शुक्रवार, 25 अप्रैल 2014

प्रूफ की गलतियॉं और एक पत्र में से निकली डायरी


कुछ समय पहले शुरू हुई एक पत्रिका है 'रेतपथ'। इसके नवीनतम अंक जनवरी-जून 2014 में मेरी डायरी और टिप्‍पणियॉं प्रकाशित की गईं हैं। लेकिन इनमें प्रूफ की इतनी और ऐसी गलतियॉं कर दी गईं हैं कि वाक्‍यों के मायने बदल गए हैं या वे वाक्‍य अभिव्‍यक्ति‍हीन हो गए हैं। अलाइनमेंट और पैराग्राफिंग की गलितयॉं भी दुखद हैं। अपनी वेदना और आपत्ति संपादक अमित मनोज को जता चुका हूँ। मुझे नहीं पता कि इसका क्‍या परिहार संभव होगा। बहरहाल, उनमें से एक हिस्‍से को मैं यहॉं प्रकाशित कर रहा हूँ ताकि उसे ठीक से पढ़ा, देखा जा सके। 'अच्‍छा काव्‍यपाठ' और 'क्‍या टूटे हुए पत्‍ते का पुनर्वास संभव है'- ये दो हिस्‍से बाद में पोस्‍ट करता हूँ।


मित्र को लिखे पत्र में से
(जैसे कि यह डायरी है)

2005
(एक)
एक विधा ही जीवन नष्ट करने और उसे समृद्ध करने के लिये पर्याप्त होती है।  अन्य विधा में जा सकते हैं लेकिन आदर और हिम्मत के साथ। चुनौतियाँ रखकर, समझकर। अपनी परंपरा को याद रखते हुए, समकालीनता को समझते हुऔर उसे लाँघने का दुःसाहस करते हु
कोशिश तो यही हो, भले फिर औंधे मुँह गिर पड़ो।

(दो)
जब तुम नहीं लिख रहे होते हो, वह समय अत्यंत मूल्यवान है और कतई दूसरे फालतू कामों में लगा देने के लिनहीं है। ऐसे काम तुम्हें थका देंगे जबकि फुरसत तुम्हें कई तरह से संपन्न करेगी।
तुम्हें अवकाश की खोज लगातार करना चाहि जिसमें तुम अपने निजीपन को, मनुष्य होने को, आलस्य और उनींदेपन को अनुभव करते रह सको। जिसमें तुम इंद्रियों को ढीला छोड़ सको और उन्हें यह छूट दे सको कि  वे अपना काम, अपनी तरह से करती रह सकें। तुम्हें अपने मन के आकाश को भी बाधित नहीं रखना चाहिये ताकि जरूरत पड़ने पर उसमें चिडियाँ या चीलें उड़ान भर सकें।

(तीन)
विशाल शहर और यह फालतू व्यस्त जीवन तुम्हें अपनी तात्कालिकता और आपाधापी का शिकार बना रहा है। तुम जरूरत पड़ने पर सुरंग खोद सकते हो तो क्या किसी संपादक के आग्रह और प्रस्ताव पर सुरंग खोदने लग जाओगे! तुम्हें क्या करना है इसका निश्चय तुम खुद कर सकते हो और अपने धैर्य को परखकर ही इसका निर्णय लेना होगा। ऐसा नहीं है कि तुम्हारे पास विवेक न हो लेकिन किसी ऐसी दौड़ में शामिल होने से कोई मतलब नहीं जो तुम्हें हाँफने के लिये शेष कर दे।
इसके लिये एक सूत्र हो सकता हैः कोई भी ऐसा काम मत करो जो तुम्हें लगता हो कि तुम्हारे सर्जक के अलावा अन्‍य कोई भी उसे कर सकने में समर्थ है। इसलिए दिये गये विषयपर लिखने को लेकर मैं प्रायः परेशान, असहज और हतप्रभ बना रहता हूँ। लगता है मैं कोई परीक्षार्थी हूँ।

(चार)
पौधों को अपनी हवा, अपने प्रकाश के भरोसे भी छोड़ देना चाहिये। दूब की बार-बार निंदाईं अकसर उज्जवलता और हरीतिमा को नष्ट कर सकती है। तुम चीजों के बारे में इस तरह दो-टूक निर्णय लेते दिखते हो जैसे वह कोई संचालित करनेवाला सूत्र है। यह कवि-व्यवहार नहीं हो सकता। 

(पाँच)
यदि कविता ऊर्ध्‍वगामी नहीं है, उसमें कवि का संत्रास, विकलता, यूटोपिया और वह पुकार अनुपस्थित है जो कवि के होने और उसके जीवन को संभव बनाती है, तब अपनी ही चीजों को रुककर, पलटकर देखने में कोई बुराई नहीं।
शायद एक मनुष्य की मूर्खता, भावुकता और व्याकुलता से भी कवि के अवयव बनते हैं। कितने तरह के नट, ठग, जगमगाहट, चमक, खनक और प्याले राह में नहीं मिलते। तमाम प्रलोभनों के बीच कविता की राह ऊबड़-खाबड़ और औचक है।

(छह)
कवि में, काव्येतर लेखन की इच्छा किसी गहरी सृजनात्मक आकांक्षा का परिणाम हो तो स्‍वागतेय है लेकिन कहीं वह महज महत्वाकांक्षा से प्रेरित तो नहीं? भीतर के दबावों की आहटें वहाँ सुन पड़तीं हैं क्या?  न ही एक कवि रॉकेट या प्रक्षेपास्त्र की तरह हो सकता है। इसके बरअक्स वह चींटी, मधुमक्खी या कठफोड़व़ा जैसा कुछ हो सकता है।
कवि खराब कविता लिखे इससे मुझे कभी उतना दुख नहीं होगा बशर्ते वहॉं उसके दिलो-दिमाग के प्रेशर कुकरकी सीटी सुनाई दे। अच्छी-सी लगनेवाली कविता लिख लेना, कई बार समकालीनता का शिकार होना भी है और अपने भीतर ऐसी परछाइयों को लेकर चलना है जिसमें खुद का अक्स डूब ही जाता है।

(सात)
संबंधवाद,  मित्रवाद की चेतना धुंध की तरह छा सकती है।
साहित्य की सतह पर उपस्थित, बाहरी एक्टिविज्मकी जगह कवि का संबंध अपने स्वप्न और विचार के एक्टिविज्म से हो तो बेहतर। अपने समय और सभ्यता में मनुष्य होने के, जीवित रहने के, आसपास से प्रभावित होने के लक्षण हर व्यक्ति में होते हैं। कवि में भी होंगे। लेकिन कवि संभवत: वही हो सकता है जो रोज एक नया जन्म ले। गर्भ धारण करे और खुद का ही नया प्रसव करे।

मान लो कि ये सब बातें तुमसे न कहकर मैं खुद से ही कह रहा हूँ।
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