी कुनकुनी धूप
उन्होंने अपने सपनों को गूँधा
हृदयाकाश के तारे तोड़कर डाले
भीतर की कलियों का रस मिलाया
लेकिन आखिर में उन्हें सुनाई दी थाली फेंकने की आवाज
आपने उन्हें सुंदर कहा तो उन्होंने खाना बनाया
और डायन कहा तब भी
उन्होंने बच्चे को गर्भ में रखकर खाना बनाया
फिर बच्चे को गोद में लेकर
उन्होंने अपने सपनों के ठीक बीच में खाना बनाया
तुम्हारे सपनों में भी वे बनाती रहीं खाना
पहले तन्वंगी थीं तो खाना बनाया
फिर बेडौल होकर
वे समुद्रों से नहाकर लौटीं तो खाना बनाया
सितारों को छूकर आईं तब भी
उन्होंने कई बार सिर्फ एक आलू एक प्याज से खाना बनाया
और कितनी ही बार सिर्फ अपने सब्र से
दुखती कमर में चढ़ते बुखार में
बाहर के तूफान में
भीतर की बाढ़ में उन्होंने खाना बनाया
फिर वात्सल्य में भरकर
उन्होंने उमगकर खाना बनाया
आपने उनसे आधी रात में खाना बनवाया
बीस आदमियों का खाना बनवाया
ज्ञात-अज्ञात स्त्रियों का उदाहरण
पेश करते हुए खाना बनवाया
कई बार आँखें दिखाकर
कई बार लात लगाकर
और फिर स्त्रियोचित ठहराकर
आप चीखे- उफ, इतना नमक
और भूल गए उन आँसुओं को
जो जमीन पर गिरने से पहले
गिरते रहे तश्तरियों में, कटोरियों में
कभी उनका पूरा सप्ताह इस खुशी में गुजर गया
कि पिछले बुधवार बिना चीखे-चिल्लाए
खा लिया गया था खाना
कि परसों दो बार वाह-वाह मिली
उस अतिथि का शुक्रिया
जिसने भरपेट खाया और धन्यवाद दिया
और उसका भी जिसने अभिनय के साथ ही सही
हाथ में कौर लेते ही तारीफ की
वे क्लर्क हुईं, अफसर हुईं
उन्होंने फर्राटेदार दौड़ लगाई और सितार बजाया
लेकिन हर बार उनके सामने रख दी गई एक ही कसौटी
अब वे थकान की चट्टान पर पीस रही हैं चटनी
रात की चढ़ाई पर बेल रही हैं रोटियाँ
उनके गले से, पीठ से
उनके अँधेरों से रिस रहा है पसीना
रेले बह निकले हैं पिंडलियों तक
और वे कह रही हैं यह रोटी लो
यह गरम है
उन्हें सुबह की नींद में खाना बनाना पड़ा
फिर दोपहर की नींद में
फिर रात की नींद में
और फिर नींद की नींद में उन्होंने खाना बनाया
उनके तलुओं में जमा हो गया है खून
झुकने लगी है रीढ़
घुटनों पर दस्तक दे रहा है गठिया
आपने शायद ध्यान नहीं दिया है
पिछले कई दिनों से उन्होंने
बैठकर खाना बनाना शुरू कर दिया है
हालाँकि उनसे ठीक तरह से बैठा भी नहीं जाता है।
00000

34 टिप्‍पणियां:

Arun Aditya ने कहा…

वे समुद्रों से नहाकर लौटीं तो खाना बनाया
सितारों को छूकर आईं तब भी
उन्होंने कई बार सिर्फ एक आलू
एक प्याज से खाना बनाया
और कितनी ही बार सिर्फ अपने सब्र से
Bahut marmmik kavita hai.Vastav men yah sirf kavita nahin banki ek sawaal hai. aur aapka shilp to bemisaal hai hi.

नीरज गोस्वामी ने कहा…

अद्भुत रचना है आपकी कुमार जी...वाह...शब्द और भावः दोनों कमाल के हैं...प्रशंशा के लिए शब्द नहीं मेरे पास...
नीरज

ओम आर्य ने कहा…

आप कितने सम्वेदनशील हो .......इस कविता को पढकर मै पुरी तरह से आशक्त हूँ....शब्द नही है मेरे पास ......भगवान आपकी कलम को ताकत दे.

अनिल कान्त ने कहा…

एक स्त्री की पूरी जीवनगाथा आपने कह दी

Rangnath Singh ने कहा…

sundar kavita bade hi haule se bato ko samjhati h, is lihaj se ye kaviya bahut sundar h

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

अद्वितीय रचना। जिस की जितनी प्रशंसा की जाए कम पड़ेगी। यथार्थ को अभिव्यक्त करने का बहुत ही अनुपम रूप।

Ashok Kumar pandey ने कहा…

अंबुज जी शायद यह संयोग ही है कि आज मै और किरन इसी विषय पर बात कर रहे थे कि ये अन्नपूर्णा वाली छवि इतनी हावी है कि आप कुछ भी कर लो कुछ भी बन जाओ अगर खाना अच्छा नहीं बना सकते तो आप अच्छी स्त्री नहीं हो।

ऐसी कितनी चीज़ें हैं कि जिसके घेरे अब तक तोडे नहीं जा सके।

Ashok Pande ने कहा…

सलाम उस्ताद!

pankaj srivastava ने कहा…

आह!... तुम्हारी जाति क्या है कुमार अंबुज...

Atmaram Sharma ने कहा…

बहुत मार्मिक है. आवेग से भरी हुई कविता. आपको पढ़ते हुए यूँ भी बहुत अच्छा लगता है.

(पिछले दिनों कविता के एक ई-मंच पर कविता क्या है? की बहस छिड़ी हुई थी, उस संदर्भ में) कि भाई लोग थोड़ा पलटें और इधर-उधर भी नज़रें घुमाएँ. उत्तर पा जायेंगे कि कविता क्या होती है? का प्रश्न महत्वपूर्ण नहीं. कविता ऐसी होती है, से बहुत कुछ प्रेरणा ली जा सकती है.

Pratibha Katiyar ने कहा…

ये सारी पिघला देने वाली संवेदनाएं कविताओं में तो अपने सुंदरतम, प्रखरतम् रूप में न$जर आती हैं लेकिन समाज से न जाने कहां नदारद हैं. उम्मीद है यह कविता भर न बनकर रहे और टिप्पणीकर्ता सिर्फ टिप्पणी करके मुग्ध न हो लें. एक कविता जिसे एक पुरुष ने रचा है और जिस पर दस पुरुषों ने भावपूर्ण टिप्पणियां की हैं संसार की कम से कम ग्यारह स्त्रियों के दु:खों को समझ सकने के लिए काफी है तो यह कविता सचमुच सार्थक है. अंबुज जी को बधाई!

राकेश अकेला ने कहा…

इस कविता को कई बार, सपत्‍नीक, पढ़ा। उन मित्रों को भी पढ़वाया जिनकी कविता में कोई खास दिलचस्‍पी नहीं है और उन्‍हें भी यह बेहद पसंद आई।

मैं नहीं जानता कि आलोचक क्‍या सोचते हैं लेकिन एक पाठक के बतौर इसे मैं हमारी समूची भारतीय कविता की एक प्रतिनिधि कविता के रूप में रखना चाहूंगा, याद करना चाहूंगा। यह कविता आवेग, विचारधारा, संवेदनशीलता, मार्मिकता, काव्‍य विषय, जीवन, संप्रेषणीयता, भाषा और शिल्‍प, हर पक्ष में श्रेष्‍ठ है। पक्षधर है, स्‍त्री विमर्श को उचिता दिशा में आगे बढ़ाती है। हर कसौटी पर खरी उतरती हुई।
बधाई।

varsha ने कहा…

वे समुद्रों से नहाकर लौटीं तो खाना बनाया
सितारों को छूकर आईं तब भी....
bhartiya stri ki gatha sunati hui kavita.

अजेय ने कहा…

aap ke is adbhut shilp ki koi naqal na kare to kya kare.....

प्रदीप कांत ने कहा…

उन्हें सुबह की नींद में खाना बनाना पड़ा
फिर दोपहर की नींद में
फिर रात की नींद में
और फिर नींद की नींद में उन्होंने खाना बनाया

सम्वेदनशील कवि की कविता

shubhi ने कहा…

मैने आपकी पहली कविता इंडिया टूडे में पढ़ी थी लेकिन समझ नहीं आई थी और लेखक के रूप में आपकी प्रतिभा की थाह लगाने में अक्षम रहा, लेकिन बाद में किसी पत्रिका में यह कविता पढ़ी और आपकी पहचान मुझे इसी कविता से हुई। मुझे तो लगता है यह कविता आपके कवि का पूरा रूप प्रस्तुत करती है, मानस की उन पंक्तियों की तरह जो हमने आत्मसात कर ली है।

डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल ने कहा…

अद्भुत कविता. आभारी हूं.

अभिनव ने कहा…

बहुत अच्छी लगी ये कविता.
दो तीन बार पढ़ गया हूँ और अब अपने मित्रों को आपके ब्लाग का लिंक भेजे बिना रहा नहीं जाएगा.

कुमार अम्‍बुज ने कहा…

मित्रवत साथियों, पाठकों की टिप्‍पणियों के लिए धन्‍यवाद। यह हम सबके लिए एक अनुभव को काव्‍यात्‍मक रूप में साझा करने की बात भी है।
आभार।

हरीश करमचंदाणी ने कहा…

ambuj ki kavita sach ki adbhut rapat hai jo rapat nahi lagti kahin se bhi par badi kavita ki tarah sidhe man kojhakjhor dalti hain badhai.

हरीश करमचंदाणी ने कहा…

nihayat shandar bari kavita jo sach ki adbhut rapat hain

रजनीश 'साहिल ने कहा…

लाल सलाम,

याद तो नहीं कि कहाँ, शायद गुना में ही, एक छोटी सी गोष्ठी में आपसे ही सुनी थी शायद ये कविता पहली बार। एक बार फिर से पढ़कर वोही प्रश्न उठा मन में जो पहली बार उठा था कि- "आख़िर क्यों ?"

संजीव गौतम ने कहा…

अद्भुत रचना है. मैं पहले भी आपको पढता रहा हूं. मैं आपके धर्म विषयक विचारों से सहमत हूं लेकिन जहां 99प्रतिशत आबादी रूढिग्रस्त हो वहां धर्म का विकल्प क्या है? बिना श्रेष्ठ और तार्किक विकल्प के हम लोगों को धर्म की वर्तमान अवधारणा से दूर नहीं कर सकते. आप इस बारे में क्या विचार रखते हैं? मुझे जानने की उत्सुकता रहेगी.

इच्छा नदी के पुल पर ने कहा…

ek itna sadharan rozmarra ka kam, jise har ladaki apna kartavya man kar karati hai aur shesh sabhi uska kartavya maan kar grahan bhi karate hain, uska yah paath adbhut hai, aisa laga jaise ... ise maine kyon nahi likha....

pramod ने कहा…

बहुत सुन्‍दर कविता है और बहुत मार्मिक भी .

pramod ने कहा…

बहुत सुन्‍दर और मार्मिक कविता है.

Dr. Amarjeet Kaunke ने कहा…

kumaar ambuj ji,
namaskaar...achanak bhatkata bhatkata apke blog par aa gia...aa kar bahut hi achha laga apki kavita aur anya rachnaaen pad kar....
apko shayd surinder sharma ji(patiala) ne btaya hoga ke is baar ham apne magzine PRATIMAAN me apki kahaani ART GALLERY kaa anuvaad chhap rahe hain....
is vaar k pratimaan me ham ne sh.uday parkash ji ki kahaani PUTLA ka anuvad aur vishnu nagar ji ki kavitaen di hain....ank apko bhijvaunga....

shesh sab thik hai...apka....amarjeet kaunke (patiala,punjab.)
phone...098142-31698

अतुल राय ने कहा…

अंबुज जी,
मैने आपकी ये कविता कुछ साल पहले कहीं पढ़ी थी, शायद किसी अखबार में या फिर किसी मैगजीन में, ध्यान नहीं..लेकिन उसे फाड़कर अपने पर्स में रख लिया था...अक्सर पढ़ा करता था,और जिसे काबिल समझता था, उसे पढ़ाता भी था...लेकिन कुछ दिन पहले बटुआ किसी ने मार लिया...पता नहीं ये कविता उस पॉकेटमार को कितना छू पाएगी...लेकिन तबसे मैं इस कविता की तलाश कर रहा था...
आज फिर से खुशी हुई पढ़कर, और यकीन मानिए एक एक शब्द को वैसे ही पढ़ा...जैसे खोई चीज मिलने पर इंसान उसकी तफ्शीस करता है...

kapildev ने कहा…

अम्बुज जी, आप की कविता, ‘‘खाना बनाती स्त्रियां’’ पढ़ी। कविता चूंकि खाना बनाने वाली स़्ित्रयों से सम्बन्धित हेै, और इस कविता की सार्थकता इसी में है कि इसे स़्ित्रयां पढे़ं और अपनी स्थिति के प्रति सचेत हों, इसलिए इसे पढ़ने के लिए पत्नी से भी कहा। उनकी प्रतिक्रिया पहले तो अप्रत्याशित लगी लेकिन तुरंत ही समझ में आया कि स़्ित्रयों के प्रति हमारी अकर्मक संवेदनशीलता एक किस्म का छलावा है- उन्हें अगली शताब्दियों तक इसी अवस्था में बनाए रखने का एक शातिर उद्यम। इसलिए तत्काल लगा कि उनकी प्रतिक्रिया से आप को अवगत कराया ही जाना चाहिए।
पत्नी की प्रतिक्रिया कुछ इस प्रकार थी--जिस भी आदमी(वे आप को नहीं जानती हैं) नें यह कविता लिखी है, वह बहुत ही अनुभवी होगा और निश्चय ही अपने ही घर में,खाना बनाती हुई अपनी ही पत्नी को देख कर उन्होंनें ने यह अनुभव किया होगा। लेकिन क्या उनकी इस कथित संवेदनशीलता नें उनके घर की पत्नियों को इस बेचारगी से मुक्त करने की दिशा में कोई कारगर कदम भी बढ़ाया है?
इसमें मैं अपनी तरफ से जोड़ना चाहता हूं कि हमें ऐसी कविताएं लिख कर खुद को संवेदनशील साबित करने का ढोंग करना छोड़ अपनी स़्ित्रयों के मन में ऐसी जीवन-स्थितियों में घुटन अनुभव करना सिखाना चाहिए। उन्हें उनकी सहनशीलता की आदत से बाहर लाने के लिए हम क्या कर रहे है, सोचने का असल मुद्दा तो यह है। फिर भी यह कविता इतनी मार्मिक है कि इसके लिए आप को बधाई देना ही होगा।

कपिल/राधा

naina3dec ने कहा…

Hamare maun ko isse behtar abhivaykti shayad hi koi de pata...

naina3dec ने कहा…

Hamare maun ko isse behtar abhivaykti shayad hi koi de pata...

लीना मल्होत्रा ने कहा…

itnee maheen drishti hai aur itnee gahree soch. kavita to achhi hai hee. bahut achhee. sabhaar.

TravelougeofSatish ने कहा…

Ati Marmik, ati satya. Gr8. Hats Off..

rachana ने कहा…

अद्वितीय रचना !