सुप्रसिद्ध स्तंभ लेखक जय प्रकाश चाैकसे जी एक किताब अभी प्रभात प्रकाशन से आई है। जिसमें उनके 100 आलेख संकलित हैं। इस किताब की भूमिका लिखने का अवसर मुझे मिला। वह भूमिका यहॉं पेश है।
सिनेमाई अनुभव की साहित्यिक नोटबुक
फिल्म की दुनिया चकाचैंध, वैभव, माया, स्वप्न, आकांक्षा, प्यास और ऐश्वर्य की दुनिया है। शेष संसार के लिए वह एक चुंबक की तरह काम करती है। लेकिन उस दुनिया के बारे में लिखा जाना हमेशा चुनौतीपूर्ण रहा है। खासकर पत्रकारिता के संदर्भ में। हिंदी में तो और भी ज्यादा अकाल है। खासतौर पर जब दैनिक स्तंभ लिखा जा रहा हो। अक्सर ऐसा लेखन औसत से ऊपर नहीं हो पाता। लेकिन जय प्रकाश चौकसे का नियमित लेखन एक सुखद अपवाद है।
इसका सबसे बड़ा कारण है कि फिल्म से जुड़े किसी भी प्रसंग के बहाने जय प्रकाश चौकसे एक बहुत बड़ी सामाजिक दुनिया में प्रवेश कर जाते हैं। हर बार वे फिल्म की घटनाओं का अतिक्रमण करते हैं। जीवन और दर्शन की व्यापकता जैसे उनका अभीष्ट हो जाता है। फिर वहाँ साहित्य और कला अनुशासनों की इतनी आवाजाही है कि हमारे रोजमर्रा के तमाम अनुभवों और विचारों से टकराने का अवसर उपलब्ध है। यह अनेक खिड़कियों का एक साथ खुलना है। धीरे-धीरे हम जान लेते हैं कि यह महज फिल्मी खबरें नहीं हैं के बल्कि उसके बहाने व्यापक सरोकारों से सज्जित और चिंतित संपादकीय हैं।
और इस लेखन को जय प्रकाश चौकसे अपनी इतनी परिमार्जित भाषा के साथ संपन्न करते हैं कि उसे पढ़कर साहित्यिक रचना की अनुभूति होती है। यह भाषा ठस या बोझिल नहीं है। इसमें गतिशीलता है, संवाद की ताकत है। आत्मीयता है। वे हिंदी के कठिन और तत्सम शब्दों का इस्तेमाल भी इतनी सहजता से कर लेते हैं कि कोई अवरोध नहीं बनते। इस तरह वे संप्रेषण के लिए अटकते नहीं हैं और अखबारी भाषा की विपन्नता को भी लाँघ जाते हैं। उन्होंने भाषा का अपना एक मुहावरा बनाया है। इस तरह वे हिंदी गद्य को भी नये सिरे से समृद्ध करते हैं। हर पंक्ति पर लगता है कि आप एक सुपठित, सजग और व्यग्र लेखक के साथ हैं।
मनुष्य की मूल प्रवृत्तियों, आशा-निराशा, राग, द्वेष, ईष्र्या, प्रेम, लोभ, काम और इच्छाओं के साथ परम्परा तथा हमारे समय की आधुनिक जटिलताओं यथा- संस्थानों की समस्याओं, निजीकरण, भूमण्डलीकरण, अमीर-गरीब की बढ़ती खाई, बेरोजगारी, वंचितों की असहायता और धन के अश्लील प्रदर्शन, आत्मा का लुटा हुआ द्वीप, इन सबके बीच जय प्रकाश चौकसे ऐसे पुल बनाते हैं कि हम खुद वहाँ पहुँचकर इन प्रवृत्तियों का कुछ करीब से जायजा ले सकें। वे कुछ क्लोज अप और लाँग शाॅट्स के जरिए भी हमारे लिए दृश्य रच देते हैं। वे जो कुछ भी परदे के पीछे रह जाता है, नेपथ्य में ओझल है, उसे प्रतिदिन के रंगमंच पर ले आते है और ऐसा वे किसी अदाकारी अथवा नाटकीयता के जरिए नहीं बल्कि अनायासिता और सहजता से करते हैं।
यह उस लेखन का विशिष्ट उदाहरण है जो अंतर्वस्तु में श्रेष्ठ होते हुए भी लोकप्रियता के तत्व को बरकरार रखता है। श्रेष्ठ यदि लोकप्रिय हो जाये तो इससे अधिक स्वागतेय क्या होगा? इस प्रसंग में जय प्रकाश चौकसे को रेखांकित किया जाना चाहिए। फिल्म को माध्यम बनाकर यह सब लिखना दरअसल, एक नये प्रकार का साहित्य है। इसे किसी नयी विधा, नयी कोटि के अंतर्गत रखना होगा। ये सिनेमाई अनुभव की साहित्यिक नोटबुक है। जहाँ शब्दकला के बहुआयामी शिल्पों और संगीत का सुखद मेल, उसका आस्वाद उपस्थित है।
इसमें सामाजिक सरोकार, मनुष्य की चिंताएँ, घबराहट और जिजीविषा प्रखर रूप से शामिल है। ये लक्षण, उनके नियमित स्तंभ को किसी ‘प्रकाश स्तंभ’ में तबदील कर देते हैं जिसकी रोशनी में हम अपनी नौकाओं की दिशाएँ कुछ हद तक तो ठीक कर ही सकते हैं। स्वतंत्र भारत के व्यावसायिक हिंदी अखबार जगत में, हरिशंकर परसाई और शरद जोशी के बाद, इतने लंबे समय तक किसी स्तंभ को रोज लिखना ही अपने आप में एक विरल उदाहरण है। फिल्मों के बहाने लिखना तो शायद अकेली मिसाल है। यहाँ मेरा आशय यों ही कलम घिस देने से नहीं, एक पठनीय, लोकप्रिय और श्रेष्ठ लेखन से है। यह संयोग मुश्किल से होता है। जय प्रकाश चौकसे ने इसे संभव किया है। इसलिए ही उनको रोज पढ़ना, अब एक विस्तृत पाठक वर्ग की दिनचर्या है, आदत है।
इसका सबसे बड़ा कारण है कि फिल्म से जुड़े किसी भी प्रसंग के बहाने जय प्रकाश चौकसे एक बहुत बड़ी सामाजिक दुनिया में प्रवेश कर जाते हैं। हर बार वे फिल्म की घटनाओं का अतिक्रमण करते हैं। जीवन और दर्शन की व्यापकता जैसे उनका अभीष्ट हो जाता है। फिर वहाँ साहित्य और कला अनुशासनों की इतनी आवाजाही है कि हमारे रोजमर्रा के तमाम अनुभवों और विचारों से टकराने का अवसर उपलब्ध है। यह अनेक खिड़कियों का एक साथ खुलना है। धीरे-धीरे हम जान लेते हैं कि यह महज फिल्मी खबरें नहीं हैं के बल्कि उसके बहाने व्यापक सरोकारों से सज्जित और चिंतित संपादकीय हैं।
और इस लेखन को जय प्रकाश चौकसे अपनी इतनी परिमार्जित भाषा के साथ संपन्न करते हैं कि उसे पढ़कर साहित्यिक रचना की अनुभूति होती है। यह भाषा ठस या बोझिल नहीं है। इसमें गतिशीलता है, संवाद की ताकत है। आत्मीयता है। वे हिंदी के कठिन और तत्सम शब्दों का इस्तेमाल भी इतनी सहजता से कर लेते हैं कि कोई अवरोध नहीं बनते। इस तरह वे संप्रेषण के लिए अटकते नहीं हैं और अखबारी भाषा की विपन्नता को भी लाँघ जाते हैं। उन्होंने भाषा का अपना एक मुहावरा बनाया है। इस तरह वे हिंदी गद्य को भी नये सिरे से समृद्ध करते हैं। हर पंक्ति पर लगता है कि आप एक सुपठित, सजग और व्यग्र लेखक के साथ हैं।
मनुष्य की मूल प्रवृत्तियों, आशा-निराशा, राग, द्वेष, ईष्र्या, प्रेम, लोभ, काम और इच्छाओं के साथ परम्परा तथा हमारे समय की आधुनिक जटिलताओं यथा- संस्थानों की समस्याओं, निजीकरण, भूमण्डलीकरण, अमीर-गरीब की बढ़ती खाई, बेरोजगारी, वंचितों की असहायता और धन के अश्लील प्रदर्शन, आत्मा का लुटा हुआ द्वीप, इन सबके बीच जय प्रकाश चौकसे ऐसे पुल बनाते हैं कि हम खुद वहाँ पहुँचकर इन प्रवृत्तियों का कुछ करीब से जायजा ले सकें। वे कुछ क्लोज अप और लाँग शाॅट्स के जरिए भी हमारे लिए दृश्य रच देते हैं। वे जो कुछ भी परदे के पीछे रह जाता है, नेपथ्य में ओझल है, उसे प्रतिदिन के रंगमंच पर ले आते है और ऐसा वे किसी अदाकारी अथवा नाटकीयता के जरिए नहीं बल्कि अनायासिता और सहजता से करते हैं।
यह उस लेखन का विशिष्ट उदाहरण है जो अंतर्वस्तु में श्रेष्ठ होते हुए भी लोकप्रियता के तत्व को बरकरार रखता है। श्रेष्ठ यदि लोकप्रिय हो जाये तो इससे अधिक स्वागतेय क्या होगा? इस प्रसंग में जय प्रकाश चौकसे को रेखांकित किया जाना चाहिए। फिल्म को माध्यम बनाकर यह सब लिखना दरअसल, एक नये प्रकार का साहित्य है। इसे किसी नयी विधा, नयी कोटि के अंतर्गत रखना होगा। ये सिनेमाई अनुभव की साहित्यिक नोटबुक है। जहाँ शब्दकला के बहुआयामी शिल्पों और संगीत का सुखद मेल, उसका आस्वाद उपस्थित है।
इसमें सामाजिक सरोकार, मनुष्य की चिंताएँ, घबराहट और जिजीविषा प्रखर रूप से शामिल है। ये लक्षण, उनके नियमित स्तंभ को किसी ‘प्रकाश स्तंभ’ में तबदील कर देते हैं जिसकी रोशनी में हम अपनी नौकाओं की दिशाएँ कुछ हद तक तो ठीक कर ही सकते हैं। स्वतंत्र भारत के व्यावसायिक हिंदी अखबार जगत में, हरिशंकर परसाई और शरद जोशी के बाद, इतने लंबे समय तक किसी स्तंभ को रोज लिखना ही अपने आप में एक विरल उदाहरण है। फिल्मों के बहाने लिखना तो शायद अकेली मिसाल है। यहाँ मेरा आशय यों ही कलम घिस देने से नहीं, एक पठनीय, लोकप्रिय और श्रेष्ठ लेखन से है। यह संयोग मुश्किल से होता है। जय प्रकाश चौकसे ने इसे संभव किया है। इसलिए ही उनको रोज पढ़ना, अब एक विस्तृत पाठक वर्ग की दिनचर्या है, आदत है।
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