बुधवार, 13 जून 2012

अच्‍छा काव्‍य पाठ


अच्छा काव्य पाठ

(तथाकथित अच्छे काव्य पाठ के बारे में कुछ अन्‍यथा विचार)


एक दिलचस्प आरोप समकालीन कविता के कवियों पर अकसर लगाया जाता रहा है। कि अधिकांश कवि, अच्छे कवि भी, अपनी कविताओं का पाठ प्रभावी ढंग से नहीं करते। या कहें कि नहीं कर पाते हैं। मुझे अनेक अर्थों में यह एक विलक्षण माँग लगती है। कविता लिखना और पाठ करना, दो अलग अलग कलाएँ हैं। और एक ही व्यक्ति में ये दोनों उत्कृष्ट रूप में हों, यह प्रायः दुर्लभ है।

जैसे एक जमाने में फिल्मों में नायक के लिए गायन कला में पारंगत होना लगभग अनिवार्य शर्त थी। और इसकी अपनी मुश्किलें थीं, साथ ही यदि कोई अच्छा अभिनेता है लेकिन गायक नहीं है तो उसकी अभिनय प्रतिभा को भी नायकत्व के अवसर असंभव नहीं लेकिन दुष्कर अवश्य ही थे। इस तरह के आग्रह, एक उत्कृष्टता को कमतर देखते चले जाने का या उसकी उपेक्षा का अनजाने ही कारण बनता है। जैसे एक कलाकार से आप एक न्यूनतम ‘पैकेज’ की माँग कर रहे हैं। संगीत की समझ, संगीतकार होना, गायक होना, कविता या गीत लिखना और मंच पर पाठ, ये सब अलग-अलग प्रतिभाओं की माँग करती हैं। कुछ लोगों में ये सारी अथवा कुछ प्रतिभाएँ एक साथ हो सकती हैं मगर अधिकांशतः ऐसा नहीं होता।

यहाँ प्रभावी काव्य पाठ के आशय भी पृथक हो सकते हैं। किसी के लिए वह साफ उच्चारण और कुछ धीमी गति से पढ़ना पर्याप्त होगा। किसी के लिए पूरे हावभाव, अभिनय के साथ प्रभावशील प्रतीत होगा और किसी के लिए प्रचुर नाटकीयता का तत्व जरूरी लग सकता है। किसी की आवाज भारी, गूँज भरी या अन्य रूप से प्रभावी हो सकती है और इसका उलट भी, जिसमें उसका अपना योगदान लगभग कुछ नहीं होता। वह प्राकृतिक रूप से प्रदत्त है। काव्य पाठ में कवि का व्यक्तित्व, उसका चेहरा-मोहरा और उसकी सहज, नैसर्गिक देह भंगिमाएँ भी शामिल हो जाती हैं। इन सबके समुच्चय में काव्य पाठ होता है, जिसमें कुछ चीजें प्राकृतिक होती हैं, कुछ का विकास किया गया होता है और कुछ अभिनयमूलक। हकलहाट, तुतलाहट, अटकना और उच्चारण दोष के बावजूद किसी का कुल पाठ अच्छा लग सकता है। या कहें कि उससे हमारा तादात्मय बैठ जाता है। दरअसल, कविता पाठ में कोई कवि कुछ ही पक्षों में, कुछ ही हद तक सुधार कर सकता है। हमेशा इसकी एक सीमा बन जाएगी। इसका कोई आदर्श रूप बना पाना अवांछित और कठिन है। जितने कवि, उतनी तरह का काव्य पाठ। यही सच है। यही आकर्षण है। 

मुझे तो लगभग अपना हर प्रिय कवि, जिसका भी काव्यपाठ मैंने सुना है, वह अपने सहज, प्राकृतिक ढंग में ही प्रिय लगता रहा है। वही उसकी विशिष्टता भी बन जाती है। कविता सुनना भी एक कला है जिसे हर श्रोता अपने ढंग से अर्जित करता है। और यह अपने कवि से, प्रस्तुत काव्यपाठ से तादात्मय बैठाने से गहरा संबंध रखता है। कविमुख से कविता सुनने के आनंद में यह शामिल है कि ‘कवि की अपनी प्राकृतिकता में, उसकी अपनी शक्तियों और सीमाओं के साथ सुनने से प्राप्त आनंद।’ और इसका कोई मानकीकरण नहीं हो सकता। यदि आप इसमें आनंदित नहीं हो सकते तो बेहतर है कि उसे किसी अन्य के मुख से सुना जाए।

यहाँ अनेक ऐसे कवि भी ध्यान में आ सकते हैं जो अपनी निष्प्रभावी और कमतर कविताओं का भी गजब, प्रभावी पाठ कर पाते हैं। किसी के लिए इसमें बहुत हद तक स्वाभाविक, प्रकृति प्रदत्त सहयोग भी मिला होता है। नाद, पाठ, स्वर, सटीक उच्चारण और अंग संचालन से उत्पन्न प्रभावी पाठ की अपेक्षा सभी कवियों से, बल्कि अधिकांश कवियों से करना एक अतिरिक्त माँग है। इस आधार पर उनकी आलोचना तो दुराग्रह ही है। यदि यह आग्रह रखना ही है तो ऐसे काव्य प्रेमियों का दल विकसित किया जाना चाहिए जो भले ही कवि न हों लेकिन अच्छा काव्य पाठ कर सकते हों। और वे कविताओं का पाठ करें। जैसा मराठी, मलयालम, अंग्रेजी और अन्य यूरोपियन भाषाओं में कहानियों के पाठ विकसित किए गए और स्टोरी टेलर की एक आदरणीय, लोकप्रिय जमात पल्लवित हुई। ‘पोएट्री रिसाइटल’ के लिए भी ऐसी जमात को प्रेरित किया जाना कहीं बेहतर और व्यावहारिक होगा ताकि ‘काव्य पाठ’ के असर को संप्रेषणीयता और प्रचार के उच्चतम स्तर तक पहुँचाया जा सके। उनकी विशेषज्ञता किसी भी श्रेष्ठ पाठ करनेवाले कवि से बेहतर ही होगी।

अपने में गुम, संकोच, संशय और सहज मानवीय कमजोरियों के साथ किए गए अनेक कवियों के काव्यपाठ, अप्रतिम काव्यानुभव के कारण भुलाए नहीं भूलते। और जिन कवियों के काव्यपाठ की बड़ी प्रशंसा है, अनेक अवसरों पर उनकी नाटकीयता, आवाज पर उनका आत्मविश्वास और उच्चारण की शुद्धता ही अकसर बाकी चीजों को ढाँप लेती है। तथाकथित अच्छा पाठ, खराब कविता के लिए ओट भी बन सकता है। बनता रहा है।  

न्यूनतम अपेक्षा शायद यह हो सकती है कि उच्चारण यथासंभव ठीक हो और श्रोता तक आवाज पहुँच सके।  इसे किसी कवि द्वारा धीरे धीरे अर्जित भी किया जा सकता है और कविता सुनाये जाने के लिए इतनी भर अपेक्षा जायज प्रतीत होती है। हालांकि, क्षेत्रीय बोली-भाषा से प्राप्‍त उच्‍चारण और स्‍वरदोष आसानी से दूर नहीं हो सकते।

एक अर्थ में तथाकथितअच्छे  काव्य पाठ का आग्रह, अन्‍यथा एक रूपवादी, रूमानी आग्रह भी हो सकता है।
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2 टिप्‍पणियां:

लीना मल्होत्रा ने कहा…

कविता सुनना भी एक कला है जिसे हर श्रोता अपने ढंग से अर्जित करता है.. दरअसल जो इस प्रकार की आपत्तियां उठाई जाती हैं वह कवि हृदयों द्वारा नही बल्कि सतही तौर पर कविता सुनने वालो द्वारा ही उठाई जाती हैं.. सुन्दर लेख..

अरुण चन्द्र रॉय ने कहा…

मैथिलि भाषा में "सागर राति दीप जरय" है जहाँ रात भर कहानी पाठ होता है.. कई बार सैकड़ो लोग सुनने आते हैं गाँव देहात में...