बुधवार, 7 अक्टूबर 2020

 2009 में लिखी यह छोटी सी कहानी, जो लिखने के बाद आठ बरस तक कहीं प्रकाशित भी नहीं करायी। 2017 की शुरुआत में साथी शैलेन्‍द्र शैली ने उसे अपनी पत्रिका 'राग भोपाली' में आग्रहपूर्वक प्रकाशित किया। आशंका के बावजूद लगता नहीं था कि यह कहानी कुछ विडंबनात्‍मक ढंग से 2020 में फलित होगी।  

अनशन की जगह

कुमार अम्‍बुज 

हम आँगनबाड़ी चलाते हैं। हमें कोई कार्यकर्ता नहीं मानता। हम नर्सें हैं। सिस्टर्स। हमें कोई सिस्टर नहीं मानता। हम शिक्षक हैं। प्राईमरी शिक्षक। हमें उन स्कूलों में भी जाना पड़ता है जहाँ विद्यार्थियों की आबादी ही नहीं बची। सड़क भी नहीं है। हमारे काम में दलिया-रोटी बनाना या बनवाना शामिल है। हम क्लीनर हैं। हम साफ कपड़े ही नहीं पहन पाते। हम तांगेवाले हैं। मान लिया गया है कि हम मर गए है। हम ठेला लगाते है। अण्डे, मूँगफली, केले और बरफ बेचते हैं। हमें खदेड़ दिया गया है। हम श्रमजीवी पत्रकार हैं, हमारे यूनियन के अध्यक्ष की पहले नौकरी ली गई फिर हत्या कर दी गई है। हम स्त्रियाँ हैं, रोज पिटती हैं और हम सिर्फ इसलिए जीवित रहना चाहती हैं कि हमारे बच्चे छोटे हैं। और हम हिजड़े हैं। हम बस मरने की कगार पर ही हैं। और हम बाइयाँ हैं। घर-घर में कामों में जुटी हैं, हमें भी कुछ कहना है, हमारी भी मुश्किलें हैं जिनसे महाकाव्य बन जाते हैं लेकिन सुना है कोई साहित्य नहीं पढ़ना चाहता। महाकाव्य तो कोई नहीं। हम सब अनशन करना चाहते हैं। 


लेकिन हमें कहीं जगह नहीं है अनशन की जो दूर दराज की जगहें हैं, वे ‘बुक्ड’ हैं। हम ऐसी जगहों का पैसा नहीं दे सकते और बाकी जगहों पर तो अब अनशन हो नहीं सकता। हम क्या करें, कहाँ जाएँ। हमारी दुकानें नहीं चलतीं क्योंकि हर सड़क पर एक बड़ी दुकान खुल गई है। हमारे अखबार नहीं बिकते क्योंकि एक ही आदमी, एक ही कंपनी के अखबार देश में चल रहे हैं। और सब संस्करणों का वही एक आदमी संपादक है। हर जगह उसकी मनमानी है। और हम भी हैं जिन्हें समाजविरोधी, अपराधी वगैरह कह दिया गया है, हम भी कुछ कहना चाहते हैं, बस, हमें जगह दो। जहाँ बैठकर, खड़े होकर या लेटकर या बिना लाठी खाए हम कुछ कह सकें, बता सकें कि हम भी इसी दुनिया में, इसी समाज में हैं और जिंदा हैं तो हमें कुछ जगह चाहिए ही चाहिए। 

आप हमें किसी भी कोने में डाल दें लेकिन जगह तो वहाँ भी चाहिए। जेल में भी आखिर जगह तो लगेगी। और जो जगह आज आपके लिए बेकार है, आप हमें वहाँ भी फेंक देंगे तो कुछ दिनों बाद आपको बाजार, मॉल, कवर्ड केम्पस आदि के लिए फिर जगह कम पड़ेगी और आप वहाँ फिर आकर कहेंगे कि अब यहाँ से जाओ। तो हम कहाँ जाएँ। तो हम अनशन करना चाहते हैं, रैली निकालना चाहते हैं, नारे लगाना चाहते हैं। लेकिन सब तरफ आपने बेरीकेड्स लगवा दिए हैं। पुलिस है। आँसू गैस है। लाठियाँ हैं। पैलेट गन है।   
                                                       
और इधर देखिए, हम बच्चे हैं। हमारी भी मुश्किलें हैं। घरों में, स्कूल में। सब जगह हमारे लिए पहले से काम तय है। और हम कुछ नहीं कह सकते। अकसर रो भी नहीं सकते। और इस तरफ देखें, हम बच्चे हैं तो क्या हुआ। हमें उन सब कामों में जुटना पड़ता है जो स्कूल जानेवाले बच्चों के बाद हम बच्चों पर आ पड़ता है क्योंकि कुछ तो करना ही पड़ता है वरना कोई रोटी नहीं खिलाता। हम गालियाँ खाते हैं, थप्पड़ ही नहीं लातें भी खाते हैं। हमारे पास सोने की जगह भी नहीं है। हमें कुत्तों के साथ जगह बाँटना पड़ती है। हम भी कुछ कहना चाहते हैं। हमें कहने नहीं दिया जाता। तब भी हम कुछ कहना चाहते हैं। कुछ लोग हैं जो हमारी तरफ से कह सकते हैं। वे कहते नहीं हैं और जो कहते हैं उन्हें कहने के लिए जगह नहीं है। और जो लगातार कुछ कहते रहते हैं वे हमारे बारे में कुछ नहीं कहते।

यही नहीं और इतने ही नहीं। हम लिपिक हैं, हम डॉटा ऑपरेटर हैं और हम ठेके पर हैं। हम कामकाजी स्त्रियाँ हैं। हम तृतीय श्रेणी, चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी हैं। हम सिपाही हैं, होमगार्ड के जवान हैं। हम होटलों में, रिसॉर्ट्स में, धर्मशालाओं में खपे हुए हैं। और इधर भी देखिए, हम वर्षों से नालियाँ, गंदगी साफ कर रहे हैं। गटरों में उतरे हुए हैं, वहीं मर जाते हैं। घरों में रहते हुए भी हमारी दशा वही बनी है। हमारा आसपास, मोहल्ला और यह पूरा शहर हमारे लिए एक गटर ही बनकर रह गया है। औ हम आदिवासी हैं। लाखों सालों से हम इस पृथ्वी के, इस जंगल के, पानी के किनारों के वासी हैं। आदिवास है हमारा। हमसे कह दिया गया है कि हम अपनी जगहें छोड़ दें। हम धनुष चलाना जानते हैं और बंदूक चलाना सीखना पड़ रहा है लेकिन हमें भी कुछ कहना है। हम अपनी जगह नहीं छोड़ना चाहते और न ही बंदूक चलाना चाहते, हमें यह कहने की जगह दो। हमें इकट्ठा होने की, बात करने की जगह दो। लेकिन जगह नहीं है। हम तो किसी के हृदय में भी नहीं रह सकते, न किसी की आँखों में। हम ईश्वर नहीं हैं, हम आदिमनुष्य नहीं रहे, हम हर जगह की किरकिरी हैं।

अब केवल संतों के लिए, बापुओं के लिए, मौलवियों के लिए, चातुर्मास करनेवालों के लिए, सांसदों-विधायकों की सभाओं, सरकारी आयोजनों के लिए, ऑटो एक्सपो और रियल्टी बिजनेस मेलों और सेकण्ड्स की सेल के लिए जगह बची है। अब ये सब शहर की छाती पर, सबसे चमकदार सड़क पर सबसे लंबा, मोटा कीला गाड़कर तंबू तान लेते हैं। द्वार, तोरण भी बनाते हैं। तार डालकर सीधे बिजली ले सकते हैं। लाऊडस्पीकर लगा सकते हैं। हर चीज खरीद सकते हैं, इसके लिए नियम हैं, अनुमतियाँ हैं और वे नियमानुसार और अनुमति लेकर ही ऐसा करते हैं। मंत्रियों, पूँजीपतियों, ठेकेदारों, माफिया सरगनाओं, कलेक्टरों, कमिश्नरों, सचिवों, धार्मिक न्यासियों को कुछ कहकर माँगना नहीं है। उन्हें बिना कहे, बिना माँगे ही सब हासिल है। भृकुटि कंपन मात्र से उन्हें सब कुछ प्राप्य है। तो हमारे संसार में ऐसे भी कुछ लोग हैं जिन्हें अनशन की जरूरत नहीं, उन्हें प्रतिरोध की जगह नहीं चाहिए। इसके अलावा उनके पास पहले से ही अनंत जगहें हैं। और यदि उन्हें चाहिए भी तो फिर यह बाकी पूरी पृथ्वी, पूरी जमीन चाहिए। जिसे वे धीरे-धीरे ले ही रहे हैं। इसके लिए उन्हें किसी अनशन की भी जरूरत नहीं है। उनके पास कानून हैं। अधिग्रहण के अधिकार हैं। इलाके के वोट हैं। अपनी विशाल जाति है।

हमारे पास उस जगह तक का भी कोई पट्टा नहीं है जहाँ हम पिछले कई सालों से रात में सो रहे हैं। तो हम आखिर कहाँ जाएँ! हमसे साफ कह दिया गया है कि अब इस नये राजकाज में आप यहाँ शहर के बीच में अनशन नहीं कर सकते। यह अस्सी हजार रुपये प्रति स्कावयर फीट की जगह है। क्योंकि हम शहर में दिक्कत पैदा कर देते हैं, रुकावट डाल देते हैं। सबके लिए परेशानियाँ खड़ी कर देते हैं। संसार भर में बदनामी भी कर देते हैं, सो अलग। 
खबर दी जा रही है कि तमाम मुश्किलों का और हमारी सुविधा का ध्यान रखते हुए सरकार ने, चालीस किलोमीटर दूर एक जगह, दूर कहीं मैदान में तय कर दी है। वहाँ खाने-पीने के स्टॉल्स और मीडिया वगैरह के लिए भी केबिन बनवाया गया है। इस पर बीस करोड़ का खर्च भी आया है। तो कहा जा रहा है कि अनशन वगैरह आप वहाँ जाकर करें। वहाँ किसी को कोई दिक्कत नहीं होगी। जब तक अनशन करोगे वहाँ दो-तीन डिप्टी कलेक्टर, नायब तेहसीलदार और पुलिस भी रहेगी। होमगार्ड के जवान भी। मीडिया भी चला आयेगा। फेयर वेदर रोड है और बारिश में यों भी अनशन की कोई जरूरत नहीं पड़ती।

फिर भी हम यहाँ आ गए हैं। यह शहर के बीचों बीच है कि लगभग एकड़ भर जगह खाली है। इसके आसपास दुकानें हैं, आवाजाही से भरी सड़कें हैं, पूरा बाजार है। कह सकते हैं, यह शहर की अनशन की वास्तविक जगह है। हम तो वर्षों से ऐसा ही देख रहे हैं। कि यहाँ कोई भी आकर अनशन, धरना दे सकता है, सभा कर सकता है। सत्संग करा सकता है। बहुत कम दिन ऐसे होते हैं कि यहाँ कोई धरना-प्रदर्शन-प्रवचन न हो रहा हो। 

तो हमने यहाँ धरना दे रखा है। सप्ताह भर हो गया। हमारे गाँव के गाँव डूब में आ गए हैं। वाजिब मुआवजा मिलता नहीं, घर-बार-खेती उजड़ गई है। नयी जगह का कोई ठिकाना नहीं। जो जगह दी जा रही है, वह बंजर है, पानी भी नहीं है और एक ऐसा उजाड़ है कि बसना मुश्किल। तो औरतें-बच्चे भी यहीं धरना देने आ गए हैं। वहाँ क्या करते। पिछले अनुभवों से सीख गए हैं कि दो-चार दिन में सुनवाई होती नहीं इसलिए इस बार लंबे इंतजाम से आए हैं। आटा, सत्तू, दाल लाए हैं। शहर देख सकता है कि फोर लेन के इस डिवाइडर की रेलिंग पर अब कई रंगों की साड़ियाँ, लहँगे और बच्चों के कपड़े, कमीज, धोती वगैरह सूख रहे हैं। वे हमारे अनशन का हिस्सा हो गए हैं। किनारे ईंटों के चूल्हे से उटता धुआँ भी शामिल है इसमें। लेकिन हमसे कहा जा रहा है कि यहाँ अनशन नहीं कर सकते। क्योंकि हम शहर की साँस घोंट रहे हैं, शहर भर के लिए रुकावट हैं। शासन ने अब एक जगह तय कर दी है। वहीं जाएँ। वहीं जाना होगा। यही बार-बार बतलाया जा रहा है। 

जीप पर लगे लाउडस्पीकर से भी।हमको अभी समझाया जा रहा है। दो तीन दिन और समझाया जाएगा। 
फिर समझाने के दूसरे तरीके भी हैं। जतला दिया गया है कि उन तरीकों को आप जानते ही हैं। अगली ही सुबह या चुपचाप आज रात उन पर अमल किया जाएगा। अब हम भी कुछ तो समझते ही हैं।
बाकी बातें और समझेंगे, धीरे-धीरे। लेकिन सवाल है कि अनशन करने इतनी दूर कैसे जाएँ। 
और क्यों जाएँ?
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रचनाकाल- 2009 

प्रथम प्रकाशन- राग भोपाली, फरवरी 2017 (वर्ष 21, अंक 11)