शुक्रवार, 16 मई 2014

मैं क्यों गया था बनारस क्रांति करने*



विष्‍णु खरे जी की यह टीप प्राप्‍त हुई है, इसे इसलिए भी यहॉं प्रस्‍तुत किया जा रहा है कि इधर-उधर की तमाम रिपोर्ट्स के बीच, यह एक सीधा हस्‍तक्षेप है। इस बीच चुनाव परिणाम भी आ चुके हैं और भाजपा की, बजरिये मोदी जी, अभूतपूर्व जीत तय हो चुकी है। बहरहाल।

मैं क्यों गया था बनारस क्रांति करने* 
विष्णु खरे

चुनाव-परिणाम आने में अब चंद घंटे रह गए हैं और वे उससे बहुत ज़्यादा अलग या अप्रत्याशित नहीं होंगे जो (पिछले वर्ष अप्रैल से) मैं और कुछ अन्य लोग लिखते-कहते आ रहे हैं.फिर भी जब मृत्यु को अपरिहार्य जानते हुए भी हर प्राणी उससे मुकाबला करने की कोशिश करता है – और यह नतीज़े भी एक तरह की मौत हो सकते हैं – तो उन्हें टालने या बदलने के जतन भी हुए हैं.
अभी चार मई को बनारस के कबीर-मठ प्रांगण में मुख्यतः हिंदी और उत्तर भारत के कथित वामपंथियों और प्रगतिकामियों की एक सभा बुलाई गई थी जिसके संचालक-नियामक  युवा कवि-नाट्यकर्मी तथा राजनीतिक सक्रियतावादी व्योमेश शुक्ल थे.उन्होंने किसी तुफैल में मुझे भी इस बैठक में दावत के क़ाबिल समझा,हालाँकि तीन मई को मुझे  देर रात तक मुंबई में जागना था और मैंने कहा भी था कि मेरा पहुँच पाना नामुमकिन-सा है.लेकिन उन्होंने कहा कि मुझे आना ही होगा और किसी भी तरह हवाई जहाज़ से ही आ जाऊं,किराया लौटा दिया जाएगा.
वामपंथियों की इस सभा में,जिसमें पिछले बीसियों वर्षों से सुपरिचित नाम और चेहरे थे और जो अब सानुपातिक ढंग से ज़्यादा थके,अधेड़ या बूढ़े चुके थे,जिनमें बनारस के एक दर्ज़न भी  आम वोटर नहीं थे,नरेन्द्र मोदी को बीसियों बार छपे आंकड़ों,तथ्यों और रपटों से सौवीं बार बेनकाब या नंगा किया गया.कई बार तालियों और ‘शेम,शेम’ आदि का विजय-नाद हुआ.अपनी-ही बिरादरी और खाप के बंधुआ श्रोताओं को मोदी के बारे में भयावह चेतावनियाँ दी गईं.सभी एकमत थे कि बनारस से मोदी को नहीं आने देना है.
लेकिन इस बात पर भी लगभग सर्वसम्मति थी कि यह बनारस के मतदाताओं के नैतिक विवेक पर छोड़ देना है कि वे किसे वोट दें.बनारस के किसी पिछले चुनाव की,उसमे डाले गए वोटों की,उसमें जीते और हारे प्रत्याशियों की,मत-विभाजन और पैटर्न की कोई भी बात

वर्जित-सी थी.बनारस के इस विश्व-विख्यात मुक़ाबले के Realpolitik पर कोई भी चर्चा एक मौन सुलह में taboo मान ली गयी थी.किसी ने भी यह नहीं बताया कि यदि बाक़ी सभी कुछ वोटर की अंतरात्मा और आत्म-निर्णय पर छोड़ देना है तो उसे मोदी को क्यों नहीं जिताना है यह भी उसके ज़मीर और निजी फैसले पर क्यों न छोड़ दिया जाए ?
इसलिए जब मैंने पहली बार स्पष्ट कहा कि बनारस में यदि मोदी को कोई हरा सकता है तो अपने हत्या-बलवे आदि के सारे संदिग्ध  इतिहास के बावजूद वह कांग्रेस का अजय राय ही हो सकता है और हर प्रगतिकामी बुद्धिजीवी को स्थिति के सारे contradictions देखते हुए भी साफ़-साफ़ इस मुक़ाबले में कांग्रेस के उम्मीदवार अजय राय का समर्थन करना चाहिए तो वह भाग-दौड़ और अफ़रा-तफ़री मच गयी जो भेड़ों के रेवड़ में अचानक किसी भेड़िए के कूद जाने से मचती होगी.वह माहौल बन गया जो पंक्तिपावन ब्राह्मणों की सभा में किसी अन्त्यज के वेद-पाठ से बनता होगा.एक पूरा गिरोह अपनी भोजनोत्तर ऊंघ से जाग कर इस अनिर्णय में खड़ा हो गया कि मंच की ओर,जहाँ मैं अपनी सम्पूर्ण निर्लज्ज धृष्टता में जमा हुआ था,बढ़े या न बढ़े.
इस बीच में एक शख्स ने,जिसका ज़िक्र बाद में आएगा,बदहवास आकर कहा कि मैं अपना वक्तव्य हरगिज़ वापिस न लूं,और तुरंत उस छोटी-सी भीड़ में गायब हो गया.
बहरहाल,सभा दोबारा रिरियाती हुई शुरू हुई, मोदी-विरोधी मर्मभेदी निर्गुण भजन गाए गए,’’छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाय के’’ पर झूम-थिरक कर मोदी और उसके समर्थकों में आतंक और भय का संचार किया गया,एक नुक्कड़-नाटक के ज़रिये  मोदी की ज़मानत जब्त करवाई गयी और दास्तानगोई से – ‘सूफ़ियाना कलाम’ के बाद यह साला एक नया फ्रॉड ड्राइंगरूमी कॉकटेली वामपंथियों ने नाज़िल किया है – फ़तह का सारा किस्सा तमाम किया गया.
पाँच मई को व्योमेश ने मुझसे पूछा कि क्या मैं शाम को बेनीबाग के चलते रास्ते पर मुसलमानों के लिए होनेवाली एक कांग्रेस-समर्थक मोदी-विरोधी खुली नुक्कड़ मीटिंग में बोलना चाहूंगा,जिसमें अजय राय सहित एक मुस्लिम केन्द्रीय मंत्री – जिनका नाम मैं अब तक नहीं जानता – मौजूद रह सकते हैं तो मैंने फ़ौरन हामी भर दी,कांग्रेसी नेताओं की संभावित उपस्थिति के कारण नहीं, बल्कि एक एकदम नए तज्रिबे की खातिर.


किन्हीं ईसाभाई द्वारा संचालित,उन्हीं की दूकान की एक ख़तरनाक बड़ी होर्डिंग के नीचे,एक चौराहे सरीखे तिराहे पर,जिसके , एक ओर बनारस की एक व्यस्ततम सड़क थी और मंच से बिल्कुल लगी हुई एक उतनी ही व्यस्त गली थी और दोनों पर सारे वाहन,सारे औरत-मर्द बनारसिए, जिनमें अनेक मुस्लिम थे,विशेष गश्ती पुलिस-दस्ते वगैरह आ-जा रहे थे.मैं पहले भी ऐसी खुली सभाओं में फंस चुका हूँ इसलिए मेरे लिए इस बस्टर कीटन-चार्ली चैपलिन स्थिति में कुछ भी नया न था.यूँ भी ऐसे मरहले आदमी की ज़िंदगी में बार-बार पेश नहीं होते.
मंच बच्चों और बड़ों से भरा हुआ था.कुछ शुरूआती जोशीली तकरीरों के बाद उपरोक्त मुस्लिम केन्द्रीय मंत्री – जिनका नाम मुझे अब भी याद नहीं आ रहा – नमूदार हुए और शायद दक्षिण भारतीय होते हुए भी ठीक-ठाक हिन्दुस्तानी बोले.जब वह जा चुके और अजय राय आशंकानुसार नहीं ही आए  तो मेरी बारी आई.मैंने अपने अधिकांश अदृश्य,शायद आसपास के घरों और दूकानों में बैठे हुए,मुस्लिम श्रोताओं को आगाह किया कि मोदी की आमद दूसरी पार्टियों को भी एक ‘डिक्टेटर’ को अपना नेता बनाने की प्रेरणा दे सकती हैं और सारा देश हिटलरवाद की राह पर जा सकता है.यह भी कहा कि मोदी को बनारस से हराने का दारोमदार मुसलमानों पर है.अगर वे कांग्रेस को अपना इकट्ठा वोट दें तो सारे हिन्दू-मुसलमान वोटों के आगे मोदी हार सकता है.मेरे इस भाषण का खुलासा अगले दिन दैनिक ‘हिंदुस्तान’ के सम्पादक ने प्रकाशित कर मुझ पर उपकार किया.
ऊपर जिस शख्स के बारे में कहा गया है कि उसने मुझसे मेरा कबीरमठ  बयान वापिस न लेने को कहा था वह भी इस मीटिंग में मंडरा रहा था और मेरा वीडिओ उतार रहा था.उसने फिर अपने ब्लॉग ‘जनपथ’ ‘junputh’ पर ऐसा वर्णन किया जैसे मैं मंच पर नशे में चढ़ा-उतरा.इसका जवाब मैं उसी ब्लॉग पर दे चुका हूँ.लेकिन बनारस उन दिनों इस संकर नस्ल के बेहद संदिग्ध ‘पत्रकारों’,ब्लॉगियों,फ़ोटोग्राफ़रों और कैमरामैनों से बजबजा रहा था.ये वहाँ किन एजेंसियों,’फिल्म-निर्माताओं’ आदि  के लिए क्या काम क्यों कर रहे थे इसका पता लगाना मुश्किल था,ज़रूरी भी नहीं था, लेकिन यदि आप इस मशकूक आदमी का ब्लॉग देखें तो साफ़ मालूम हो जाएगा कि यह एक लुम्पेन agent-provocateur है जो रावण की तरह अपने ग्यारहवें रासभ-मुख से बोलता है.इसके साथ इसी की किमाश का एक और उचक्का था.


मेरे इस ‘बनारस-अभियान’ को एक अंतिम सार्थक सफलता स्थानीय ‘अमर उजाला’ के सम्पादक,वर्षों पहले जयपुर ‘नवभारत टाइम्स’ में मेरे सहयोगी,शब्द-शोधक अजित वडनेरकर और उनके विशेष संवाददाता अजय राय ने तब उपलब्ध करवाई जब उन्होंने ‘मोदी बरक्स कांग्रेस’ को लेकर मुझसे एक अपेक्षाकृत लम्बी  बातचीत राहुल गाँधी के  रोड-शो के दिन प्रकाशित की जब मैं शहर छोड़ चुका था.सुना है उसे बहुत पढ़ा और पसंद किया गया.
मैं नहीं समझता कि बनारस में मेरी चार दिनों की उपस्थिति और उपरोक्त हरकतों से मोदी का एक भी वोट कटा या अजय राय को एक वोट ज़्यादा पड़ा.आशंका तो यह है कि कहीं उल्टा न हुआ हो.मुझे तसल्ली है तो सिर्फ़ इस बात की कि इन दिनों,जब अधिकांश हिंदी लेखक कारणविशेषों से एकदम चुप हैं और अधिकांश युवा ब्लॉगिये गुदाभंजन की अपनी विभिन्न stages में अभिनय कर रहे हैं कि देश में कुछ घट ही नहीं रहा है,मैं कुछ,प्रतीकात्मक,अपने आप और बेकार,करने का मौक़ा हासिल कर सका.
और अंत में यह कि अपने जीवन में मैं कभी कांग्रेस पार्टी से सम्बद्ध नहीं रहा,उसका या उसके किसी नेता का मैं एक नए पैसे का भी देनदार नहीं हूँ,मेरे जीवन को बनाने में उसका कोई योगदान नहीं है,नेहरू के ज़माने में भी मुझे कांग्रेस पार्टी से नफरत ही थी, जो लगातार बढ़ती रही है,मैं कांग्रेस का दलाल,एजेंट या मुखबिर नहीं हूँ.मैं मानता हूँ कि भारत की जनता की दुर्दशा के लिए मुख्यतः कांग्रेस और कुछ दूर तक वामपंथी दल भी ज़िम्मेदार हैं और इस वक़्त उन्हें जो सज़ा मिल रही है वह उचित है.मैं भारत में प्रबुद्ध सशस्त्र मार्क्सवादी क्रांति के अलावा कोई रास्ता देख नहीं पाता.लेकिन मोदी,उसकी पार्टी और उसके संघ और उनके सहयोगियों को जो दूसरी ताक़तें परास्त कर सकें उनसे अवसरोचित रणनीतिगत समझौता करने या उनका समर्थन करने में कोई गुरेज़ नहीं करता.

·       शीर्षक रघुवीर सहाय की पंक्ति ‘मैं क्यों गया था काबुल क्रांति करने’ से प्रेरित है.

1 टिप्पणी:

अजेय ने कहा…

अच्छी रपट है । तटस्थ और बेबाक । पसंद आया । बनारस मे उन दिनो क्या क्या चल रहा था कुछ गंध मिली , निहाल हुआ । कुछ गैर साहित्यैक और कुछ साहित्यिक मित्र मेरे भी है बनारस में , मैने खबर माँगी तो सब मोदी की लहर से डरे हुए लगे । तो भी , ऐसे मे असर चाहे जो रहा हो चार लोगों का खड़े होके कुछ बोलना ही बहुत है । खैर , खरे जी को पढ़ना आप को हिलाता है ।