बुधवार, 4 नवंबर 2009

मेरा प्रिय कवि

पुरातत्व कविता के कवि साथी शरद कोकास सहित अनेक मित्रों के आदेश और विशेष तौर पर नव्‍यतम पीढ़ी के चर्चित कथाकार और मेरे प्रिय चंदन पाण्‍डेय के आग्रह को रेखांकित करते हुए, संकोच के साथ ही सही, अब अपनी कुछ कविताएं यदा-कदा लेकिन नियमित तौर पर यहाँ देता रहूँगा।


मेरा प्रिय कवि

वह हिचकिचाते हुए मंच तक आया
उसके कोट और पैंट पर शहर की रगड़ के निशान थे
वह कुछ परेशान-सा था लेकिन सुनाना चाहता था अपनी कविता
लगभग हकलाते हुए शुरू किया उसने कविता का पाठ
मगर मुझे उसकी हकलाहट में एक हिचकिचाहट सुनाई दी
एक ऐसी हिचकिचाहट
जो इस वक्‍त में दुनिया से बात करते हुए
किसी भी संवेदनशील आदमी को हो सकती है
लेकिन उसने अपनी कविता में वह सब कहा
जो एक कवि को आखिर कहना ही चाहिए

वह हिचकिचाहट धीरे-धीरे एक अफसोस में बदल गई
और फिर उसमें एक शोक भरने लगा
उसकी कविता में फिर बारिश होने लगी
उसके चश्मे पर भी कुछ बूँदें आईं
जिन्हें मेरे प्यारे कवि ने उँगलियों से साफ़ करने की कोशिश की
लेकिन तब तक और तेज हो गई बारिश
फिर कविता में अचानक रात हो गई
अब उस गहरी होती रात में हो रही थी बारिश
बारिश दिख नहीं रही थी और बारिश में सब कुछ भीग रहा था
कवि के आधे घुँघराले आधे सफेद बालों पर फुहारें थीं
होठों पर धुएँ के साँवले निशानों को छूकर
कविता बह रही थी अपनी धुन में
एक मनुष्य होने के गौरव के बीच
संकोच झर रहा था उसमें से
वह एक आत्मदया थी वह एक झिझक थी
जो रोक रही थी उसकी कविता को शून्य में जाने से

कविता पढ़ते हुए वह
बार-बार वज़न रखता था अपने बाएँ पैर पर
बीच-बीच में किसी मूर्ति-शिल्प की तरह थिर होता हुआ
(एक शिल्प जो काव्य-पाठ कर सकता था)
उसके माथे पर साढ़े तीन सलवटें आती थीं
और बनी रहती थीं देर तक

मैं अपने उस कवि से कुछ निशानी -
जैसे उसका कोट माँगना चाहता था
लेकिन अचानक उसने मुझे एक गिलास दिया
और मेरे साथ बैठ गया कोने में
उसने कहा तुम्हें मैं राग देस सुनाता हूँ
फिर उसने शुरू किया गाना
वह एक कवि का गाना था
जिसे गा रही थी उसकी नाजुक और अतृप्त आत्मा

एक घूँट लेकर उसने कहा
कि तुम देखना मैं अगला आलाप लूँगा
और सुबह हो जाएगी

अचानक मेरा कवि मेरे करीब और करीब आया
कहने लगा मैं बहुत कुछ न कर सका इस संसार को बदलने के लिए
मैं शायद ज्‍यादा कुछ कर सकता था
मुझे छलती रहीं मेरी ही आराम-तलब इच्छाएँ
जिम्मेवारी की निजी हरकतों ने भी मुझे कुछ कम नहीं फँसाया
दायीं आँख का कीचड़ पोंछते हुए वह फिर कुछ गुनगुनाने लगा
कोई करुण संगीत बज रहा था उसमें
मैंने कभी न सुनी थी ऐसी मारक धुन
मेरे भीतर एक लहर उमड़ी और मैं रोने लगा

उधर मेरा प्रिय कवि
मंच से उतर कर
चला आ रहा था अपनी ही चाल से।
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दस बरस पहले की इस कविता के बारे में अनेक पाठकों-मित्रों-आलोचकों की राय रही है कि यह हिन्‍दी के किसी कवि विशेष को केन्‍द्र में रखकर लिखी गई है। आज कुछ मुखर होने का जोखिम लेकर मैं कहना चाहता हूँ कि यह कविता किसी कवि को केन्‍द्र में रखकर नहीं है बल्कि उसके बहाने 'समकालीन कविता के पाठ' -रिसाइटल- के पक्ष में लिखी गई है।

कविता को गाकर, चीखकर या अभिनय के साथ पढ़ने की पक्षधरता के बरअक्‍स यह मानवीय दुर्बलताओं के पाठ के साथ कविता का पक्ष रखने की भी एक कोशिश है। दूसरे, इसमें किसी कवि विशेष की नहीं बल्कि हमारे समय के अनेक कवियों की काव्‍यपाठ करने की स्‍म़तियॉं और बुदबुदाहटें है।

8 टिप्‍पणियां:

शिरीष कुमार मौर्य ने कहा…

मेरी बहुत प्रिय कविता. हर वक़्त स्मृति में रहने- बसने वाली. इसे यहाँ लगाने का शुक्रिया. चन्दन के "विशेष आग्रह" का भी शुक्रिया, जिसकी वजह से यह कविता यहाँ लगी. मनुष्य की और मनुष्यता की आवाज़ हमेशा हकलाहट और हिचकिचाहट भरी रही है लेकिन उतनी ही प्रभावशाली भी. मैं इस कविता को एक कवि के लिए लिखा गया मानता था और अब भी मानना चाहूंगा - यह मेरा, एक पाठक का निजी पाठ होगा, पर ऐसे पाठ पर पाठक का अधिकार होता है. मेरा मन कर रहा है कि उस नाम के आगे जैसे दा लगा कर संबोधित करता रहा हूँ, वैसे ही यहाँ भी एक बार जोर से पुकार दूं .....

".................." दा !

Ek ziddi dhun ने कहा…

बहुत अच्छी, बेहद अच्छी, बेहद अच्छी कविता. जब इतनी जल्दबाजी का दौर हो, तब ऐसी बेहतरीन कविता. और इस पर उतनी ही अच्छी, उतनी ही संज़ीदा टिप्पणी.
लेकिन इस सफाई की जरुरत क्या थी जिसके लिए कवि को दस साल बाद मजबूर हो जाना पड़ा? हिंदी साहित्य जगत और खासकर आलोचना जगत इतनी तुच्छता से लबलबाता हो तो ऐसे ही कहा जाएगा कि यह अमूक कवि पर केन्द्रित कविता है. और अगर कोई कविता किसी कवि विशेष को लेकर लिखी गई हो तो भी क्या उसका इतना ही अर्थ होता है.

Ek ziddi dhun ने कहा…

...यूँ ही आशीष बरन नंदी के कविता संग्रह के विमोचन में आलोचना के `शीर्ष पुरुष` का भाषण याद आ रहा है. उस दिन वे हिंदी के एक कवि के हकलाकर कविता पढ़ने पर व्यंग्य कास रहे थे. ताकत ऐसी ही मजाक करते हुए चमकती है.

Unknown ने कहा…

.........adbhut.

शरद कोकास ने कहा…

कुमार भाई , आग्रह तो मेरा भी था ..कृपया भूल सुधार कर ले । इस कविता मे भी मुझे अनेक कवि नज़र आते हैं एक अच्छी कविता ।

प्रदीप जिलवाने ने कहा…

उम्‍दा कविता.

डिम्पल मल्होत्रा ने कहा…

mere bheetar ik lahar umdhi.....behad khoobsurat kavita.....

KESHVENDRA IAS ने कहा…

संवेदनशून्य समय की एक अतिसंवेदनशील कविता...आभार.