नवम्बर
2014 में भारत भवन, भोपाल में प्रस्तावित 'बिहार उत्सव' के प्रसंग में
राजेश जोशी की यह एक गौरतलब टिप्पणी है। लेखकों को अपने समय की राजनीति
समझना ही होती है और अपना पक्ष भी स्पष्ट रखना होता है। हम देखा ही रहे
हैं कि पिछले कुछ वर्षों में लेखकों की पक्षधरता में न केवल कमी आई है
बल्कि उसमें अवसरवाद को जगह मिली है। और इस बहाने अनेक तर्क- वितर्क-
कुतर्क के निर्माण भी हुए हैं। प्रसंगवश याद दिलाना उचित होगा कि हम तीन
लेखकों, राजेश जोशी, कुमार अंबुज, नीलेश रघुवंशी, ने दो बरस पहले दो
वक्तव्यों के जरिए मध्य प्रदेश की सांस्कृतिक स्थिति और उसकी राजनीति
पर यथाशक्ति प्रकाश डाला था और अपने उस पक्ष को स्पष्ट किया था जिसे हम
पिछले एक दशक से निबाह रहे हैं। बहरहाल, यह टिप्पणी संलग्न है।
इसलिए: राजेश जोशी
भारत भवन में बिहार उत्सव.....जय हो !
मध्यप्रदेश सरकार के संस्कृति विभाग और भारत भवन ने प्रदेशों की संस्कृति और साहित्य पर केन्द्रित कार्यक्रमों की श्रृंखला शुरू करने का विचार किया है। पहला प्रदेश बिहार चुना गया है। मैं सोच रहा हूँ कि प्रथम पदेश के रूप में बिहार क्यों? न तो अकारान्त क्रम में बिहार पहले आता है न हिन्दी प्रदेशों में बिहार कोई शीर्श पर है। फिर बिहार पर यह अतिरिक्त प्रेम क्यों? अमरीका जब युद्ध के निशाने साधने के लिये देशों का चयन करता है तो उसके दिमाग में प्रमुखता से तेल होता है। मध्यप्रदेश सरकार जो सांस्कृतिक श्रृंखला शुरू कर रही है तो निशाना साधने के लिये उसकी निगाह किस तेल पर है या किस तेल की धार पर?
कांग्रेस मुक्त भारत का नारा धीरे धीरे छोटे राजनीतिक दलों और क्षैत्रिय दलों को अपने घेरे में ले रहा है। हरियाणा और महाराष्ट्र में कांग्रेस मुक्त भारत के साथ क्षैत्रिय दलों से मुक्ति का अभियान भी शुरू किया जा चुका है। मोदी और शाह की भाजपा ने शिवसेना को उसकी औकात दिखा दी है। किनारे पर बैठी शिवसेना रूआँसी हुई जा रही है। उद्धव ठाकरे बिचारे इंतज़ार कर रहे हैं कि कब बुलावा आये और वे दौड़ पड़ें। लेकिन यह बात मेरी समझ से बाहर है कि इस राजनीति के खेल में मध्यप्रदेश को बिहार पर यह अतिरिक्त लाड़ क्यों उमड़ रहा है? शिवराज किसका खेल खेल रहे हैं? मोदी और शाह का या कोई अलग राग गाने की तैयारी है? भाजपा में भीतर ही भीतर कुछ सुलग तो रहा है पर अभी बाहर नहीं आ पा रहा है।
बहरहाल भारत भवन में अब बिहार उत्सव होने जा रहा है । मध्यप्रदेश के संस्कृति विभाग को अपना कोई अलग नामकरण कर लेना चाहिये। संस्कृति का जैसा सत्यानाश पिछले पन्द्रह वर्ष में भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने किया है, उसकी कोई दूसरी मिसाल मध्यप्रदेश के इतिहास में ढूंढना मुश्किल है। साहित्यिक कार्यक्रमों में जो लेखक बुलाये जा रहे हैं वो कौन है? प़ित्रकाओ की दुर्गत तो और भी ज्यादा हास्यास्पद है। जिस सरकारी सांस्कृतिक वैभव का ढिढौरा पीटते सरकार के कभी हाथ न थकते थे आज उसी मध्यप्रदेश की सरकारी सांस्कृतिक गतिविधियों की फूहड़ता पर ठीक से हँस सकना भी संभव नहीं है। हालांकि इसे फूहड़ कह कर टाल जाना भी एक किस्म का सरलीकरण ही होगा। इसके पीछे एक खास किस्म की राजनीति- ‘सांस्कृतिक राजनीति’ और काइयाँपन छिपा हुआ है। कुछ लेखकों ने इसके पीछे छिपे फासीवाद की धीमी आवाज़ की ओर बहुत पहले ही इशारा किया था।
गालिब कह गये थे कि वो न समझे हैं न समझेंगे मेरी बात इसलिए बिाहार के या बिहार से बाहर रह रहे बिहार के अनेक लेखक न समझें तो कोई क्या करे ? सुना है कई लेखक बिहार उत्सव में शिरकत फरमाने आने वाले हैं । आइये, आइये, भाजपा की भगवा कार्पेट बिछी हुई है। अगर आपकी चड्डी में लाल रंग का नाड़ा डला हो तो उसे फेंक आइये। उन दिनों जब देश में भाजपा की सरकार नहीं आयी थी तब भी हमने मध्यप्रदेश की भाजपा सरकार द्वारा की जा रही सांस्कृतिक गतिविधियों में छिपी हुई मंशाओं की ओर इशारा करते हुए लेखकों से यह अनुरोध किया था कि भारत भवन और अन्य सांस्कृतिक परिषदों के कार्यक्रमों में हिस्सेदारी का बहिष्कार करें। पर तब भी हिन्दी के हमेशा सरकारी कार्यक्रमों के प्रति लालायित रहने वाले रचनाकारों ने बहिष्कार नहीं किया तो अब जब केन्द्र में मोदी सरकार आ चुकी है तो उनसे क्या उम्मीद की जाये। जर्मनी में फासिज़्म के चरम पर आ जाने के बाद भी अनेक लेखक उसका पक्ष ले रहे थे तो हमारे यहाँ तो अभी फासिज़्म लोकतन्त्र के कपड़े पहने हुए है उसके विरोध में जाने का तो सवाल ही नहीं उठता ।
तो मध्यप्रदेश में बिहार उत्सव हो रहा है। नितीश और लालू यादव सोचें...... विचार करें कि यह क्यों हो रहा है? इसके पीछे छिपी मंशा क्या है? राजनीति क्या है? और कौन लोग हैं जो इसमें हिस्सेदारी कर रहे हैं?
बहराल भारत भवन में आने ...गाने ...बजाने...मटकने ...लटकने...ठुमकने...फुदकनेवालों की जय हो...जय हो...।
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इसलिए: राजेश जोशी
भारत भवन में बिहार उत्सव.....जय हो !
मध्यप्रदेश सरकार के संस्कृति विभाग और भारत भवन ने प्रदेशों की संस्कृति और साहित्य पर केन्द्रित कार्यक्रमों की श्रृंखला शुरू करने का विचार किया है। पहला प्रदेश बिहार चुना गया है। मैं सोच रहा हूँ कि प्रथम पदेश के रूप में बिहार क्यों? न तो अकारान्त क्रम में बिहार पहले आता है न हिन्दी प्रदेशों में बिहार कोई शीर्श पर है। फिर बिहार पर यह अतिरिक्त प्रेम क्यों? अमरीका जब युद्ध के निशाने साधने के लिये देशों का चयन करता है तो उसके दिमाग में प्रमुखता से तेल होता है। मध्यप्रदेश सरकार जो सांस्कृतिक श्रृंखला शुरू कर रही है तो निशाना साधने के लिये उसकी निगाह किस तेल पर है या किस तेल की धार पर?
कांग्रेस मुक्त भारत का नारा धीरे धीरे छोटे राजनीतिक दलों और क्षैत्रिय दलों को अपने घेरे में ले रहा है। हरियाणा और महाराष्ट्र में कांग्रेस मुक्त भारत के साथ क्षैत्रिय दलों से मुक्ति का अभियान भी शुरू किया जा चुका है। मोदी और शाह की भाजपा ने शिवसेना को उसकी औकात दिखा दी है। किनारे पर बैठी शिवसेना रूआँसी हुई जा रही है। उद्धव ठाकरे बिचारे इंतज़ार कर रहे हैं कि कब बुलावा आये और वे दौड़ पड़ें। लेकिन यह बात मेरी समझ से बाहर है कि इस राजनीति के खेल में मध्यप्रदेश को बिहार पर यह अतिरिक्त लाड़ क्यों उमड़ रहा है? शिवराज किसका खेल खेल रहे हैं? मोदी और शाह का या कोई अलग राग गाने की तैयारी है? भाजपा में भीतर ही भीतर कुछ सुलग तो रहा है पर अभी बाहर नहीं आ पा रहा है।
बहरहाल भारत भवन में अब बिहार उत्सव होने जा रहा है । मध्यप्रदेश के संस्कृति विभाग को अपना कोई अलग नामकरण कर लेना चाहिये। संस्कृति का जैसा सत्यानाश पिछले पन्द्रह वर्ष में भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने किया है, उसकी कोई दूसरी मिसाल मध्यप्रदेश के इतिहास में ढूंढना मुश्किल है। साहित्यिक कार्यक्रमों में जो लेखक बुलाये जा रहे हैं वो कौन है? प़ित्रकाओ की दुर्गत तो और भी ज्यादा हास्यास्पद है। जिस सरकारी सांस्कृतिक वैभव का ढिढौरा पीटते सरकार के कभी हाथ न थकते थे आज उसी मध्यप्रदेश की सरकारी सांस्कृतिक गतिविधियों की फूहड़ता पर ठीक से हँस सकना भी संभव नहीं है। हालांकि इसे फूहड़ कह कर टाल जाना भी एक किस्म का सरलीकरण ही होगा। इसके पीछे एक खास किस्म की राजनीति- ‘सांस्कृतिक राजनीति’ और काइयाँपन छिपा हुआ है। कुछ लेखकों ने इसके पीछे छिपे फासीवाद की धीमी आवाज़ की ओर बहुत पहले ही इशारा किया था।
गालिब कह गये थे कि वो न समझे हैं न समझेंगे मेरी बात इसलिए बिाहार के या बिहार से बाहर रह रहे बिहार के अनेक लेखक न समझें तो कोई क्या करे ? सुना है कई लेखक बिहार उत्सव में शिरकत फरमाने आने वाले हैं । आइये, आइये, भाजपा की भगवा कार्पेट बिछी हुई है। अगर आपकी चड्डी में लाल रंग का नाड़ा डला हो तो उसे फेंक आइये। उन दिनों जब देश में भाजपा की सरकार नहीं आयी थी तब भी हमने मध्यप्रदेश की भाजपा सरकार द्वारा की जा रही सांस्कृतिक गतिविधियों में छिपी हुई मंशाओं की ओर इशारा करते हुए लेखकों से यह अनुरोध किया था कि भारत भवन और अन्य सांस्कृतिक परिषदों के कार्यक्रमों में हिस्सेदारी का बहिष्कार करें। पर तब भी हिन्दी के हमेशा सरकारी कार्यक्रमों के प्रति लालायित रहने वाले रचनाकारों ने बहिष्कार नहीं किया तो अब जब केन्द्र में मोदी सरकार आ चुकी है तो उनसे क्या उम्मीद की जाये। जर्मनी में फासिज़्म के चरम पर आ जाने के बाद भी अनेक लेखक उसका पक्ष ले रहे थे तो हमारे यहाँ तो अभी फासिज़्म लोकतन्त्र के कपड़े पहने हुए है उसके विरोध में जाने का तो सवाल ही नहीं उठता ।
तो मध्यप्रदेश में बिहार उत्सव हो रहा है। नितीश और लालू यादव सोचें...... विचार करें कि यह क्यों हो रहा है? इसके पीछे छिपी मंशा क्या है? राजनीति क्या है? और कौन लोग हैं जो इसमें हिस्सेदारी कर रहे हैं?
बहराल भारत भवन में आने ...गाने ...बजाने...मटकने ...लटकने...ठुमकने...फुदकनेवालों की जय हो...जय हो...।
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2 टिप्पणियां:
लानत है ऐसे लेखकों और संस्कृतिकर्मियों पर!
सटीक टिप्पणी है। शासन की ही तरह सर्वव्यापी है यह धूर्तता। दरअसल, इन सब में काफी हद तक कसूरवार है हमारी "भोली जनता", हमारा "मस्त वर्ग, (ओह, मेरा मतलब मध्य वर्ग से था)। ये तुरंत का चक्कर बड़ा कैड़ा साबित हुआ है। Systemic change की न तो मंशा है और न ही इतना सबर, हर जगह तुरंत supply chain establishment चाहिए। प्रशासक से बढ़िया शासक और उससे भी उत्तम प्रचारक । वयं यक्षाम: वयं यक्षाम:, यक्षराज को इसमें भला करने या आपत्ति हो?
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अवश्य ही संवैधानिक है आपका कमरतोड़ विकास
चूंकि चलते हुए हमारा हाथों को ज़ोर से हिलाना असंवैधानिक है
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कचहरी में जमा लोगों से तो मुझे इतना ही कहना है की
संविधान के मुताबिक़ इश्वर रहम बरसाए तुम पर
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कैसे लिखा जाए अब
जब पीठ से सटे, कन्धों पर से,
झाँकता हो संविधान पन्नों पर ..
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सटीक टिप्पणी है
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