शनिवार, 31 मई 2014

जो बच गया हूॅं, वह हूँ

'पुस्‍तक-वार्ता' के, नवीनतम अंक में, मेरे सबसे पुराने मित्रों में शामिल, राकेश श्रीमाल ने मुझसे एक स्‍तंभ लिखवा लिया। कि गुजारी गई शामों के बारे में एक लेखक के नजरिए से कुछ याद करूँ, बात करूँ। टिप्‍पणियों में दर्ज उस आलेख का एक संपादित रूप यहॉंं।

जो बच गया हूँ, वह हूँ

जीवन की स्मृतियों में से शामों को याद करना  एक साथ किंचित खुशी, अनंत अवसाद, ढलती लालिमा और असमाप्य उदासी की सुरंग में धँसने जैसा  है। सारी शामें एक-दूसरे में बेतरह उलझी हुई हैं। उन्हें सुलझाया भी नहीं जा सकता। न उनमें से किसी एक को स्मृति या उदाहरण की तरह उठाया जा सकता है। विस्मृत सी, अधिकांश धुँधली शामों से सिर्फ एक नाजुक कोलाॅज बनाया जा सकता है। जो मामूली स्पर्श से भी बिखरकर एक नई संरचना में बदल जाएगा। जैसे कोई कैलाइडोस्कोप। जरा घुमाया तो नितांत एक नयी आकृति और नया संयोजन। और फिर आती हुई रातें, जैसे वे शाम का आँचल पकड़कर आती हैं।
रातों को शामों से परे करना उन्हें अधूरेपन में देखना है।

मेरी शामों में रातें एक अनिवार्य हिस्सा हैं। नक्स-वोमिका के मरीजों के एक खास लक्षण की तरह मेरी सुबहें आलस्य से भरी रहती हैं और शाम आते-आते मैं पूरी तरह चैतन्य हो जाता हूँ। बहरहाल।
00000

(एक)
धूल उड़ रही है। गोधूलि।
घरवालों की आवाजों से गली भर गई है। वे चाहती हैं कि सारे खेल बंद करके, सारी गपशप बंद करके बच्चे वापस घरों के भीतर आ जाएँ। आँगन में इतने लोग हैं, इतनी आपाधापी और हाहाकार है कि घर में भीतर जाना यातना है। अपनी आजादी को अचानक खो देना है।
तो भीतर जाइए, सबको अपनी शकल दिखाइए और फिर चुपके से वापस गली में या ओसारे में आइए। लेकिन अब बाहर सुनसान है। लोग हैं लेकिन बच्चों का सुनसान है। जो जगह इतने सारे दोस्तों से, खेलों से और अजीब कारनामों से भरी हुई थी, वहाँ अब ठंडी धूल है। और अँधेरा।
फिर शुरू होती है घर के भीतर ही कोई सुनसान और एकांत खोजने की कोशिश। अकसर सफल कोशिश। बच्चों की चिंता सबको है मगर बच्चा घर में ही, यहीं कहीं है, इतने भर से काफी निश्चिंतता। उसी निश्चिंतता में से बच्चे का एकांत निकल आता है।
पास ही आम के पेड़ों का बगीचा है।
तीन कुएँ हैं। दो सूखे।
एक में मुश्किल पानी है जिसे आसान बनाने की अनवरत कोशिश सब लोग करते रहते हैं।
एक कमरे में अनाज का ढेर है और दूसरे में भूसा ही भूसा।

ये सब बातें दरअसल जीवन की शाम के कठिन रूपक में बदलने के लिए अभिशप्त हैं।

(दो)
शाम आते ही पहली मुश्किल शुरू होती है। कि आखिर इस शाम का क्या किया जाए। एक खाली जगह दिखती है, निर्वात। अंतरिक्ष। यदि इसे ठीक तरह की चीजों से, क्रियाशीलता से, सरगर्मियों से, वार्तालाप से, किसी अनोखी गतिशीलता से, संगीत या गोताखोरी से नहीं भर दिया गया तो यह निर्वात, यह अंतरिक्ष मुझे निगल लेगा, अपने में ही समो लेगा। और मजे की बात है कि शामें मुझे अकसर निगल लेती हैं। इस तरह मैं, हजारों शामों द्वारा उदरस्थ किया जाकर, जो बच गया हूँ, वह हूँ।

शामों में अन्यथा इतनी चहल-पहल, धूल, भागमभाग, आवाजें, धुआँ, गंध, शीत, बारिश, कीचड़, जद्दोजहद, उमस या ओस है और ढलती हुई हर क्षण कमजोर होती रोशनी है कि जितना विस्मय होता है उससे अधिक बेचैनी। इस तरह ये शामें मुझे अपने जीवन का भी श्वेत-श्याम चित्रपट जैसी लगती रही हैं।

(तीन)
थोड़ा सा आराम मिलता है यदि इन शामों में बाहर मैदान में जाने का मन और मौका मिल जाए। और उन्हें धीरे से रात में तबदील होता देखा जाए। शाम के धुँधलके में एक-एक करके तारों को उगते हुए देखना। फिर चाँद को खोजना। जो कभी दिखता है, कभी नहीं। जो कभी जरा सा दिखता है और कभी एकदम पूरा। फिर उस होती हुई नयी नवेली, किशोर रात्रि के रंग में रंगे हुए अपने पूरे आसपास को देखना। सब कुछ किसी रहस्य में डूबा हुआ और उसमें से उबरने की इधर-उधर दिखती छटपटाहट। कई तरह की रोशनियाँ। ज्यादातर मद्धिम। कुछ कतारबद्ध और ज्यादातर छिटपुट बिखरी हुईं।

बस, इस तरह से भी शामों को अपने ऊपर से गुजर जाने दिया जा सकता है। कभी वे रौंदती हुई चली जाती हैं और कभी नाजुक ख्यालों से लदी हुईं और भारहीन।
और एक अनंत रात मेरे सामने होती है। जो मेरे लिए शाम का ही एक बेहतर विस्तार है।

(चार)
इसलिए यह अप्रत्याशित नहीं होना चाहिए कि शमशेर बहादुर सिंह की यह काव्य-पंक्ति अकसर ही संध्याओं, समय की संधि बेला में कौंधने लगती हैः ‘टूट मत ओ साँझ के पत्थर
                                                                                      हृदय पर’  
ऐसी भी शामें हैं जो कभी किताबों में या फिल्मों में बीत गईं। संगीत ने कुछ दूर तक सहारा दिया। जिन्होंने साँझ के पत्थर को हृदय पर गिरने से थाम लिया, स्थगित कर दिया।

यात्राओं, कामकाज, नींद और थकान के खाते में भी हजारों शामें हैं। करीब पाँच बरस की शामें तो पास के कस्बों से नौकरी से लौटते हुए बस में बीतीं। और वे तमाम संध्याएँ थकान, भूख और नींद के तत्वों से मिलकर बनती रहीं। लेकिन वे उबाऊ नहीं थीं। बीच-बीच में जो चैतन्य अवस्था, आलस्य में भी जो चमक रहती थी, उसमें बहुत ताकत और कल्पनाशीलता के झोंके थे।

(पाॅंच)
जैसे ही शाम आती है, मैं लगभग अचेत और अकेला हो जाता हूँ। इस अर्थ में कि मुझे पता नहीं रहता कि मैं जीवित हूँ या मर गया हूँ। इस मायने में भी कि मुझे सूझ पड़ना कम हो जाता है और मैं अवश किसी तंद्रा की तरफ जाता हूँ और वहाँ न जाऊँ, इस उपाय में एक तरह की रस्साकशी चलती रहती है। बस की यात्राओं के बीच सर्जनात्मकता को अपवाद मान लिया जाए तो घर में रहकर या अन्य कहीं मेरे लिए किसी भी शाम में कभी लिखना-पढ़ना, खासतौर पर लिखना असंभव सा है। मैं किसी अनजाने चक्रवात में पत्ते की तरह घूमता हूँ।

थोड़ी देर में यह शाम का बगूला बैठ जाएगा और मैं भी धीरे-से एक जगह थमकर वापस अपनी डाल पर वापस लग जाऊँगा। जैसे कभी टूटा ही नहीं था, जैसे कभी किसी बगूले के साथ नाचा ही नहीं था। जैसे वह एक स्वप्न था और अब यह असल जीवन है।

मैं अकेली शामों का और अकेली रातों का ही सर्वाधिक शुक्रगुजार हूँ।
00000

2 टिप्‍पणियां:

शाहनाज़ इमरानी ने कहा…

शामो में अन्यथा इतनी चहल-पहल, धूप, भागमभाग ,आवाज़ें, ,धुआं ,गंध, शीत, बारिश ,कीचड़, जद्दोजहद , उमस या ओस है। …हर शाम अपने साथ इन चीज़ों में से कुछ न कुछ साथ लाती है। शाम को आपने वुसअत के साथ बयां किया है। बहुत खूबसूरत तरीक़े से। पढ़ कर ज़िन्दगी की बहुत सी शामें सामने आ गयीं।

subah se shaam tak bojh Dhotaa huaa
apanii hii laash kaa Khud mazaar aadami

Unknown ने कहा…

कवि `बचता` नहीं `बचाता` है