सोमवार, 1 जून 2009

धर्म नशा है


धर्म का विकल्‍प: एक पुनर्विचार लेख की यह तीसरी किश्‍त।


धर्म नशा ही है
धर्म नशा है। अफीम से भी कहीं ज्यादा बड़ा नशा।
कीर्तन करते-कराते समूहों, हथियार लहराते, नानाप्रकार के क्रियाकलाप करते, नाचते-गाते या छाती पीटते धार्मिक जुलूसों, सांप्रदायिक दंगों (वस्तुत: वे धार्मिक दंगे हैं) में भयानक हिंसा का प्रदर्शन। इन सबको तटस्थ भाव से विश्लेषित कीजिये और देखिए, जो उनके अंग-संचालनों की स्थिति, मानसिक उत्ताप, अतािर्कक अवस्था, असहजता, अस्वस्थता होती है वह किसी भी बड़े और घातक नशे के दौरान ही संभव हो सकती है। सामूहिकता या भीड़ भी इस नशे को बढ़ाती है। सत्संग, कीर्तन, प्रार्थना, नमाज आदि के समय दिया गया प्रत्येक उपदेश उपस्थित समूह पर, उनके मनोजगत पर वशीकरण (हिप्नोटिज्म) की तरह काम करता है। इस अवसर पर दिया जानेवाला फतवा या धर्मादेश हिंसा फैलाने में सक्षम है। इसके रोजमर्रा के जीवन में ही अनेक उदाहरण हम देखते हैं। अनुयायियों को भड़काना आसान है क्योंकि धर्म उन्हें नशे में उन्मत्त तो कर ही चुका होता है। धार्मिकता की प्रत्येक अवस्था में भक्त केवल श्रद्धालु, आज्ञाकारी, अतािर्कक होता है और उसे विवेक प्रयोग करने की तो जैसे अनुमति ही नहीं होती। यह सब `नशा´ पैदा करके ही संभव है और धर्म यह करता है। चिकित्सीय कोण से देखें तो `धर्म के नशे से पैदा मानसिक उत्ताप या अवसाद´ बाकायदा एक मनोरोग है जिसकी विशिष्ट, निर्दिष्ट दवायें हैं: उदाहरण के लिए हौम्योपैथी में वेरेट्रम और स्ट्रेमोनियम। (संदर्भ: डॉ. जे.टी. केन्ट और डॉ बोरिक की रेपर्टरी)
`धर्म से उत्पन्न नशे´ की पृष्ठभूमि में ही चमत्कारों, अंधविश्वासों, अधूरी ज्ञान पद्धतियों, जादू-टोनों और कर्मकाण्डों को स्थापित कर पाना आसान है। क्योंकि नशे में अब विवेक नष्ट है, आस्था और जुनून प्रबल है। ज्योतिष-गणनाओं, भविष्यवाणियों, नक्षत्रगतियों, ग्रहप्रभावों, वरदानों, शापों, मंत्रों, रूढ़ियों आदि के लिए वह संरक्षक की भूमिका निबाहता है। ईश्वर नामक अंधविश्वास को प्रतिष्ठा देता है। (मदर टेरेसा को पोप द्वारा मरणोपरांत संत घोषित कर सकने के लिए दो चमत्कारों की माँग करना इसी श्रेणी का उदाहरण है।) हिन्दू-मुस्लिम-सिख-बौद्ध-जैन-ईसाई-पारसी आदि सभी धर्मों में, उनकी कथाओं में, अवतारी नायकों के चरित्रों में, चमत्कारी कथाओं का प्रमुख और आदरणीय स्थान है। इसीका परिणाम है कि मजार, कुटियों, आश्रमों सहित तमाम धार्मिक स्थानों और उनमें विराजमान धार्मिक लोगों के साथ करिश्मों के किस्से जोड़ दिये जाते हैं ताकि जनता उनके आस्थाजन्य प्रभामंडल का शिकार होती रहे। चूँकि बुद्धि सक्रिय, चेतन तत्व है और आस्था एक निष्क्रिय शरणागत स्थिति इसलिए वह चेतना का, बौद्धिक सक्रियता का, तािर्ककता का विरोध करता है। वह बुद्धि और आस्था में, आस्था को महत्व देता है, भक्ति, श्रद्धा आदि को वरेण्य मानता है। इस तरह वह मनुष्य की मेधा, श्रम और शक्ति को कुंठित करने में सहायक है।
धर्म की कुछ समस्यायें भी समय के साथ-साथ आधुनिक होती गयी हैं जो इस `नशे´ को नयी उपयोगिताओं में धकेलती हैं। पहली व्यवसायीकरण। इसके तहत अब धर्म एक विशाल वित्तीय संस्था का रूप ले चुका है। बड़ी संख्या में चर्चों, मंदिरों, मजारों, गुरुद्वारों, मिस्जदों, आश्रमों और अन्य धार्मिक स्थलों-स्थानों की स्थिति पूँजीपतियों की है। वहाँ इतना पैसा और संपत्ति है कि उत्तराधिकार, गद्दीनशीनी और पुजारी या ग्रंथी होने के लिए हिंसक झगड़े होना आम लक्षण है। इनके पास यह अकूत संपत्ति बेहिसाब है, प्राय: किसी प्रकार के कर और अन्य दायित्वों से मुक्त है और ये सारे स्थान इनसे जुड़े उच्च धर्मप्रमुखों के लिए सत्ता, भोग और इंद्रिय आनंद के केंद्र हैं। इस कारण प्रत्येक धर्म अब एक संस्थान (कार्पोरेट) है जिसके व्यवसाय का टर्नओव्हर खरबों रुपये है। इसी आर्थिक शक्ति के कारण इन धर्मप्रमुखों और संस्थानों ने पूरे संसार में प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का भरपूर उपयोग शुरू कर दिया है। ये विज्ञापन प्रकाशित कराते हैं, चैनल्स को भुगतान करते हुये उपदेश देते हैं और अपने भक्तों (ग्राहकों) की संख्या बढ़ाते हैं। यह इनके व्यवसायिक होने का ही प्रधान लक्षण है। इस प्रक्रिया में ये अपनी साख, प्रतिष्ठा, संपत्ति (दान, आयोजनों द्वारा) बढ़ाते चले जाते हैं। चूँकि इनके पास असीम पूँजी है इसलिए इनका व्यवहार, सत्ता में हस्तक्षेप और जनता को विमूढ़ रखते चले जाने की भूमिका ठीक वैसी है जैसी किसी पूँजीपति की होती है। बल्कि ये पूँजीपतियों से भी अधिक घातक हैं क्योंकि इनके पास धर्म की प्रभामंडलीय ओट और धर्म का ही हथियार है। इन आश्रमों, धर्मस्थलों, धर्मप्रधानों की तटस्थ, सघन जाँच की अनुपस्थिति ने इनका असली चेहरा कभी सामने नहीं आने दिया है। और कभी फुटकर उदाहरणों में सामने आया भी है तो इसके `नशामूलक´ असर के कारण जनता ने इन्हें वस्तुत: अपराधी माना ही नहीं। यह धर्म के प्रभाव की अनेक विडंबनाओं में से एक है।
दूसरी समस्या है, धर्म का राजनीतिकरण। जो पूरे संसार में, खासतौर पर भारत की दिनचर्या में कुछ ज्यादा ही बढ़ चुका है। कहा जा सकता है कि धर्म का यदि किसी जगह सर्वाधिक उपयोग किया जा रहा है तो वह राजनीति है। इससे सांप्रदायिकता की समस्या सीधे-सीधे जुड़ी है। मजेदार बात यह है कि यहाँ धर्म का आशय धर्मावलंबियों की संख्या, धार्मिक स्थानों तथा धार्मिक प्रतीकों में न्यून कर दिया गया है और तमाम मानवीयता, नैतिकता, मनुष्य की नागरिक समस्याओं - भोजन, गरीबी, पीने का पानी, न्याय, परिवहन, समता, मानवाधिकार, आवास आदि को दरकिनार करते हुये, किसी पार्टी विशेष की जीत को धर्म की जीत बताने की जुर्रत की जाती है। इस राजनीतिकरण के बारे में, इसके दुष्प्रभावों और अमानवीयता के बारे में सजग पत्रकारों-लेखकों द्वारा लगातार लिखा जा रहा है इसलिए यहाँ इतना कहना ही उचित है कि जो लोग सोचते हैं कि धर्म और सांप्रदायिकता अलग-अलग चीजें हैं, वे वस्तुत: अंगूर और अंगूर की शराब में जानबूझकर भेद नहीं करना चाहते हैं। अंगूर से जब तक शराब नहीं बनती, वह एक फल है, लेकिन अंगूर की शराब जब बनेगी तो अंगूर से ही बनेगी। इसी तरह प्रत्येक धर्म-विश्वासी सांप्रदायिक हो, यह कतई जरूरी नहीं, लेकिन प्रत्येक सांप्रदायिक आदमी किसी न किसी धर्म में, उपासना पद्धति में विश्वास करनेवाला होता ही है। धर्म की वजह से मनुष्य नैतिक, परोपकारी, समतावादी, न्यायवादी, सत्यप्रिय और मानवतावादी हो गया होता तो आज संसार में दृश्य कुछ और होता, तब धर्म के विरोध में यह सब सोचने-बताने की जरूरत ही नहीं पड़ती। जो धार्मिक हैं और बेहतर मनुष्य भी हैं, वे अपनी व्यक्तिगत वजहों, सामाजिक शिक्षा, निजी विवेक और प्रज्ञा इत्यादि के कारण ऐसे हैं। अन्यथा धार्मिक लोगों की संख्या समाज में कम से कम नब्बे प्रतिशत तो है ही और ऐसी स्थिति में लगभग नब्बे प्रतिशत लोग श्रेष्ठ मनुष्य होने चाहिये थे जबकि व्यवहार में हम देखते हैं कि स्थिति ठीक उलटी है। इसलिए धर्म को अपदस्थ करना एक कार्यभार भी है।

धर्म एक पुराना, भोंथरा, जंग लगा औजार
धर्म दरअसल अब एक पुराना, भोंथरा, जंग लगा औजार है। अस्तु, वह समााजरूपी शरीर को केवल हानि पहुँचा सकता है। जिस तरह आज पुराने औजारों से कोई डॉक्टर ऑपरेशन नहीं करता, जंग लगे औजारों से तो कतई नहीं। उसी तरह धर्म भी अब एक आधुनिक औजार नहीं है। बल्कि आधुनिक समाज के निर्माण के परिप्रेक्ष्य में तो वह जंग खाये हुये छुरे से अधिक कुछ नहीं, जो रक्षा का खतरनाक आश्वासन भी देता है लेकिन बदले में नयी-नयी संक्रामक बीमारियाँ फैलाता है। धर्म को क्रियान्वयित करने के लिए जो किताबें हैं (जिन्हें पवित्र धार्मिक मार्गदर्शी पुस्तकों का या धर्म-साहित्य का दर्जा प्राप्त है), उनके उपदेशों, नसीहतों, सिद्धांतों या अमृत-वचनों में वे सब बातें भी हैं जो किसी समाज को पुरातन, रूढ़िवादी, अंधविश्वासी और पिछड़ा बनाये रखने के लिए पर्याप्त हैं। अब या तो इन किताबों में संशोधन किया जाए, उनमें हस्तक्षेप कर उन्हें आधुनिक बनाया जाए अथवा उन्हें मार्गदर्शक न माना जाएँ लेकिन हम सहज ही समझ सकते हैं कि किसी धर्म में, कोई संस्था या व्यक्ति ऐसा नहीं है जो इन ग्रंथों में संशोधन कर सके, उसे स्वीकृत करा सके इसलिए उचित यही होगा कि प्रगतिशील, बुद्धिजीवियों द्वारा यह उपचार लगातार किया जाए कि वे अपराजेय, अपरिवर्तनीय मार्गदर्शक ग्रंथों या मेनुअल्स की तरह अपने-अपने समुदाय पर कुशासन न करती रह सकें। वे इन पुस्तकों को गरिमा देने का कार्य बाधित करें और कट्टरपंथियों, उदारपंथियों के संभव भय और विरोध के बरअक्स भी यह कहते रह सकें कि ये `कोड-मेनुअल्स´ आधुनिक समाज के काम नहीं आ सकते, इन पर निर्भरता खत्म होनी चाहिये।
मार्क्‍स सहित तमाम दार्शनिकों-विचारकों ने उचित ही स्पष्ट किया है कि धर्म आलोचना की चेतना को बाधित करता है, उस पर रोक लगाता है, `कंडीशनिंग´ करता है। हम समझ सकते हैं कि आलोचना की चेतना नहीं रहेगी तो सबसे पहले स्वाधीनता, न्याय, विद्रोह और समता की चेतना खंडित होती है। अपनी आलोचना के मामले में धर्म ने सदैव असहिष्णुता का परिचय दिया है। इस तरह वह सभ्यता के सम्यक विकास में ही अवरोध बन जाता है। धार्मिकता और भौतिकवाद में छत्तीस का आँकड़ा है। जैसे `उदारवादी भ्रष्टाचारिता´ और भ्रष्टाचारिता में कोई फर्क नहीं है, इसी तरह `उदारवादी धार्मिकता´ और `धार्मिकता´ में भी कोई फर्क नहीं होता। ये प्रत्यय लड़ाई के रास्ते से बचने के लिए ही प्रयुक्त किये जा सकते हैं। धर्म के प्रति लड़ाई संपूर्णता में लड़नी होगी और उन सब नजरियों के प्रति भी जो धर्म को रुतबा देते हैं।
धर्म का यह आधुनिक स्वरूप सामंती समाज की उपज है इसलिए वह अपने पूरे चरित्र में सामंती, तानाशाह और निरंकुश हो जाना चाहता है। वह न केवल अपने जन्म के समय (युग) की रूढ़ियों और अज्ञानता से जकड़ा है बल्कि वहीं अड़ा हुआ है। वह सत्ताओं से अपनी मित्रता करता है। प्रत्येक धर्म सत्ताओं के जरिये ही, व्यापक रूप से फैलाया गया है। उधर सत्तायें धर्म के जरिये अपना अस्तित्व कायम रखती हैं। सदियों से यही गठजोड़ चला आ रहा है। वे एक-दूसरे से टकराती नहीं हैं, मित्रता निबाहती हैं। वे आपस में सहयोगी हैं, एक-दूसरे की रक्षक हैं। उनका वैमनस्य दो-चार दिन भी नहीं चल पाता। वे एक-दूसरे के पूरक हैं। जैसा कि देख सकते हैं, पूँजीवादी समाज में धर्म ने पूँजीवाद से भी मित्रता कर ली है, अपने आपको संस्थाबद्ध कर लिया है और वित्तीय शक्ति प्राप्त कर ली है। धर्म अपनी उच्चतर, विकसित संस्थागत अवस्था में पूरी क्रूरता के साथ पेश आता है। जाहिर है कि प्रगतिशील विचारकों, मानवतावादी और जनपक्षधर लोगों के समक्ष इस सामंती, निरंकुश, सत्ताकांक्षी और अब पूँजीवादी धर्म के खिलाफ अनवरत संघर्ष करने की चुनौती है।

धर्म की सकारात्मक भूमिकाएँ
देखें, धर्म की समाज में प्रमुख सकारात्मक भूमिकाएँ, जो आज भी प्रासंगिक हो, क्या हो सकती हैं? उदाहरणार्थ, वह पारलौकिक विश्वासों के आधार पर व्यक्तियों को मानसिक सुरक्षा प्रदान करता है और उन्हें अपने असफल, दरिद्र, निराश क्षणों में यह विश्वास और संबल दिलाता है कि आगामी समय में अथवा अगले जन्म में तो चीजें़ बेहतर हो सकती हैं। हर घटना, जिस पर मनुष्य का व्यक्तिगत या सामूहिक वश नहीं चल पाता, उसे नियति से जोड़कर उसे तत्काल एक आश्वासन उपलब्ध कराता है। साथ ही, वह अपनी समझ और सीमा के अनुसार नैतिक विचारों एवं मूल्यों का प्रसार करता है। वह उस पूरे समाज को, जहाँ उसका प्रभाव और मान्यता है, नियंत्रित करते हुये, अपनी तरह की सामूहिकता, सामाजिकता और नैतिकता का निर्माण भी करता है।
उपरोक्‍त भूमिकाओं का जरा-सा भी सावधान विश्लेषण यह स्पष्ट कर देता है कि इस कुल भूमिका के परिणामस्वरूप मानवसमाज कूकपोलकल्पनाधारी, कूपमंडूप, अनावश्यक संतोषी, यथास्थितिवादी, अकर्मण्य, अपनी स्थिति के लिए खुद को जबावदेह न माननेवाला, अवतारों की प्रतीक्षा करनेवाला, प्रगतिविरोधी, कट्टर, अंधविश्वासी होता चला जाता है। इस धार्मिक दृष्टि और वैज्ञानिक दृष्टि में मूलरूप से गहरा मतभेद है क्योंकि जहाँ वैज्ञानिक दृष्टिकोण कार्य-कारण, निरीक्षण-परीक्षण-अन्वेषण-खोज एवं तािर्कक-औचित्यपूर्ण व्याख्याओं में खुद को प्रस्तुत करता है, वहीं धार्मिक दृष्टिकोण अलौकिक शक्ति, अवतारवाद, कर्मकाण्ड, भाग्यवादिता में विश्वास करता है। धर्म के इस प्रभाव में मनुष्य मान लेता है कि उसके सुख-दुख का दाता कोई परमशक्ति है, इस तरह वह सांत्वना प्राप्त कर लेता है। धर्म की इसी भूमिका के कारण वह सत्ताप्रिय होता है क्योंकि सत्ता के अपराधों, गलतियों और चूकों की वह जाने-अनजाने रक्षा करता है और सत्ता के प्रति किसी भी विरोध एवं विद्रोह का शमन कर सकता है। इसीलिए मार्क्‍स का यह कथन सटीक है कि धर्म जनता की अफीम है।
कुछ लोगों ने इधर तर्क दिया है कि मार्क्‍स ने अपने लेख में दरअसल धर्म की प्रशंसा यह कहते हुये की है कि `धर्म उत्पीड़ित प्राणी की आह है, निर्दय संसार का मर्म है, निरुत्साह परिस्थितियों का उत्साह है।´ लेकिन पूरे पैराग्राफ और लेख को पढ़ते हुये साफ हो जाता है कि ये सब वाक्य इस सुविचारित आक्रामक वाक्य की ही पुष्टि एवं ध्वनियाँ हैं कि धर्म जनता की अफीम है। संदर्भित लेख में वे फिर आगे लिखते ही हैं कि `धर्म के उन्मूलन का अर्थ है जनता के वास्तविक सुख की माँग करना.....धर्म की आलोचना मनुष्य का मोहभंग कर देती है ताकि वह मनुष्य अब विवेक के साथ चिन्तन और कर्म कर सके.....`धर्म की आलोचना´ इस सीख पर खतम होती है कि मनुष्य के लिए मनुष्य सर्वोच्च प्राणी है जिससे यह अनिवार्यता उजागर होती है कि उन समस्त संबंधों का खात्मा कर दिया जाए जो मनुष्य का दर्जा पतित, पराधीन, परित्यक्त या घृणास्पद बनाते हैं। (हेगेल के न्यायदर्शन की समालोचना का प्रयास-कार्ल मार्क्‍स।
एक कुतर्क और सामने आया है कि मार्क्‍स की धर्म संबंधी आलोचना दरअसल हिन्दू धर्म की आलोचना नहीं है। यह ऐसा ही है जैसे कि अमेरीका या जापान में बैठकर किये गये भ्रष्टाचार के अध्ययन को यह कहकर खारिज किया जाए कि यह भारत में चल रहे भ्रष्टाचार की आलोचना नहीं है, इसलिए भारतीय भ्रष्टाचार आलोच्य नहीं है।
मार्क्‍स स्पष्ट करते हैं कि धर्म एक काल्पनिक सुख देता है और वह सुख वास्तविकता में कभी प्राप्त नहीं हो सकता।
इसलिए धर्म का उन्मूलन अथवा वैज्ञानिक दृष्टि का विकास, जनता के लिए वास्तविक सुख की माँग करना है। ताकि मनुष्य अपने लिए, समाज के लिए वास्तविक और प्राप्य सुखों की माँग कर सके। स्वतंत्रता, समता, न्याय और मानवीय अधिकारों की माँग कर सके और लड़ सके और जान सके कि उसके साथ जो भी अन्याय, दुख, गरीबी और त्रास संलग्न है वह किसी भी अलौकिकता, पूर्वजन्मों के पाप आदि की वजहों से नहीं बल्कि इसी समाज में रह रहे नियामकों, सत्ताधारियों, धार्मिक आश्वस्तियों और पूँजीपतियों के शामिल खेल की वजह से है। जो लोग कहते हैं कि धर्म वैज्ञानिक है, तार्किक है, समाज को प्रगति की तरफ ले जानेवाला है उनसे तो यह फ्रांसीसी कहावत ही कही जा सकती है- `आप लिखते हैं `लंदन´ और पढ़ते-बोलते हैं `कुस्तुनतुनिया´।´

2 टिप्‍पणियां:

Anshu Mali Rastogi ने कहा…

अंबुजजी,
इन दिनों मैं गोरख पांडे की धर्म की मार्क्सवादी अवधारण पढ़ रहा हूं। सही मायनों में वो आदमी जीनियस था। धर्म और मार्क्स के दृष्टिकोण पर जिस गहराई से उसने लिखा है, प्रभावित तो करता ही है, साथ ही ऐसे तर्क भी हमारे सामने रखता है जिस पर बहस जरूरी है।
धर्म के पाखंड की काफी गहरी परतें आपने अपने लेख में खोली हैं, मुझको पसंद आया।

Ashok Kumar pandey ने कहा…

धर्म को लेकर इस बहस के साहस के लिये आपको साधुवाद।
दरअसल धर्म हमारे समय में पहले से कहीं अधिक घातक अफीम की भूमिका निभा रहा है। कारणो की पडताल मुझे ग्राम्शी तक ले गयी और उसकी पैसिव क्रांति की अवधारणा से काफी आंदोलित हूं।
मुझे लगता है कि सामंतवाद से पूंजीवाद में जिस तरह एक निष्क्रिय संक्रमण हुआ है उसी वज़ह से मूलाधारों में परिवर्तन के बावज़ूद सुपरस्ट्रक्चर में सामंती अवशेषों में धर्म,जाति और ज़ेन्डर की समस्या अब तक बनी हुई है।
साम्राज़्यवाद और बाज़ार से इसकी गठजोड भी शोध की मांग करती है। इप्टा के राज्य सम्मेलन में अपने आधार पत्र में मैने कोशिश तो की थी कुछ सूत्र तलाशने की पर अभी और ज़्यादा गहन शोध की ज़रूरत महसूस कर रहा हूं।
इस लेख ने उस भूख को और बढा दिया।