सुप्रसिद्ध, युवा और प्रतिबद्ध आलोचक पल्लव ने पिछले महीने 'हंस' पत्रिका में अपने स्तंभ 'कथेतर' में, मेरी मामूली किताब 'थलचर' पर एक गैर-मामूली, पूर्णाकार आलेख लिखा है। यह जिन मित्रों की निगाह से न गुजरा हो, उनके लिए यहाँ सलंग्न है।
डायरी में सुंदर का स्वप्न
पल्लव
डायरी के प्रसंग में पिछली बार तीन ऐसे लेखकों की
कृतियों पर बात की गई थी जो कि अलग अलग क्षेत्रों में प्रसिद्धि के बावजूद मूलत: अध्यापन से जुड़े थे। ऐसा तो नहीं है कि शिक्षा से जुड़े होने से इनकी डायरियों
का कोई अतिरिक्त महत्त्व होता हो लेकिन ध्यान देने की बात यही है कि उनके बुनियादी
संकल्प क्या हैं। साहित्य की उनकी प्रतिज्ञाएँ अंतत: क्या चाहती हैं। हिंदी में
डायरी के नाम से मुक्तिबोध सर्वाधिक याद आते हैं जिनकी किताब डायरी की आड़ में रचना
प्रक्रिया और साहित्य आलोचना की बात करती है। कवि कुमार अम्बुज की डायरी 'थलचर' के मार्फत इस विधा के कथेतर में होने के ख़ास
संदर्भों को समझने का दुर्लभ अवसर देती है। 2016 में आई इस किताब को बहुत समय नहीं हुआ है और यह भी
स्वीकार करना चाहिए कि कुमार अम्बुज के प्रशंसक पाठकों के अतिरिक्त इस किताब की
कोई चर्चा भी देखने में नहीं आई। कुमार अम्बुज अपनी कविताओं की अंतर्वस्तु व
बुनावट के सुन्दर सहकार तथा अपनी साहित्य प्रतिज्ञाओं के लिए अपनी पीढ़ी में
प्रशंसा और आदर के पात्र भी बने हैं। एक रचनाकार के लिए जरूरी धैर्य और साधना का
संकल्प उनमें दिखाई देता है जिसकी गवाही उनकी डायरी देती है।
साहित्य की रचना प्रक्रियाएँ बदलते हुए मनुष्य सम्बन्ध, बाज़ार और राजनीति की जटिलताएँ, प्रकृति और सौंदर्य की गहरी अभीप्सा तथा कठोर आत्मालोचन कुमार अम्बुज की डायरी को मूल्यवान कृति बना देते हैं। पुस्तक प्रकाशन की सुविधा होने पर डायरी के नाम पर कुछ भी अंडबंड छपवाने के उदाहरण हमारी हिंदी में मिलते हैं, उनकी निंदा करना अथवा उनसे किसी बेहतरी की अपेक्षा करना फिजूल है। कुमार अम्बुज की डायरी को पढ़कर ऐसी फिजूल किताबों की निस्सारता और अधिक समझ में आती है क्योंकि अपनी डायरी में वे जो लिख रहे हैं वह सम्भवत: और किसी विधा में न आ सकता था। छोटी छोटी टीपें कभी रोजनामचे या कभी घटना प्रसंग की सूरत ओढ़कर आती हैं और पाठक उन्हें बार बार पढ़ने की इच्छा करता है। अरुण प्रकाश याद आते हैं जिन्होंने डायरी लेखन के सम्बन्ध में काम की बातें लिख दी हैं- 'यों तो डायरी प्रायः रोजमर्रापन, चिंतन और मनन के लिए ही उपयोग में आती रही है। लेकिन दूसरे रूपबंधों में भी विशेषकर कथात्मक रूपबंधों में आसानी से ढल जाती रही है। अगर डायरी में निरंतरता का, धारावाहिकता का प्रवाह नहीं होता तो इस तरह कथात्मकता में पानी की तरह घुल जाना संभव नहीं होता। इस प्रकार हम देखते हैं कि आख्यानात्मकता से डायरी का पुख्ता संबंध बनता है। जैसे किसी घटना का संबंध। घटना को एक गवाह ही जीवंत रूप में प्रस्तुत कर सकता है उसका ग्राफ़ीय ब्यौरा दे सकता है उसी तरह डायरी कई बार हमें जीवंत ब्यौरे से समृद्ध कर देती है वस्तुतः जब भी इस तरह की घटनाओं का वर्णन डायरी में होता है तो डायरी लेखक और डायरी दोनों गवाह बन जाते हैं।'
कुमार अम्बुज अपनी डायरी में प्रचलित धारणाओं को तोड़ते हैं। कभी कभी ऐसा अवश्य लग सकता है कि इस अंश को क्या वे कविता का रूप नहीं दे सकते थे। फिर महसूस होता है कि सम्भवत: इसी विषय पर कविता लिखने के दौरान ये कुछ और बातें रही हों जो कविता में भले न आ सकीं लेकिन यहाँ आ गई हैं। तब भी अनेक स्थल किसी मुकम्मल रचना का आस्वाद देने में सफल हुए हैं। मसलन यह अंश द्रष्टव्य है .
''एक आदमी संतूर बजा रहा है। संगीत का एक पारखी आता है। वह कहता है संतूर तो ठीक है, आप शहनाई बजाएंँ तो जानें। तब ही माना जा सकेगा कि आप सच्चे संतूरवादक हैं।
जो संतूर के साथ शहनाईए तबला या सितार बजा सकते हैंए
यह उनकी अतिरिक्त योग्यता हुई लेकिन जो फर्ज़ कीजिएए कि सिर्फ संतूर बजा सकते हैंए
तो यह उनकी अयोग्यता कैसे हो सकती है !
वह आदमी अभी भी अपना संतूर बजा रहा है।यही उसका काम है।
पारखियों का काम यदि कोई होता हो तो पारखी जानें।''
अरुण प्रकाश ने यह भी लिखा था कि डायरी में निजता
बहुत अधिक होने से सम्भव है कि उसकी भाषा अंतर्मुखी हो जाए। अम्बुज की डायरी में
अनेक निजी प्रसंग आए हैं लेकिन उनकी प्रतिबद्धता को भी डायरी में ही देखा जा सकता
है। स्वयं वे भी एक जगह प्रतिबद्धता पर किंचित विस्तार से बात करते हैं लेकिन
विचार से पहले उनकी प्रतिबद्धता संवाद में है, पाठक के प्रति है। यह
अवश्य है कि उनका विचार इस कार्रवाई में उनका सहयोगी बनकर आता है। मृत्यु और अपने
माता.पिता पर लिखे गए इन दो अंशों को पढ़ना चाहिए-
''मृत्यु जीवित रह गए लोगों को एक ख़ास झरोखे में ले
जाकर खड़ा कर देती है। जहाँ से वे मृत व्यक्ति का पूरा जीवन देखने का उपक्रम कर
सकते हैं। मृतक से जैसा नाता, संबंध और दख़ल रहा होए उसी अनुरूप। जैसे एक कथा, एकमहाकाव्य, एक चलचित्र, एक जीवन समाप्त हुआ। अब
सब कुछ यथास्थिति में, अपने संपूर्ण तथ्यों के साथ आपके सामने उपस्थित है।
उसमें कुछ भी जोड़ा या घटाया जाना अब मुमकिन नहीं। जो है, जैसा है, अब वही है। मेरे लिए भी माँ की मृत्यु ने इस अवसर को
उपस्थित कर दिया है। माँ की मृत्यु है, इसलिए कहीं अधिक सघनता
के साथ। लेकिन माँ को तटस्थता और निर्विकार भाव से स्मरण करना संभव नहीं। उसका
जीवन एक ठोस तथ्य है। विवरणों से भरा एक विवरण। वह समाज में एक मनुष्य की तरह उपस्थित
थी लेकिन मेरे लिए माँ थी।''
दूसरा अंश- ''समाज में वृद्ध होते लोग खास तरह की ज़िद करते हैं और उनकी ज़िद को तोड़ना लगभग नामुमकिन.सा होता जाता है। जैसे आज पिताजी को अपने पास लाने की तमाम कोशिशें असफल हुईं। मैं जानता हूँ कि वे मेरे पास रहेंगे तो अधिक सुविधा और सुख से रह सकेंगे लेकिन वे इस सुविधा और सुख की गिनती नहीं करते। उन्हें अपने मकान से ही विदा होना है और बिना किसी खौफ के वे इसकी जैसे तैयारी कर रहे हैं। उन्हें यह समझा पाना और इस बात से सहमत कर पाना कठिन है कि यह जीवन कुछ उपायों से दूर तक बचाया जा सकता है। वे ईश्वर द्वारा गिन कर दी गई साँसों का दर्शन मानते हैं और इसके चलते अनेक संभव उपायों और सावधानियोंकी उपेक्षा करते हैं। चूँकि उनके साथ जोर.जबर्दस्ती नहीं की जा सकती है, वे आदरणीय हैं, इत्यादि। इसलिए वे एक तरह से अपनी मनमानी कर लेते हैं। वे गलत हैं लेकिन पिता हैं। इसलिए सही हैं और विजयी हैं। लेकिन सोचता हूँ कि यह उनकी एक मनुष्य की स्वतंत्रता भी तो है कि वे कहाँ रहें, कैसे रहें। इसलिए इस स्वतंत्रता का आदर भी उचित है।''
देखा जा सकता है कि अत्यंत निजी प्रसंगों के होने पर भी
कुमार अम्बुज इन्हें किस वृहत्तर परिप्रेक्ष्य में ले आते हैं और यह परिप्रेक्ष्य
असल में उनकी प्रतिबद्धता से ही निर्मित हुआ है। अपने निजी अनुभव को समष्टिगत
सचाइयों के साथ रख देना केवल एक लेखक की कला का कौशल नहीं है अपितु यह उस मूल
प्रतिज्ञा की याद दिलाता है कि वह क्यों लिखता है, किसके लिए लिखता है, उसका पाठक कौन है। कहना न होगा कि कुमार अम्बुज अपनी इस डायरी में इन प्रतिज्ञाओं को भूलते
नहीं। क्या पता किसी के सचमुच कवि होने का यही रहस्य हो।
इस प्रसंग में एक और उदाहरण है जहाँ वे प्रकृति की
चर्चा कर रहे हैं-
''प्रकृति कभी किसी को अकेला नहीं रहने देती। रात में
घूमना, रात में उन चीजों को सोया हुआ देखना जो जीवितों के
स्पर्श से सुबह जाग जाती हैं, कितना अनुपम है। जैसे हम किसी थके हुए को विश्राम
करता देख रहे हों और हमारी भी यह जिम्मेवारी हो कि उसके आराम की रक्षा की जाए।
अकसर ही दोस्तों के साथ देर रात घूमने जाता हूँ। तब इन रास्तों को, वनस्पति को और प्रकृति के अन्य दृश्यमान उपांगों से उस तरह एकाकार होना संभव
नहीं हो पाता, जैसे अकेले में घूमते हुए मुमकिन है।….चबूतरे पर
लेटा तो अंतरिक्ष की एक छोटी सी खिड़की दिखी। रात के आकाश की तरफ देखते हुए सबसे
पहले अपने अस्तित्व की लघुता याद आती है। फिर मनुष्य का उपक्रम याद आता है। फिर उस
उपक्रम और प्रयास की विशालता और सीमा एक साथ याद आती है। कितने मिथक और कहावतें मन
की गति के साथ-साथ चलने लगते हैं। यह मेरी बुआ का तारा होना चाहिए। दस-बारह चमकदार
तारों के बीच शर्मीला। झिलमिलाता हुआ। इस झुंड में दीखता यह सबसे दूर का तारा है।
या एक छोटा तारा। यही तो, ऐसा ही तो रहा बुआ का जीवन। और ये सप्तऋषि। बचपन की
रातों में इन्हें पूरे आसमान में एक साथ घूमते देखना, समय जाँचना। सब कुछ पीछे छूट गया है। उम्र के कारण ही नहीं। बदले हुए जीवन के
कारण भी। परिवेश ही बदल गया। वे आँखें नहीं रहीं जो तारों की रोशनी में भी अपने
आसपास को देख लेती थीं और वे रास्ते भी नहीं रहे जो तारों की रोशनी सेए किसी ठोस
चमकदार धातु की तरह व्यवहार कर सकते थे।''
डायरी को पढ़ने के कुछ आग्रहों में यह है कि डायरी कपटहीन गद्य होती है और लेखक की आत्मा का प्रकाश उसे चमक देता है। शायद यह आडंबरहीनता गद्य के अन्य परिनिष्ठित रूपों में ला पाना सम्भव न होता ही। कहीं कथा के तत्त्वों की मर्यादा की रक्षा में लेखक जुट जाता है तो कहीं रूप की बाध्यताएँ उसे रोक लेती हैं। कुमार अम्बुज का चीज़ों को देखने का अपना ढंग और उस पर मौलिक चिंतन कर पाने का सामर्थ्य उन्हें विशिष्ट डायरी लेखक बनाता है। गद्यं कवीनां निकषं वदन्ति का ठीक अभिप्राय यह नहीं है कि कवि ही अच्छा गद्य लिख सकते हैं बल्कि गद्य की चारुता पर कवियों को परखा जाने का आग्रह इस कहावत का कारण रहा हो। 'थलचर' का गद्य रंजक है, चारु है और वैचारिक ख़ूराक़ देने में समर्थ है। जब यहाँ कवि अपनी रचना प्रक्रिया और लिखने की मुश्किलों पर बात करता है तब इस गद्य को देखना और अधिक समृद्ध अनुभव है। कुछ अंश द्रष्टव्य हैं-
''मैं अपनी सामर्थ्य और सीमाओं के साथ एक कवि का ही जीवन जीना चाहता हूँ। यह कितना
कठिन है। कितना अलभ्य। मुझे किस कदर बुलाता हुआ। यह एकरहस्यमयी पुकार है। धुंध से
आती हुई। कोहरे से आती हुई। और कितनी स्पष्ट। कितनी आल्हादकारी! इच्छा भर होना, प्राप्त होना तो नहीं है। लेकिन मैं इस आकांक्षा का शुक्रगुज़ार होता हूँ।''
शिल्प का सवाल किसी भी रचनाकार के लिए मामूली सवाल नहीं है क्योंकि रचना अंतत: रूप का ही कमाल है। राम की कथा सदियों से लोग जानते थे लेकिन तुलसीदास की कविता को ही वह सौभाग्य मिला कि घर घर में वरेण्य हुई। जब एक प्रतिबद्ध कवि शिल्प के सम्बन्ध में विचार करता है तब उसे ध्यान से देखे जाने की जरूरत है कि कहीं वह कला के नाम पर अंतर्वस्तु का समझौता तो नहीं कर रहा। कहीं उसके भीतर कोई और आकर्षण तो नहीं है जो मुक्ति के स्वप्न की उसकी मूल प्रतिज्ञा पर दबाव डाल रहा है। मुक्तिबोध भी इन सवालों से टकराए थे और 'थलचर' का लेखक भी इन सवालों से बचता नहीं-
''शिल्प की सवारी की शेर की सवारी है। यह उपलब्धि है कि आपने शेर की सवारी की। लेकिन अब आप शिल्प के आसन से उतर नहीं सकते। शेर आपको खाने के लिए तैयार है। आप शेर पर बैठे, यह तसवीर आपकी पहचान है लेकिन अब आप हमेशा ही शेर पर सवार रहने के लिए विवश हैं। आप उसके शिकार हो चुके हैं। आप भूल गए कि जैसे शिल्प को पाना एक महत्वपूर्ण पक्ष है उसी तरह शिल्प को पार करना भी। शिल्प के चक्रव्यूह में प्रवेश करने वाले अभिमन्युओं को चक्रव्यूह से बाहर आने की कला भी आनी चाहिए। शिल्प साधन होता है, साध्य नहीं। शिल्प, यथार्थ से बड़ा नहीं होता। यथार्थ रोज बदलता है इसलिए शिल्प स्थिर नहीं रह सकता। वह किसी आदमी की युवा या अधेड़ अवस्था में खींची गई तसवीर की तरह नहीं हो सकता। वह जड़ित फोटो नहीं है। जो शिल्प को गुलाम बनाना चाहते हैं, ज़रा ध्यान दें कि किसने किसको गुलाम बना लिया है। शिल्प औज़ार है, नेम-प्लेट नहीं। 'कैसे कहा गया है', तब ही विचारणीय हो सकता है जब 'क्या कहा गया है' भी महत्त्वपूर्ण हो। जितनी महान कविताएँ हैं अंततः वे अपने कथ्य के कारण ही हमारा ध्यान खींचती हैं। फिर जो कविताएँ अनूदित होकर हमारे सामने आती हैं या अन्यत्र जाती हैं, वहाँ शिल्प उस तरह से साथ नहीं आता-जाता, जैसा वह मूल में रहा आया है। रचना अपने कथ्य के कारण ही देश-काल का संक्रमण करती है। यथार्थ की चेतना प्रत्येक कवि से माँग करती है कि शिल्प की दासता से बाहर आया जाए। रचनाकार के लिए यह एक चुनौती है और उसे इसके प्रति स्वीकार भाव रखना चाहिए। शिल्प एक महत्त्वपूर्ण पक्ष है लेकिन यह याद रखना होगा कि शिल्प एक कैदखाना भी होता है। शिल्प के उम्रकैदियों को देखना दुखद है। जैसे उन्हें शाप दिया गया हो कि जाओ, अब तुम इस 'शिल्प.लोक' में जाकर रहो!''
अंतर्वस्तु के प्रति जवाबदेह कवि या लेखक ही शिल्प के
सम्बन्ध में यह कह सकता है। यहाँ भी लेखक अपनी प्रतिज्ञाओं को दुहराता है जो उसकी
प्रतिबद्धता भी है और यह प्रतिबद्धता मनुष्य की मुक्ति से जुडी है बल्कि उसकी
मुक्ति के लिए ही की गई है। कुमार अम्बुज इसे बहुत साफ़ ढंग से लिखते हैं-
''एक नया भ्रम यह फैलाया जा रहा है कि प्रतिबद्ध होना, कट्टर होना है। जबकि सीधी- सच्ची बात हैः प्रतिबद्धता समझ से पैदा होती है, कट्टरता नासमझी से। प्रतिबद्धता वैचारिक गतिशीलता को स्वीकार करती है, कट्टरता एक हदबंदी में अपनी पताका फहराना चाहती है। प्रतिबद्धता दृढ़ता और विश्वास पैदा करती है, कट्टरता घृणा और संकीर्ण श्रेष्ठी भाव। प्रतिबद्ध होने से आप किसी को व्यक्तिगत शत्रु नहीं मानते हैं, कट्टर होने से व्यक्तिगत शत्रुताएँ बनती ही है। प्रतिबद्धता सामूहिकता में एक सर्जनात्मक औज़ार है और कट्टरता अपनी सामूहिकता में विध्वंसक हथियार। प्रतिबद्धता आपको जिम्मेवार नागरिक बनाती है और कट्टरता अराजक। जो प्रतिबद्ध नहीं होना चाहते हैंए वे लोग कुतर्कों से प्रतिबद्धता को कट्टरता के समकक्ष रख देना चाहते हैं।''
और आगे एक जगह उन्होंने लिखा है-
''अन्याय और यातना के बारे में जाननाए उसके प्रतिरोध के लिए तैयार होना भी है। शब्द की सत्ताए मनुष्य की मदद उसी तरह कर सकती है जैसे कि एक जीवित और सक्रिय सत्ता। यह भरोसा, यह आशा आपको फिर से तैयार कर देती है।''
जब निजी यातना और पीड़ा का प्रसंग आता है तब डायरी में उसे सावधानी से देखना चाहिए क्योंकि डायरी अपमान का बदला लेने के लिए नहीं है और न अपमान करने वाले को विरूपित करने का माध्यम ही। यहाँ लेखक के आत्मसंयम और धैर्य की परीक्षा होती है। यहाँ उसे अपने भिन्न या कहें कि बेहतर मनुष्य होने का परिचय देना पड़ता है। आखिर इस संसार में कौन है किसे अपमान न सहना पड़ा हो, जिसे प्रताड़ित न किया गया हो लेकिन लेखक यदि साधारण मनुष्य से अलहदा है तो यह उसकी अतिरिक्त परीक्षा भी है कि वह इस क्षण में संयम का परिचय दे। इस डायरी में भी ऐसे प्रसंग आए हैं-
''तुम चुप रहो और लिखो। रचनाशीलता सबसे बड़ी सर्जनात्मक प्रतिक्रिया है, सबसे अच्छा उत्तर। वे लोग तुम्हारे साथ हमेशा रहेंगे जो कविता पढ़कर, बेचैन होकर टहलते हैं। जिनमें से अधिकांश तुमसे कभी कोई वार्तालाप नहीं कर पाते। कभी-कभी जो तुम्हें कुछ शब्दों में टूटी-फूटी-बातें बताते हैं। जो संख्या में बहुत कम होंगे लेकिन जो तुम्हारे सामने एक व्यापक संसार के साथ प्रस्तुत हो सकेंगे। विश्वास करो, इस विशाल आकाश के नीचे यदि तुम अपने वज़ूद के साथ आते हो तो तुम्हारी परछाईं भी एकज़गह घेरती है। यह किसी की दया नहीं है, प्राकृतिक नियम ही है। यह अलग बात है कि यदि तुम तीतर हो, मोर हो, हिरण हो या शेर भी हो, तब भी तुम पर कुछ लोग निशाना लगाएँगे ही। लेकिन यह भी विश्वास करो कि तुम एक जीवित, स्पंदित व्यक्ति की तरह जीवन के सामने खड़े रहो, किसी रेत के ढेर की तरह हवाएँ तुम्हें उड़ाकर नहीं ले जा सकतीं।''
कुमार अम्बुज एक और कठिन क्षण का वर्णन करते हैं .
''मेरे गर्म बिस्तर से सिर्फ पचास मीटर दूर फुटपाथ पर
लोगों ने शीत भरे जीवन की रातें बिताई हैं। मुआवजा न मिलने से बरबाद हो गए लोगों
ने जब सड़क पर जुलूस निकाला तो मैं मदिरा पीता पाया गया। मैं चश्मदीद गवाह हूँ।
मुझे गवाही देनी होगी। इस गवाही से बचा नहीं जा सकता। इसी मायने में किसी कवि के
लिए और किसी समाज के लिए कविता का रक़बा महत्वपूर्ण है। कविता में लिखे शब्द, एक साक्षी के बयान हैं। अपने को सज़दे में ला कर, झुक कर, लिखे गए बयान। समाज के पाप और अपराध, एक कवि के लिए पश्चाताप, क्रोध, संताप और वेदना के कारण हैं। कविता की आशा में एक विडंबना शामिल है, जिसकी ध्वनि जीवन में उपस्थित है। लेकिन वह एक यूटोपिया का निर्माण भी है
जिसकी संभावना को एकदम असंभव नहीं कहा जा सकता।''
एक और प्रसंग में वे मकान निर्माण के संदर्भ में, मजदूरों के बारे में लिखते हुए वे इसी संशय और ग्लानि में डूबे नज़र आते हैं। यह मध्यवर्गीय लेखक की ग्लानि है जो सब जान-समझकर भी अपने बंधे हाथों को देखता है और अवसाद से घिर जाता है। इसी तरह समाज में कवि की हैसियत का सवाल है। यह सवाल बार बार आता है और केवल कवि को ही नहीं अपितु साहित्य से जुड़े हर किसी को इसका जवाब देना होता है। यहाँ कुमार अम्बुज इस सवाल से टकराए हैं और उनका जवाब असल में सबका जवाब होने योग्य है-
''अच्छी कविता के पाठक समाज में कभी बहुत ज्यादा नहीं रहे हैं। उनकी संख्या बढ़ सकती है लेकिन वह सामान्य रुचि का विषय नहीं हो सकती। वह एक साथ बहुत संवेदनशील, तार्किक, कलाप्रिय, अबोध और दीवाने मनुष्यों के लिए ही मूल्यवान रहती आई है। उन्हीं के बीच संरक्षित रही है और रहेगी। जो अन्य कारणों से कविता को याद करते हैं; मसलन धार्मिक या नैतिक, वे कविता के सच्चे पाठक या प्रेमी नहीं हैं। वे उपदेश, सुभाषित और कविता में फर्क नहीं कर पाने वाले विशाल भोले समुदाय के आदरणीय हिस्से भर हैं। उनकी अपनी एक भूमिका है किंतु उस भूमिका की अपनी सीमा है। उसे पैमाना नहीं बनाया जा सकता अन्यथा श्रेष्ठतम उपलब्ध कविताओं को खारिज करना पड़ जाएगा। तुलसीदास और कबीर का ही कितना सारा हिस्सा ऐसा है जो श्रेष्ठ है लेकिन उतना लोकप्रिय नहीं। आज जब हिन्दी समाज में कवि की आवाज, उस तरह विद्यमान नहीं है कि अधिसंख्य जनता उसे ध्यानपूर्वक सुन सके तथा उसकी उपस्थिति हाशिये में भी सिकुड़ती चली जा रही है, तब कवि की निष्ठा, पक्षधरता और दृष्टि-संपन्नता की बात करना शायद अधिक प्रासंगिक है। यहीं इस विश्वास की परीक्षा भी होना है कि समाज में, सिकुड़ी हुई जगह से भी केन्द्र पर निगाह रखी जा सकती है। उसे हिलाया-डुलाया जा सकता है। और उस समाज को बदलने का सपना देखा जा सकता है जो अपने प्रस्तुत रूप में पूँजी-केंद्रित ही नहीं पूँजी-पिपासु भी है और इस तरह अमानवीय, अन्यायी और निष्ठुर है। वह सुंदर संसार का सपना ही नहीं देखती है बल्कि जानती है कि इसे कैसे सुंदर बनाया जा सकता है और इसके रास्ते में कौन-सी चीजें, कौन-सी स्थितियाँ और शक्तियाँ आड़े आती हैं। और यह भी कि उसका पक्ष क्या है।''
कहना न होगा कि वैचारिक रूप से समर्थ, सजग और अध्यवसायी कवि ही अपने पाठकों को इस तरह भरोसा दिला सकता है। यह भरोसा कठिन साधना से पैदा हुआ है जो साधारणता को समझता है और असाधारणता से भय नहीं खाता। अभिभूत नहीं हो जाता। 'थलचर' के ऐसे हिस्से हमारे समय की समस्त निराशाओं के बीच फिर साहित्य की हैसियत दर्शाते हैं और बताते हैं कि यह हैसियत सत्ताओं, प्रतिष्ठानों की अपराजेय शक्ति से अलग और ऊपर है। कबीर को गाने वाला साधारण आदमी और लोकगीतों के सहारे जिंदगी की चक्कियाँ पीसतीं मामूली औरतें क्यों मारे नहीं मरते।
इस डायरी में लेखक रोजमर्रा के सवालों से भी दो-चार हुआ है। जैसे रोजगार और व्यवस्था के सवाल। उसकी निगाह अपने लोगों की तकलीफों तक जा रही है और उसकी मेधा इन तकलीफों के कारणों और उपायों को खोजने के लिए प्रतिबद्ध है। जैसे-
''लेकिन अब पब्लिक सेक्टर को खतम करना है। इसके ठीक पहले सार्वजनिक स्कूलों को नष्ट किया जा चुका है। मार नहीं डाला गया। जीने की परिस्थितियों को कठिन और असंभव कर दिया गया। प्राइवेट सेक्टर के लिए परिस्थितियाँ अनुकूल और सरल बना दी गईं। पब्लिक सेक्टर में जरा भी अव्यवस्था हुई, उसे और जर्जर कर दियागया।….इस देश में जनसंख्या का इतना दबाब है कि भारी तादाद में मशीनीकरण की जगह, इन मनुष्यों को ही संपदा और साधन मानकर, उनका उपयोग छोटी मशीनों की जगह किया जाना चाहिए। मार्क्स ने ही नहीं, गाँधी ने भी और कितने सारे समाजशास्त्रियों ने अपनी-अपनी तरह से यह सब कहा। यह लोकतंत्र के कवच में बदमाशी की गहरी चाल है कि पब्लिक सेक्टर का पुर्नवास न किया जाए। उसे खतम किया जाए। खाई के मुहाने पर ला कर छोड़ दिया जाए। सोचता हूँ तो दिमाग घूमता है। इन दिनों चुनाव जिस तरह हो रहे हैं, वे भी तो सरकार का निजीकरण ही कर देते हैं। लगता है अभी और बुरा वक्त देश-समाज के सामने आना है।''
यह 1998 का एक अंश है और अब लगभग एक चौथाई शताब्दी के बाद लेखक अंदेशा सच होता दिखाई दे रहा है जब निजीकरण की गाड़ी तेज गति से पिछले सब कुछ को बदलती जा रही है। जिन चीज़ों के निजी हो जाने की कल्पना करना भी कठिन था अब वे भी निजी हाथों में जा रही हैं। इसी बात को वे और बड़े संदर्भ में देखने-समझने की कोशिश करते हैं। ज्ञातव्य है कि खुद कुमार अम्बुज जिस बैंक में नौकरी करते थे वह पहले एक अन्य बड़े बैंक में विलीन हुआ और अब उस जैसे बैंक लगातार दिवालिया या चौपट होते दिखाई दे रहे हैं। तो यह अनुभव उनका अपना देखा-भोगा अनुभव भी है। इस देखे-भोगे की पीड़ा लिखे जाने में भी महसूस की जा सकती है-
'' 'सर्वाइवल ऑव द फिटेस्ट -सर्वोपयुक्त का बचना' प्रजातियों के विकास के महान वैज्ञानिक चार्ल्स डार्विन के इस सिद्धांत को लोग इधर 'सभ्यताऔर समाज के विकास' के संदर्भों में उदाहरण की तरह देने लगते हैं। यह आधारभूत स्तर पर कुतर्क है। 'समाज का विकास' और 'प्रजातियों का विकास' दो अलग-अलग चीजें हैं। अब जैसे पूँजीवादी व्यवस्था के साँचे में देखा जाए तो यही सिद्धांत कितना भयावह लगने लगता है। स्पष्ट है कि जो असहाय है, शोषित है, निर्धन है और निर्बल है, वह पूँजीवादी समाज में सर्वोपयुक्त हो नहीं सकता। तब वह कैसे बचेगा! प्राकृतिक विकासमान व्यवस्था के इस सिद्धांत को एक अप्राकृतिक, कृत्रिम व्यवस्था में रख भर देने से उसके मायने और व्यंजना कितनी बदल जाती है। बैंक में काम कर रहे हमारे मित्र कहते हैं कि बचेगा बिलकुल बचेगा। जो असहायों में, निर्बलों और निर्धनों में सर्वाधिक उपयुक्तहोगा, वह बच जाएगा। तर्क है। लेकिन यह तर्क पूँजीवादी समाज के दर्शक- नागरिक की तरफ से है। जबकि बहुत साफ है कि जो बचेगा वह जैविक रूप से एक सबसे सहनशील आदमी भर होगा। लेकिन क्या वह समाज के ताकतवर और आत्मीय हिस्से की तरह बचेगा……यह दास प्रथा का कितना अधिक परोक्ष और अमानवीय संस्करण है। अपने आप को न्यायपूर्ण घोषित करता हुआ। गरीबों को, मजदूरों को, दुःखीजन को सिर्फ अकर्मण्य बताता हुआ। मेरा देश इसी रास्ते पर चल निकला है। तत्काल मुक्ति का कोई मार्ग नहीं दिखता।''
मुक्ति के मार्ग की तलाश हिंदी साहित्य के मूल प्रश्नों में एक है। यह तलाश आधुनिक काल के हर बड़े हिंदी लेखक के यहाँ दिखाई देती है चाहे वह नाटक की शक्ल में आए या कहानी की। दूसरों की तरह कुमार अम्बुज भी जिस विचार की तरफ देखते हैं वह वाम का विचार है। विचारणीय है कि मानव मुक्ति के विचार के स्तर पर आज भी इससे अधिक आकृष्ट करने वाला कोई नया विचार नहीं आता, इस सच्चाई के बावजूद कि व्यवहार में वाम की राजनीति अब लगभग समाप्त हो चुकी है। कुमार अम्बुज लिखते हैं-
''मुझे लगता है कि जितनी मेधा और क्षमता वामपंथी विचारकों, लेखकों, स्कॉलरों में है यदि वह संगठित हो जाए तो आगामी एक दशक में ही इस भारतीय समाज का कायाकल्प हो सकता है। लेकिन अभी लगता नहीं कि वामपंथी पार्टियाँ या नेता इस दिशा में कुछ कर रहे हैं। बल्कि अधिकांश रूप में वे ऐसा मुमकिन भी नहीं मानते हैं। विचारक कलमवीर हैं। कुछ व्याख्यान दे देकर रोजी चला रहे हैं। जो नौकरीपेशा हैं, वे अपनी नौकरी और परिवार संबंधी मुश्किलों में ही फँसे हुए हैं। अभी उन सबका कार्यकर्ता होना शेष है।''
यह अंश भी दो दशक पुराना है तबसे आज भारत में सिर्फ
एक प्रांतीय सरकार बची है जो वामपंथी दलों की है और समूचा वाम आभाहीन, निराश, पस्त दिखाई दे रहा है।
अपने समय के दूसरे बड़े सवालों को भी डायरी में रोशनी मिलती है। एक जगह धर्म की चर्चा में अम्बुज ने लिखा है- ''कैसा होगा वह समाज जहाँ सिर्फ एक धर्म के लोग रहें। एक तरह के ही विश्वासों और जीवनचर्या में बँधे रह सकने वाले लोग। एक ही धर्म के लोगों की तो फसल हो सकती है। वह उपवन या जंगल नहीं हो सकता जो अपनी प्रकृति में ही बहुत औचक, बहुवचनीय, वैविध्यपूर्ण और विस्तारित होता है। इसलिए ही वह अधिक प्राकृतिक, उत्तेजक, रोमांचकारी और जीवन से भरा हुआ होता है। वहाँ रहस्य, चुनौतियाँ और जीवन जी सकने के लिए एकाधिक कारण बसे होते हैं।……ऐसे मोहल्लों से वास्तविक रूप से डर लगता है जहाँ एक ही जाति या धर्म के लोग, लगभग संगठित हो कर या इस भाव से रह रहे होते हैं। यह असामाजिकता है। इसलिए मानवीय प्रसन्नता के खिलाफ है। लेकिन इस समय यह एक वास्तविकता है। यही खतरा है। और एक नया डर।''
और एक अन्य मुश्किल यानी कोर्ट कचहरी संबंधी भी डायरी में आती है- ''इसलिए हीए कोई भी देख सकता हैए जान सकता है कि न्यायालय हैं, न्यायाधीश हैं लेकिन न्याय दुर्लभ है। इस तंत्र ने न्यायालय को महज एक आदरणीय सरकारी संस्था बना दिया है। पेंचीदगियों और मुश्किलों से भरी हुई। कठिन और एक मायने में लगभग व्यर्थ। और न्यायाधीशों को खास अर्थों में लगभग असामाजिक कर दिया है। पवित्र और अस्पृश्य।''
कवि को सुंदरता स्पृहणीय है और तमाम विषमताओं, कलुष के बीच वह सुंदर का स्वप्न देखना भूलता नहीं। डायरी चर्चा के अंतिम प्रसंग में सुंदर की आकांक्षा का यह प्रसंग-
''कमरे में एक सुराही रखी है। शो पीस की तरह। उसमें फूल भी रखे जा सकते हैं। फूल रखो तो फूलदान की तरह है। यह उतनी सुंदर नहीं है। इसे देख कर सुंदर, सुघड़ और पूर्णाकार की सुराहियाँ याद आती हैं। सुराही को देखना एक कला को देखना है। जब-जब भी मैं सुराही को देखता हूँ, उसे उड़ती हुई निगाह से नहीं देख पाता।…..वह कितनी साधारण है और कितनी अनुपम! कमरे में रखी यह छोटी.सी सुराही इसी मायने में सुंदर है कि यह एक बड़ी सुंदरता का, कला का आत्मीय स्मरण दिलाती है। सुराही- यह शब्द भी कितना सुंदर है ! जो सुंदर लगता है, उसका नाम भी सुंदर लगने लगता है। नहीं, यही एक मात्र कारण नहीं। सुराही शब्द है ही सुंदर। लयात्मक भी। मैं एक कविता सुराही पर लिखना चाहता था और यह सब लिख गया हूँ। कविता लिख पाता तो अधिक संतोष मिलता। मैं एक कविता इस पर लिखूँगा। कभी।''
एक सजग और संवेदनशील लेखक के लिए ही यह संभव है कि वह अपने लिखे में कुछ ऐसी बातें भी लिख जाए जो सूक्ति की तरह पाठक के भीतर रह जाए। अविस्मरणीय बने। डायरी लेखक से यह अपेक्षा सर्वथा वाजिब है। कुमार अम्बुज की डायरी में भी ऐसी सूक्तियाँ हैं। इन सूक्तियों के साथ इस अंक की चर्चा को विराम दिया जा सकता है-
''सर्जना और स्वप्न के बीच यही समानता है कि वहाँ ऐसा कुछ भी नहीं होता जो कभी हमारे चेतन या अवचेतन का हिस्सा न रहा हो।''
''अगर तुम अपनी आकांक्षाओं के रास्ते में आने वाली हर
चीज को खतम कर दोगे तो एक दिन पाओगे कि तुम बहुत अकेले हो गए हो….और आखिर में पाओगे
कि फिर कोई आकांक्षा भी नहीं बची रह गई है।''
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