मंगलवार, 4 सितंबर 2012

पुराने पन्‍नों से बरामद


यह कविता करीब दस बरस पहले की डायरी में से बरामद हुई। जो अभी अन्‍यथा अप्रकाशित ही है।
सोचा कि इसे यहॉं शेयर करूँ।


पहला शो

फिल्म का पहला शो देखने की किशोरावस्था की प्रतिज्ञा
और युवकोचित उत्साह की स्मृति में आए हैं हम यहाँ

भीड़ उसी तरह अपार है
और बुकिंग खिड़की के ठीक आगे उसी तरह अभेद्य
लेकिन अब कंधों पर चढ़ कर काउण्टर तक पहुँचना
न तो बस की बात है और न ही कोई तुक
जिन दूरियों पर आज हम यहाँ आ गए हैं सक्षम
वहॉं केवल सौ रूपए ज्यादा देने से मिल गई है निजात

टिकट जेब में हैं और पुराना उत्साह रंग मार रहा है
आने लगा है भीड़ का मजा
पहले शो का रोमांचवही फिकरेबाजी
तालियाँ,  सीटियॉं और एक हद के बाद न फिल्माए गए दृश्य की
स्‍वरों और व्‍यंजनों से होती क्षतिपूर्ति

इनमें शामिल होते हुए
लेकिन हम भीतर ही भीतर दूर छिटक रहे हैं धीरे-धीरे
जबकि इस पहले शो का कुल दृश्य उतना ही उत्तेजक
और उतना ही आय-हाय वाला है
जिसकी अव्यक्त चाह में हम चले आए हैं चार जन यहॉं

और इस जीवन के नये सिनेमा हॉल में
अचानक हो गए हैं ऐसे
             जैसे किसी प्राचीन श्वेत-श्याम वृत्तचित्र के हिस्से
जिसमें चलती तसवीरों और कहे गए संवादों के बीच का असंतुलन
तंद्रा को भंग करता है बार-बार।
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