सोमवार, 18 जनवरी 2010

गद्य के कुछ नमूने

गद्य के कुछ नमूने


1 ईश्‍वर रेडियम, ईथर अथवा कोई वैज्ञानिक योग है। ईश्‍वर एक रासायनिक प्रतिक्रिया है।

2 आप यह बता सकते हैं कि आपने क्‍या स्‍वप्‍न देखा और तोते ने क्‍या कहा क्‍योंकि पक्षी एक अयोग्‍य गवाह है।

3 उनके चेहरे पत्‍थरों पर नमक से बने चेहरों के समान थे।

4 न्‍यूयॉर्क किसी के भी लिए इतने प्रलोभन पैदा कर देता है कि कोई भी अपव्‍ययी हो जाता है।

5 मैं कपड़ों में आश्‍चर्यजनक सौदेबाजी और सुई-धागे से किया गया चमत्‍कार देखता आया हूं।

6 उसने चटखे हुए दर्पण में स्‍वयं को देखा। प्रतिबिम्‍ब संतोषजनक था।

7 जीवन अपने रहस्‍यमय घूंघट का एक कोना उसके लिए उठाने जा रहा था ताकि वह इसके आश्‍चर्य देख सके।

8 वह ऐसा दिखता था मानो एक रहस्‍यमय दुख में हो और उसकी शानदार मूंछें एक स्‍वप्‍न की तरह थीं।

9 वह उसे ऐसे देखता रहा जैसे रेगिस्‍तान में स्थित स्फिंक्‍स की मूर्ति तितली को देखती, यदि रेगिस्‍तान में तितलियां होतीं।

गद्य के ये नौ बिंदुओं में उदाहरण, ये कुछ वाक्‍य ओ हेनरी की एक कहानी में से चुने गए हैं।
कभी 'एक अधूरी कहानी' पढ़ते हुए मुझे ये वाक्‍य गद्य के अविस्‍मरणीय नमूनों की तरह लगे थे और उन्‍हें मैंने डायरी में लिख लिया था, यह सोचकर कि इन सब पर, पृथक पृथक कहानियां या कविताएं लिखूंगा। सं‍दर्भित कहानी के शीर्षक की तरह मेरे लिए यह बात अभी अधूरी ही है। लेकिन इनको यहां पढने का सुख तो सब तक पहुंचाया ही जा सकता है।

गुरुवार, 14 जनवरी 2010

एक सिम्‍फनी है

अकेली गहराती रात में एक खिडकी के पीछे एक अनाम लैम्‍प जल रहा है। जैसे इस लैम्‍प के जलने से ही यह रात इतनी गहरी है। लगता है कि मैं जगा हुआ हूं, अंधेरे में अपनी कल्‍पनाओं में डूबा, बस इसी वजह से ही उधर, वहां रोशनी है।

शायद हर चीज इसलिए जीवित है क्‍योंकि कुछ और भी है जो साथ में जीवित है।
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कोहरा या धुआं।
क्‍या यह धरती से उठ रहा था या आकाश से गिर रहा था। जैसे यह वास्‍तविकता नहीं है, अपनी आंखों की ही कोई पीड़ा है। जैसे कुछ ऐसा घटित होनेवाला है, जिसे हर चीज में अनुभव किया जा सकता है, उसी घटना की आशंका में दृश्‍यमान संसार ने अपने आसपास कोई परदा खींच लिया है।

दरअसल, आंखों के लिए यह कोहरा शीतल है लेकिन छूने पर ऊष्‍ण, जैसे दृष्टि और स्‍पर्श किसी एक ही अनुभव को जानने के लिए नितांत दो अलग तरीके हैं।
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उदास प्रसन्‍नता के साथ कभी-कभी मैं सोचता हूं कि मेरे ये वाक्‍य जिन्‍हें मैं लिखता हूं, भविष्‍य में किसी एक दिन, जिसका मैं हिस्‍सेदार भी नहीं होऊंगा, प्रंशसा के साथ पढे जाएंगे, आखिर मैं उन लोगों को पा सकूंगा जो मुझे 'समझ' सकेंगे, मेरे अपने लोग, एक मेरा वास्‍तविक परिवार जो अभी पैदा होना है और जो मुझे प्‍यार करेगा। लेकिन उस परिवार में मैं पैदा नहीं होऊंगा बल्कि मैं तो मर चुका होऊंगा। मैं किसी चौराहे की प्रतिमा की तरह रहकर समझा जाऊंगा, और इस तरह मिला कोई भी प्रेम, उस प्रेम के अभाव की भरपाई नहीं कर पाएगा जिसका अनुभव मुझे अपने जीवनकाल में होता रहा।
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मेरी आत्‍मा एक अजाना आर्केस्‍ट्रा है। मैं नहीं जानता कि कौन से वाद्ययंत्र, कौन सी सारंगी और वीणा के तार, नगाड़े और ढपलियां मैं अपने भीतर बजाता हूं या उनको झंकृत करता हूं।
कुल मिलाकर जो मैं सुनता हूं वह एक सिम्‍फनी है।
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फर्नेन्‍दो पेसोआ की चर्चित डायरी और मेरी प्रिय किताब 'द बुक ऑफ डिस्‍क्‍वाइट' की अनेक पंक्तियां ऐसी हैं जो बार-बार पढता हूं। अपने नाम के अनुरूप ही यह किताब व्‍याकुल बनाने में सक्षम है। एक सर्जनात्‍मक व्‍याकुलता इसमें व्‍याप्‍त है। उन सैंकडों पंक्तियों में से कुछ यहां लिख दी हैं।
यों ही। टूटे-फूटे अनुवाद में। नए साल की शुभकामनाओं के साथ।