पिछले दो दशकों से रवीन्द्र व्यास मेरे प्रिय हैं। दोस्ती मेरे इंदौर प्रवास में लिखने पढ़ने की वजहों से हुई। और जल्दी ही मामला पारिवारिक हदों तक हुआ। और अब हम एक-दूसरे को लगातार 'मिस' करते हुए, अलग-अलग शहरों में रह रहे हैं।
रवि कम लिखता है, महत्वाकांक्षा उसे जैसे छू भी नहीं गई है। उसे प्रेरित करने के लिए कम से कम एक क्विंटल प्रेरणा चाहिए। फिर भी वह अपनी रौ में लिखता है। जिद करके पेंटिंग सीखी और अर्जित की। उसने जैसे हम सबको बताया कि प्रतिभा से कहीं अधिक आकांक्षा,निश्चय और प्रतिबद्धता मायने रखती है। जलरंग माध्यम में, एक ही रंग में जो उसने काम किया है वह विशाल हरे, नीले, लाल चुंबक की तरह खींचता है। वह उतना बड़ा चुंबक तो है ही जितना कि कोई विशाल ग्रह हो सकता है। उसके चित्रों में संगीत और कविता का रंग शामिल है।
बहरहाल, उसके कम लिखे हुए गद्य में भी काव्य तत्व निवास करते हैं और उस गद्य को एक नयी, अप्रतिम हार्दिकता प्रदान करते हैं। उसे वाक्य लिखने की तमीज है। वह जीवन के उत्स से अपना गद्य संभव करता है। विजुअल्स बनाता है और मार्मिक गद्य हमारे सामने होता है।
रवि पर और उसके साथ बिताए समय पर,हमारे सैंकड़ों दिनों और रातों पर मैं कुछ ज्यादा लिख सकता हूं, लिखना चाहता हूं लेकिन अभी मैं उसके ब्लॉग http://ravindravyas.blogspot.com/ में से ही एक छोटा सा टुकड़ा यहां रख रहा हूं। यह पुनर्प्रकाशन है लेकिन यह आनंद को प्रसारित करना भी है।
जिंदगी से बेदखल पसीने की गंध
रवीन्द्र व्यास
मेरे पिता के पसीने की गंध अब भी मेरे मन में बसी है। वे हमेशा पैदल चलते थे और उन्होंने कभी साइकिल तक नहीं चलाई। उनके बचपन का एक फोटो मैंने अब तक संभाल कर रखा है जिसमें वे तीन पहिए की साइकिल पर बैठे हैं। उन्होंने मुझे बहुत कम गोद में उठाया। संयुक्त परिवार में होने के कारण माँ हमेशा रसोईघर में रहती और मुझे मेरी बड़ी बहनें संभालती।
मुझे याद है, बचपन में खेलते हुए जब मेरे दाहिने पैर के अँगूठे का नाखून उखड़ गया तो पिता ने मुझे गोद में उठाया और सिख मोहल्ले के डॉक्टर सिंह के क्लिनिक ले गए क्योंकि उस दिन शायद डॉक्टर फाटक नहीं थे जो हमारे परिवार के सभी सदस्यों का इलाज करते थे।
मैंने रोते हुए पिता के कंधे पर अपना सिर रखा था और दर्द को सहते हुए मुझे पिता के पसीने की गंध भी आ रही थी। उसमें सरसों के तेल की गंध भी शामिल थी क्योंकि पिता कसरत के पहले मालिश किया करते थे।
हमारा घर बहुत छोटा था। बहनें जब कभी बाहर जाती, मेरी पीठ के पीछे कपड़े बदल लिया करती थीं। मेरी पीठ उनके लिए छोटा-सा कमरा थीं। कई बार जल्दबाजी में वे कपड़े ऐसे पटकती कि वे मेरे सिर पर गिरते थे। उनके पसीने में राई-जीरे से लगे बघार की गंध होती थी। उनके पसीने की गंध मैं भूला नहीं हूँ।
और दुनिया में कौन ऐसा बच्चा होगा जो अपनी माँ के पसीने की गंध को भूल सकता है।
और आज खुशबू का करोड़ों का कारोबार है, जिंदगी से पसीने की गंध को बेदखल करता हुआ। एक विज्ञापन बताता है कि एक खुशबू में इतना आकर्षण, सम्मोहन और ताकत है कि दीवारों में लगी पत्थर की हूरें जिंदा होकर चुपचाप मंत्रमुग्ध-सी उस बाँके युवा के पीछे चल पड़ती हैं जिसने एक खास तरह के ब्रांड की खुशबू लपेट रखी है।
अब तो हर जगह को नकली खुशबूओं ने घेर रखा है। शादी हो या कोई उत्सव, या चाहे फिर कोई-सा प्रसंग नकली खुशबुओं का संसार पसरा पड़ा है। जिसको देखो वह बाजार में सजी नकली खुशबू में नहाया निकलता है। मजाल है जो कहीं से पसीने की गंध आ जाए। और अब तो खुशबूएँ कहाँ नहीं हैं। वे हमारी गोपन जगहों पर भी पसरी पड़ी हैं क्योंकि अब बाजार में कंडोम भी कई तरह की खुशबू में लिपटे मिलते हैं।
मैं जहाँ कहीं, किसी कार्यक्रम में जाता हूँ तो लोग नाना तरह की खुशबू में नहाए मिलते हैं। इन समारोह में कई ऐसे दृश्य भी दिखाई देते हैं जहाँ पिता अपने बच्चों को ढूँढ़ रहे हैं, माँएँ अपने बच्चों को गोद में बैठाकर आईसक्रीम खिला रही हैं या फिर बहनें अपने छोटे भाई का हाथ पकड़कर उसे नूडल्स के स्टॉल की ओर ले जा रही हैं। और ये सब नकली खुशबू में नहाए खाते-पीते खिलखिला रहे हैं।
खुशबू के फैले इस संसार में क्या उस बच्चे को अपने पिता, माँ या बहन के पसीने की गंध की याद रहेगी?
5 टिप्पणियां:
प्रभावित करने वाला गद्य।
रवीन्द्र से मेरी मुलाकात भी 1997 में हुई थी । इस बात को भी अब 15 बरस हो चुके हैं । रवीन्द्र के सिख मोहल्ले वाले उस घर में एक शाम बिताई थी और इन बहनों के हाथ का बना खाना भी खाया था और राई जीरे से लगी बघार की उस गन्ध को महसूस किया था जिसका ज़िक्र रवीन्द्र ने अपने इस गद्य में किया है । सच मुच बहुत ही प्यारा इंसान है रवीन्द्र । कुमार भाई रवीन्द्र के लिखे हुए इस गद्य को प्रस्तुत करने के लिये बहुत बहुत धन्यवाद ।
नकली खुश्बुओं ने असली खुश्बू यानी पसीने की गंध को बेदखल कर दिया है।
ह्रदय को छूने वाली पंक्तियां।
बहुत सुन्दर लिखा है.. पिता के पसीने की गंध , माँ के पसीने की गंध ,,कोई इत्र इनका सामना नही कर सकता..
कल १९मार्च को आकाशवाणी इंदौर द्वारा आयोजित साहित्यिक कार्यक्रम में हिन्दी आलोचना पर केंदित सत्र में रवींद्र व्यास ने जो कुछ कहा था उसमे भी श्रोताओं ने काव्य तत्व को बहुत जोरदार रूप से महसूस किया. आपकी बात बिलकुल ठीक है,अम्बुज जी .रवीन्द्र की अभिव्यक्ति में भाषा की बुनावट कथ्य की पूरक रहती है.
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