करीब 16 साल पहले लिखी यह कविता 'अनंतिम' शीर्षक संकलन में संग्रहीत है।
आज अनायास ही पहली अप्रैल को इसकी स्मृति आ गई। हाजिर है।
मूर्खताऍं
मूर्खताऍं
मूर्खताऍं हमारी सहज बुद्धि का चमत्कार हैं
उन्हें सीखना नहीं पड्ता
और संभव भी नहीं कि उन्हें सिखाया जा सके
आज की बुद्धिमानियॉं
कल पता चलता है कि हमारी सर्वोत्तम मूर्खताऍं थीं
फिर ध्यान देने पर लगता है
यह जीवन टिका हुआ है मूर्खताओं पर ही
उनके लिए किसी प्रसंग की जरूरत नहीं
लेकिन वे प्रसंगों को स्मरणीय बना देती हैं
किसी को सुनाने के लिए याद करने पर
वे मुश्किल से ही आती हैं याद
क्योंकि वे इतनी अधिक हो चुकी होती हैं
कि चुनना आसान नहीं
उन पर रोने से कोई फायदा नहीं
हँसना तो और भी कठिन
वे अपने आप में कम अजीब नहीं होतीं
और अकसर हमें विपदाओं में से निकाल लाती हैं
हालॉंकि विपदाओं में डालने में भी उनकी ही भूमिका होती है
वे हमारी दिनचर्या का उपसर्ग हैं
छोटी-मोटी मूर्खताओं का तो हमें पता ही नहीं चल पाता
हम उनके इतने आदी हैं
कि अकसर ही हम एक-दूसरे से
उनकी आशा करते हैं।
4 टिप्पणियां:
जी। सोलह साल पहले की लगी। आज की तो आप बताने से रहे:)
मूर्खताऍं हमारी सहज बुद्धि का चमत्कार हैं...
मुझे हमेशा लगता है कि एक वर्ग विभक्त समाज में प्रभावी वर्ग शोषित वर्ग की आदतों/संस्कारों और उनसे जनित व्यवहारों को "मूर्खता" बनाकर पेश करता है.
अप्रैल फूल पर आपने मूर्खता पर अच्छा विश्लेषण प्रस्तुत किया ..वह भी सोलह साल पहले का...इस बीच का कुछ संस्मरण .. वैसे कसौटी तो यह कविता ही होगी मूर्खताओं की ... happy April Fool day.. :)
अशोक कुमार पाण्डेय को एकदम सही *लगता* है........ पर साथ मे यह भी है कि सभी वर्ग और समुदाय और समूह और जातियाँ और नस्लें एक दूसरे के सस्कारों, आदतों , परम्पराओं और व्यवहारों को *मूर्खता बना कर पेश करने का प्रयास करते हैं. यह बात दीगर है कि प्रभावी वर्ग का *दिखाना* ज़्यादा प्रभाव शाली होता है और शोषित वर्गों का दिखाना बेअसर सा.......
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