मोहन राणा की यह कविता 'पानी का रंग', ब्लॉग जानकीपुल से साभार।
दस पंक्तियों की इस कविता ने अपनी सघनता और उत्कटता से मुझे घेर लिया है।
अपने कुल संयोजन में यह श्रेष्ठ कविता की अपेक्षा को जैसे लगभग पूरा कर देती है।
दस पंक्तियों की इस कविता ने अपनी सघनता और उत्कटता से मुझे घेर लिया है।
अपने कुल संयोजन में यह श्रेष्ठ कविता की अपेक्षा को जैसे लगभग पूरा कर देती है।
पानी का रंग
यहाँ तो बारिश होती रही लगातार कई दिनों से
जैसे वह धो रही हो हमारे दाग़ों को जो छूटते ही नहीं
बस बदरंग होते जा रहे हैं कमीज़ पर
जिसे पहनते हुए कई मौसम गुज़र चुके
जिनकी स्मृतियाँ भी मिट चुकी हैं दीवारों से
कि ना यह गरमी का मौसम
ना पतझर का ना ही यह सर्दियों का कोई दिन
कभी मैं अपने को ही पहचान कर भूल जाता हूँ,
शायद कोई रंग ही ना बचे किसी सदी में इतनी बारिश के बाद
यह कमीज़ तब पानी के रंग की होगी।
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6 टिप्पणियां:
आपकी कविता पढ़ने के बाद कम से कम मैंने अपनी पत्नी के बनाए खाने की बुराई करने का पाप नहीं किया वह पाप जो मेरे पिता ने बार-बार किया, उससे आपने मुझे मुक्त कर दिया।
कुमार जी,आपके ब्लॉग पर देरी से आने के लिए पहले तो क्षमा चाहता हूँ. कुछ ऐसी व्यस्तताएं रहीं के मुझे ब्लॉग जगत से दूर रहना पड़ा...अब इस हर्जाने की भरपाई आपकी सभी पुरानी रचनाएँ पढ़ कर करूँगा....कमेन्ट भले सब पर न कर पाऊं लेकिन पढूंगा जरूर
मोहन राणा जी की ये विलक्षण रचना हम तक पहुंचाने के लिए कोटिश धन्यवाद....
नीरज
bahut khub kumar ambuj jee
bahut khoob
मोहन राणा जी की रचना हम तक पहुंचाने के लिए कोटिश धन्यवाद....
मोहन राणा जी की रचना हम तक पहुंचाने के लिए कोटिश धन्यवाद....
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