शनिवार, 29 सितंबर 2012

लेकिन वह तो परम्‍परा है

ब्‍लॉग के अपहरण के बाद फिर वह बरामद हुआ। 
फेसबुक के जरिए मित्रों ने इसमें तत्‍काल योगदान दिया।

बहरहाल, यह एक नई पोस्‍ट। 
यह कविता।

अकेले का विरोध

तुम्हारी नींद की निश्चिंतता में
वह एक कंकड़ है
एक छोटा-सा विचार
तुम्हारी चमकदार भाषा में एक शब्द
जिस पर तुम हकलाते हो
तुम्हारे रास्ते में एक गड्ढा है
तुम्हारी तेज रफतार के लिए दहशत

तुम्हें विचलित करता हुआ
वह इसी विराट जनसमूह में है
तुम उसे नाकुछ कहते हो
इस तरह तुम उस पर ध्यान देते हो

तुमने सितारों को जीत लिया है
आभूषणों  गुलामों  मूर्तियों   लोलुपों
और खण्डहरों को जीत लिया है
तुम्हारा अश्व लौट रहा है हिनहिनाता
तब यह छोटी-सी बात उल्लेखनीय है
कि अभी एक आदमी है जो तुम्हारे लिए खटका है
जो अकेला है लेकिन तुम्हारे विरोध में है

तुम्हारे लिए यह इतना जानलेवा है
इतना भयानक कि एक दिन तुम उसे
मार डालने का विचार करते हो
लेकिन वह तो कंकड़ है  गड्ढा है
एक शब्द है  लोककथा है  परंपरा है।
0000

शनिवार, 15 सितंबर 2012

तो इसमें नाराज होनेवाली क्या बात है?

महमूद दरवेश की कविता ‘परिचय पत्र’ का अनुवाद, यहाँ शीर्षक बदलकर।


तो इसमें नाराज होनेवाली क्या बात है?

इसे रिकॉर्ड में दर्ज करो।
    मैं एक अरब हूँ
और मेरे पहचान पत्र का नम्बर है पचास हजार
मेरे आठ बच्चे हैं
और नौवाँ गर्मियों के बाद आनेवाला है।
तो इसमें नाराज होनेवाली क्या बात है?

इसे रिकॉर्ड में दर्ज करो।
मैं एक अरब हूँ
खदान में अपने साथियों के साथ करता हूँ कठोर मेहनत
मेरे आठ बच्चे हैं जिनके लिए चट्टानों से जूझता
कमाता हूँ रोटियाँ, कपड़े और किताबें
और नहीं माँगता तुम्हारे दरवाजे पर भीख,
न ही झुकता हूँ तुम्हारी चौखट पर।
तो इसमें नाराज होनेवाली क्या बात है?

इसे रिकॉर्ड में दर्ज करो।
मैं एक अरब हूँ।
मैं एक नाम हूँ बिना किसी उपाधि के,
सहनशीलता से रहता आया एक ऐसे देश में
जहाँ हर चीज गुस्से के भँवर में रहती है।
मेरी जड़ें खोद दी गईं
समय की उत्पत्ति से ही पहले
युगों-कल्पों की कोंपल फूटने से पहले ही,
चीड़ और जैतून के पेड़ों से भी पहले,
घास की पत्तियों के आने से भी पहले।

मेरे पिता किसान परिवार से थे
किसी कुलीन सामंती खानदान से नहीं।
और मेरे दादा भी एक किसान थे
बिना किसी महान वंशावली के।
मेरा घर दरबान की झौंपड़ी जैसा है
घास और बल्लियों से बना हुआ
क्या आप संतुष्ट हैं मेरे इस जीवन-स्तर से ?
मैं एक नाम हूँ बिना किसी उपनाम के।

इसे रिकॉर्ड में दर्ज करो।
मैं एक अरब हूँ।
मेरे बालों का रंगः गहरा काला।
आँखों का रंगः भूरा।
विशेष पहचान चिन्हः
मेरे माथे पर पगड़ी और उस पर दो काली डोरियाँ
छुओगे तो रगड़ खा जाओगे।
मेरा पताः
मैं आया हूँ एक दूर, विस्मृत कर दिए गए गाँव से
जिसकी गलियों का कोई नाम नहीं
और जिसके सभी आदमी जुते हुए हैं खेतों और खदानों में
            तो इसमें नाराज होने की क्या बात है?

इसे रिकॉर्ड में दर्ज करो।
मैं एक अरब हूँ।
तुमने मेरे पुरखों के बगीचों को छीन लिया
और वह जमीन जिसे मैं जोतता था
मैं और मेरे बच्चे जोतते थे उस जमीन को,
और तुमने हमारे लिए और मेरे बाल-बच्चों के लिए
इन पत्थरों के अलावा कुछ नहीं छोड़ा।
क्या तुम्हारी सरकार इन्हें भी कब्जे में ले लेगी,
जैसी कि घोषणा की जा रही है?

बहरहाल!
इसे पहले पन्ने पर सबसे ऊपर दर्ज करोः
मैं लोगों से नफरत नहीं करता,
न ही किसी की संपत्ति पर करता हूँ अतिक्रमण
फिर भी, यदि मैं भूखा रहूँगा
तो खा जाऊँगा अपने लुटेरे का गोश्त

खबरदार, मेरी भूख से खबरदार
और मेरे क्रोध से!
000000

‘द विन्टेज बुक ऑव कंटेप्रेरी वर्ल्‍ड पोएट्री’ से, डेनिस जॉन्‍सन-डेवीज के अंग्रेजी अनुवाद के आधार पर हिन्दी में अनूदित। प्रकाशक- विन्टेज बुक्स, न्यूयॉर्क।

शुक्रवार, 7 सितंबर 2012

जहॉं हम मानते हैं कि हम ही सही हैं


इधर कुछ दिनों से येहूदा आमीखाई की यह कविता याद आती रही।
इसका भावानुवाद सह पुनर्लेखन जैसा कुछ किया है।
शायद इसका कुछ प्रासंगिक अर्थ भी निकले।


जहाँ हम मानते हैं कि हम ही सही हैं

जहाँ हम मानते हैं कि हम ही सही हैं
उस जगह फिर कभी
वसंत में भी फूल नहीं खिलेंगे

जहाँ सिर्फ हम सही होते हैं
वह जगह फिर बाड़े की जमीन की तरह
कठोर और खूँदी हुई हो जाती है

ये संशय और प्रेम ही होते हैं
जो दुनिया को उसी तरह खोदते रहते हैं
जैसे कोई छछूंदर या जुताई के लिए हल
और सुनाई देती है फिर एक फुसफुसाहट उसी जगह से
जहाँ कभी हुआ करता था एक उजड़ा हुआ मकान।
00000

बुधवार, 5 सितंबर 2012

जीवन विवेक ही साहित्‍य विवेक है




करीब दो बरस पहले  यह टिप्‍पणी लिखी गई थी। 
एक स्‍थानीय आयोजन से प्रेरित। बहरहाल।
एक-दो वाक्‍यों में संपादन के साथ यह यहॉं है।


साहित्यिक आयोजनों का अजैण्डा

साहित्य संबंधी आयोजनों को मोटे-मोटे दो वर्गीकरणों में देखा जा सकता है।
1.स्पष्ट कार्यसूची (अजैण्डे) के साथ आयोजन। 2.बिना कार्यसूची के साथ आयोजन।

पहले वर्ग में, किसी विचारधारा विशेष, जैसे वामविचार को केंद्र में रखकर, उसके अंतर्गत कुछ अभीष्ट या उद्देश्य बनाकर आयोजन किए जाते हैं। उनके इरादे, घोषणाएँ, प्रवृत्ति और पक्षधरता को साफ पहचाना जा सकता है। वहाँ साहित्य संबंधी एक दृष्टि, विचार सरणी होती है और कुछ साहित्यिक मापदण्ड और समझ के औजार भी उस दृष्टि और सरणी से निसृत होकर सामने रहते हैं। तत्संबंधी नयी चुनौतियाँ भी। विचारधाराओं से प्रेरित तमाम लेखक संगठनों के आयोजन इसी वर्ग में रखे जाएँगे। और वे भी आयोजन भी, जो वाम-विचारधारा विरोधी साहित्यिकों या संस्थाओं द्वारा संभव होते हैं।

लेकिन इन सभी का अजैण्डा असंदिग्ध रूप से जाहिर होता है। सार्वजनिक। उनके उद्देश्य स्पष्ट होते हैं। प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ, जन संस्कृति मंच, पूर्व में ‘परिमल’ के आयोजन और इधर अस्तित्व में आईं अनेक सांस्कृतिक दक्षिणपंथी संस्थाओं के कार्यक्रम, जिनकी वामविरोधी राजनीति स्पष्ट है। प्रायः इस तरह की संस्थाओं या संगठनों में औपचारिक/अनौपचारिक सदस्यता होती है और वे अपनी प्रतिबद्धताओं के लिए जवाबदेह होते हैं। इस वर्ग के ये कुछ उदाहरण हैं।

दूसरे वर्ग में मुख्यतः निजी महत्वाकांक्षाएँ, व्यक्तिगत यशकामना और/या व्यावसायिक समझ के साथ किए जानेवाले आयोजन हैं। वे किसी सामूहिक जनचेतना, व्यापक विचार या विचारधारा से प्रेरित नहीं होते। इसलिए कभी-कभार उनमें विभिन्न विचारधाराओं के लेखक भी, निजी कारणों से, एक साथ सक्रिय दीख सकते हैं। इनके एक, दो, दस आयोजनों को विश्लेषित कर लें तब भी कुछ हाथ नहीं आएगा। सिवाय इसके कि व्यक्तिगत वर्चस्व, नेतृत्व कामना के लिए, प्रकाशकीय लोभ-लाभ के लिए, पत्रिका की लांचिंग या प्रचार हेतु अथवा निजी धाक जमाने के लिए, पब्लिक रिलेशनशिप के लिए इनका आयोजन हुआ।

जब तक कोई ‘धन या अधिकार संपन्न व्यक्ति’, व्यवसायी या संक्षिप्त समूह इसके पीछे काम करता है, तब तक ये आयोजन होते हैं और फिर सिरे से गायब हो जाते हैं। फिर उनकी उतनी गूँज भी बाकी नहीं रहती जितनी एक छोटे से अंधे कुएँ में आवाज लगाने से होती है। उसका ऐतिहासिक महत्व तो दूर, उसकी किंचित उपलब्धि भी अल्प समय के बाद ही, कोई नहीं बता सकता। संक्षेप में कहें तो इनकी नियति एक ‘क्लब’ में बदल जाती है जहाँ साहित्य को लेकर, रचनाधर्मिता के संदर्भ में कोई ऐसी बात संभव नहीं जिसे गहन सर्जनात्मकता एवं बड़े विमर्श तक ले जाया जा सके। आयोजन के बाद उसे विचार की किसी परंपरा से जोड़ा जा सके। किसी आंदोलन के हिस्से की तरह उसे देखा जा सके या उस संदर्भ में नयी पीढ़ी को शिक्षित अथवा उत्प्रेरित किया जा सके।

ऐसे आयोजन, एक तरह के अवकाश को भरने या बोरियत दूर करने, साथ मिलजुलकर बैठने की इच्छा या समकालीनता में इस तरह ही सही, अपना नाम दर्ज कराने की सहज-सरल आकांक्षा, ध्यानाकर्षण की योजना अथवा समानांतर सत्ता संरचना की कामना से भी प्रेरित होते हैं और कई बार इस प्रतिवाद से भी कि उन्हें अपेक्षित रूप से स्वीकार नहीं मिला है। या उन्हें कमतर समझा गया है। या यह कि उन्हें और, और, और, और, और जगह चाहिए। लेकिन इनका जो भी आयोजक होगा, उसकी महत्वाकांक्षाओं या इरादों को समझा जा सकता है। हालॉंकि सतह पर तैरती चतुराई के कारण उनके वास्तविक उद्देश्य स्पष्ट होने में किंचित समय भी लग सकता है।

लेकिन एक बात यहाँ सबसे महत्वपूर्ण होती हैः वह यह कि इनका कोई घोषित अजैण्डा नहीं होता। या इनकी कोई कार्यसूची होती भी है तो उससे साहित्य या जीवन, (याद करें मुक्तिबोध का महान वाक्यः ‘जीवन विवेक ही साहित्य विवेक है।’) के प्रति, किसी भी विचारधारा और दृष्किोण से संबंध नहीं बैठाया जा सकता। इसलिए ऐसे आयोजन एक मिलन समारोह, पर्यटन, सामूहिक दस्तरखान के सुख, आनंददायी तस्वीरों और अन्य मधुर स्मृतियों में ही न्यून हो जाते हैं। इन्हें अन्य द्वारा वित्तपोषित ‘साहित्यिक किटी पार्टियों’ की तरह भी देखा जा सकता है।

एक अन्य उपवर्ग उन संस्थानों का बनता है जिनके पास शासकीय या गैरशासकीय स्त्रोतों से बजट है और वे उस बजट को खपाने के लिए, अपने संस्थान की क्रियाशीलता को बनाए रखने के लिए तमाम आयोजन करने को विवश हैं। प्रायः, जब तक कि संप्रति सरकारों का दबाब न हो, उनका किसी विचारधारा विशेष के प्रति विरोध या समर्थन नहीं होता। वहाँ कोई भा आ-जा सकता है और उनसे लाभ लिया जा सकता है। उसमें भागीदारी से किसी को कोई उज्र या ऐतराज नहीं होता, जब तक कि कुछ विचारधारात्मक सवालों से मुठभेड़ न हो। आकाशवाणी, दूरदर्शन, साहित्य अकादमियाँ, हिंदी उन्नयन संस्थाएँ आदि इसके उदाहरण हैं। इन संस्थाओं के पास भी, साहित्य को लेकर कोई विशिष्ट औचित्य या दृष्टि नहीं होती, सिवाय इस महान वाक्य के कि ‘वे साहित्य और रचनाकारों की सेवा कर रहे हैं और उनका जन्म बस यही करने के लिए हुआ है।’

बहरहाल, यदि पहले वर्ग के आयोजनों में किसी के द्वारा शिरकत की जा रही है तो वह खास तरह के वैचारिक अजैण्डा की जानकारी के साथ, उसके प्रति सहमति, प्रतिबद्धता या उत्सुकता से की जाएगी। और दूसरे वर्ग के आयोजन में शिरकत की जा रही है तो वह मूलतः मौज मस्ती, मेल-मिलाप, उत्सवधर्मिता और संबंधवाद के लिए। लेकिन प्रकारांतर से इस तरह लोग जाने-अनजाने किसी की महत्वाकांक्षा या छिपे हुए निजी अजैण्डा के सहभागी हो जाते हैं। और कई बार तो कृतज्ञ भी। जाहिर है कि शिरकत करते हुए तमाम लोग निजी रूप से निर्णय लेते हैं, अपना चुनाव करते हैं लेकिन फिर लाजिमी है कि वे जलसा उपरांत कुछ विचार भी करें। मसलन यह, कि आखिर क्या वे इन चीजों का वाकई हिस्सा होते रहना चाहते हैं!

ऐसा भी हो सकता है कि किसी आयोजन में विभिन्न विचारधाराओं से प्रेरित या विचारधाराहीन (??) लेखकों का जमावड़ा कराया जाए, उनके बीच मुठभेड़ कराई जाए और फिर उसे आयोजनकर्ता दिलचस्पी से देखें, अपनी स्पॉन्सरशिप का भरपूर आनंद उठाएँ। इसका कुछ विचारणीय पक्ष शायद तब भी हो सकता है कि जब वे कुछ गंभीर सवालों को खड़ा करें, उन्हें सूचीबद्ध करें, बताएँ कि ये महत्वपूर्ण निष्पत्तियाँ हैं, इन पर व्यापक विमर्श हो। इसलिए अपेक्षित होगा कि ये आयोजनकर्ता, औपचारिक तौर पर बताएँ कि इससे उनके किन उद्देश्यों की पूर्ति होती है और आगे भी इस तरह की ‘कांग्रेस’ करते रहने के पीछे उनकी क्या राजनीति, योजना, मंशा और आकांक्षा है। और इसे व्यापक करने की क्या रणनीति है।

निजी तौर पर यों मौज-मस्‍ती और हो-हल्‍ले का विरोधी नहीं हूँ लेकिन यह शायद आग्रह या दुराग्रह हो कि मैं हर उस आयोजन के समर्थन में आसानी से हूँ जिसका अजैण्डा जाहिर हो। भले ही, उनका वह आयोजकीय प्रयास असफल सिद्ध हो। कि मैं तत्संबंधी उद्देश्यों और आकांक्षाओं को पहले समझ तो लूँ। यानी फिर वही अमर सवालः ‘पार्टनर, तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है?’

पिछले कुछ वर्षों से यदि अजैण्डा आधारित आयोजन, विचारधारा संपन्न कार्यक्रम प्रचुरता से नहीं हो पा रहे हैं तो तमाम वामपंथी कहे और समझे जानेवाले लेखकों के लिए इसका अर्थ या विकल्प कदापि यह नहीं हो सकता कि अजैण्डाविहीन, मौजमस्ती मूलक आयोजनों में अपने को गर्क किया जाए।

और यह भी याद कर लेना यहाँ अप्रासंगिक न होगा कि दीर्घकालीन दृष्टि और किसी अजैण्डे के साथ काम करने से ही संगठन और संस्थाएँ बनती हैं। विमर्श आग्रगामी होता है। अजैण्डाविहीन ढ़ंग से काम करने से ‘गुट’ बनते हैं। भावुक, आभारी बनानेवाली, सी-सा मित्रताएँ बनती हैं। और इन्हीं सबके बीच आत्मतोषी रचनापाठ, कुछ आत्मीय विवाद, वैचारिक-उत्तेजनाविहीन कलह और आमोद-प्रमोद होता है। और यह किसी साहित्यिक आयोजन का अजैण्डा हो नहीं सकता।

इसलिए ऐसे आयोजनों को जब किसी उतावलेपन में, उत्साह में या अनुग्रहीत अनुभव करते हुए साहित्यिक उपलब्धि की तरह प्रचारित किया जाता है अथवा उस तरह से पेश करने की कोशिश की जाती है, इन आयोजनों के लिए फिर-फिर आकांक्षा प्रकट की जाती है तो कुछ सवाल नए सिरे से उठते हैं।
00000

मंगलवार, 4 सितंबर 2012

पुराने पन्‍नों से बरामद


यह कविता करीब दस बरस पहले की डायरी में से बरामद हुई। जो अभी अन्‍यथा अप्रकाशित ही है।
सोचा कि इसे यहॉं शेयर करूँ।


पहला शो

फिल्म का पहला शो देखने की किशोरावस्था की प्रतिज्ञा
और युवकोचित उत्साह की स्मृति में आए हैं हम यहाँ

भीड़ उसी तरह अपार है
और बुकिंग खिड़की के ठीक आगे उसी तरह अभेद्य
लेकिन अब कंधों पर चढ़ कर काउण्टर तक पहुँचना
न तो बस की बात है और न ही कोई तुक
जिन दूरियों पर आज हम यहाँ आ गए हैं सक्षम
वहॉं केवल सौ रूपए ज्यादा देने से मिल गई है निजात

टिकट जेब में हैं और पुराना उत्साह रंग मार रहा है
आने लगा है भीड़ का मजा
पहले शो का रोमांचवही फिकरेबाजी
तालियाँ,  सीटियॉं और एक हद के बाद न फिल्माए गए दृश्य की
स्‍वरों और व्‍यंजनों से होती क्षतिपूर्ति

इनमें शामिल होते हुए
लेकिन हम भीतर ही भीतर दूर छिटक रहे हैं धीरे-धीरे
जबकि इस पहले शो का कुल दृश्य उतना ही उत्तेजक
और उतना ही आय-हाय वाला है
जिसकी अव्यक्त चाह में हम चले आए हैं चार जन यहॉं

और इस जीवन के नये सिनेमा हॉल में
अचानक हो गए हैं ऐसे
             जैसे किसी प्राचीन श्वेत-श्याम वृत्तचित्र के हिस्से
जिसमें चलती तसवीरों और कहे गए संवादों के बीच का असंतुलन
तंद्रा को भंग करता है बार-बार।
00000

गुरुवार, 23 अगस्त 2012

चीजों को आहट से भी पहचानना चाहिए

इधर मध्य प्रदेश के संस्क़ति विभाग के अधीन संस्थाओं में से एक 'भारत भवन' में 'आज थियेटर कंपनी', नयी दिल्ली की 18 अगस्त की प्रस्तुति 'तमाशा न हुआ' के प्रसंग में दो खबरें प्रकाशित हुई हैं। पहली दैनिक भास्कर, भोपाल में और दूसरी जनसत्ता, दिल्‍ली में। जनसत्ता की खबर पर साथी सत्येंद्र रघुवंशी ने ध्यानाकर्षण किया। ये दोनों खबरें यहॉं इसलिए दी जा रही हैं कि इन्हें हमारे वक्तव्य में दर्ज अनेक चिंताओं से जोडकर देखा जा सकता है।
हमारे शामिल वक्‍तव्‍यों, 'सोने में जंग लगेगी तो फिर लोहा क्‍या करेगा' अंतर्गत  'सार्वजनिक साहित्यिक संस्‍थाओं का राजानीतिक रूपांतरण और लेखकों की प्रतिरोधी भूमिका' एवं ' सांस्‍कृतिक विकृतिकरण फासीवाद का ही पूर्वरंग है' इनके लिए इस ब्‍लॉग की पुरानी पोस्‍ट देख सकते हैं और यहॉं दिए गए लिंक सहित कई अन्‍य ब्‍लॉग्‍स पर भी जा सकते हैं। 

पहली खबर
दैनिक भास्कर, सिटी एडीशन, भोपाल, 19 अगस्त 2012
नाटक में भाजपा सांस्कृतिक प्रकोष्ठ के प्रदेश अध्यक्ष राजेश भदौरिया भी बतौर दर्शक मौजूद थे। उन्होंने नाटक के निर्देशक से कहा- 'मुझे लगता है यह नाटक पाकिस्तान में होना चाहिए था। आपने पाक की तरफदारी की है। असम के मसले पर आपने जो दिखाया वो ठीक नहीं था। इस पर निर्देशक का जवाब था-' ऐसा आपको लगता है, मुझे नहीं।'

राजेश ने बाद में बयान दिया कि नाटक के कलाकारों ने दो पक्षों के बीच बहस करते हुए गॉंधी और टैगोर पर कीचड़ उछाला है। नाटक में उनहोंने टैगोर को एक जगह देशद्रोही भी कहा। पाकिस्तान के प्रति सहानुभूति दिखाई और देश को अन्यायी कहा। कलाकारों के खिलाफ देशद्रोह का मामला दर्ज होना चाहिए। भारत भवन के अधिकारी भी दोषी हैं, उनके खिलाफ भी कार्यवाई होनी चाहिए।

दूसरी खबर
जनसत्ता 23 अगस्त, 2012:
भारतीय जनता पार्टी की निगाह में जनतंत्र और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए कितनी जगह है, इसका अंदाजा भोपाल की ताजा घटना से लगाया जा सकता है। वहां भारत भवन में रंगमंडल थिएटर उत्सव के दौरान बीते शनिवार की शाम भानु भारती के निर्देशन में ‘तमाशा न हुआ’ नाटक का मंचन था। रवींद्रनाथ ठाकुर के प्रसिद्ध नाटक ‘मुक्तधारा’ पर आधारित इस नाटक में विभिन्न पात्रों के कुछ संवाद, भाजपा के सांस्कृतिक प्रकोष्ठ के संयोजक को इतने आपत्तिजनक लगे कि उन्होंने उसे राष्ट्रविरोधी तक घोषित कर डाला और मामला उच्चाधिकारियों तक ले जाने की बात कही।

इसके पहले भाजपा ने ‘नील डाउन ऐंड लिक माइ फीट’ नाटक पर भी आपत्ति जताते हुए उसे ‘पवित्र’ भारत भवन में मंचित होने से रोक दिया था। मध्यप्रदेश में भाजपा की सरकार है, इसलिए शायद उसके कार्यकर्ताओं को अपने मन-मुताबिक सांस्कृतिक पहरेदारी करने में सुविधा हो सकती है। लेकिन जिस तरह वे ‘तमाशा न हुआ’ नाटक को राष्ट्रविरोधी बता कर उसके खिलाफ वितंडा खड़ा करने में लगे हैं, वह किसी के गले नहीं उतर रहा। यह नाटक देश के अलग-अलग हिस्सों में कई बार मंचित हो चुका है और हर बार उसकी सराहना हुई है। इसमें ‘मुक्तधारा’ के पूर्वाभ्यास के बहाने गांधीवाद, मार्क्सवाद, रवींद्रनाथ ठाकुर के विचार, यांत्रिकता, मनुष्य, प्रकृति और विज्ञान के बीच संबंधों पर किसी भी खास विचारधारा में बंधे बिना निर्देशक और पात्रों के बीच गंभीर बहस होती है।

कोई भी सुलझा हुआ व्यक्ति ऐसी बहस को एक स्वस्थ और जनतांत्रिक समाज की निशानी मानेगा। लेकिन भाजपा के सांस्कृतिक पहरुओं को केवल एक बात याद रह जाती है कि इसमें एक जगह भारत-बांग्लादेश सीमा पर फरक्का बांध और चिनाब नदी पर बगलिहार पनबिजली परियोजनाओं के कारण बांग्लादेश और पाकिस्तान के नागरिकों के सामने पैदा होने वाले संकट की चर्चा की गई है। सिर्फ इसी वजह से भाजपा ने इस नाटक को यहां के बजाय पाकिस्तान में मंचित करने की सलाह दे डाली।

विचित्र है कि जिन बहसों और बातचीत से एक प्रगतिशील समाज की बुनियाद मजबूत होती है, वे भाजपा के अनुयायियों को राष्ट्रविरोधी लगती हैं। सवाल है कि क्या वे ऐसा समाज चाहते हैं जहां विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और बहस के लिए कोई जगह नहीं होगी? अब तक आमतौर पर आरएसएस से जुड़े बजरंग दल, विश्व हिंदू परिषद या श्रीराम सेना जैसे कट्टरपंथी धड़े ऐसी असहिष्णुता दर्शाते रहे हैं। मकबूल फिदा हुसेन के चित्रों की प्रदर्शनी से लेकर कला माध्यमों में मौजूद प्रगतिशील मूल्य उन्हें भारतीय संस्कृति के लिए खतरा नजर आते हैं और उनका विरोध करने के लिए वे हिंसा का सहारा भी लेते रहे हैं। लेकिन सच यह है कि खुद भाजपा भी भावनात्मक मसलों को अपनी राजनीति चमकाने के लिहाज से फायदेमंद मानती रही है, इसलिए उन्हें मुद्दा बनाने का वह कोई मौका नहीं चूकती।

सत्ता में आने पर अपने एजेंडे पर अमल करना उसके लिए और सुविधाजनक हो जाता है। गौरतलब है कि मध्यप्रदेश में संस्कृति की रक्षा के नाम पर सभी सरकारी और स्थानीय निकायों में ‘वंदे मातरम’ का गायन अनिवार्य कर दिया गया है, स्कूल-कॉलेजों में फैशन शो पर पाबंदी लगा दी गई है और करीब एक दर्जन शहरों को पवित्र घोषित करके वहां खाने-पीने की चीजों को लेकर कई तरह के फरमान जारी किए गए हैं। देश की जनतांत्रिक राजनीति में खुद को एक ताकतवर पक्ष मानने वाली भाजपा को यह सोचना चाहिए कि अभिव्यक्ति की आजादी का सम्मान करना उसका पहला दायित्व है।

सोमवार, 20 अगस्त 2012

सोने में जंग लगेगी तो फिर लोहा क्‍या करेगा- दूसरी किश्‍त

वक्तव्यः अगला हिस्सा
भोपाल, 16 अगस्त 2012


सांस्कृतिक विकृतीकरण फासीवाद का ही पूर्वरंग है
(सोने में जंग लगेगी तो फिर लोहा क्या करेगाः दूसरी किश्त)

हमारे पिछले वक्तव्य पर साहित्य-समाज में विपुल सहमति से स्पष्ट है कि खासतौर पर मध्यप्रदेश में साहित्य-संस्कृति के क्षेत्र में पैदा किये गये और लगातार पैदा किये जा रहे नये-नये संकटों के प्रति एक व्यापक चिंता है। साथ ही प्रतिरोधात्मक कार्रवाही के लिए अधिकांश रचनाकारों और संस्कृतिकर्मियों में बेचैनी है और प्रतिवाद भी। तमाम अग्रज और युवा रचनाकार साथियों के समर्थन के प्रति कृतज्ञता के साथ, अब हम उनके सुझावों की रोशनी में कुछ बातें जोड़ना चाहते हैं और कुछ बिंदु अधिक स्पष्ट कर देना चाहते हैं जिससे प्रतिरोध को तीक्ष्ण किया जाकर, उसे कुछ और विस्तृत आधार दिया जा सके।

1. मध्यप्रदेश की वर्तमान सरकार के संस्कृति विभाग के अधीन कार्यरत समस्त सांस्कृतिक उपक्रमों यथा अकादमियों, परिषदों, सृजनपीठों और भारत भवन न्यास के कार्यकलापों एवं नीतियों के ख़िलाफ़ हमारा विरोध सकारण है और साफ तौर पर वैचारिक भी। लेकिन यह सिर्फ भारत भवन न्यास के विरोध तक सीमित नहीं है, जैसा कि वातावरण बनाया गया है। लेकिन हम भलीभांति परिचित हैं कि भारत भवन न्यास भी म.प्र. सरकार के सुविचारित, राजनीतिक और सांस्कृतिक एजेण्डे के तहत काम करनेवाली संस्था है। यह भी कहा जा सकता है कि वह म.प्र. सरकार की सांस्कृतिक-राजनीतिक नीतियों पर एक मुखौटा है जो बेहद चालाकी के साथ, कुछ महत्वपूर्ण और मान्य रचनाकारों की सहभागिता को प्रेरित और नियोजित कर, वर्तमान सरकार की ढकी-छिपी मंशाओं के कलुष और राजनीतिक इरादे को छिपाने की कोशिश कर रहा है। (कुछ समय पहले तक यहाँ के न्यासियों में चल रही अन्तर्कलहों ने भी इसे निर्लज्जता के साथ उजागर कर दिया था।) बहरहाल, संस्कृति विभाग के अधीन संस्थाओं में कार्यरत किसी भी कर्मचारी-अधिकारी से हमारा किसी प्रकार का व्यक्तिगत विरोध नहीं है, अगर कोई ऐसा मानता है तो यह उसकी नासमझी है, भ्रम है और मूल मुद्दे से भटकाने की हास्यास्पद कोशिश है। हम संस्कृति विभाग के सभी उपक्रमों, पत्रिकाओं और निकायों का अपने विचारधारात्मक कारणों से विरोध करते हैं। विगत आठ नौ वर्ष पूर्व तक महत्वपूर्ण मानी जाने वाली साहित्यिक पत्रिका ‘साक्षात्कार’ से दूरी भी इसी बात का एक और सहज प्रमाण है।

2. जैसा कि पिछले वक्तव्य में कहा था कि हमारा मुख्य विरोध इन संस्थाओं के राजनीतिक रूपांतरण को लेकर है। कुछ लोग इन स्थितियों के प्रति आँखें बंद कर लेना चाहते हैं, उनसे हम कहना चाहते हैं कि आज प्रतिवाद की जितनी जरूरत है, उतनी ज्यादा शायद पहले कभी नहीं थी। अन्य प्रदेशों में भी ऐसी ही स्थितियाँ बनी हैं और वहाँ भी प्रतिरोध की जरूरत बढ़ती जा रही है। सांस्कृतिक विकृतीकरण फासीवाद का ही पूर्वरंग है। इसलिए अकादमियों, न्यासों, परिषदों और सृजनपीठों पर नीमहकीम, असाहित्यिक, कलाविहीन, वैचारिक रूप से दरिद्र और दक्षिणपंथी लोगों को बैठाया जाता है तो उसका संज्ञान लेना ज़रूरी है। यदि यह राजनीतिक एजेंडे के तहत किया जा रहा है तो मामला अधिक गंभीर हो जाता है। महज अपनी पसंद का आदमी बैठाया जाना और अपनी विचारधारा के आदमी को पदासीन कराना, इन दो चीजों में जमीन-आसमान का फर्क होता है। हम स्मरण कर सकते हैं कि फासिज्म को संस्कृति के औजारों से लागू करना एक पुराना लेकिन धोखादेह कारगर तरीका रहता आया है। साथ ही, हिन्दी भाषा और साहित्य के उन्नयन और सांस्कृतिक-साहित्यिक अस्मिता को बनाने, बचाने के लिये स्थापित अनेक संस्थाएँ, यथा सम्मेलन और प्रचारिणी सभाएँ भी आज ऐसे लोगों का अड्डा बन कर रह गयी हैं जिनका हिन्दी या उसके साहित्य से दूर का भी रिश्ता प्रतीत नहीं होता। उत्तर प्रदेश, बिहार, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, दिल्ली या राजस्थान का दृश्य भी मध्यप्रदेश से बहुत अलग नहीं है। हम रेखांकित करना चाहते हैं कि समय आ गया है जब हिन्दी भाषा और साहित्य-हित के लिये बनाई गयी तमाम संस्थाओं की दुर्दशा और विरूपीकरण की कोशिश के ख़िलाफ़ एक समुचित प्रतिरोधात्मक कार्रवाही भी लेखकों और संस्कृतिकर्मियों द्वारा शुरू की जाये।

3. यह वक्तव्य न तो पहले हस्ताक्षर अभियान था और न अब है। हमने अनुरोध करते हुए इन स्थितियों के प्रति ध्यानाकर्षण किया था कि रचनाकार साथी इस सारी स्थिति पर विचार करते हुए तय करें कि वे किसके साथ हैं, क्योंकि हम आश्वस्त हैं कि तमाम सुविज्ञ साहित्य संस्कृतिकर्मी अपनी पक्षधर्मी विवेक चेतना से अपना निर्णय लेने में सक्षम हैं। लेकिन हम कोई याचनापत्र जारी नहीं कर रहे हैं और न ही किसी तरह का कोई नेतृत्व करने की लालसा यहाँ है। हम सिर्फ हमारा वैचारिक और विचारधारात्मक पक्ष रख रहे हैं। दक्षिणपंथी राजनीति और उसकी सरकारों के प्रति हमारा रुख हमेशा से ही स्पष्ट है।

4. पूंजीवादी-लोकतान्त्रिक और दक्षिणपंथी राजनीतिक दलों की सरकारों की हमारी आलोचना, उनसे हमारा सम्बंध और संघर्ष हमेशा ही विचारधारात्मक होगा। लेकिन अन्यान्य विचारों के महत्वपूर्ण रचनाकारों के अवदान के प्रति हमारा आदर और कृतज्ञता कभी भी औछी नहीं रही है। हमारा विरोध साहित्यिक और सांस्कृतिक संस्थाओं को पर्देदारी के साथ जनविरोधी, राजनीतिक मंशाओं के उपक्रम बनाये जाने से है। हमारा विरोध वस्तुतः साहित्य संस्कृति की सार्वजनिक संस्थाओं के विकृतिकरण और उन पर अयोग्य व्यक्तियों के काबिज़ होने से है। हम जानते हैं कि वैचारिक आधार पर प्रतिरोध के दौरान औसतन तीन तरह के लोग सामने आते हैं। एक वे, जिनका प्रतिरोध की लंबी परंपरा के सुसंयोग के कारण फिलहाल हिन्दी के दृश्य में बहुलांश है, जो प्रस्तुत स्थितियों पर गंभीरता से विचार करते हुए बहुत ठोस आधार पर समर्थन देते हैं। दूसरे, वे जो अपनी दक्षिणपंथी या वामविरोधी वैचारिकता के कारण स्पष्ट तौर पर एक विपक्ष बनाते हैं। और तीसरे वे, जो कहीं नहीं रहना चाहते, जो कहीं भी प्रतिबद्ध नहीं हैं, जो हर बात को चुटकुले में, अंगभीरता और चलताऊ टिप्पणी में बदल देना चाहते हैं ताकि वे अपनी प्रतिभाहीनता के साथ कोई सेंध लगा सके, गुब्बारे लपक सकें। वे हर प्रतिबद्ध लड़ाई को अपने निजी मौके या निजी शत्रुता की तरह ही देख पाते हैं अथवा मजावादी वातावरण बनाने की कोशिश करते हैं। यह भी दिलचस्प है कि इधर इनके साथ ऐसे भूतपूर्व मार्क्सवादी, संप्रति उत्तर-आधुनिक, पॉपुलर संस्कृति के समर्थक भी प्रकट हुए, जिनके पास विचार और भाषा की गजब दरिद्रता है लेकिन वे हर जगह अपनी प्रकृति के अनुरूप हास्यास्पद या विचारहीन टिप्पणी करते हैं। वे वाहन में जुते न होकर भी उसे खींचने के भ्रम में रहते हैं। उनसे हमारा निवेदन है कि महोदय, आसमान आपकी टांगों पर नहीं टिका है, इन्हें नीचे कर लीजिये वरना इनका अन्यथा अर्थ भी प्रकट ही है। इनमें से पहले वर्ग के साथी हमारे नैसर्गिक मित्र हैं ही। अन्य से संघर्ष है और रहेगा, इसमें न हमें कभी संदेह था, न अब है। तमाशबीनों से हम सिर्फ इतना कहेंगे कि इतिहास किसी को क्षमा नहीं करता।

5. किसी भी साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्था में सहभागिता का निर्णय आधारहीन नहीं हो सकता। वह एक सचेत, सजग और वैचारिक निर्णय होता है, अवसरवादी नहीं। हम न तो अंध विरोध करना चाहते हैं न अंध समर्थन। लोकतान्त्रिक संस्थाओं का फासीवादी रूपांतरण किया जायेगा तो हम उसका विरोध करेंगें। प्रतिवाद का यह न पहला मौका है और न अन्तिम। हम विश्वास करते हैं कि सही लक्ष्य के लिये उठी धीमी और एकल आवाज़ें भी जरूरी होती हैं। समय-समय पर वामपंथी लेखक संगठनों द्वारा भी प्रतिरोध के निर्णय लिए ही गए हैं, जो वर्तमान में भी लागू हैं। अनेक बार संस्थाओं के बहिष्कार हुए हैं, फिर आवाजाही हुई है और जरूरत पड़ने पर फिर प्रतिवाद किया गया है। इस तरह का कोई भी विरोध स्थिर या व्यक्तिगत नहीं होता। कई बार लेखकों का एक समूह भी निर्णय लेता है, उसे अनेक साथी आगे बढ़ाते हैं और सोच समझकर अपनी तरह से शरीक होते हैं या उतना ही सोच समझकर कुछ लोग प्रतिरोध में शामिल नहीं होते। इसमें विचित्र कुछ भी नहीं, न ही कोई अंतर्विरोध है। यह सुखद है कि जन विरोधी, साहित्य-संस्कृति विरोधी एवं फासीवादी सत्ता संरचनाओं के विरुद्ध प्रतिरोध की परंपरा वर्तमान तक चली आती है और हम उसके हिस्से है। लेकिन यहाँ यह भी याद किया जा सकता है कि दुनियाभर में ऐसी सत्ता-संरचनाओं का विरोध करने में जब-जब भी लेखकों ने कोताही बरती है तब तब उसके दुष्परिणाम समाज के सामने आए हैं।

6. लगभग नौ बरस पहले ही हमने इन संस्थाओं में सहभागिता नहीं करने का निर्णय ले लिया था। तबसे हम लगातार मध्यप्रदेश सरकार की साहित्यिक और सांस्कृतिक संस्थाओं की गतिविधियों को देखते रहे हैं। समय-समय पर स्थानीय स्तर पर इनका विरोध भी करते रहे हैं लेकिन हमें लगा कि अब इस विरोध को व्यापक और अधिक प्रभावी बनाये जाने का समय आ गया है। सबकी तरह हमारी भी कुछ सहज सीमाएँ हैं। यह संभव भी नहीं कि सारी खबर कुल दो-चार लेखक ही रखें और हर विषय को, सांस्कृतिक प्रतिरोध के किसी एक पर्चे में और एक ही वक्तव्य का हिस्सा बना दें। हम विभिन्न क्षेत्रों में चल रहे जनांदोलनों में भी सामर्थ्यभर हिस्सेदारी करते रहे हैं। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि समाज के अन्य संकटों के सामने संस्कृति के संकट को कमतर करके देखा जाये या जिस समय अन्य क्षेत्रों में जनविरोधी गतिविधियाँ हो रही हों तब संस्कृति और साहित्य के क्षेत्र के संकट पर चुप लगा ली जाये। यह सोच एक उग्र बचकानेपन से ज्यादा कुछ नहीं है। हम चाहते हैं कि सभी प्रदेशों के रचनाकार साथी अपने प्रदेश की ऐसी साहित्यिक सांस्कृतिक संस्थाओं के विरूपीकरण के विरोध के लिये प्रतिरोध की कार्रवाही की शुरूआत करें। कुछ व्यापक कार्य हर जगह, हर शहर, प्रत्येक लेखक संगठनों, साथियों और एक्टिविस्ट लोगों की सामूहिकता और पक्षधर पहलकदमी से संभव है। जो हमसे छूट रहा है, उसे वे पूरा करें। हम हर ऐसे विरोध में साथ होगें।

एक बार फिर सभी रचनाकारों और संस्कृतिकर्मियों से आग्रह करते हैं कि इस भयावह होते जाते संकट को कम करके न आँके। सोचें और प्रतिरोध की रणनीति तय करें। मुक्तिबोध के सवाल को यहाँ फिर पूछा जाना अप्रसांगिक न होगा कि तय करो कि तुम किसके साथ हो? और यह भी कि पार्टनर, तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है?


 राजेश जोशी              
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