इधर लगातार एक अनुभव हो रहा है, प्रत्यक्ष हो रहा है कि हमारे अनेक प्रगतिशील, जनवादी लेखक दक्षिणपंथी संस्थाओं, सत्तासीन लोगों के साथ मंचासीन होने में कोई परहेज नहीं बरत रहे हैं। बल्कि लगता है कि वे इससे गौरवान्वित, सम्मानित और प्रसन्न हैं। और इसके लिए अपने तर्क भी गढ़ चुके हैं। इनमें से अनेक वे अग्रज हैं जो हमें प्रतिबद्धता, संघर्ष,प्रतिरोध, वामपक्ष और प्रतिवाद का पाठ पढ़ाते रहे हैं। ये लोग तय कर रहे हें कि यह कविता, जो करीब एक दशक पहले लिखी गई थी, वह कहीं अधिक प्रासंगिक बनी रहे, उसे ये दुखद रूप से जैसे सिद्ध कर रहे हैं।
जैसे विरोध करने की कोई उम्र होती है
बेकार है इस उम्र में किसी तरह का विरोध करना
एक बेटी अभी तक है अनब्याही
जब उम्र थी कई लोगों से ले ली बुराई
अब ठीक यही हिलमिल कर गुज़ारें जीवन
क्या पता कब क्या मुश्किल आए
अस्पताल भी जाना पड़ सकता है आधी रात में
अपने बच्चे ही नहीं सुनते जब कोई बात
तब क्या परिषदों, अधिकारियों, अकादमियों से टकराना
क्या नारेबाजी और क्या भृकुटि को तलवार बनाना
मुद्दा ठीक है लेकिन जिसके खिलाफ़ है
उससे मेरे अड़तीस साल पुराने संबंध
समर्थन भी तो मित्रता का ठहरा एक आधार
फिर भी देता मैं तुम सबका साथ लेकिन देखो
अब तो मुझे खाँसी भी आती है बहुत
हाथ काँपते हैं ज्ञापन पर दस्तखत भी मुश्किल
इधर अब तो मेरी प्रतिष्ठा भी यही हो चली है:
वरिष्ठ हैं, चुप रहते हैं, ग़म खाते हैं।
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4 टिप्पणियां:
इस धार के साथ कविता कम दिख रही है इन दिनों. ऊपर नोट नहीं लिखते तो भी कविता समझ आ जाती..
प्रगतिशील जनवादी लेखक ही नहीं बुद्धिजीवियों के आम होते जा रहे समझौतावादी चरित्र को आइना दिखाती कविता।
समझ में आता है यह दुख। इन दिनों इस कविता को पोस्ट करने की जरूरत भी समझ में आती है। एक दशक पहले लिखी गई कविता में दर्ज विडंबना और ज्यादा भयानक हुई है। अब कांपने वाले हाथ की बात छोड़िये नवयुवा भुजाएं वहां गलबहियां करती हैं।
समझौते अब मजबूरियाँ नहीं आदत बनते जा रहे हैं...इस कविता का प्रासंगिक बने रहना वाकई दुखद है...पर मुझे दुख से अधिक क्रोध आता है..मेरे लिए यह क्रोध का बाइस है.
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