गुरुवार, 7 नवंबर 2019

यातना शिविर में


लिखी जा रही लंबी कविता का छोटा-सा अंश
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"अगस्त की एक रात में होती है तेज बारिश
पौ फटने तक बह जाते हैं सारे रास्ते
टूट चुके होते हैं तमाम पुल, बंद हो जाते हैं दर्रे
यह बर्फबारी का मौसम नहीं है मगर बर्फ के नीचे
दब जाते हैं सारे फूल, इच्छाएँ, आशाएँ और घास
सिर्फ यातनाएँ चमकती रहती हैं बर्फ के ऊपर
अब आप लिख सकते हैंः अगस्त सबसे क्रूर महीना है
अगस्त में हुआ था सबसे बड़ा धमाका
अगस्त की तारीखों में से उठता था विकिरण
जिसने घेर लिया था तमाम महीनों को, सभ्यता को
अगस्त में ही मजलूमों का आत्मसमर्पण
अगस्त में ही हुए थे इस देह के दो टुकड़े
हमेशा बचा रहता है बस एक जर्जर, शरणार्थी दिल
जो उठाता रहता है सारी तकलीफें
आप मान लीजिए मैं यातना शिविर में नहीं हूँ
मर ही जाता यदि सचमुच होता किसी यातना शिविर में
मेरी ये उजड़ी तसवीरें तो झूठी हैं, सुबह की स्लेटी धुंध झूठी है
झूठी हैं मुझ पर तनी हुई बंदूकें, झूठी हैं सायरन की ये आवाजें
खून की लकीरें झूठी हैं, झूठे हैं ये घायल जिस्म, ये चीखें झूठी हैं
थर्ड डिग्री की यह खबर झूठ की प्रतिलिपि है, महाझूठी है
घर में भीतर की दीवारों पर गोलियों के ये निशान झूठे हैं
कौन कह सकता है भला मैं यातना शिविर में हूँ
जो कह देगा वह शख्सियत झूठी है
सच्ची है सिर्फ मेरी चुप्पी और सच्चाई मेरी झूठी है
मेरा कुछ भी कहना अब इस कदर बेमतलब है
कि कह दूँ तो मानेगा कौन, न कहूँ तो समझेगा कौन
जबकि कहना बस इतनी सी बात है कि अभी संसार में हूँ
मेरी आवाज पर निगाह है, मेरी हस्तलिपि पर निगाह है,
निगाह है मेरी आँख की पुतली पर, अब कोई निजता नहीं रही
इसलिए इस सामाजिक चौपाल पर यूनिकोड में लिखता हूँ-
महादेश में हूँ, जब तक मुमकिन है जिंदा हूँ, मजे में हूँ
और यहाँ तक आते-आते मान चुके हैं आप भी
कि मैं हूँ मगर किसी यातना शिविर में नहीं हूँ.. ... "

हत्यारे की जीवनी


(एक)
जनता वाचनालय में एक दिन मुझे हाथ लगी हत्यारे की जीवनी
जर्जर पीले पन्नों की वह किताब पुराने कागज की गंध से भरी
उस पर ख़ून का एक छींटा भी नहीं था
आवरण पर रौनक थी और उस पर बना चित्र इतना सात्विक
कि उसके लिए जँच सकता था कुछ बेहतर शीर्षक भी
जीवन में कविता की किताब खोजते हुए
अचानक ही वह मुझे मिल गई
विशाल जनता-वाचनालय के एक कोने में बैठकर उसे पढ़ा मैंने
वह एक फूल के वर्णन से शुरू होती थी
तालाब किनारे बने देवालय को प्रणाम करती
सिर झुकाकर एक पेड़ के तने के नीचे से निकलती
वह बागीचे में जाती थी और आसमान की तरफ
देखती थी कैमरामैन की निगाह से
अनगिन पेड़ों, पक्षियों और शरारतों के दृश्यों से भरपूर
वह शुरू से ही जकड़ लेती थी अपने मोह में
दरअसल वह एक मोहिनी थी
लिखा गया था जिसे जीवनी की तरह
उसमें एक तितली को इसलिए पकड़ा गया था
कि उसके पास सबसे अलहदा सबसे ज्यादा सबसे सुंदर रंग थे
ऐसा ही सलूक एक बार चींटी के साथ किया गया
फिर चिड़िया के साथ और फिर कब्र पर पड़े एक फूल के साथ
फूल के विवरण से शुरू हुआ अध्याय
एक फूल को कुरते पर लगा लेने में खत्म होता था।
(दो)
उसमें एक बच्चे का बचपना था
जिसे हत्यारे का बचपना नहीं कहा जा सकता
उसकी किशोरावस्था तो और ज़्यादा मदमाती थी
फिर वह भीड़ से प्रेम करने लगा और एकांत में बिलखता था
फिर एकांत में प्रेम करता था और व्यग्र रहता था भीड़ में
पृष्ठ क्रमांक 184 पर उसने प्रेम करते हुए कसम खाई
कि वह सब कुछ बनेगा लेकिन कभी हत्यारा नहीं बनेगा
मगर उसकी पत्नी तक ने कसम पर भरोसा नहीं किया
उसकी प्रेमिका इस शपथ से घबराकर
अजानी आशंका में शहर ही छोड़कर चली गई
उसकी याद में जीवनी में लिखे गए थे
तेईस पृष्ठ और अड़तालीस पैराग्राफ
उसमें से एक भावुक हृदय झाँकता था और आकांक्षाएँ
मसलन उसे नापसंद थे गंदगी में रहनेवाले लोग
लेकिन वह पटियों पर बैठकर चाय पी लेता था
गरीबों, आदिवासियों के संग तस्वीरें थीं उसकी
एक तसवीर के लिए वह गटर तक में उतर गया था
और भरी सभा में भी उसे कभी
अपना दिल खोलकर रख देने में कोई संकोच नहीं रहा
वह संगीत से प्रेम करता था और सितार सुनने के लिए
चला जाता था बीस मील दूर तक पैदल
जब वह बाँसुरी की धुन पर सवार होकर चंद्रमा के पास पहुँचता
तो हत्या का विचार तक मन में न आता था
उसने कई पोशाकें बदलीं, कई चेहरे लगाए, कई भाषाएँ सीखीं
वह सब कुछ जैसा लगना चाहता था हत्यारा नहीं
वह कई बार भूखा रहा और कुछ दिन गरीबी में बीते
उसने अखबार बाँटे, ब्रेड बेची, बैरे का काम किया
नगर पालिका लैंप पोस्ट के नीचे करता रहा पढ़ाई
एक समय वह डॉक्टर होना चाहता था
एक वक्त बनना चाहता था खिलाड़ी और एक समय चित्रकार
वह जहाँ भी जाता था वहीं का हो जाना चाहता था
सर्वव्यापी प्रेम के नशे में अपनी नाकुछ ऊँचाई से
वह पूरी दुनिया पर निगाह डालता था, कहता था-
इसे मैं अब अपनी तरह से बनाऊँगा।
(तीन)
उसकी मृत्यु आत्म हत्या की तरह प्रचारित हुई
आधिकारिक सूचना से कहा गया देवलोकगमन
या शायद वह बच भी गया था और आज तक जीवित है
ऐसी संभावना भी उस किताब में छोड़ दी गई थी
हत्यारे की जीवनी से ही पता चली यह विलक्षण बात
कि खुद उसने कभी किसी की हत्या नहीं की
उसे तो कोई हथियार चलाना भी नहीं आता था
वह सीधे-सादे ढंग से रहता था
योग, व्यायाम, साधना में काटता रहा नश्वर जीवन
यहाँ तक आते-आते वह लोकप्रिय हो गया था अपार
पाठ्य पुस्तकों में भरे थे उसके वृतांत
तमाम दीवारों, दफ्तरों, पूजाघरों में उसकी तस्वीरें
जीवनी जहाँ खतम हुई उसके बाद के खाली पृष्ठ पर
किसी पाठक ने, अजीब से मज़ाक में, लिख दिया था-
       ‘
हत्याओं से पहले हत्यारे की जीवनी!
    यह सिर्फ मज़ाक ही तो हो सकता है
    या हत्यारे की जीवनी के किसी पाठक का अपना पाठ
    मुमकिन है एक दिन हमें मालूम हो
    कि यही है ऐतिहासिक तथ्य भी।
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सोमवार, 26 अगस्त 2019

लेखकों का दायित्व - बजरिए युवाल नोआ हरारी

इक्कीसवीं सदी के इक्कीस सबक
युवाल नोआ हरारी
(उपरोक्त पुस्तक की भूमिका के कुछ शब्दों पर आधारित, परिवर्धित नोट -कुमार अम्बुज)

बौद्धिकों, लेखकों और कवियों का दायित्व
अनावश्यक सूचनाओं की बाढ़ से  ग्रसित इस संसार में, दृष्टि की स्पष्टता ही एकमात्र ताकत हो सकती है। लेकिन एक स्पष्ट और तार्किक दृष्टि को लगातार बनाए रखना एक कठिन चुनौती है। 

हम करोड़ों लोगों में से अधिकांश अन्वेषण और जिज्ञासा की विलासिता को बर्दाश्त नहीं कर सकते क्योंकि हमारे पास तो पहले से रोजमर्रा के इतने सारे कामों का दबाब हैः  नौकरी या व्यवसाय की व्यस्तता, बच्चों की परवरिश या घर के बुजुर्गों की देखभाल की जवाबदारी। लेकिन दुर्भाग्य से इतिहास किसी को कोई छूट नहीं देता। 

यदि आपकी सक्रियता के अभाव में मानवता के लिए कोई निर्णय लिया जाएगा तो आप इसलिए नहीं बच जाएँगे कि आप बच्चों के पालन-पोषण या घर-परिवार में बहुत ही मशरूफ थे। आप कहेंगे कि यह तो अनुचित है, लेकिन यह आपसे किसने कहा कि इतिहास आपके मुताबिक होता है और अनुचित नहीं होता है?

यथार्थ या उसके सवाल कई धागों से मिलकर बनते हैं। इनके कोई सर्वस्वीकार्य उत्तर भी नहीं होते। आप केवल अपने पाठकों के लिए एक विमर्श और हमारे समय में उपलब्ध वैकल्पिक वैचारिक बहस की उत्प्रेरणा जरूर दे सकते हैं। मनुष्य की प्रज्ञा और मूढ़ता को रेखांकित कर सकते हैं। जैसेः 
कि आसपास घट रही घटनाओं के मूल में वास्तविक कारण क्या हो सकते हैं। 
कि जाली समाचारों की महामारी के बीच कैसे रहा जा सकता है। 
कि राष्ट्रवाद, असमानता और पर्यावरण की चुनौतियों को कैसे हल कर सकता है। 
कि व्यक्तिगत भी अंततः राजनैतिक है लेकिन इस युग में जब वैज्ञानिक, कार्पोरेशंस और सरकारें आदमी के मस्तिष्क पर ही कब्जा कर रही हैं, उसे अपने प्राधिकार में ले रही हैं,
तब क्या किया जा सकता है।

इस वैश्विक होते संसार ने लोगों के व्यक्तिगत आचरण, जीवन पद्धति और नैतिकता पर कई तरह के दबाब डाल दिए हैं। और अभी जब लग रहा था कि उदारवाद, साम्यवाद और फासीवाद के शीतयुद्ध में उदारवाद ने विजय प्राप्त कर ली है तब हम देख रहे हैं कि उदारवाद तो तमाम अवरोधों में फँस चुका है। 
तो हम किस तरफ बढ़ रहे हैंः निश्चित ही फासीवाद की तरफ। 

एक कवि लोगों को भोजन या कपड़े नहीं दे सकता लेकिन वह उस वैचारिकता और स्पष्ट दृष्टि को संप्रेषित कर सकता है ताकि लोग किसी वैश्विक विमर्श में चीजों को सही ढंग से समझ सकें। 
यदि कुछ लोग भी इस तरह लाभान्वित होते हैं तो कवि का काम पूरा हो जाता है।

तकनीक की उन्नति मनुष्यों को बड़ी संख्या में प्रतिस्थापित करते हुए एक नए वर्ग का निर्माण कर रही है। और वह वर्ग है -अनुपयोगी मनुष्यों का वर्ग। या कहें कि निकम्मा वर्ग।  

सोच-विचार करनेवालों का, बौद्धिकों, लेखकों और कवियों का दायित्व इस पृष्ठभूमि में स्वयमेव स्पष्ट है।
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सोमवार, 5 सितंबर 2016

मेरी हँसी में मेरे पिता की हँसी शामिल है।

एक सवाल की तरह और फिर एक विवाद की तरह। 
कुछ चीजें हमेशा, ही संवाद में बनी रहती हैं। 
ये उन अमर प्रश्‍नों की तरह हैं जिनके उत्‍तर भी उतने ही शाश्‍वत हैं। जिनसे सब सहमत हैं और ठीक उसी समय सभी असहमत। बहरहाल, एक पुरानी पोस्‍ट साझा कर रहा हूँ, जो गद्य की मेरी नयी पुस्‍तक 'थलचर' में भी अतिशीघ्र प्रकाश्‍य है।

'पहल-71' में डायरी प्रकाशित हुई थी, उसमें से यह एक अंश यहाँ। इसमें  एक पंक्ति और शामिल हुई है। 
शायद यह दिलचस्‍प लगे।

मेरी हँसी में मेरे पिता की हँसी शामिल है।
27-06-98

रचनाशीलता में मौलिकता एक तरह का मिथ है।
जिस तरह एक मौलिक मनुष्य असंभव है उसी तरह एक मौलिक रचना नामुमकिन है। मौलिकता एक अवस्थिति भर है। (जैसे शतरंज के चौसठ खानों में बत्तीसों या कम ज़ादा मोहरों के रहते, तमाम स्थितियॉं बनती-बिगड़ती रह सकती हैं और एक मोहरा इधर-उधर करने से भी एक नितांत नई अवस्थिति बन जाती है।) एक दी हुई दुनिया है जिसमें आपको अपनी एक दुनिया को जन्म देना है। अपनी अवस्थिति का निर्माण करना है। दी हुई दुनिया का अतिक्रमण भी करना है। यही रचनाशीलता है। यह अवस्थिति मौलिकता है।

सर्जक अपनी रचनाशीलता में कुछ ऐसा ही करते हैं कि एक मोहरे को, कुछ मोहरों को इस तरह रखते हैं कि वह एक नया संयोजन हो जाए। पूरा जीवन विस्तृत खानों से भरा संसार है। शब्द मोहरे हैं। विचार, संयोजन की आधारशिलाऍं हैं। कारक हैं। गणित में संख्याऍं हैं। उनसे असीमित संभावनाओं को, अनगिन संयोजनों को जन्म दिया जाना संभव है। वह सब कुछ अगण्य है। इस सब कुछ में से रचनाकार अपनी सर्जनात्मकता के जरिए, एक परिप्रेक्ष्य देता है। यह परिप्रेक्ष्य कुछ हद तक `मौलिकता´ जैसा समझा जा सकता है।

मेरी हँसी में मेरे पिता की हँसी शामिल है। मेरी चाल में मेरे पितामह हैं। और मेरी जल्दबाजी मुझे मेरे नाना से मिली है। यही मेरी मौलिकता है। एक नया संयोजन। मैं इसमें कुछ अपनी तरफ से भी जोड़ रहा होउँगा। जिसके बारे में यह दावा भी हास्यास्पद होगा कि वह वस्तुत: सिर्फ मेरा ही है। लेकिन उससे एक नयी अवस्थिति बनती है। यह मौलिकता का मिथ है।

अवयव मौलिक नहीं हो सकते। वे हमारे माध्यम के हिस्से हैं। संयोजन नया हो सकता है। तथाकथित मौलिकताऍं यदि कुछ हैं भी तो वे समाज में, जीवन में बनती हैं, साहित्य में उनकी छायाओं को दर्ज भर किया जा सकता है। इसी सब के बीच रचना की कोई मौलिकता, यदि वह वाकई हो सकती है तो, छिपी हो सकती है। यही सर्वाधिक नैसर्गिक है। एक रचनाकार सबका कर्ज़दार होता है। उसके आसपास की हर जीवित-अजीवित चीज का। दृश्य-अदृश्य का। वही उसकी पूँजी है। कर्ज की पूँजी मौलिक नहीं होती। और यह पूँजी समाज में लंबे कालखंड से विद्यमान है। उसके निवेश और उसके उपयोग का तरीका अलग हो सकता है। यही मौलिकता का मिथ है।

मैं और मेरी रचना उतनी ही मौलिक है जितना कि इस संसार में मेरा अस्तित्व मौलिक है। मेरी मौलिकता पूरे जड़-चेतन से सापेक्ष है, निरपेक्ष नहीं। इसलिए ही वह किसी शुद्ध मौलिकता की तरह मौलिक नहीं।

हॉं, एक बात और:
हमारी अज्ञानता भी कई चीजों को, मौलिकता के पद (Term) में `मौलिक´ घोषित कर सकती है।
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पुन:
17 जुलाई 2008
रचनाशीलता में 'शुद्ध मौलिकता' दरअसल एक तरह का अंधविश्‍वास है।

शुक्रवार, 2 सितंबर 2016

कार्ल सैन्‍डबर्ग की घास और उसकी पत्तियाँ

घास की पत्तियाँ


घास को लेकर संसार में अनेक कविताऍं लिखी गई हैं लेकिन 1918 में कार्ल सैन्‍डबर्ग द्वारा लिखी गई कविता शायद सर्वोपरि है। इसके बाद जो भी कविताऍं इस विषय पर लिखी गईं, उनमें सैन्‍डबर्ग की इस कविता का प्रभाव चला ही आता है। संक्षिप्त होकर भी कोई कविता अपनी कुल आभा, कथ्‍य, संप्रेषण और काव्‍य-कला में कितनी परिपूर्ण हो सकती है, सैन्‍डबर्ग की यह कविता उसका एक उदाहरण है।

(प्रेमिल और रोमैंटिक रूप में जरूर हिन्‍दी की ही कविताओं में कुछ दृश्‍य हैं जैसे, अज्ञेय की 'हरी घास पर क्षण भर', शमशेर बहादुर सिंह की 'टूटी हुई बिखरी हुई' या ज्ञानेन्‍द्रपति की कविता 'ट्राम में एक याद' में की कुछ पंक्तियॉ- आह, तुम्‍हारे दाँतों से जो दूब के तिनके की नोक/ उस पिकनिक में चिपकी रह गई थी,/ आज तक मेरी नींद में गड़ती है। वहॉं उगी है घास वहॉं चुई है ओस वहॉं किसी ने निगाह तक नहीं डाली है। आदि। घास के दूसरे पहलुओं पर भी कुछ कविताएँ हिंदी में हैं जो उतनी प्रभावी या महत्‍वपूर्ण नहीं हैं।) 

कार्ल सैन्‍डबर्ग की कविता के अलावा तीन कविताऍं, जिनका शीर्षक 'घास' ही है, यहॉ दी जा रही हैं- तदेऊश रूजेविच, पाश और नरेश सक्‍सेना की ये कविताऍं, इस क्रम में कुछ बता सकती हैं क्‍या??  
प्रभाव, प्रेरणा, परछाईं या छायाप्रतियाँ। किसी भी सावधान पाठक के लिए यह बहुत स्‍पष्‍ट है। हालॉंकि, इससे किसी भी कवि का मान कम नहीं होता, सिवाय इसके कि एक श्रेष्‍ठ पूर्वज, श्रेष्‍ठ पूर्वज ही बना रह सकता है। या वॉल्‍ट व्ह्टिमैन के अमर कविता संग्रह के नाम से प्रेरित होकर कह सकते हैं कि ये सब कविताऍं 'लीव्ज ऑव ग्रास' ही हैं।

सैन्‍डबर्ग का फौरी अनुवाद मेरा है। तदेऊश रूजेविच की अनूदित कविता 'जलसा-4' से साभार। बाकी दोनों, कवियों के उपलब्‍ध संकलनों से।
इनका आनंद लें।

घास

कार्ल सैन्‍डबर्ग

लाशों का ऊँचा ढेर लगा दो ऑस्‍ट्रलिट्ज और वाटरलू में
उन्‍हें धकेल दो कब्रों में और मुझे मेरा काम करने दो-
                मैं घास हूँ, मैं सब कुछ ढक लूँगी

और लगा दो उनका ऊँचा अंबार गेटिसबर्ग में
और ऊँचा ढेर लगा दो उनका ईप्राह और वरडन में
फिर धकिया दो उन्‍हें गढ्ढों में और मुझे मेरा काम करने दो
दो साल, दस साल, और मुसाफिर पूछेंगे कण्‍डक्‍टर से :
                          यह कौन सी जगह है?
                          हम अभी कहॉं हैं?

मैं घास हूँ
मुझे मेरा काम करने दो।
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घास
तदेऊश रूजेविच
मैं उगती हूँ
दीवारों की संधि में
वहॉं जहॉं वे
जुड़ती हैं
वहॉं जहॉं वे आ मिलती हैं
वहॉं जहॉं वे मेहराबदार हो जाती हैं

वहॉं मैं बो देती हूँ
एक अंधा बीज
हवाओं का बिखेरा गया

धैर्य के साथ मैं फैलती हूँ
सन्‍नाटे की दरारों में
मुझे इन्‍तजार है दीवरों के गिरने
और जमीन पर लौटने का

तब मैं ढक लूँगी
नाम और चेहरे।

घास
पाश

मैं घास हूँ
मैं आपके हर किए-धरे पर उग आऊँगा

बम फेंक दो चाहे विश्‍वविद्यालय पर
बना दो होस्‍टल को मलबे का ढेर
सुहागा फिरा दो भले ही हमारी झोंपडि़यों पर

मेरा क्‍या करोगे
मैं तो घास हूँ हर चीज पर उग आऊँगा

बंगे को ढेर कर दो
संगरूर मिटा डालो
धूल में मिला दो लुधियाना जिला
मेरी हरियाली अपना काम करेगी
दो साल, दस साल बाद
सवारियॉं फिर किसी कंडक्‍टर से पूछेंगी
यह कौन-सी जगह है
मुझे बरनाला उतार देना
जहॉं हरे घास का जंगल है

मैं घास हूँ, मैं अपना काम करूँगा
मैं आपके हर किए-धरे पर उग आऊँगा।
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घास
नरेश सक्‍सेना

बस्‍ती वीरानों पर यकसॉं फैल रही है घास
उससे पूछा क्‍यों उदास हो, कुछ तो होगा खास

कहॉं गए सब घोड़े, अचरज में डूबी है घास
घास ने खाए घोड़े या घोड़ों ने खाई घास

सारी दुनिया को था जिनके कब्‍जे का अहसास
उनके पते ठिकानों तक पर फैल चुकी है घास

धरती पानी की जाई सूरज की खासमखास
फिर भी कदमों तले बिछी कुछ कहती है यह घास

धरती भर भूगोल घास का तिनके भर इतिहास
घास से पहले, घास यहॉं थी, बाद में होगी घास।

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शनिवार, 27 अगस्त 2016

किताबें और साहित्‍य

 यह एक पन्‍ना मेरे हाथ लगा है जिस मैंने पिछले बीस साल से सँभालकर रखा है। आज उसे सार्वजनिक करता हूँ।

किताबें

एर्विन श्ट्रिटमाटर

मेरे अध्‍ययन कक्ष में बहुत सी किताबें रखी हैं। कुछ को देखकर मुझे लगता है, उनमें मुझसे कहने के लिए कुछ नहीं है, उन्‍हें बंद करता हूँ और भूल जाता हूँ।

कुछ दूसरी किताबों में इधर-उधर कोई सच मिल जाता है या फिर यदा-कदा मेरे अपने विचार की कोई पुष्टि। कभी मुझे उनकी कथावस्‍तु पसंद आती है तो कभी वाक्‍य-संरचना। सालों बाद एक बार फिर उन्‍हें हाथ में लेता हूँ, सिर्फ वही पढ़ने के लिए जो मुझे उनमें पसंद आया था।

ऐसी भी किताबें हैं जो अजनबियों की तरह मेरे कमरे में खड़ी हैं किंतु एक दिन वे अपनी ओर आकर्षित करती हैं। क्‍या मैं उनकी मा‍नसिक-क्षमता की सीमा में आ गया हूँ ?  उन्‍हें खोलता हूँ, एक सॉंस में पढ़ जाता हूँ। हफ्तों बाद एक बार फिर पढ़ता हूँ। उनमें से बहुत सी बहुत पुरानीं हैं, न जाने कितने वर्ष पार कर चुकी हैं किंतु फिर भी वे मुझे युवकों-सी ऊर्जा देती हैं और मेरे समय को समझने में मेरी मदद करती हैं। यह युवकों-सी ऊर्जा देने की शक्ति जो इन किताबों में बसती है, यही साहित्‍य कहलाती है।

                                                   मूल जर्मन से अनुवाद: महेश दत्‍त 

सोमवार, 1 अगस्त 2016

तुलसीदास की एक और संक्षिप्‍त लेकिन प्रभावी, प्रेमाभिव्‍यक्ति।

महाकवि तुलसीदास और गीतकार आनंद बक्षी


बात बहुत छोटी सी है लेकिन चालीस साल से मन में धँसी है।
''माय लव'' फिल्‍म का एक गीत है जिसे, एक अल्‍प चर्चित किंतु श्रेष्‍ठ संगीतकार दानसिंह के लिए, गीतकार आनंद बक्षी ने लिखा था और मुकेश ने गाया था। गीत खासा परिचित है- जिक्र होता है जब कयामत का, तेरे जलवों की बात होती है।
इस गीत का यह अंतरा पढें-
           'तुझको देखा है मेरी नजरों ने तेरी तारीफ हो मगर कैसे
           कि बने ये नजर जुबॉं कैसे, कि बने ये जुबॉं नजर कैसे
           न जुबॉं को दिखाई देता है, न निगाहों से बात होती है'

इस पूरी बात को जिसे लंबी पंक्तियों में आनंद बक्षी ने कहा हैउसे सीधे तुलसीदास से तो लिया ही गया है, मगर दृष्‍टव्‍य यह कि उस अभिव्‍यक्ति को तुलसीदास ने कितने सारगर्भित और काव्‍यात्‍मक ढंग से मात्र एक अर्धाली में रखा है -
रामचरितमानस, प्रकाशक गीताप्रेस गोरखपुर, के बालकाण्‍ड के दोहा क्रमांक 228 के बाद की दूसरी चौपाई है, जब सीता की सखी राम-लक्ष्‍मण की सुंदरता का बखान करने में अपनी असमर्थता इन शब्‍दों में बता रही है-
            ''गिरा अनयन नयन बिनु बानी।''
अर्थात- गिरा यानी जिह्वा/वाणी के पास नेत्र नहीं हैं और नेत्रों के पास बाणी नहीं है।

चौपाई की इस अंतिम अर्धाली को, आनंद बक्षी गीत के अंतरे की दो-तीन पंक्तियों में लिखते हैं। तुलसीदास इस अभिव्‍यक्ति को आधी पंक्ति में दर्ज कर देते हैं।

बस, यह एक छोटा सा ध्‍यानाकर्षण है।
तुलसीदास की यह एक और संक्षिप्‍त लेकिन प्रभावी, प्रेमाभिव्‍यक्ति तो है ही।
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