बुधवार, 18 फ़रवरी 2009

'सर्वाइवल ऑव द फिटेस्‍ट'

डायरी का एक और अंश। कि कुछ बातचीत जारी रहे।

04.09.97
`सर्वाइवल ऑव द फिटेस्ट´ -सर्वोपयुक्त का बचना, `प्रजातियों के विकास´ के महान वैज्ञानिक डार्विन के इस सिद्धांत को लोग इधर `सभ्यता और समाज के विकास´ के संदर्भों में उदाहरण की तरह देने लगते हैं। यह आधारभूत स्तर पर कुतर्क है।

`समाज का विकास´ और `प्रजातियों का विकास´ दो अलग-अलग चीजें हैं। अब जैसे पूँजीवादी व्यवस्था के साँचे में देखा जाए तो यही सिद्धांत कितना भयावह लगने लगता है। स्पष्ट है कि जो असहाय है, शोषित है, निर्धन है और निर्बल है, वह पूँजीवादी समाज में सर्वोपयुक्‍त हो नहीं सकता। तब वह कैसे बचेगा ! प्राकृतिक विकासमान व्यवस्था के इस सिद्धांत को एक अप्राकृतिक, कृत्रिम व्यवस्था में रख भर देने से उसके मायने और व्यंजना कितनी बदल जाती है। बैंक में काम कर रहे हमारे मित्र कहते हैं कि बचेगा बिलकुल बचेगा। जो असहायों में, निर्बलों और निर्धनों में सर्वाधिक उपयुक्त होगा, वह बच जाएगा। तर्क है। लेकिन यह तर्क पूँजीवादी समाज के दर्शक-नागरिक की तरफ से है। जबकि बहुत साफ है कि जो बचेगा वह 'जैविक रूप से एक सबसे सहनशील' आदमी भर होगा। लेकिन क्या वह समाज के ताकतवर और आत्मीय हिस्से की तरह बचेगा ?


जो बचेगा वह `कोरू´ होगा। मुझे हावर्ड फास्ट के (अमृतराय द्वारा अनूदित उपन्यास) `आदिविद्राही´ के उस प्रसंग की याद आ रही है जहाँ `कोरू´ का मतलब बताया गया है। यानी तीन पीढ़ियों का गुलाम। सोने की खानों में बेहद मुश्किल परिस्थतियों में काम कर सकने वाले गुलाम के बेटे का बेटा। इजिप्ट की जबान में एक तरह का गलीज जानवर, पेट के बल घिसटने वाला। एक ऐसा जानवर जिसे दूसरे जानवर भी नहीं छूते। इतनी कठिन परिस्थितियों में (और न्यूनतम से भी जो कुछ कम हो सकता है उतना खाना खाते, पानी पीते और नींद लेते हुए) सैंकड़ों में से एकाध गुलाम बच पाता है और ऐसे बचे हुए गुलामों की तीसरी पीढ़ी। जो विद्रोह के बारे में सोच ही नहीं सकती। वह अपने को मनुष्य ही नहीं मान सकती। मुक्ति का कोई स्वप्न उसके पास रह नहीं जाता। यह होगी वह `कोरू´ प्रजाति, जो असहायों, अशिक्षितों और गरीबों, श्रमिकों की तीसरी पीढ़ी के रूप में, यदि `सर्वाइवल ऑव द फिटेस्ट´ के चलते, पूँजीवादी समाज में बच भी पाई तो ! मालिकों के लिए तो इस प्रजाति की जरूरत हमेशा से है। क्योंकि यह अपनी मुक्ति के बारे में विचार ही बमुश्किल कर पाएगी और कोई भी संभव मुक्तिदाता उन्हें संगठित ही कैसे कर पाएगा !

यह दास प्रथा का कितना अधिक परोक्ष और अमानवीय संस्करण है। अपने आप को न्यायपूर्ण घोषित करता हुआ। गरीबों को, मजदूरों को, दु:खीजन को सिर्फ अकर्मण्य बताता हुआ।
मेरा देश इसी रास्ते पर चल निकला है। तत्काल मुक्ति का कोई मार्ग नहीं दिखता।

00000

पुनश्च् !

इस `कोरू´ शब्द को हम यदि सरकारी नौकरियों और जीवन के अन्य व्यवसायों में जुटे शोषण तंत्र के हिस्से हो गए लोगों पर भी लागू करें तो बड़ी मजे़दार और व्यावहारिक व्यंजना बनती है। जैसे `कोरू साहूकार´, `कोरू राजनीतिज्ञ´ और `कोरू आई.ए.एस.´ ! लेकिन ये खास लोग हर पीढ़ी के साथ कितने संगठित, चालाक और भयावह होते जाते हैं। एक पूँजीवादी व्यवस्था के सुचारू और निर्विघ्न रूप से चालन के लिए इन `कोरू अत्याचारियों´ और उन `कोरू गुलामों´- दोनों की कितनी जरूरत है !
दोनों में से कोई मनुष्य नहीं रह पाता है। यह कितना भयानक है।
00000

सोमवार, 9 फ़रवरी 2009

प्रतिबद्धता और कट्टरता

यहॉं डायरी एक और हिस्‍सा दे रहा हूँ। कुछ अन्‍य अंश बाद में।
20 मई 2002
प्रतिबद्धता को लेकर कुछ लोग लगातार इस तरह बात करते हैं मानो प्रतिबद्ध होना, कट्टर होना है। जबकि सीधी-सच्ची बात है: कि प्रतिबद्धता समझ से पैदा होती है, कट्टरता नासमझी से। प्रतिबद्धता वैचारिक गतिशीलता को स्वीकार करती है, कट्टरता एक हदबंदी में अपनी पताका फहराना चाहती है। प्रतिबद्धता दृढ़ता और विश्वास पैदा करती है, कट्टरता घृणा और संकीर्ण श्रेष्ठी भाव। प्रतिबद्ध होने से आप किसी को व्यक्तिगत शत्रु नहीं मानते हैं, कट्टर होने से व्यक्तिगत शत्रुताएँ बनती ही है। प्रतिबद्धता सामूहिकता में एक सर्जनात्मक औज़ार है और कट्टरता अपनी सामूहिकता में विध्वंसक हथियार। प्रतिबद्धता आपको जिम्मेवार नागरिक बनाती है और कट्टरता अराजक।
जो प्रतिबद्ध नहीं होना चाहते हैं, वे लोग कुतर्कों से प्रतिबद्धता को कट्टरता के समकक्ष रख देना चाहते हैं।
00000