गुरुवार, 23 अगस्त 2012

चीजों को आहट से भी पहचानना चाहिए

इधर मध्य प्रदेश के संस्क़ति विभाग के अधीन संस्थाओं में से एक 'भारत भवन' में 'आज थियेटर कंपनी', नयी दिल्ली की 18 अगस्त की प्रस्तुति 'तमाशा न हुआ' के प्रसंग में दो खबरें प्रकाशित हुई हैं। पहली दैनिक भास्कर, भोपाल में और दूसरी जनसत्ता, दिल्‍ली में। जनसत्ता की खबर पर साथी सत्येंद्र रघुवंशी ने ध्यानाकर्षण किया। ये दोनों खबरें यहॉं इसलिए दी जा रही हैं कि इन्हें हमारे वक्तव्य में दर्ज अनेक चिंताओं से जोडकर देखा जा सकता है।
हमारे शामिल वक्‍तव्‍यों, 'सोने में जंग लगेगी तो फिर लोहा क्‍या करेगा' अंतर्गत  'सार्वजनिक साहित्यिक संस्‍थाओं का राजानीतिक रूपांतरण और लेखकों की प्रतिरोधी भूमिका' एवं ' सांस्‍कृतिक विकृतिकरण फासीवाद का ही पूर्वरंग है' इनके लिए इस ब्‍लॉग की पुरानी पोस्‍ट देख सकते हैं और यहॉं दिए गए लिंक सहित कई अन्‍य ब्‍लॉग्‍स पर भी जा सकते हैं। 

पहली खबर
दैनिक भास्कर, सिटी एडीशन, भोपाल, 19 अगस्त 2012
नाटक में भाजपा सांस्कृतिक प्रकोष्ठ के प्रदेश अध्यक्ष राजेश भदौरिया भी बतौर दर्शक मौजूद थे। उन्होंने नाटक के निर्देशक से कहा- 'मुझे लगता है यह नाटक पाकिस्तान में होना चाहिए था। आपने पाक की तरफदारी की है। असम के मसले पर आपने जो दिखाया वो ठीक नहीं था। इस पर निर्देशक का जवाब था-' ऐसा आपको लगता है, मुझे नहीं।'

राजेश ने बाद में बयान दिया कि नाटक के कलाकारों ने दो पक्षों के बीच बहस करते हुए गॉंधी और टैगोर पर कीचड़ उछाला है। नाटक में उनहोंने टैगोर को एक जगह देशद्रोही भी कहा। पाकिस्तान के प्रति सहानुभूति दिखाई और देश को अन्यायी कहा। कलाकारों के खिलाफ देशद्रोह का मामला दर्ज होना चाहिए। भारत भवन के अधिकारी भी दोषी हैं, उनके खिलाफ भी कार्यवाई होनी चाहिए।

दूसरी खबर
जनसत्ता 23 अगस्त, 2012:
भारतीय जनता पार्टी की निगाह में जनतंत्र और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए कितनी जगह है, इसका अंदाजा भोपाल की ताजा घटना से लगाया जा सकता है। वहां भारत भवन में रंगमंडल थिएटर उत्सव के दौरान बीते शनिवार की शाम भानु भारती के निर्देशन में ‘तमाशा न हुआ’ नाटक का मंचन था। रवींद्रनाथ ठाकुर के प्रसिद्ध नाटक ‘मुक्तधारा’ पर आधारित इस नाटक में विभिन्न पात्रों के कुछ संवाद, भाजपा के सांस्कृतिक प्रकोष्ठ के संयोजक को इतने आपत्तिजनक लगे कि उन्होंने उसे राष्ट्रविरोधी तक घोषित कर डाला और मामला उच्चाधिकारियों तक ले जाने की बात कही।

इसके पहले भाजपा ने ‘नील डाउन ऐंड लिक माइ फीट’ नाटक पर भी आपत्ति जताते हुए उसे ‘पवित्र’ भारत भवन में मंचित होने से रोक दिया था। मध्यप्रदेश में भाजपा की सरकार है, इसलिए शायद उसके कार्यकर्ताओं को अपने मन-मुताबिक सांस्कृतिक पहरेदारी करने में सुविधा हो सकती है। लेकिन जिस तरह वे ‘तमाशा न हुआ’ नाटक को राष्ट्रविरोधी बता कर उसके खिलाफ वितंडा खड़ा करने में लगे हैं, वह किसी के गले नहीं उतर रहा। यह नाटक देश के अलग-अलग हिस्सों में कई बार मंचित हो चुका है और हर बार उसकी सराहना हुई है। इसमें ‘मुक्तधारा’ के पूर्वाभ्यास के बहाने गांधीवाद, मार्क्सवाद, रवींद्रनाथ ठाकुर के विचार, यांत्रिकता, मनुष्य, प्रकृति और विज्ञान के बीच संबंधों पर किसी भी खास विचारधारा में बंधे बिना निर्देशक और पात्रों के बीच गंभीर बहस होती है।

कोई भी सुलझा हुआ व्यक्ति ऐसी बहस को एक स्वस्थ और जनतांत्रिक समाज की निशानी मानेगा। लेकिन भाजपा के सांस्कृतिक पहरुओं को केवल एक बात याद रह जाती है कि इसमें एक जगह भारत-बांग्लादेश सीमा पर फरक्का बांध और चिनाब नदी पर बगलिहार पनबिजली परियोजनाओं के कारण बांग्लादेश और पाकिस्तान के नागरिकों के सामने पैदा होने वाले संकट की चर्चा की गई है। सिर्फ इसी वजह से भाजपा ने इस नाटक को यहां के बजाय पाकिस्तान में मंचित करने की सलाह दे डाली।

विचित्र है कि जिन बहसों और बातचीत से एक प्रगतिशील समाज की बुनियाद मजबूत होती है, वे भाजपा के अनुयायियों को राष्ट्रविरोधी लगती हैं। सवाल है कि क्या वे ऐसा समाज चाहते हैं जहां विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और बहस के लिए कोई जगह नहीं होगी? अब तक आमतौर पर आरएसएस से जुड़े बजरंग दल, विश्व हिंदू परिषद या श्रीराम सेना जैसे कट्टरपंथी धड़े ऐसी असहिष्णुता दर्शाते रहे हैं। मकबूल फिदा हुसेन के चित्रों की प्रदर्शनी से लेकर कला माध्यमों में मौजूद प्रगतिशील मूल्य उन्हें भारतीय संस्कृति के लिए खतरा नजर आते हैं और उनका विरोध करने के लिए वे हिंसा का सहारा भी लेते रहे हैं। लेकिन सच यह है कि खुद भाजपा भी भावनात्मक मसलों को अपनी राजनीति चमकाने के लिहाज से फायदेमंद मानती रही है, इसलिए उन्हें मुद्दा बनाने का वह कोई मौका नहीं चूकती।

सत्ता में आने पर अपने एजेंडे पर अमल करना उसके लिए और सुविधाजनक हो जाता है। गौरतलब है कि मध्यप्रदेश में संस्कृति की रक्षा के नाम पर सभी सरकारी और स्थानीय निकायों में ‘वंदे मातरम’ का गायन अनिवार्य कर दिया गया है, स्कूल-कॉलेजों में फैशन शो पर पाबंदी लगा दी गई है और करीब एक दर्जन शहरों को पवित्र घोषित करके वहां खाने-पीने की चीजों को लेकर कई तरह के फरमान जारी किए गए हैं। देश की जनतांत्रिक राजनीति में खुद को एक ताकतवर पक्ष मानने वाली भाजपा को यह सोचना चाहिए कि अभिव्यक्ति की आजादी का सम्मान करना उसका पहला दायित्व है।

2 टिप्‍पणियां:

वंदना शुक्ला ने कहा…

हलाकि जिस नाटक का यहाँ ज़िक्र किया गया है वो देखा नहीं है लेकिन उनकी रिपोर्टों के आधार पर ये टिप्पणी ..भा ज पा और स्वयं सेवी संघ बजरंग दल इत्यादि कट्टरवादी दल एक ही हैं ..जिन्होंने हिन्दुस्तान को ''पवित्र'' और शुद्ध सांस्कृतिक बनाये रखने की स्वयं भू जिम्मेदारी ले रखी है ये सभी दल अपनी कट्टरता और असहिष्णुता से ना सिर्फ अन्य मुद्दों पर मनमानी बल्कि सांस्कृतिक पहरेदारी करना अपनी जिम्मेदारी और कर्तव्य समझते हैं |ये तो सर्वज्ञात है ही कि जिस प्रदेश में जिस पार्टी की सरकार होगी वो वहां अपनी मनमानी करेगी भले ही पिछली सरकार ने जनता के लाभ के लिए महत्वपूर्ण योजनाएं,कार्य किये हों पर उन्हें बदलकर वो अपने फरमान जारी करेगी |(मनमाने तबादलों,परियोजनाओं, से लेकर पाठ्यक्रमों में परिवर्तन तक)| जहाँ तक प्रगतिशील समाज की बुनियाद मज़बूत करने संबंधी कदम हैं और जो इस सरकार को राष्ट्रविरोधी लगते हैं ये भी इन्हीं कट्टरताओं और कुंद मानसिकता के परिचायक ही हैं |गरीबी ,भुखमरी,जनसंख्या,भर्ष्टाचार,आदि जैसे गंभीर विषयों को हाशिए पर रख वेलेंताईन डे ,फैशन शो,प्रगतिशील रंगमंच,या विचार और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता हो ,मकबूल फ़िदा हुसैन के चित्रों को भारतीय संस्कृति के लिए ख़तरा बताना या ''वंदे मातरम''को अनिवार्य करने संबंधी निर्णय य प्रदेश में सिर्फ ''प्रादेशिक भाषा''बोलने की हिदायत ये सब सिर्फ तथाकथित देशभक्ति की आड़ में अपनी राजनीती चमकाने और राष्ट्रीय मसलों व संबंधों पर किसी भी खास विचारधारा में बंधे बिना एक स्वास्थ्य व गंभीर बहस को सिरे से नकारने का प्रयास है |अभिव्यक्ति की आजादी इस देश में सिर्फ इन दलों और इनके अनुयायियों के अधीन है शायद किसी भी प्रगतिशील और स्वस्थ्य मुद्दों पर बहस ,कार्यक्रम,योजनाएं इत्यादि पर इनका साम दाम दंड भेद पूर्ण हस्तक्षेप क्या यही मंशा और मंतव्य ज़ाहिर नहीं करता?हलाकि इस देश में ये मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है लेकिन कोई क़ानून ऐसा होना चाहिए जो इन कुकुरमुत्तों की तरह फैलते दलों पर रोक लगा सके बल्कि सिर्फ दो ही दल हों सत्ता और एक विरोधी दल जैसे अनेक देशों में हैं |

शिरीष कुमार मौर्य ने कहा…

बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं
तुझे ओ फासिज्‍़म हम दूर से पहचान लेते हैं ।