मंगलवार, 1 मई 2012

एक दिन मन्‍ना डे

कल दो-तीन मित्रों ने याद दिलाया कि एक मई मन्‍ना डे का जन्‍म दिन है और वे इस कहानी को पढ़ना चाहते हैं। 
किंचित देरी से ही सही, यह कहानी यहॉं पोस्‍ट कर रहा हूँ,शायद कुछ और लोगों की दिलचस्‍पी भी हो।


कहानी
एक दिन मन्ना डे

छियासी बरस के मन्ना डे उस दिन शहर में आए थे। जीवनकाल में ही अमर हो चुके अपने अनेक गीतों को गाने के लिये। कार्यक्रम का ज्यादा प्रचार नहीं हुआ लेकिन धीरे-धीरे खबर फैलती गई कि मन्ना डे शहर में आज गाना गाएँगे। आमंत्रण पत्र से प्रवेश था। फिर भी रवीन्द्र भवन पूरा भर चुका था। सीढि़यों पर, गैलरी में, रास्ते में लोग बैठे हुये थे या खड़े थे। सब उम्मीद कर रहे थे कि मन्ना डे इस उमर में भी कम से कम चार-छः गीत तो गाएँगे ही। लेकिन उन्होंने लगभग ढाई घंटे तक गाया और पच्चीस-तीस गीत गाए। सब लोगों ने नॉस्टेल्जिक अनुभूतियों के साथ, खुशी जताते हुए, तालियाँ बजाते हुए उन्हें सुना। मुझे भी बड़ा सुख मिला। मन्ना डे जैसे बड़े पाश्र्व गायक को सीधे सुनने का आनंद और संतोष हुआ।

रात नौ बजे कार्यक्रम समाप्त हुआ, भीड़ के साथ सीढि़याँ उतरते हुए मुझे ‘प्रसाधन’ लिखा देखकर ख्याल आया कि इस बीच फारिग हो लूँ। भीड़ भी छँट जाएगी और तब आराम से घर जा सकूँगा। मैं जाकर खड़ा हुआ ही था कि बगल में एक आदमी कुछ निढाल-सा, थके कदमों से आया और पेशाब करने लगा। मैंने उसकी तरफ देखा, वह रुआँसा हो रहा था। निगाह मिलने पर वह कुछ सकपका गया और नजर चुराने लगा। मैंने पूछा- ‘आपको कैसे लगे मन्ना डे? उनकी आवाज से लगता नहीं है न कि वे छियासी साल के हैं?’
यकायक वह आदमी रोने लगा। मैं घबरा गया। मुझे लगा कि शायद मैंने कुछ गलत बात कह दी। वह एक बाँह से आँसू पोंछने लगा। मैंने सोचा कि उसे ढाढ़स बँधाना चाहिए। जिप खींचकर मैं एक तरफ खड़ा हो गया कि जब यह इधर आए तो इससे सांत्वना के कुछ शब्द कहूँ। मैं खुद को कहीं न कहीं अपराधी समझ रहा था। वह जैसे ही पलटा मैंने कहा- ‘माफ करें, शायद मैंने कुछ ऐसी बात पूछ ली जो आपको अच्छी नहीं लगी।’
‘नहीं भाई, आपकी बात से कुछ नहीं हुआ। मुझे तो पहले से ही रोना आ रहा था।’ उसने भर्रायी आवाज में कहा।
मुझे आश्वस्ति हुई कि चलो, मेरी वजह से इसे कुछ नहीं हुआ।
‘जैसे ही आपने कहा कि लगता नहीं वे छियासी के हैं, मैं अपने आँसू रोक नहीं पाया।’
‘इसमें ऐसा क्या कह दिया मैंने?’
‘अब क्या बताऊँ आपको! इस उमर में, बुलंद आवाज में, पूरे पक्के सुरों में उनके गाने सुनते हुए दरअसल मुझे यह ख्याल सताने लगा कि एक दिन मन्ना डे.....।’ वह कुछ कहते-कहते रुक गया।
‘एक दिन मन्ना डे, क्या? क्या मतलब?’
‘अरे भाई, मुझे अचानक यह ख्याल आया कि एक दिन मन्ना डे इस दुनिया में नहीं रहेंगे। तबसे यह कुविचार मेरा पीछा कर रहा है। मैं इससे पीछा नहीं छुड़ा पा रहा हूँ।’

मुझे समझ नहीं आया कि इस भले आदमी से आखिर क्या कहूँ। इसकी बात पर हँस दूँ, इसे समझाऊँ या टाल कर चल दूँ। उस आदमी की मुद्रा गंभीर थी। वह किसी गहरी तकलीफ में दिख रहा था। मैंने विषयांतर करने के लिए, एक तरह से उसका ध्यान बाँटने के लिये कहा- ‘चलिए, नीचे चलते हैं, रेस्टॉरेंट में चाय पीते हैं। आपके पैन्ट्स की जिप खुली है।’ आखिरी वाक्य मैंने इस तरह कहा कि उसे बुरा न लगे। उसने अनमने मन से जिप खींची और बोला- ‘ठीक है, आप भी चाय पीना चाहते हैं तो चलिये।’
हम रेस्टाॅरेंट के एक शांत कोने की टेबुल की तरफ गए। वह अभी तक संयत नहीं हुआ था।
‘देखिए, आप यह मत समझिए कि मन्ना डे के लिए मैं ऐसा सोच रहा हूँ। बल्कि यह सोचना मुझ पर कितना भारी पड़ रहा है, मैं ही जानता हूँ।’
‘अब कुछ तो मैं भी जानता हूँ।’ मैंने मुसकराते हुए कहा। लेकिन उस पर इस परिहास का कोई प्रभाव नहीं पड़ा।
‘लगता है आप इस बात पर भावुक हो गए हैं, कुछ हद तक डिप्रेशन में आ गए हैं।’ कहते हुए मैंने सोचा कि शायद सहानुभूति से ही इस आदमी को उबारा जा सकता है।

घटनाक्रम ऐसा बनता गया कि मुझे इस अतिनाटकीयता में रुचि हो गई या कहूँ कि एक तरह से मैं फँस गया। और अब मैं घर जाने की बजाय यहाँ इस आदमी के साथ, जिसका नाम तक नहीं जानता, दो चाय का आॅर्डर देने के बाद बैठा हुआ था। मेरा कमरा पास में ही, पाँच मिनट की पैदल दूरी पर था। वह अभी भी गंभीर और उदास था। इस स्थिति में किसी औपचारिक परिचय के लेन-देन की गुंजाइश नहीं निकल रही थी।
‘जब उन्होंने गाया ‘फुलगेंदवा न मारो’, मैं मारे खुशी के झूम उठा। क्या तान थी, क्या उठान और इतनी गहरी, साफ-सुथरी आवाज कि कभी रेडियो या कैसिट पर न सुनी थी। इतनी उमर के बावजूद एक भी सुर गलत नहीं लगाया। और भाई, इसी दौरान मुझे यह दुष्ट ख्याल आ गया कि एक दिन मन्ना डे नहीं रहेंगे। इतना नायाब गायक हमारे बीच नहीं रहेगा, यह आवाज, यह गायकी नहीं रहेगी। इसकी वजह से मेरी यह खुशी गायब हो गई है कि मैंने मन्ना डे को सुना।’ उसने धीरे-धीरे, भरे हुए गले से कहा।
‘यह तो होगा ही। एक दिन हम सब नहीं रहेंगे। पहले भी महान कलाकार हुए हैं और आखिर उनकी भी उमर पूरी हुई। यह कितनी खुशी की बात है कि मन्ना डे आज और अभी हमारे बीच हैं। दुआ है कि वे शतायु हों।’ मैंने टेबुल पर रखे उसके हाथ को छूकर कहा। सोचा कि स्पर्श उसे राहत दे सकेगा।
वह खामोश रहा।
‘एक बार मैंने भी कुमार गंधर्व को सुनते हुए और बचपन में मुकेश का कोई गाना सुनते हुए सोचा था कि काश, ये लोग कभी न मरें। यह ख्याल जीवन में अपने प्रिय कलाकार को लेकर कभी न कभी सबके मन में आता ही है। लेकिन इसे लेकर इतना व्यथित होने की कोई बात नहीं है।’ मैंने उसे इस तरह भी दिलासा देने का प्रयास किया।
‘मैं जानता हूँ। मगर अभी कुछ समझ नहीं पा रहा हूँ। मैं तो उनके गाने के बीच में उठकर, चीखकर कहनेवाला था कि मन्ना, अब मत गाओ, नजर लग जाएगी। मगर मन का लोभ तो यही था कि वे गाते जाएँ, बस, गाते जाएँ। और उसी बीच यह विचार जड़ जमाता चला गया कि चार साल बाद मन्ना डे नब्बे के हो जाएँगे। और आखिर एक दिन, सात साल बाद या दस साल बाद....।’ उसने खुद को रोने से रोका। इस तरह कि पास खड़े वेटर का ध्यान भी हमारी तरफ आकर्षित हो गया। मैंने वेटर को हाथ के इशारे से जताया कि कोई ऐसी-वैसी बात नहीं, दोस्तों के बीच की ही कोई छोटी-मोटी बात है।

मैंने सोचा कि कहीं इस आदमी ने ज्यादा शराब तो नहीं पी ली है। और इस वजह से ही यह अति भावुकता का शिकार हो गया है! तब तो इसे समझाना, इसके साथ वक्त जाया करना बेकार है। मैं भी किस प्रपंच में पड़ गया। आखिर मैंने पूछ ही लिया- ‘क्या आपने आज कुछ अल्कोहल लिया है?’ वह टेबुल पर दोहरा होते हुए मेरे पास अपना मुँह ले आया और गहरी साँस चेहरे पर छोड़ते हुए बोला- ‘लो, सूँघ लो। मैंने पिछले दस बरस से शराब नहीं पी।’
मुझे पसीने की और उसके मुँह की मिली-जुली तीखी, खट्टी गंध का अहसास हुआ।
‘साॅरी! मुझे इस तरह नहीं पूछना चाहिए था। लेकिन आपको इतना सेण्टीमेंटल देखकर लगा कि...।’
‘कोई बात नहीं। मुझे भी अपना मुँह आपके मुँह पर इस तरह नहीं लाना था लेकिन आपकी बात पर मुझे कुछ गुस्सा आ गया। हालाँकि मैं समझ सकता हूँ कि आप भले आदमी हैं और मन्ना डे को प्यार करते हैं। वरना मेरे रोने से, मेरे दुख से आप क्यों अपना रिश्ता जोड़ते!’
‘आप इस तरह से किसलिये दुखी हो रहे हैं? मन्ना डे की आवाज, उनके गाये गीत धरोहर के रूप में हमारे पास, हमारी यादों में हमेशा रहेंगे। अब तो सी.डी., डी.वी.डी. वगैरह जैसी चीजें भी हैं और कितनी म्यूजिक कंपनियाँ हैं जो मन्ना डे को ही नहीं बल्कि तमाम महान गायकों को हमारे लिए, आनेवाले लोगों के लिए बचाकर रखेंगी।’
‘खाक बचाकर रखेंगी। जरा खोजकर देखें। पुराने गीत ढूँढ़ने में पसीने आ जाते हैं। और मेरी चिंता तो यह भी है कि डेढ़ सौ साल बाद, दो सौ साल बाद मन्ना डे की आवाज कैसे सुन पाएँगे।’
मुझे हँसी आ गई।
‘अरे भाई, तीस-चालीस साल बाद तो हम दोनों ही नहीं रहेंगे, डेढ़ सौ-दो सौ साल बाद की परवाह आप क्यों कर रहे हैं!’
‘आप नहीं समझ सकते। मुझे लग रहा था कि शायद आप कुछ समझेंगे। कोई नहीं समझ सकता। ओह! मैं मन्ना डे को सुनने आया ही क्यों? इस तरह उन्हें साक्षात् सुनना, जिसे यहाँ सुनकर लगा कि कोई कंपनी आज तक उनकी आवाज ठीक से दर्ज ही नहीं कर पाई, उस आवाज को सुनना! मैंने यह खुला खजाना देखा ही क्यों? काश! कोई मुझसे कह दे कि मन्ना डे हमारे बीच इसी तरह बने रहेंगे, इसी आवाज के साथ।’ वह फिर बहक गया।

शायद उसे नर्वस ब्रेकडाउन जैसा कुछ हो गया था। मैं चुप रहा।
कुछ देर बाद उसने धीरे से अपनी आँखों को मला। वेटर ने चाय सर्व कर दी। संक्षिप्त शांति में हम चाय पीते रहे। चाय जैसे ही खतम हुई, वेटर बिल रख गया। उसने तुरंत बिल अपने कब्जे में लिया।
‘बिल इधर दीजिए। पैसे मैं दूँगा, चाय पीने का प्रस्ताव मेरा था।’ मैंने कहा।
‘नहीं, पैसे मैं ही दूँगा। वरना बाद में मुझे ऐसा लगेगा कि मैं कुछ नर्वस था, दुख में था, इसलिए सहानुभूति में आपने मुझे चाय पिला दी। यह ख्याल मुझे फिर परेशान करेगा।’
अजीब तर्क था। उसने पंद्रह रुपए दिए। बारह चाय के और तीन टिप मानकर।

हम बाहर निकल आए। उसने बताया कि पेड़ के नीचे, उधर अँधेरे कोने में उसका स्कूटर खड़ा है। ‘अब आपको ठीक लग रहा है न!’ मैंने पूछा।
‘हाँ। मैं शायद ज्यादा ही भावुक हूँ। मगर सच मानिए, जरूरत पड़ने पर मन्ना डे को मैं अपना खून, अपनी किडनी, अपना लिवर तक दे सकता हूँ। लेकिन मन्ना डे को यह बात मालुम होनी चाहिए ताकि वक्त-जरूरत आने पर वे किसी तरह का संकोच न करें। पता भर लग जाए। मुझे लगता है कि मैं मर जाऊँ, बल्कि हममें से बहुत से लोग मर जाएँ और मन्ना डे बच जाएँ तो सब ठीक हो जाएगा।’ वह बाढ़ के पानी में लकड़ी के पटिये की तरह बहने लगा।
‘हाँ, मन्ना डे के लिए तो कोई भी, कुछ भी कर सकता है।’ मैंने उसे शांत करने की नीयत से कहा।
‘आप भी कैसी बात करते हैं! इतने गायक, इतने कलाकार भूख से, गरीबी से, बीमारी से, उपेक्षा से मर गए, किसी ने कुछ किया? मैंने तक नहीं किया। वक्त आने पर आदमी अपने माँ-बाप तक के लिये कुछ नहीं करता। कलाकार, वैज्ञानिक बंद कमरों में सड़ जाते हैं, पागल हो जाते हैं, आत्महत्या कर लेते हैं या जानलेवा बीमारियों से मर जाते हैं। क्या आप नहीं जानते? मन्ना डे के लिए ही अभी कौन क्या कर रहा है? लेकिन अब उनके लिए मैं कुछ भी, सच में कुछ भी करना चाहता हूँ।’
वह फिर किसी गहरी घाटी में उतर गया।
जानबूझकर मैं चुप रहा। कि बात बढ़ाने से इस आदमी का मानसिक उत्ताप बढ़ता ही जाएगा। स्कूटर के पास जाकर वह अचानक पलटा और करीब आकर, कंधे पर हाथ रखकर बोला- ‘आपको क्या लगता है, आयोजकों ने मन्ना जी को दो-तीन लाख रुपए भी दिए होंगे?’
‘नहीं, मुझे इसका अंदाजा नहीं।’ मैंने कुछ घबराहट में और कुछ उसे दूर हटाने के भाव से जवाब दिया।
‘मैं जानता हूँ, नहीं दिए होंगे। जबकि हर फालतू जगह पैसा पानी की तरह बहाया जाता है। खैर, मन्ना डे को इससे क्या फर्क पड़ता है! मेरी तो बस एक ही तमन्ना है कि मन्ना डे को कभी कुछ न हो!’
‘जरूर। ऐसा ही होगा। आपकी दुआ काम आएगी।’
‘लेकिन मैं जानता हूँ। आप भी जानते हैं कि एक दिन मन्ना डे....। ओफ्फो! यह ख्याल मेरी जान लेकर ही मानेगा।’ निराशा में उसने अपनी उँगलियों को चटकाया।
‘अरे भाई, आपका नाम क्या है? आप क्या करते हैं? कहाँ रहते हैं??’ मैंने एक साथ सवाल पूछे ताकि परिचय भी हो जाए और उसका ध्यान भी इस बात से हट जाये, जिस पर वह बार-बार अटक जाता है।
‘आपकी गाड़ी कहाँ है?’ बदले में उसने पूछा। मैंने बताया कि यहीं पास में रहता हूँ, पैदल आया हूँ, पैदल जाऊँगा।
‘नहीं, मैं आपको छोड़ूँगा।’ इस पर मैंने आग्रहपूर्वक समझाया कि दरअसल मेरा कमरा एकदम करीब है, यह सामने काॅलोनी में। पैदल लायक ही दूरी है।
तब उसने स्कूटर स्टार्ट किया और बोला- ‘आप मुझे इसी रूप में जानें कि मैंने एक दिन मन्ना डे को सुना। मेरी यही पहचान काफी है। और देखो, अब मैं मुस्करा सकता हूँ।’ 
उसके लहराते स्कूटर को दो पल मैं देखता रहा। मैंने सोचा, अजीब पागल आदमी से पाला पड़ा था। उससे छूटकर मुझे एक तरह की राहत भरी खुशी का अनुभव हुआ।

कमरे का ताला खोलकर भीतर घुसते हुए मैं मन्ना डे के गानों की पंक्तियाँ गुनगुनाने लगा। मन्ना डे की आवाज और गीतों का जादू तो मुझ पर भी था। इस घटनाक्रम के बाद अब मैं इस बेहतरीन, मन्ना डे की आवाज से भरी शाम की स्मृति में अपनी तरह से वापस जाना चाहता था। बेसिन पर हाथ धोकर मैंने टिफिन उठाया। टिफिन खोलने के पहले अलमारी में से खोजकर मन्ना डे के गानों की कैसिट निकाली, उसे ‘टू इन वन’ पर लगाया। फिर टिफिन खोलकर खाना खाने बैठ गया। ‘हँसने की चाह ने, कितना मुझे रुलाया है.....।’
मन्ना डे की आवाज गूँजती रही।
अचानक ही मुझे रुलाई आ गई। मैंने खुद को बहुत रोका। मगर बेकार। मुझसे फिर खाना भी नहीं खाया गया।
मैं वहीं बिस्तर पर लेट गया। बत्ती बुझा दी।
मुझे रह-रहकर वह आदमी याद आने लगा और उसका वह ख्याल कि एक दिन मन्ना डे.....। मैंने उस रात में पहली बार, उस ख्याल की मारक बेचैनी को महसूस किया।
रो लेना भी एक दवा है। स्वस्थ आदमी ही इस तरह रो सकता है। कमरे के अँधेरे में इस तरह सोचते हुए, मैंने खुद को सांत्वना देने की असफल सी कोशिश की।
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