मनोज कुमार झा की यह कविता अपनी संक्षिप्तता, प्रस्तुत जीवन की समीक्षा और जिजीविषा के लिए ध्यानाकर्षण योग्य है।
फिर भी जीवन
इतनी कम ताकत से बहस नहीं हो सकती
अर्जी पर दस्तखत नहीं हो सकते
इतनी कम ताकत से तो प्रार्थना भी नहीं हो सकती
इन भग्न पात्रों से तो प्रभुओं के पाँव नहीं धुल सकते
फिर भी घास थामती है रात का सिर और दिन के लिए लोढ़ती है ओस
चार अंगुलियाँ गल गई पिछले हिमपात में कनिष्ठा लगाती है
काजल.
साभार- समालोचन ब्लॉग
साभार- समालोचन ब्लॉग
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