सोमवार, 6 अप्रैल 2020

फासिज्म और अमीरी की रुग्णता

आय सर्वड किंग ऑव इंग्लैंड

फासिज्म और अमीरी की रुग्णता

चेक फिल्म निदेशक जिरी मेन्जेल, 'क्लोजली वॉच्ड ट्रेन्स-1966' और 'माय स्वीट लिटिल विलेज-1985' जैसी फिल्मों के लिए बेहतर जाने जाते हैं। उनकी फिल्म 'आय सर्वड द किंग ऑव इंग्लैंड-2006' एकाधिक मायनों में देखने योग्य है। कॉमिकल अंदाज में, बदलती राजनीतिक परिस्थितियों में यह फासिज्म और अमीरी की रुग्णता का औपन्यासिक दस्तावेज है।
लेकिन यह केवल ह्यूमर नहीं है।
दरअसल, इसमें दार्शनिकता, पारिस्थितिकी और मनोवज्ञान के कदम-कदम पर पेंच हैं। उलझनें हैं, उनमें से बनते रास्ते हैं। यदि कुछ अधिक शब्दों लेकिन एक वाक्य में कहना हो तो : "यहाँ विलासितापूर्ण आकांक्षा की फूहड़ता के आधार स्तंभों पर मनुष्य की लंपटता, अमानवीयता, लालच, कमीनगी, आसक्ति, दुर्दिन, दुर्भाग्य, जिजीविषा, विलासिता को गैरमामूली निर्देशन में, भयानक स्वर्ग और दिलकश नर्क की नयनाभिराम सिनेमेटोग्राफी के साथ 'सर्व' कर दिया है।"
इसलिए राष्ट्रवाद, नस्लवाद, आर्यन गौरव, जातीय अभिमान को पददलित करने के अनगिन, अविभाज्य प्रसंग समाहित हैं और इन सब चीजों को हास्यास्पद बना दिया गया है। जब जर्मन सेना हारती है तो फासिस्ट लोगों को यकीन नहीं होता कि सर्वश्रेष्ठ खून, एक अप्रतिम नस्ल भला कैसे हार सकती है। यह आपको चाहे-अनचाहे पूँजीवादी सभ्यता में मनुष्य के पराभव की गवाह बनाती है। बिना उपदेश दिए सावधान करती है। लेकिन याद दिलाती है कि अच्छाई और साधारणता की महत्ता को विस्मृत करना इस मानव प्रजाति का स्वभाव है।
लेकिन यह सब और इतना कह देना भी अधूरी बात है। यह राजनीतिक फिल्म है। फासीवाद और अमानवीय राजनीति से पैदा मौकापरस्ती और नृशंसता की असमाप्य कथा है। जिसमें मनुष्य उजड़ जाते हैं, मानवीय संबंध दयनीय बन जाते हैं। फिर भी कहीं चुपचाप मनुष्य की प्रेमिल कार्रवाइयाँ, ग्लानि और आशाएँ लगातार राहत के काम में जुटी रहती हैं। यह बहुस्तरीय सुरंगों में चलनेवाली फिल्म है जो जमीन पर चलती दिखाई देती है।

यहाँ पूँजी की, धनजनित यश अभिलाषी मन की जीवित अवस्था में ही शल्य क्रिया कर दी गई है।
बिना बेहोश किए।

तात्कालिकता और लोभ हमेशा ही वशीभूत कर लेता है। यही चुनौती है और यही मुश्किल, जिससे यह संसार अनवरत रूप से नष्ट या परास्त हुआ दिखता है। फिर कोई बड़ी मानवीय कोशिश ही उसे उबारती है। नायक अपने सुदिनों की याद करते हुए आनंद लेता है और वर्तमान दुर्दिनों को स्वीकार करता है। कि ये दिन भी उसकी सहमति और सक्रियता से ही मिले हैं। अच्छे दिनों की कमाई हैं।
हम अच्छे दिनों की चाह में और उनसे गुजरते हुए अक्सर दुर्दिनों की ही कमाई करते हैं।
यह फिल्म मुग्ध करती है, आखिर में आप कुछ अजीब ढंग से उदास हो सकते हैं। एक जीवन का समृद्ध अनुभव अब आपके जीवन में विन्यस्त हो गया है।कहानी और दृश्यों के बारे में बस, एक दृश्य-
जिसमें जर्मन नायिका, चेक नायक से संसर्ग करते समय, अपने आराध्य और काम्य हिटलर की तस्वीर की तरफ लगातार देखते रहना चाहती है इसलिए वह आरूढ़ प्रेमी के सिर को बार-बार अपनी दायीं तरफ धकियाती है ताकि सामने दीवार पर लगी हिटलर की तस्वीर और उसके बीच में, कमतर नस्ल के प्रेमी का सिर व्यवधान न बने। और उसे अनुभव होता रहे कि वह प्रेमी के साथ नहीं, हिटलर के साथ ही संसर्ग कर रही है।
इसका कोई अर्थ इधर के जीवन में दिखता हो तो देखा जा सकता है। क्योंकि चरम अंधभक्ति और श्रद्धा से ओतप्रोत यह एक राजनीतिक दृश्य है।
बहरहाल, कुछ और स्टिल्स नीचे लगाए हैं जिनमें लिखे संवाद आपसे कुछ और बातें बेहतर कह सकते हैं।






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