सोमवार, 14 सितंबर 2009

श्रमिक यंत्र नहीं, जीवित मनुष्‍य है

दूसरी किश्‍त
नौकरी और दासता में कुछ फर्क है
संस्थान में अधिक समय गुजारने का सीधा प्रभाव यह पड़ता है कि शेष समय में भी संस्थान और काम आपका पीछा करता है। यह लगभग वैसा ही है जैसे लंबी रेल-यात्रा के बाद, घर के बिस्तर पर सोते हुए भी हमारी नींद में हमें रेल-बर्थ पर सोने की अनुभूति बनी रहती है या रेल की धड़-धड़ और सीटी की आवाज हमारा पीछा करती है। जब रोजमर्रा के जीवन में यह पीछा होता है तो कार्य समाप्ति के बाद का अवकाश या रविवार का अवकाश भी आपको तनाव मुक्त नहीं कर सकता। फिर तनाव से सप्रयास बचने के लिए आप फिल्म देखते हैं, अधिक सेक्स करते हैं, झील किनारे घूमने जाते हैं, चुटकुले पढ़ते हैं, संगीत सुनते हैं, बागीचे में जाते हैं लेकिन कहीं भी आप स्वाभाविक नहीं रह पाते हैं। अगले दिन का काम, कार्यालय की उपस्थिति आपको घेरे रहती है। आपके बॉस का चेहरा और अगले दिन की संभव आक्रामकता आपके मस्तिष्क में जीवंत बनी रहती है। अब आप एक प्रसन्न, निश्चिंत और स्वाभाविक मनुष्य के रूप में नष्ट हो चुके हैं और एक चमकीले, कमाऊ, प्रतिष्ठित और अभिनयसंपन्न दास की तरह विकसित हो चले हैं। आप बिना किसी प्रतिरोध के अपना अधिकतम समय संस्थान को दे सकें इसलिए ही ओव्हरटाईम या अन्य प्रतिसाद में आर्थिक प्रलोभन की व्यवस्था की जाती है। स्मरण रहे कि लगातार सिटिंग में दिया गया अतिरिक्त समय, फलन के रूप में भी ड्योढ़ा होता है अर्थात आप यदि अनवरत् काम करते हुए दो घंटे अधिक बैठते हैं तो उसका श्रमफल अगले दिन पृथक से आकर किए जाने वाले तीन घंटे के कार्य के बराबर होगा। यह भी बेशी लाभ की तरह संस्थान की जेब में जाता है। किंतु लगातार की यह सिटिंग या श्रम श्रमिक के स्वास्थ्य पर दोगुना विपरीत असर डालती है। यहाँ मूल प्रश्न यह है कि `क्या श्रमिक को मनुष्य के रूप में उपलब्ध अपने समय´ को किसी भी कीमत पर अर्पित करना चाहिए या उसके उलट यह कि `क्या कोई भी राशि मनुष्य के अवकाश की कीमत चुका सकती है´ जाहिर है कि यह सवाल एक-दो दिन अथवा एक-दो वर्ष के लिए नहीं है, लंबी अवधि और लगभग स्थायी समस्या के रूप में देखने योग्य है। मजे की बात यह है कि अधिकांश अवसरों पर (नब्बे प्रतिशत अवसरों तक) श्रमिक को अपने अतिरिक्त श्रम और समय का कोई पारिश्रमिक नहीं दिया जाता है, आधे-एक घंटे की तो गणना होती ही नहीं है। सहज ही समझा जा सकता हैं कि पैसा, मनुष्य के लिए आवश्यक अवकाश का न तो भुगतान कर सकता है और न ही उसका किसी तरह का विकल्प बन सकता है। प्रतियोगिता, बाजारवाद और अस्तित्व बचाने के नाम पर जिन संस्थानों में अघोषित तौर पर कार्य करने के घंटे बढ़ गए हैं वहाँ के कर्मचारियों-अधिकारियों की स्वास्थ्य संबंधी समस्याएँ, एक से दो साल के भीतर ही चरम पर पहुँचने लगी हैं। विस्तृत बात करें तो पीठ दर्द, सिर दर्द, डायबिटीज, रक्तचाप, हृदयाघात, अनिद्रा, तनाव और मोटापा उनके बीच बेहद आम बीमारियाँ हैं। ऐसे श्रमिकों की औसत आयु कितनी कम हो जाएगी, इसका अनुमान लगाया जा सकता है लेकिन सर्वाधिक दुखद पक्ष है कि जितनी भी उम्र तक वे जीवन व्यतीत करेंगे वह दुखमय और रोगमय हो चुका होगा। अमीर संस्थान इनके स्वास्थ्य का पूरा बीमा भी कर दें अथवा इलाज का पूरा पैसा भी दे दें तब भी वे उनके स्वस्थ-जीवन के संभव आनंद का एक प्रतिशत भी वापस नहीं मिल सकता। बैंक, बीमा, संचार, मीडिया और निजी बड़े संस्थानों में, जिनमें श्रमिकों को वाकई कुछ अधिकार मिले हुए हैं, यह स्थिति बद से बदतर होती जा रही है। श्रम के घंटों को सीमित करने का जो न्यायपूर्ण, विवेकपूर्ण, नैतिक और मानवीय अधिकार, श्रम संगठनों एवं श्रमिक पैरोकारों द्वारा लंबे संघर्ष से अर्जित किया गया था, उस अधिकार को धीरे-धीरे हमारी आँखों के सामने चुराया जा रहा है, खतम किया जा रहा है अथवा हमसे खरीदा जा रहा है- ये तीनों स्थितियाँ तत्काल प्रतिरोध की और हस्तक्षेप की माँग करती हैं। अन्यथा हम श्रमिक से दास बनने की प्रक्रिया को तेज कर देंगे। वैसे भी श्रमिक `किश्तों में, रोज-रोज बिकने वाला दास है´ लेकिन पिछली शताब्दी में अर्जित जिन अधिकारों ने उसे मानव का दर्जा दिया उसमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण अधिकार `सुनिश्चित काम के घंटे´ ही था। ये सुनिश्चित कार्यघंटे ही उसे महत्वपूर्ण मायनों में दास से अलग करते हैं। नौकरी और दासता में फर्क है और वह फर्क अधिक व्यापक अर्थों में बना रहना चाहिए। हम मानते हैं कि इस समय ट्रेड यूनियन के सामने सबसे बड़ी चुनौती दैनिक व्यवहार में `श्रम के घंटे बढ़ा दिए जाने´ की है। नौकरी की सुरक्षा ( job security) एक अत्यंत महत्वपूर्ण लेकिन अलग मुद्दा है, उसे इस प्रश्न से मिलाना, घालमेल करना होगा। माँग यह होना चाहिए कि अनौपचारिक तौर पर या चोर रास्तों से कार्यघंटों में कोई वृद्धि न हो, इसका क्रियान्वयन सुनिश्चित (100 प्रतिशत) हो। स्थिति यहाँ तक आ गई है कि यदि कोई कर्मचारी-अधिकारी लगातार एक सप्ताह तक समयानुसार घर चला जाए या जाने की कोशिश करे तो वह न केवल हास्यास्पद स्थिति का शिकार हो जाता है बल्कि उच्चाधिकारीगण उसे कामचोर, असहयोगी या समस्यामूलक सिद्ध कर देते हैं। उसे अन्य तरीकों से भी `ठीक कर देने´ की कोशिश की जाती है यथा उसके अधिकारपूर्ण भुगतानों पर प्रश्न खड़े करने, अवकाश न देने, जोखिमपूर्ण कार्य अथवा अधिक कार्यभार देने, अपमानित करने और खिल्ली उड़ाने या दुष्प्रचार कर संस्थान में उसके विरोध में वातावरण बनाने जैसे प्रचलित तरीके भी प्रयोग में लाए जाते हैं। यह बिडंवना का भयावह और चिंताजनक पक्ष है। ध्यान रहे कि यह वही पुरानी समस्या है जब संस्थानों में आने का समय तो निश्चित होता था, वापस जाने का नहीं। इस बार यह समस्या अधिक तैयारी से आई है और उग्र होकर फैल रही है। इस समस्या से निजात पाने के लिए श्रम-संगठनों के जुझारू नेताओं ने अपना जीवन होम किया था। इसलिए वर्तमान श्रमिक-संगठनों की यह जबावदारी भी है कि उन साथियों का बलिदान व्यर्थ न हो।
श्रमिक यंत्र नहीं, जीवित मनुष्य है
इस प्रसंग में `प्रति कर्मचारी व्यवसाय´ या `प्रति कर्मचारी लाभप्रदता´ कर्मचारियों पर दबाव बनाने के नए औजार हैं। यह संकेतक इसलिए भी अमानवीय है कि इसमें मनुष्य (कर्मचारी) को एक यंत्र की तरह मान लिया जाता है। प्रति कंप्यूटर व्यवसाय देखने में और प्रति कर्मचारी व्यवसाय देखने में संवेदनशीलता और मानवीयता का फर्क स्पष्ट है। यह दृष्टि पिछले वर्षों में आक्रामक बाजारवाद और असमाप्य प्रतियोगिता से पैदा हुई है। यह बैलजोड़ियों या घोड़ों के प्रति अपनायी जाने वाली दृष्टि ही है। बैलगाड़ी दौड़ हेतु गाड़ीवान अपने बैलों को प्रतियोगिता लायक बनाने के लिए दाना-पानी देता है और तैयार करता है लेकिन जब वह दौड़ में पिछड़ रहा होता है तो क्रूर तरीके से अपने उन्हीं बैलों को मारने-पीटने में तनिक भी नहीं हिचकिचाता। सांस्थानिक प्रतियोगिताएँ अधिक शांत और सभ्य दिखती हैं लेकिन कहीं अधिक क्रूर होती हैं। इसलिए मनुष्य को स्थिरांक या यांत्रिक क्षमता में तबदील करते हुए वे गणितीय सूत्र निकालने में जरा भी नहीं शरमातीं। `मनुष्य और यंत्र´ एवं `मनुष्य का यंत्र में बदलना´ जैसे बहुविचारित विषयों को यहाँ स्मरण किया ही जाना चाहिए। संक्षेप में यह कि किसी भी यंत्र का आविष्कार इस उद्देश्य से नहीं किया गया कि वह मनुष्य को प्रतिस्थापित कर दे या मनुष्य को औजार में बदल दे। यंत्र को सदैव ही मनुष्य के सहायक और विस्तारित अंग (extended organ) के रूप में विकसित किया गया। यह तो बाजार और पूँजीपतियों की धनलिप्सा की भयावह चालें हैं जिनकी वजह से वे यंत्रों को मनुष्य की जगह स्थापित कर देना चाहते हैं। क्योंकि उनके लिए श्रमिक या सर्वहारा वर्ग `मनुष्य´ की श्रेणी में ही नहीं है। इसलिए यंत्र यदि मनुष्य को बेदखल भी कर दें तो उनको प्रसन्नता ही होगी बशर्ते कि वह यंत्र उनके लाभ में वृद्धि कर दे। यों भी जब किसी संस्थान में यंत्र अधिक होंगे और मनुष्य कम अथवा वहाँ कार्यरत् श्रमिक जितने अधिक यंत्राश्रित होंगे, वहाँ उतनी ही ज्यादा संभावना होगी कि विचारहीन और प्रतिरोधहीन श्रमिक उपलब्ध हो सकें। ट्रेड यूनियन आंदोलन को खतम करने की यह एक पूर्वपीठिका भी है। यहाँ हमें एक बार फिर माक्र्स याद आते हैं जिन्होंने बेशी मूल्य सिद्धांत में कहा था कि पूँजीवादी संस्थान, नयी तकनीकें लाते हुए हमेशा चाहेगा कि श्रमिकों की संख्या में बढ़ोत्तरी न हो लेकिन उन्हीं श्रमिकों से वह यांत्रिक मदद द्वारा अधिकतम कार्य ले सके और अपने लाभ को नयी ऊँचाइयों पर ले जाए। इसके चलते किसी यांत्रिक, अमानवीय संसार का निर्माण होता हो तो उसकी बला से। लेकिन जो शक्तियाँ श्रमिकों और मनुष्य के पक्ष में हैं, वे इस दुनिया का निर्माण धनपिपासुओं या पूँजीपतियों के स्वप्न के अनुसार नहीं होने दे सकतीं। इसलिए ही यहाँ श्रम-संगठनों, मानवाधिकारों के पक्षधरों और समतावादियों के हस्तक्षेप की, दायित्वपूर्ण निर्णायक भूमिका की महती आवश्यकता जान पड़ती है। आज के समय में और ज्यादा जबकि पूँजी का राक्षसी वैश्विक चरित्र बन रहा है और लोगों को गलत सूचनाएँ दे सकने का, अपने प्रचार का, शोषण का और एकध्रुवीय संसार बना देने का माद्दा उसमें कहीं अधिक दिख रहा है।
प्रश्न यह भी है कि संस्थान के लाभ को क्या प्रत्येक कर्मचारी में पूरी तरह वितरित किया जा सकता है। उत्तर स्पष्ट `नहीं´ है। क्योंकि वह कर्मचारी है, अंशधारक या मालिक नहीं। इसलिए लाभप्रदता क्या है, इस संकेतक को कर्मचारी के `श्रम के घंटो पर´ हंटर नहीं फटकारने दिया जा सकता। कर्मचारी एक श्रमिक के रूप में आपके पास काम करने के लिए आता है और उसकी सेवाशर्तें बेहद स्पष्ट हैं। वह अपनी पूरी क्षमता से काम करे, उसे कार्यस्थल पर उपयुक्त वातावरण और संरचनाएँ मिलें और कार्य-संस्कृति का विकास हो, ये पक्ष महत्वपूर्ण, मान्य और विचारणीय हैं। इन्हीं स्थितियों के भीतर व्यवसाय और लाभप्रदता का विकास हो, इसमें भला किसी को क्या आपत्ति हो सकती है लेकिन इसके लिए उससे कार्य-समय से अधिक काम लिया जाए, यह बात घनघोर आपत्तिजनक होनी चाहिए।
बेरोजगारी और रिजर्व श्रमिक सेना
अपवादी तौर पर, मसलन महीने में तीन-चार दिन यदि उससे अधिक काम लिया जाता है तो उसे अतिरिक्त पारिश्रमिक दिया जाए, इस पर स्वीकार्य स्थिति बनती है लेकिन यह स्थिति लगभग प्रतिदिन बन रही हो तो इसका सीधा संदेश है कि उस संस्थान को अधिक कर्मचारियों की जरूरत है जिन्हें भर्ती करने की स्थिति को वह संस्थान टाल रहा है। इसका संबंध देश में उपस्थित बेरोजगारी से भी जुड़ता है। अर्थात् 10 आदमी 13 आदमियों का काम कर रहे हैं अतएव उन दस व्यक्तियों का जीवन कष्टमय हो ही रहा है, 3 आदमियों का रोजगार भी छिन रहा है। इस तरह यह दो स्तरों पर समाज-विरोधी, देश-विरोधी और मनुष्य-विरोधी स्थिति है। यहाँ प्रसंगवश हमें माक्र्स द्वारा इंगित उस बिंदु पर ध्यान देना होगा जब वे लिखते हैं कि `इस तरह से बेरोजगारी बढ़ती जाती है लेकिन पूँजी के मालिकों के लिए यह सुविधाजनक स्थिति बनती है क्योंकि समाज में उब उसे `रिजर्व श्रमिक सेना´ उपलब्ध है।´ इसका अर्थ यह है कि संस्थान या मालिक अब अपने यहाँ कार्यरत् कर्मचारियों की जायज माँगे ठुकरा सकने और उन पर मनचाही शर्तें थोपने के लिए अधिक उपयुक्त अवसर पाता है। अब वह `हायर एंड फायर´ की माँग करता है क्योंकि उसे पता है कि पीछे रिजर्व श्रमिक सेना खड़ी हुई है जिसे वह मनचाही, अति अमानवीय सेवाशर्तों पर रख सकता है। आऊटसोर्सिंग के जरिए काम ले सकता है। यहीं वे परिस्थितियाँ हैं जहाँ तक आते-आते मालिकों के या संस्थान के पास `पूँजी का विशाल संचय´ होना प्रारंभ हो चुका होता है। अब वह रोजगार की सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं (No Job Security) जैसी स्थितियों पर विचार के लिए सरकारों को विवश कर सकता है क्योंकि वह लाभ कमाकर सरकार में हस्तक्षेप कर सकने की हैसियतवाला पूँजीपति हो चुका है। यह स्थिति उसने अपने उन कर्मचारियों के उस बेशी श्रम, जिसे कर्मचारियों ने कार्यावधि के बाद बैठकर किया, से बेशी लाभ कमाकर ही प्राप्त की है। इसी स्थिति को माक्र्स ने कहा है कि श्रमिक खुद दास बनने के लिए ही मानो पूँजीपति के लिए लाभ का सृजन करता है। इधर श्रम-कानूनों में जो बदलाव हुए हैं और संभव दिख रहे हैं वे इसी अकूत पूँजी की वजह से ही, जिससे वह कानून निर्माताओं को सीधे तौर पर प्रभावित करने की स्थिति में हैं। तमाम श्रम-संगठनों को इस चुनौती का सामना करने के लिए भी तैयार हो जाना चाहिए।

2 टिप्‍पणियां:

Atmaram Sharma ने कहा…

आपने जो बयान किया है, सच्चाई उससे भी कहीं ज्यादा भयावह रूप ले चुकी है. लगभग हर दफ्तर की यही दास्तान है. अगली कड़ी का इंतज़ार है और साथ ही इस आलेख के उपसंहार का भी कि आप क्या रास्ता सुझाते हैं.

डॉ .अनुराग ने कहा…

एक विचारणीय लेख है जो कई संजीदा प्रश्नों को सलीके से उठाता है ....ओर जेहन की कई खिड़कियों को भी खोलता है