शुक्रवार, 6 दिसंबर 2019

पुलिस

यह कविता बीस बरस पहले, 1999 में लिखी गई थी।
'अतिक्रमण' संग्रह में संकलित है। बीच-बीच में इसका स्‍मरण हो ही जाता था, 
आज कुछ ज्‍यादा ही स्‍मरण करा दिया गया। पेश हैं कुछ अंश।
पुलिस

उनकी मुश्किलें भी अजीब थीं
नौकरी के घंटे थे इस तरह कि वे समझ नहीं पाते थे
कि रात के हिस्से की नींद को दिन में किस तरह पूरा किया जाए
और दिन भर की भाषा, इल्लत, जिल्लत को
जीवन के किस अँधेरे कोने में छोड़ दिया जाए

वे ऐसी जगहों में ऐसे लोगों के साथ काम करते थे
कि लगातार भूलते जाते थे वह बोली-बानी
जो मनुष्यों के बीच पुल बनाने के लिए
उन्हें इस दुनिया ने सिखायी थी
शुरुआत से ही उन्हें एक अक्षर मनुष्य के पक्ष में पढ़ाया जाता था
और एक हजार वाक्य मनुष्यता के खिलाफ़
यह सैकड़ों सालों में फैली एक अनंत योजना थी
जिसने उन्हें यह अंदाज़ा भी नहीं लगाने दिया
कि वे मुस्तैदी से करते हैं उन्हीं के किलों, नियमावलियों 
और कुर्सियों की हिफ़ाज़त जो उन्हें मनुष्य से बदल देते हैं हथियारों में

इसलिए यह होना ही था कि एक दिन 
उसने हर एक को अपराधी समझा, हर एक पर किया संदेह
उसके छूने भर से कुम्हला सकते थे खिले हुए फूल
गरीब और कमज़ोर पर उसका गुस्सा टूटकर गिरता था
उसकी निर्ममता के किस्से ऐसा कहा जाता है फ़िल्मों ने
दुस्साहसी पत्रकारों ने, भुक्तभोगियों ने
और कभी-कभार की मानवाधिकार आयोगों की रिपोर्टों ने
अतिरंजित कर दिए थे जबकि यह सच अपनी जगह है
कि उसकी क्रूरताओं के असली चेहरे कभी नहीं हो सकते उजागर

जो इक्के-दुक्के सिपाही या अधिकारी देशसेवा की क्षणिक झोंक में
या अपनी जान पर ही बन आने की विवशता में
सचमुच वीरता करते थे तो वह कुल पुलिस की कुल क्रूरता के
दस घात दस हजार टन वज़न के नीचे कराहती थी

दिलचस्प थी यह विडंबना कि अकसर समाज में लोग 
अपने बच्चों के लिए पुलिस वर्दी की कामना करते थे
एक अर्थ में वह शोहदों को, चोरों को, मुजरिमों को
समाज में ताक़तवर होने से रोकती थी
लेकिन इसका हिसाब अभी  है कि कितने अपराधियों को 
उसने बलशाली बनाया और पैदा किए कितने नए मुजरिम

थाना परिसरों में पवित्र समझे जाने वाले वृक्षों के होने
और पूजागृहों के बनाए जाने से
अत्याचारों के संबंधों को खोजा जाना कठिन नहीं है
आंदोलनों, रैलियों और जनता के इकट्ठा हो सकने के वक्त में
उसकी ज़रूरत सबसे ज्यादा पड़ती थी
यह स्थिति इतनी सहज, वैध और अपरिहार्य कर दी गयी थी
कि जनता को अपने दुखों को सार्वजनिक रूप से ज़ाहिर करने से पहले
यह बताना ज़रूरी था कि वह इसके लिए कहाँ इकट्ठी हो रही है

सभ्य किस्म के विद्वान सोचते थे 
कि वे सुरक्षित हैं जो पुलिस समाज में बनी हुई है
लेकिन कभी दैवयोग से या किसी गली से गुज़रते हुए
या देर रात तारों को देखते हुए 
या फिर किसी दृश्य का हिस्सेदार होने भर की वजह से
उनका पुलिस से साबक़ा पड़ता था तो वे अपनी राय पर 
दहशत से भरे हुए लज्जित होने के अलावा कुछ नहीं कर पाते थे

केवल इस उम्मीद में लोग उससे डरते थे
नमस्कार करते थे रास्ता छोड़ देते थे
या कतराकर निकल जाते थे कि शायद इस वजह से 
कभी मौका पड़ने पर उनसे थोड़ा कम दुर्व्यवहार किया जाएगा

कर्तव्यों का शानदार पालन करने के लिए पदक लेते हुए
पुलिसकर्मी भी ठीक-ठीक नहीं बता पाते थे
कि यह सम्मान उन्हें नृशंसता के लिए दिया गया है या शौर्य के लिए
उन्हें सूत्र वाक्य दिया गया था :निर्मम अत्याचार के बाद ही 
पता लगाया जा सकता है कौन अपराधी है और कौन नहीं
उन्हें यह अधिकार था कि किसी भी आम जन को
बंद कमरे में या बीच सड़क पर यातनाएँ दे सकें
हत्या को बदल सकें मुठभेड़ में
उनके पास वैधानिक औज़ार थे, धाराओं की बेड़ियाँ थीं
और आत्मा को निरंकुश बना देने वाला प्रोत्साहन

इस सबके बावजूद पुलिस से सताए लोगों को
उम्मीद होती थी कि न्याय उन्हें बचाएगा
और एक अंधी अनंत सुरंग में घुसकर
जितना प्रकाश पाया जा सकता था
न्याय उन्हें उतना बचाता था
सरकार को और सरकार की पुलिस को
न्याय का यह लक्षण सबसे ज़्यादा मालूम था
लेकिन जनता को इतनी रोशनी पर इतना ही भरोसा था
कि आख़िर एक दिन वह अपने जीवन की आज़ादी के आगे
पुलिस-बुलिस कुछ नहीं समझती थी।
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1 टिप्पणी:

रश्मि प्रभा... ने कहा…

वार्षिक अवलोकन के लिए आपकी यह रचना यदि आप मेल करें तो ख़ुशी होगी, कॉपी नहीं हो रहा :)http://kumarambuj.blogspot.com/2019/11/blog-post.html  
- सादर
रश्मि प्रभा