रविवार, 29 नवंबर 2009

फूल रखो तो फूलदान की तरह

डायरी अंश

कमरे में एक सुराही रखी है। शो पीस की तरह। उसमें फूल भी रखे जा सकते हैं। फूल रखो तो फूलदान की तरह है। यह उतनी सुंदर नहीं है। इसे देख कर सुंदर, सुघड़ और पूर्णाकार की सुराहियाँ याद आती हैं। सुराही को देखना एक कला को देखना है। जब-जब भी मैं सुराही को देखता हूँ उसे उड़ती हुई निगाह से नहीं देख पाता। मेरी निगाह उस पर टिक ही जाती है। शायद एक आकर्षण सुराही को ले कर मन में बन गया है। चित्रों में देखी गई सुराहियों से शायद यह आकर्षण बना हो। या बचपन में गाँव में देखी गई किसी सुराही के कारण। कुछ याद नहीं पड़ता। सुराही की जरा लंबी ही गर्दन सबसे पहले ध्यान खींच लेती है। काम्य स्त्रियों के लिए सुराहीदार गर्दन की आकांक्षा अकसर ही साहित्य में, श्रृंगार की बातचीत में प्रकट है। लेकिन मुझे लगता है कि सुंदर सुराही की जितनी लंबी गर्दन होती है, आनुपातिक रूप से उतनी लंबी गर्दन किसी भी स्त्री को सुंदर नहीं बना सकती। बहरहाल, यह तो एक उपमा ही हुई !

एक अत्यंत सादा बनावट में भी सुराही की यह गर्दन अपनी रहस्यात्मकता के साथ मुझे खींचती है। उसके भीतर का सीधा-सादा अँधेरा मुझे अलौकिक लगता है। और सुराही पर अकसर ही की जाने वाली नक्काशियाँ और डिज़ायनें। हर बार वे एक दूसरे से किंचित भिन्न होती हैं। यह किंचित भिन्नता उन्हें और सुंदर बनाती है। लोक कला की यह एक अनिवार्य विलक्षणता ही है कि एक आदमी जितनी बार मोर या धनुष बनाएगा वह हर बार एक नयी कृति बना देगा। एक जैसा बनाने के लिए वह उतना सजग, उतना प्रवीण नहीं है। वैसा आकांक्षी भी नहीं। कभी-कभी सुराही के एक तरफ या दोनों तरफ हेण्डिल उसे एक बार फिर आकर्षक और अधिक उपयोगी बनाते हैं। पानी भरने के अन्य मिट्टी के पात्रों से वह कितनी अलग है। उसे देखना, उसके पास होना एक शीतलता के पास होना है। एक कला के पास होना है। वह एक अनघड़ कलाकार के लिए भी कला है और सुघड़ कलाकार के लिए कलात्मक चुनौती। वह कितनी साधारण है और कितनी अनुपम! कमरे में रखी यह छोटी-सी सुराही इसी मायने में सुंदर है कि यह एक बड़ी सुंदरता का, कला का आत्मीय स्मरण दिलाती है।
`सुराही´ - यह शब्द भी कितना सुंदर है ! जो सुंदर लगता है, उसका नाम भी सुंदर लगने लगता है। नहीं, यही एक मात्र कारण नहीं। सुराही शब्द है ही सुंदर। लयात्मक भी। मैं एक कविता सुराही पर लिखना चाहता था और यह सब लिख गया हूँ। कविता लिख पाता तो अधिक संतोष मिलता। मैं एक कविता इस पर लिखूँगा।
कभी।
0000

शुक्रवार, 13 नवंबर 2009

जैसा समाज होगा वैसा परिवार

पिछले वर्षों में कुछ नयी-पुरानी अवधारणाओं और नैतिकताओं पर विचार करता रहा हूं। फलस्‍वरूप छोटे-छोटे लेख/टिप्‍पणियां संभव हुईं। उनमें से विचारार्थ कुछ यहां दे रहा हूं। उस क्रम में यह पहला लेख।


जैसा समाज होगा वैसा परिवार
पूँजीवादी समाज में परिवार का स्वरूप

हम जानते हैं कि जब समाज अपनी प्रारंभिक अवस्था में था तो परिवार की शुरूआती अवधारणायें और परिणतियाँ अपने मूल व्यवहार में तमाम आडंबरों से रहित थीं। उनमें खुलापन, आजादी और यायावरी थी। सामंती समाज तक आते-आते परिवार पितृसत्तात्मक हो गया और पुष्ट हो गये सामंती समाज ने ही उस बंद, कट्टर, सुरक्षित, रागात्मक परिवार की नींव डाली जिसकी चिंता आज की जा रही है। जाहिर है कि इस समाज के परिवार में एक पुरुष मुखिया (या सामंत) होता है और उसकी इस अवस्थिति को बनाये रखने में समाज, परंपरा, कानून और धार्मिक व्याख्यायें शक्ति और सहायता प्रदान करती हैं। इस व्यवस्था में एक दास का होना आवश्यक है तभी परिवार का सामंती रूप पूर्ण हो सकता है। दासता के इस कार्यभार के लिये स्त्री को चुना गया। स्त्री को यह दासता गरिमापूर्ण लगे, इसके प्रति उसके मन में विद्रोह न हो इसलिये ममता, स्नेह, प्रेम, दायित्व, धर्म, कर्तव्य, शील आदि से उसे जोड़ा जाता रहा। लेकिन उसके नियम कभी भी स्त्री के लिये अनुकूल नहीं रहे। उसके लिये तो कैसे भी पति को प्रेम करना कर्तव्य और धर्म के अंतर्गत है। इस परिवार में स्त्री के शोषण के अनेक मान्य, प्रचलित और कठोर रूप रहे हैं।

स्त्री पर शासन आसान रहे इसलिये ही विवाहों में उम्र और शिक्षा को लेकर एक बेमेल पंरपरा कायम की गयी है जिसके तहत स्त्री का आयु में पुरुष से कम और शिक्षा में कमतर होना ही उचित मान लिया गया है। यदि वह आयु और शिक्षा में पुरुष से बड़ी या बराबर हुयी तो इस बात के आसार ज्यादा हैं कि उसे आसानी से शासित न किया जा सके। यद्यपि घरेलू, सामाजिक, औपचारिक, नैतिक और धार्मिक शिक्षा में इस बात की ग्यारंटी कर दी गयी है कि स्त्री, समाज की `पहली इकाई´ में प्रवेश करते ही किसी पुरुष का स्थायी उपनिवेश हो जाये। इसी तरह के संदर्भों में कहा जाता है कि स्त्री पैदा नहीं होती, बनायी जाती है। इस `सामंती परिवार´ में पुरुष का जीवन सर्वाधिक आनंद में गुजरता है। गृहस्थी में उसकी जो मुश्किलें हैं वे एक नागरिक, मनुष्य और मुखिया की मुश्किलें तो हैं लेकिन गुलाम या शासित की उन मुश्किलों से बिलकुल अलग हैं जो किसी मनुष्य की तमाम संभावना, प्रतिभा, स्वतंत्रता और चेतना को बाधित, कुंठित और प्राय: असंभव कर देती हैं।

इस तरह के परिवार में कुछ अन्य लक्षण सहज ही परिलक्षित होंगे, जो दरअसल सामंती व्यवस्था के सामाजिक-नागरिक लक्षणों से उत्पन्न हैं : जैसे स्त्री संपत्ति की तरह है और उसे अर्जित किया जा सकता है। उसे रक्षित करना जरूरी है अन्यथा घुसपैठ संभव है। वह पुरुष की प्रतिष्ठा का प्रश्न भी इसी वजह से है। चूँकि वह चल-संपत्ति है इसलिये उसे अपने पास बनाये रखने के लिये हिंसा भी जायज है। इस परिवार में हिंसा के तमाम रूपों की उपस्थिति सहज रहती आयी है। करुणा, दया, प्रेम, कृतज्ञता, नैतिकता, धार्मिकता और अभिनय का इस्तेमाल भी होता रहा है। आदि-इत्यादि। हर स्थिति में उसका अधिकार दोयम है, कर्तव्य प्राथमिक और अनिवार्य। पारिवारिक इकाई के इसी स्वरूप को तरह-तरह से विकसित, महिमामंडित और दृढ़ किया गया। अब इसकी रागात्मकता, सहजता, कार्यकुशलता और व्यवस्था खतरे में है।

यहाँ ध्यान देना होगा कि अब हमारा समाज राजनीतिक, औपचारिक शिक्षा, तकनीकी, न्यायिक, संवैधानिक और स्वप्नशीलता के क्षेत्रों में सामंती नहीं रह गया है, भले ही रूढ़ियों, परंपराओं, सामाजिक आचरणों, मान्यताओं, धार्मिक विश्वासों आदि में सामंतीपन का ही बोलबाला है। बल्कि इन्हीं वजहों से अभी तक परिवारों में सामंती परिवेश बना रह सका है। लेकिन धीरे-धीरे पूँजीवाद ने शासन और तंत्र के वर्चस्ववादी इलाकों में अपनी ध्वजा फहरायी है। लोकतांत्रिक व्यवस्था उसके लिये सर्वाधिक सहायक हो सकती है। लोकतंत्र की आड़ ही उसे तानाशाह होने की सीधी बदनामी से रोकती है। लेकिन लोकतंत्र की उपस्थिति अपना काम करती है और परिवार में किसी एक की तानाशाही अथवा सामंती प्रवृत्ति के खिलाफ भी वातावरण बनाती है। जाहिर है कि यह पूँजीवादी, उत्तर-आधुनिक समाज भी अपने जैसा ही परिवार बनायेगा। जैसा समाज, वैसा परिवार। क्या हम भूल रहे हैं कि परिवार समाज की पहली इकाई है! ऐसा हो ही नहीं सकता कि समाज पूँजीवादी होता जाये और परिवार का चरित्र सामंती बना रहे।

पूँजीवादी समाज में अर्थवाद, संबंधों की स्वार्थपरकता, मनुष्य से मनुष्य की हृदयहीनता, हर क्रिया में छिपा निवेश तत्व, प्रदर्शनकारिता, उपयोगितावाद, उपभोक्तावाद, बाजारवाद और आत्मकेंद्रिकता के लक्षण प्रमुख हैं। इन लक्षणों को सब रोज-रोज अनुभव कर ही रहे हैं। इन्हीं विलक्षणताओं के कारण पूँजीवाद में प्रेम, मनुष्यता, रागात्मकता आदि का ही नहीं बल्कि तद्जन्य संगीत, कला, साहित्‍य, अध्यवसाय का लोप होता जाता है। इन्हीं सब बिंदुओं को आप परिवार पर लागू करें तो पायेंगे कि आज के परिवार का संकट यही है। अर्थात वहाँ स्वार्थ, उपयोगितावाद, निवेश मन:स्थिति, आत्मकेंद्रिकता का प्रवेश हो गया है और जीवन की रागात्मकता, हार्दिकता, सामूहिकता, और संगीतात्‍मकता गायब है। यह होना ही है। इसे प्रस्‍तुत समाज व्‍यवस्‍था में रोका नहीं जा सकता।

अभी जो `पुराने परिवार´ के रूपक हैं और उदाहरणों की तरह टापू की तरह दिखते हैं वे सामंती अवशेष हैं। गाँवों और कस्बों के जीवन में सामंती रीतियाँ जाति, वंश, परिवार परंपरा, धार्मिकता के प्रभाव बाकी हैं अतएव वहाँ इन परिवारों का ध्वंस अभी उतना नजर नहीं आता लेकिन `पूँजीवादी समाज से उद्भूत और प्रभावित परिवार´ शहरों तथा मेट्रोज में आसानी से मिल जायेंगें। आगामी कुछ ही समय में ये `पूँजीवादी समाज के परिवार´ बड़ी संख्या में तबदील होते जायेंगे। विवाह के लिये औपचारिक संस्कार गौण होते जायेंगे और करार के विधिक, मौखिक या सहमति के अन्य प्रकार स्वीकार्य होंगे। यह पूँजीवाद के चरित्र का ही हिस्सा है। इसीके चलते संभव है कि परिवार `आजीवन संस्था´ न रहकर `अल्पकालीन या आवश्यकतानुसार अनुबंध´ तक सीमित होती चली जाये।

यहाँ एक बात गौर करने लायक है। पूँजीवादी समाज की निर्मिति से बन रहे इन परिवारों में स्त्री का पारिवारिक शोषण तो रुक जायेगा लेकिन मनुष्य की अस्मिता, गरिमा, स्वतंत्रता और उड़ान से वे काफी हद तक वंचित ही रहेंगी क्योंकि पूँजीवाद, स्त्री को `उपयोगी´ और `उपभोक्तावादी´ वस्तु में ही न्यून करता है। वह स्वतंत्र तो होगी लेकिन फिलहाल नियामक या निर्णायक नहीं। उसका `स्त्री´ होना उसके लिये नयी मुश्किलें और कुछ तात्कालिक आसानियाँ पेश करेगा। पूँजीवादी व्यवस्थायें और उसके गण उसका तदानुसार उपयोग करेंगे। यह आजादी विडंबनामूलक समस्या है। वह सामंती पिंजरे से निकलकर एक अथाह समुद्र में गिरेगी। यही कारण है कि अधिकांश लोगों को परिवार का सामंती रूप अधिक सुरक्षित और विकल्पहीन लगता है। इन परिवारों के विघटन और विनाश से पुरुषों का डर तो स्वाभाविक है क्योंकि उनका साम्राज्य इससे नष्ट होता है किंतु स्त्रियों का डर, अपने नरक से प्रेम करने और उसके पालन-पोषण के तरीकों में छिपा हुआ है। प्रसन्न इस बात पर तो हुआ ही जा सकता है कि स्त्री, सामंती परिवार के कारागार से बाहर निकल पायेगी एवं नितांत नयी समस्याओं के बीच स्वतंत्रचेता और स्वावलंबी होने के लिये विवश होगी। बहरहाल, यह संक्रमणकाल है और इसके बाद कुछ राहें निकलेंगी।

यह उम्मीद करना बेमानी और काल्पनिक नहीं है कि पूँजीवादी समाज अंतत: उस मानवीय, समतावादी और सामाजिक न्यायपूर्ण व्यवस्था से प्रतिस्थापित हो सकता है, जिसे `साम्यवादी व्यवस्था´ के स्वप्न में देखा जाता है। इस आकांक्षी व्यवस्था में ऐसे परिवार की कल्पना की जा सकती है जो अपने गठन, निर्माण और परिचालन में कहीं अधिक लोकतांत्रिक, समतावादी, रागात्मक और प्रेम भरा होगा, जिसमें स्त्री को मनुष्य का गरिमापूर्ण दर्जा मिलेगा और बच्चों के पालन-पोषण में अत्याचार, क्रूरता और इजारेदारी का हिस्सा खतम हो जायेगा। मार्क्‍स-एंगेल्स आज से 155 वर्ष पहले लिखे `कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र´ में यदि `बुर्जुआ सामंती परिवार´ के संकटों का जिक्र करते हुये उसे खारिज करना चाहते हैं तो वह कोई अराजक प्रस्ताव नहीं है। अब ऐसी परिवार व्यवस्था मुश्किल में आ रही है तो यह सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों का हिस्सा है, भले ही अभी यह हमारी श्रेष्ठ मानवीय आकांक्षाओं के अनुकूल नहीं है मगर यह अपनी प्रकृति में ऐतिहासिक और द्वंद्वात्मक है।
000000

बुधवार, 4 नवंबर 2009

मेरा प्रिय कवि

पुरातत्व कविता के कवि साथी शरद कोकास सहित अनेक मित्रों के आदेश और विशेष तौर पर नव्‍यतम पीढ़ी के चर्चित कथाकार और मेरे प्रिय चंदन पाण्‍डेय के आग्रह को रेखांकित करते हुए, संकोच के साथ ही सही, अब अपनी कुछ कविताएं यदा-कदा लेकिन नियमित तौर पर यहाँ देता रहूँगा।


मेरा प्रिय कवि

वह हिचकिचाते हुए मंच तक आया
उसके कोट और पैंट पर शहर की रगड़ के निशान थे
वह कुछ परेशान-सा था लेकिन सुनाना चाहता था अपनी कविता
लगभग हकलाते हुए शुरू किया उसने कविता का पाठ
मगर मुझे उसकी हकलाहट में एक हिचकिचाहट सुनाई दी
एक ऐसी हिचकिचाहट
जो इस वक्‍त में दुनिया से बात करते हुए
किसी भी संवेदनशील आदमी को हो सकती है
लेकिन उसने अपनी कविता में वह सब कहा
जो एक कवि को आखिर कहना ही चाहिए

वह हिचकिचाहट धीरे-धीरे एक अफसोस में बदल गई
और फिर उसमें एक शोक भरने लगा
उसकी कविता में फिर बारिश होने लगी
उसके चश्मे पर भी कुछ बूँदें आईं
जिन्हें मेरे प्यारे कवि ने उँगलियों से साफ़ करने की कोशिश की
लेकिन तब तक और तेज हो गई बारिश
फिर कविता में अचानक रात हो गई
अब उस गहरी होती रात में हो रही थी बारिश
बारिश दिख नहीं रही थी और बारिश में सब कुछ भीग रहा था
कवि के आधे घुँघराले आधे सफेद बालों पर फुहारें थीं
होठों पर धुएँ के साँवले निशानों को छूकर
कविता बह रही थी अपनी धुन में
एक मनुष्य होने के गौरव के बीच
संकोच झर रहा था उसमें से
वह एक आत्मदया थी वह एक झिझक थी
जो रोक रही थी उसकी कविता को शून्य में जाने से

कविता पढ़ते हुए वह
बार-बार वज़न रखता था अपने बाएँ पैर पर
बीच-बीच में किसी मूर्ति-शिल्प की तरह थिर होता हुआ
(एक शिल्प जो काव्य-पाठ कर सकता था)
उसके माथे पर साढ़े तीन सलवटें आती थीं
और बनी रहती थीं देर तक

मैं अपने उस कवि से कुछ निशानी -
जैसे उसका कोट माँगना चाहता था
लेकिन अचानक उसने मुझे एक गिलास दिया
और मेरे साथ बैठ गया कोने में
उसने कहा तुम्हें मैं राग देस सुनाता हूँ
फिर उसने शुरू किया गाना
वह एक कवि का गाना था
जिसे गा रही थी उसकी नाजुक और अतृप्त आत्मा

एक घूँट लेकर उसने कहा
कि तुम देखना मैं अगला आलाप लूँगा
और सुबह हो जाएगी

अचानक मेरा कवि मेरे करीब और करीब आया
कहने लगा मैं बहुत कुछ न कर सका इस संसार को बदलने के लिए
मैं शायद ज्‍यादा कुछ कर सकता था
मुझे छलती रहीं मेरी ही आराम-तलब इच्छाएँ
जिम्मेवारी की निजी हरकतों ने भी मुझे कुछ कम नहीं फँसाया
दायीं आँख का कीचड़ पोंछते हुए वह फिर कुछ गुनगुनाने लगा
कोई करुण संगीत बज रहा था उसमें
मैंने कभी न सुनी थी ऐसी मारक धुन
मेरे भीतर एक लहर उमड़ी और मैं रोने लगा

उधर मेरा प्रिय कवि
मंच से उतर कर
चला आ रहा था अपनी ही चाल से।
00000


दस बरस पहले की इस कविता के बारे में अनेक पाठकों-मित्रों-आलोचकों की राय रही है कि यह हिन्‍दी के किसी कवि विशेष को केन्‍द्र में रखकर लिखी गई है। आज कुछ मुखर होने का जोखिम लेकर मैं कहना चाहता हूँ कि यह कविता किसी कवि को केन्‍द्र में रखकर नहीं है बल्कि उसके बहाने 'समकालीन कविता के पाठ' -रिसाइटल- के पक्ष में लिखी गई है।

कविता को गाकर, चीखकर या अभिनय के साथ पढ़ने की पक्षधरता के बरअक्‍स यह मानवीय दुर्बलताओं के पाठ के साथ कविता का पक्ष रखने की भी एक कोशिश है। दूसरे, इसमें किसी कवि विशेष की नहीं बल्कि हमारे समय के अनेक कवियों की काव्‍यपाठ करने की स्‍म़तियॉं और बुदबुदाहटें है।

सोमवार, 19 अक्तूबर 2009

ट्रेड यूनियनों के भूले हुए काम और चुनौतियॉं

पिछले लेख से किंचित सम्‍बद्ध लेकिन स्‍वायत्‍त और स्‍वतंत्र तरीके से कुछ वैचारिक बिंदु प्रस्‍तुत करने वाला यह एक लेख और दे रहा हूं। आशा है, गंभीर पाठकों के लिए यह आवश्‍यक उत्‍तेजना दे सकेगा।

ट्रेड यूनियनों के
भूले हुये काम और चुनौतियाँ


ट्रेड यूनियनों के जन्म, कार्य और सक्रिय उपस्थिति ने संसार में क्या कुछ कर दिया है, वह एक गर्वीला इतिहास है। इस संबंध में हजारों पृष्ठ हमारे सामने हैं। संक्षेप में यह कि औद्योगिक क्रांति ने पूँजी के हृदयहीन शासन और उसकी तानाशाही का जो पहिया घुमाया, उसे अपने लहुलुहान हो गए हाथों से थामने का, उसकी दिशा को बाध्यकारी रूप से मानवोन्मुखी करने का काम ट्रेड यूनियनों की वजह से भी संभव हुआ। श्रम-संगठनों ने शोषण के चक्र को ऐतिहासिकता में समझते हुए, उसके खिलाफ योजनाबद्ध तरीके से जुझारू संघर्ष किया और श्रमिकों को वे सारे अधिकार दिलाने का काम जारी रखा जिनसे वे एक बेहतर मनुष्य का जीवन जी सकने का स्वप्न देखते रहे और अनेक अधिकारों को पा सके। भारत में श्रमिक आंदोलन का इतिहास देश की स्वतंत्रता से काफी पहले का है। वह पूँजीपतियों और उनकी शोषक नीतियों के विरुद्ध रहा है इसलिए ही वह अंग्रेजों के जमाने में भी था और आज भी है।

उत्पादक पूँजीधारकों की मंशाओं को जो तािर्कक, ठोस चुनौती श्रम-संगठनों से मिलती रही है उससे अब पूँजीपतियों को स्पष्ट होता गया है कि उन्हें श्रम को हथियाने के लिए कुछ नए तरीके खोजने होंगे ताकि वे पूंजी के खेल और अपने लाभ को अबाध गति से आगे बढ़ाते हुये श्रमिकों का हद दर्जे तक दोहन कर सकें। वैश्वीकरण और उदारवाद की हवा ने उन्हें यह मौका दिया है। कंप्यूटर की पेन्टियम सीरीज, इंटरनेट, ई-बिजनेस और ऑनलाइन तकनीक तक आते-आते उन्हें श्रमिकों से मुक्ति मिलने की आस बँध गई है। इससे ट्रेड यूनियनों के सामने नयी समस्याएँ और चुनौतियाँ भी पैदा हुई हैं। यद्यपि अनेक समस्याएँ, प्रजनन करती हुईं पुरानी समस्याओं में से ही निकलकर आई हैं और यदि अभी भी श्रम-संगठनों ने कुछ मूलभूत बातों की तरह पुन: ध्यान नहीं दिया तो यह क्रम आगे भी जारी रहने वाला है। यह पुरानी बीमारियों के लौटने का समय है। जिनमें नौकरी की अनिश्चितता, श्रम कानूनों का हनन, कार्यघंटों को बढ़ाकर असीमित किया जाना, कार्यालयीन दुव्र्यवहार, श्रमिकों से असंभव किस्म की अपेक्षाएँ, सेवाशर्तों में सुधार न करना एवं जो सेवाशर्तें हैं उन्हें व्यवहार में लागू न करना आदि। इसलिए उन मूलभूत बिंदुओं और सवालों की तरह यहाँ ध्यान दिया जाना चाहिए जो भले ही अब किंचित पुराने क्यों न लगने लगे हों लेकिन इनसे ही वे कुछ भूले हुये काम भी याद आयेंगे जो ट्रेड यूनियन के लिए जरूरी हैं, जिन्हें कतई दरकिनार नहीं किया जा सकता।

संगठनकारी आंदोलन का केंद्र और वैचारिक शिक्षा
सबसे पहले हम माक्र्स के `मजदूरी, दाम और मुनाफा´ शीर्षक लेख में कही गई बात याद करते हैं: `ट्रेड यूनियन मजदूरों के तात्कालिक हितों की रक्षा का साधन ही नहीं है बल्कि पूँजीवाद के उन्मूलन के लिए संघर्ष में, सर्वहारा के संगठनकारी आंदोलन का केंद्र भी है।´ जाहिर है कि ट्रेड यूनियन को व्यापक, दूरगामी और महत्वपूर्ण जिम्मेवारी से ओतप्रोत माना गया था। इस उद्देश्य को पाना तब तक ही संभव है, जब तक ट्रेड यूनियनें अपने सदस्य साथियों को पूँजीवाद से संघर्ष के लिए बौद्धिक रूप से तैयार करने का काम और आंदोलन एक साथ करती रह सकें। प्रारंभ में यह हुआ लेकिन जल्दी ही ट्रेड यूनियनों ने `मजदूरों के तात्कालिक हितों´ की रक्षामात्र को ही अपना कार्यभार मान लिया। लेकिन जब आप दो पतवारों में से एक पतवार फेंक देते हैं तो नाव की दिशा, गति और संतुलन भी डिग जाता है इसलिए यह हुआ कि `मजदूरों के तात्कालिक हित´ क्या हैं एवं क्या हो सकते हैं, इसी प्रश्न पर चीजें गड़बड़ाने लगीं। ट्रेड यूनियन के सदस्य-साथियों में वैचारिकता के अप्रसार ने उस चेतना को ही समाप्त कर दिया है जो किसी आंदोलन के लिए श्रमिक में उत्साह, लगन, समझ और जुझारूपन पैदा कर सकती है।

यह वैचारिकता ही है जो श्रमिकों के बहाने एक विशाल `सर्वहारा वर्ग´ को शोषण-मुक्ति, समता, न्याय, स्वतंत्रता और मनुष्य की अस्मिता के पाठ पढ़ा सकती है। उनकी सोच को व्यवहार बुद्धि के साथ-साथ वैज्ञानिक दृष्टिकोण से संपन्न कर सकती है। श्रमिक साथी के रूप में उन्हें अपने व्यक्तिगत कार्यभार और चुनौतियों के प्रति सजग बनाते हुए एक सक्रिय कार्यकर्ता में बदल सकती है। श्रम-संगठनीय शिक्षा के अभाव में आम सदस्य (या कार्यकर्ता) बेहद स्वार्थी, व्यक्तिगत परिधि में घिरे आदमी के रूप में ही तबदील हो सकता है और दुर्भाग्य से ऐसा हो रहा है। इस समय में भी वैचारिक शिक्षा ही वह गंगोत्री हो सकती है जिससे आगे जाकर नदी का पाट चौडा हो सके, बहाव तेज हो, चट्टानों, मैदानों, बीहड़ों को पार किया जा सके और आबादियों को खुशहाल करते हुए एक विशाल समतामूलक डेल्टा का निर्माण हो।

दक्षिणपंथी और पूँजीपति पार्टियों की ट्रेड यूनियनें
किसी संगठन के कितने सदस्य हड़ताल पर जा रहे हैं, यह संख्या हड़ताल की सफलता की सूचना तो दे सकती है किंतु यदि उसके ये सदस्य शिक्षित और प्रतिबद्ध नहीं हैं तो निर्णायक आंदोलन में यह संख्या धोखादेह हो सकती है। बल्कि रोजमर्रा के कार्य-व्यापारों में, ऐसे सदस्य-साथी ट्रेड यूनियन के महती कार्यक्रमों और उद्देश्यों को चुपचाप तरीके से नष्ट करते चले जाएँगें। उनकी राजनीतिक समझ कच्ची ही नहीं रहेगी अपितु अवसरवादी भी हो जाएगी। इसलिए यह देखना आश्चर्य का विषय शायद नहीं होना चाहिए कि साम्यवादी ट्रेड यूनियनों तक के सदस्यों में उन लोगों की बहुतायत होती जा रही है जो राजनीतिक तौर पर दक्षिणपंथी या धुरदक्षिणपंथी पार्टियों के साथ खड़े हैं। यहाँ इस बात की तरफ ध्यान देना दिलचस्प होगा कि दक्षिणपंथी पार्टियाँ, श्रम-अधिकारों को स्थायी तौर पर नष्ट करने के लिए कमर कस चुकी हैं।

ट्रेड यूनियनों के निर्माण के मूलाधार में इस समझ का स्वीकार शामिल रहा कि समाज में कम से कम दो वर्ग हैं। एक पूँजीपति का, जो पूँजी या संस्थान का मालिक है और दूसरा सर्वहारा (श्रमिक) का, जो किसी भी पूँजी का स्वामी नहीं है और अपना श्रम बेचने के लिए विवश है। इस तरह वर्गीय विभाजन के आधार पर यह समझ भी साफ होती है कि पूँजी, श्रम का शोषण करने में सक्षम है अतएव समाज में `वर्ग संघर्ष´ एक आवश्यक परिघटना है जिसके जरिए न्याय और समता का स्वप्न देखा जाता है। किंतु यह विलक्षण है कि पिछले कुछ वर्षों में उन राजनीतिक पार्टियों के `श्रम संगठन´ भी मैदान में हैं जो दरअसल समाज में वर्ग-भेद के सिद्धांत से ही सहमत नहीं हैं, तब वर्ग-संघर्ष की समझ और स्वीकारोक्ति की बात कौन कहे। उनका काम अपनी-अपनी राजनीतिक पार्टियों के लिए वोट या अन्य प्रकार का समर्थन जुटाना एवं श्रमिकों के वेतन बढ़ाए जाने के नाम पर सतही आंदोलन करना रहा है। जाहिर है, ऐसी ट्रेड यूनियनों की उपस्थिति ने `वामपंथी ट्रेड यूनियनों´ के उद्देश्यों और दायित्वों को धूमिल करने में सहायक भूमिका निबाही है। `ट्रेड यूनियन आंदोलन के अर्थ एवं आवश्यकता´ की शिक्षा के अभाव ने ठीक वही काम किया है जो किसी समाज में निरक्षरता कर सकती है। और इसका लाभ पूँजीपतियों ने ठीक उस तरह ले लिया है जिसकी आशंका माक्र्स ने डेढ़ सौ साल पहले `कम्युनिस्ट पार्टी के घोषणा-पत्र´ में व्यक्त कर दी थी -`मजदूर अपनी ही होड़ और असंबद्धता के कारण, बँटे हुए जन-समुदाय होते हैं और कहीं वे एक संगठन बनाते भी हैं तो यह उनके सक्रिय एके का फल नहीं, पूँजीपति वर्ग के एके का फल होता है क्योंकि पूँजीपति वर्ग को अपनी राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए पूरे सर्वहारा वर्ग को गतिशील करना पड़ता है।´ हम देख सकते हैं कि आज की तारीख में सरकार या पूँजीपतियों के सामने ट्रेड यूनियनें एक तरह की सुविधा बनती जा रही हैं जिनके जरिए वे अपने पक्ष में कई चीजों को गतिशील कर पा रहे हैं। कहीं-कहीं तो पूँजीपतियों ने ही अपनी ट्रेड यूनियनें मैदान-ए-जंग में उतार दी हैं। इसका प्रभाव वैसा ही है जैसा सेना में दुश्मन के वेष बदलकर शामिल होने पर हो सकता है। इधर ऐसी धुर दक्षिणपंथी ट्रेड यूनियनों के साथ जो साझेदारियाँ बन रही हैं वे दूरगामी परिणामों की दृष्टि से खतरनाक हैं। मुश्किल यह भी है कि हमारी वर्तमान भारतीय संसदीय राजनीति ऐसे गठबंधनों का प्रेरणा स्त्रोत है लेकिन ध्यान रखना होगा कि संसदीय राजनीति का गंतव्य और उद्देश्य वे नहीं हैं जो श्रम-आंदोलन के होते हैं।

मजदूर वर्ग या तो क्रांतिकारी होता है या फिर कुछ नहीं
अपने सदस्यों को शिक्षित करने का अनवरत और जरूरी काम ट्रेड यूनियनों से छूटा हुआ है, जिसमें अनिवार्य शिक्षा का यह सूत्र शामिल होना चाहिये कि `मजदूर वर्ग की मुक्ति, स्वयं मजदूर वर्ग का कार्य ही हो सकता है।´ इस सूत्र ने संसार में नारीवादी आंदोलन और दलित आंदोलन को भी दिशा एवं स्फूर्ति दी है। यह शिक्षा ही वह संवाद पैदा कर सकती है जो किसी आंदोलन को रोज नया आयाम तथा चेतना प्रदान करते हुए, उसे अद्यतन बनाता है ताकि वह पूँजी, पूँजीवादी तकनीक और शोषण के नवीनतम रूपों को, मुखौटों को पहचान कर उनके विरुद्ध संघर्ष कर सके। इसके उलट यह देखना दिलचस्प और बिडंवनाजन्य है कि ट्रेड यूनियन के नेतृत्व में ऐसे क्रियाशील लोगों की संख्या बढ़ती चली जा रही है जिनका श्रम-संगठन की विचारधारा से लगभग कोई संबंध नहीं रह गया है। उन्हें पता ही नहीं है कि अंतत: ट्रेड यूनियन एक बड़ी वैचारिक, सामाजिक और राजनीतिक कार्यवाही भी है। विचारधारात्मक ज्ञान के अभाव में ये नेता, अपने-अपने संस्थानों की सेवा-शर्तों, नियमों की जानकारी भर रखते हैं ताकि वे क्षेत्रीय या शहरी स्तर पर अपना वर्चस्व कायम रख सकें और एक व्यक्तिगत किस्म की जमींदारी बनाकर उसके छत्रप हो सकें। कई बार उनकी योग्यता इतनी भर होती है कि वे अपने क्षेत्र या संस्थान के अराजक, तेज-तर्रार, महत्वाकांक्षी और प्रभावशाली व्यक्ति होते हैं। ट्रेड यूनियन की विचारधारा, दायित्व, विविधता, आंदोलन और हस्तक्षेप की सकारात्मकता से उनका दूर तक संबंध नहीं होता। ये नारे लगा सकते हैं और धौंस-दपट के सहारे समायोजन करते हुए अपनी नौकरी का जीवन गुजारते हैं। इन अपढ़ बल्कि कुपढ़ नेताओं की जमात हर ट्रेड यूनियन में बढ़ती जा रही है जबकि ट्रेड यूनियन का काम गहरी बौद्धिकता, पठनशीलता, स्वप्नशीलता, क्रांतिकारिता और जमीनी क्रियाशीलता की माँग करता है।

ट्रेड यूनियन आंदोलन के लिए आवश्यक इस कथन को अब विस्मृत किया जा रहा है कि `मजदूर वर्ग या तो क्रांतिकारी होता है अथवा फिर कुछ नहीं होता है।´ जाहिर है कि यहाँ क्रांतिकारिता का अर्थ आंदोलन की स्पष्ट समझ और स्वप्नदृष्टि से है, जिसके मूल में वर्ग-संघर्ष की विचारधारा है। रोज-रोज की लड़ाइयों से भी इसका वास्ता होता है। अधिकांश श्रमिक नेताओं के जीवन को करीब से देखने पर यह सूचना मिलती है कि वे निजी विश्वासों और क्रियाकलापों में गैर-प्रगतिशील हैं, समझौतावादी ही नहीं अवसरवादी भी हैं, अवैज्ञानिकता से भरे हुए हैं फलस्वरूप उनका जीवन किसी तरह की प्रेरणा और संघर्ष का स्त्रोत नहीं बनता है। इस बीमारी को भी दूर करना होगा। संतोषप्रद है कि प्रमुख ट्रेड यूनियनों के उच्च्तम नेतृत्व के कुछ साथियों में अभी उस बुद्धिजीविता, आदर्श और समझ की कौंध दिख जाती है जिसकी अपेक्षा श्रम-आंदोलन को है लेकिन दूसरी-तीसरी पंक्ति में उसका गहरा अभाव है, जिसका खामियाजा पूरे श्रम आंदोलन को भुगतना पड़ रहा है। ट्रेड यूनियन में बौद्धिक तेजस्विता और वैचारिक प्रतिबद्धता को बचाये रखने का काम ठीक सामने है।


पूँजीवादी समाज में श्रमिक अधिकार वाष्पशील होते हैं
आज जबकि देश में वामपंथी राजनीति ह्रास का शिकार है तब ट्रेड यूनियन आंदोलन की सक्रियता ही इस खाली स्थान को भर सकती है। बल्कि वामपंथी राजनीति को सहारा और विश्वास देने का काम भी ट्रेड-यूनियन आंदोलन कर सकता है। श्रम कानूनों में विस्मित करने वाले परिवर्तन किए जा रहे हैं अथवा प्रस्तावित हैं, उसके विरोध में जो गतिशीलता और योजनाबद्ध संघर्ष चाहिए, वह अभी परिलक्षित नहीं हो रहा है। ज्ञातव्य है कि इन कानूनों से ऐसे अधिकार रक्षित हैं जो पूरे संसार के श्रमिकों को समवेत लड़ाई से एक शताब्दी में मिले हैं। इन अधिकारों में अनेक श्रमिकों के खून की चमक है और वे एक अग्रगामी, प्रगतिशील समाज के विकास के साथ-साथ अर्जित किए गए हैं। इन अधिकारों की रक्षा के लिये कठोर कदम उठाने की बजाय जैसे श्रम-संगठन स्तब्ध हैं। संभवत: इसका बड़ा कारण यही है कि वे अपने अधिसंख्य सदस्यों की समझ और गतिशीलता के प्रति आश्वस्त नहीं हैं। इसके मूल में आम सदस्य-साथियों की अशिक्षा और उनकी प्रतिबद्धता पर संशय ही है।

`नौकरी की सुरक्षा´ पर सवाल खड़े करते हुए जैसे पूँजीपतियों ने ट्रेड यूनियनों के संघर्ष की दिशा ही मोड़ दी है और उन्हें बेहद रक्षात्मक तरीके अपनाने पर विवश कर दिया है। पूँजीवाद का यह आक्रमण अपने साथ बाजार का तर्क लेकर आया है। इसलिये यह वक्त ट्रेड यूनियनों के लिए कहीं अधिक व्यवस्थित और आक्रामक होने का है। अर्जित अधिकार, चाहे वे परंपरागत रूप में ही क्यों न मिल गए हों, उनकी रोज-रोज रक्षा करनी होती है क्योंकि किसी पूँजीवादी समाज में श्रमिक के अधिकारों से अधिक वाष्पशील कुछ नहीं होता। यह मान लेना कि कोई पा लिया गया अधिकार अब स्थायी है, भोलापन तो है ही, खुद को छलना भी है। कछुओं के साथ लगायी जा रही दौड़ में भी कोई खरगोश निश्चिंत नहीं रह सकता फिर यह दौड़ तो शेर और हिरणों के बीच की है।

श्रमिक होना अंतत: एक वर्ग में होना है
`वर्ग-विस्मृति´ एक दूसरी चुनौती है। संगठित क्षेत्रों के श्रमिकों के लिए तनख्वाह और सुविधाएँ जैसे ही कुछ हद तक संतोषजनक और स्थायी होती हैं अथवा उनका जीवन-स्तर अन्य श्रमिकों की तुलना में जरा-सा ही बेहतर होता है, वे अपने `स्थायी वर्ग´ को विस्मृत करने लगते हैं। यह अपनी जड़ों को भूलना तो है ही, और यही पक्ष पूँजीवाद के लिए वरदान हो जाता है। इस तरह वे श्रमिकों के बीच दो फाड़ कर देते हैं। मानसिक कार्य करने वाले श्रमिकों के बीच यह विस्मृति और गफलत तेजी से फैलती है क्योंकि उन तक यह भ्रमपूर्ण प्रचार फैलाने में सफलता मिल रही है कि `मस्तिष्क-प्रमुख श्रमिक´ के रूप में वे अन्य श्रमिकों से अलग और श्रेष्ठ हैं। मस्तिष्क का श्रम और हाथ का श्रम, यह विभाजन मूलत: श्रमिकों की एकता को तोड़ने के लिये ही किया जाता रहा है। जबकि सभी प्रकार के श्रम करने वाले अंतत: श्रमिक हैं और सर्वहारा वर्ग में ही हैं। उनमें से किसी के पास वह पूँजी नहीं है जो उन्हें उत्पादक साधनों का मालिक बना सके और उनको वर्गांतरित कर दे। मस्तिष्क, हाथ, पैर, आँखें, कान ये सब इसी शरीर के हिस्से हैं, और कोई-सा भी हिस्सा श्रम में अधिक उपयोग में आये, अंतत: वह श्रम करना ही है। नौकरी छूटने की चिंता सब तरह के श्रमिकों में एक जैसी पायी जाती है क्योंकि वे साधनों के स्वामी नहीं है और अब तो वे `विकट बाजार´ के अधीन हैं।

नया आयाम यह है कि संस्थानों के प्रबंधन से, मालिकों या पूँजीपतियों से, वर्ग के रूप में श्रमिकों का जो आवश्यक द्वैत बनना चाहिए था, वह अजीब से मैत्री-भाव में तबदील होता दिख रहा है। इससे ट्रेड यूनियन की धार ही कुंद पड़ती जा रही है। तब वह `सर्वहारा के संगठन का केंद्र´ कैसे बन सकता है, यह पड़ताल और आकांक्षा का विषय है क्योंकि बिना विचारधारात्मक उद्देश्य के कोई भी श्रम-संगठन केवल `तनख्वाह बढ़ाओ समूह´ में स्खलित हो जाएगा जबकि उसके पास बेहतर दुनिया का स्वप्न हमेशा रहना चाहिये। इसलिए अनिवार्य है कि ट्रेड-यूनियनों के स्तर पर अपने शीर्ष नेताओं तथा दूसरी-तीसरी पंक्तियों के नेतृत्वकारी साथियों के बीच विचारधारात्मक शिक्षा का नियमित प्रसार हो और प्रतिबद्धताओं का महत्व समझा जाए और अपने जीवन से उनका प्रमाण दिया जाए। सबसे महत्वपूर्ण बिंदु तो यही समझना होगा कि ट्रेड यूनियन आंदोलन एक व्यापक और वैचारिक गतिविधि है। इसलिए वह गहरे अर्थों में राजनीतिक और क्रांतिकारी सक्रियता भी है। उसकी एक सामाजिक-सांस्कृतिक भूमिका भी है। वह अकेले में की जाने वाली अथवा किसी संस्थान विशेष के श्रमिकों के बीच घटित होने वाली कार्यवाही भर नहीं है। वह समाज में उत्पादन और सेवाओं के रिश्ते तय करते हुए, नए समाज को बनाने का भी एक कारखाना है। वह समाज से उपजी है, समाज सापेक्ष है और समाज में अपना पक्ष लेकर ही काम कर सकती है। यही पक्षधर दृष्टि उसके अस्तित्व का आधार है। इसलिये तेजी से बढ़ते जा रहे असंगठित क्षेत्रों यथा प्रिंट-इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, सॉफ्टवेयर-हार्डवेयर कंपनियाँ, निजी वित्तीय संस्थानों, सेवा क्षेत्र की अनगिन कंपनियों, होटल-पर्यटन व्यवसायों आदि तक ट्रेड यूनियन आंदोलन को अपने प्रखर, वास्तविक और वैचारिक कार्यवाही के रूप में प्रसारित करने का काम भी, वर्तमान में सक्रिय ट्रेड यूनियनों तथा समानधर्मा वामपंथी संगठनों के सामने चुनौती की तरह है।

अंत में एक प्रांसगिक निरीक्षण।
उत्तर भारत में ट्रेड यूनियन संबंधी वैचारिक परिपत्रों और साहित्य का जो थोड़ा-बहुत वितरण होता है, अचरज की बात है कि वह ज्यादातर अंग्रेजी में होता है, इससे शिक्षा और सूचना के प्रचार में गहरा अवरोध आता है। ट्रेड यूनियनों को तत्काल ध्यान देना होगा कि भाषा का अंतराल किसी भी अभीष्ट को मुश्किल बनाते हुए धीरे-धीरे असंभव बना देता है और आम सदस्य साथियों को अपढ़ बनाए रखने में अपनी अनजानी भूमिका निबाहता है।
00000

मंगलवार, 29 सितंबर 2009

जनगीत

अशोक नगर इप्‍टा और प्रलेस के साथी, जिनमें हरिओम राजौरिया, पंकज दीक्षित, राजेश खैरा, विनोद शर्मा जैसे दसियों साथी शामिल हैं, वे जनगीत गायन में इतनी भावना, हार्दिकता और ऊर्जा भरते हैं कि वह सुनने का एक अनुभव हो जाता है। उसी तरह के अनुभवों को स्‍मरण करते हुए यह कविता उन्‍हें समर्पित है। सादर और सप्रेम।


जनगीत
(`इप्टा´ अशोक नगर के साथियों के लिए)


जिन तीन लोगों का स्वर अच्छा नहीं है
और वे दो जो बेसुरे हैं
ये सब दूसरी तमाम आवाज़ों के साथ मिलकर
कितने सुरीले लग रहे हैं
और अब एक तूफान खड़ा कर रहे हैं
उनकी उठान देखिए, वे नक्षत्रों तक पहुँच गए हैं
एक शब्द के फेंफड़ों में कितने लोग फूँक रहे हैं अपनी साँस
उस शब्द की छिपी ताकत दिखने लगी है
सोयी हुई पंक्तियों की अँगड़ाइयों ने रच दी है नयी देहयष्टि

एक पान की दुकान से निकलकर आया है
दूसरे की आवाज़ में सीमेंट की धूल की खरखराहट है
और एक बाँसुरी जैसे शरीर में से
नगाड़े की आवाज़ पैदा कर रहा है
जिंदगी ने खरोंच दी है उसकी आवाज
और उसे पता ही नहीं अब वह क्या कमाल कर रहा है

चीजों पर जमा धूल गिर गई है
और वे चमक रही हैं धातुओं की तरह

मनुष्य ही है जो गा सकता है गीत
दुर्दिनों के बरअक्स रखता हुआ अपने स्वप्न
कि बस अब सब कुछ ठीक होने को ही है
और इसे कोई ईश्वर वगैरह ठीक नहीं करेगा
आरोह में यह पुकार जो प्रार्थना की खाई में नहीं गिरती
यहाँ याद आती है अनायास ही गोर्की की यह बात :
`अगर तुममें वह शक्ति नहीं
और वह कुछ करने की तीव्र इच्छा नहीं
जिसकी शिक्षा देता है यह गीत
तो इसे गाने भर से कुछ नहीं मिलनेवाला !´

संगीत और शब्दों की जुगलंबदी के बहाने
यह याद दिलाने के लिए शुक्रिया
कि उठकर चलने का एक और मौका
ठीक हमारे सामने है।
0000

बुधवार, 16 सितंबर 2009

यह व्‍यवस्‍था तुम्‍हें मार नहीं डालना चाहती


'श्रम के घंटे और मनुष्‍य का अवकाश' लेख की यह तीसरी और अंतिम किश्त।
यह कुछ बड़ा अंश है। लेकिन आशा है कि इसे धीरजपूर्वक पढ़ लिया जायेगा।

जीवन-स्तर और जीवन की गुणवत्ता
जो लोग तर्क देते हैं कि यदि वे अपना कार्यालयीन काम छोड़कर जाएँगें तो अगले दिन वही काम करना तो उन्हें ही पड़ेगा। उनके तर्क में ही असली समाधान छिपा हुआ है - कि `वह काम `अगले दिन´ करना होगा, उसी दिन नहीं।´ पूरी समस्या तो एक दिन में कार्यावधि से अधिक काम करने से संबंध रखती है। जो एक दिन में पूरा नहीं हो रहा है वह उस दिन का काम नहीं है, अगले दिन का काम है। और जो काम एक महीने में पूरा नहीं हो रहा है, दरअसल वह काम एक से अधिक आदमियों का काम है। अब तो ट्रेड यूनियनें यह बात सगर्व कहने लगी हैं कि देखिए, हमारे कर्मचारियों ने समय से भी अधिक बैठकर काम किया है और संस्थान के लिए इतना अधिक लाभ अर्जित किया है जबकि उन्हें इस बात पर किंचित लज्जित और चिंतित होना चाहिए और ऐसा न हो, इसके हर संभव उपाय करना चाहिए।
प्रतिष्ठित संस्थानों में आर्थिक अथवा अन्य सुविधाओं का प्रलोभन देकर, अधिक समय तक काम लेने की प्रवृत्ति ने अधिकारी-कर्मचारियों को भी खास तरह के नशे का शिकार बना दिया है। उनमें से तो अनेक न केवल इसे उचित मानते हैं बल्कि उन्हें लगता है कि इससे उन्हें कुछ धनलाभ हो रहा है, वह बरकरार रहना चाहिए। यह अतिरिक्त आय का नशा है जिसमें वे भूल जाते हैं कि इस तरह वे रोज-रोज `कम मनुष्य´ (less human) हो रहे हैं और उन सब नकारात्मकताओं और मुश्किलों की जकड़न में आ रहे हैं जिनका कुछ विवरण ऊपर दिया गया है। इन नशेलचियों में वे लोग भी शामिल हैं जो कैरियरिस्ट हैं। वे इस बात की सुखद कल्पना करने की ताकत ही खो बैठे हैं कि किस तरह उनके जीवन से `अतिरिक्त प्राप्य एक हजार रुपया महीना कम हो जाए लेकिन समय पर कार्यालय से वापसी हो जाए´ तो मनुष्य के रूप में उन्हें कितनी शांति, प्रफुल्लता, स्वास्थ्य और आंनद मिल सकता है। (जिसे पाने के लिए बाद में उन्हें औसतन दो हजार रूपए महीने खर्च करने ही पड़ते हैं।) मनुष्य की इच्छा, सुखद कल्पनाशीलता और आकांक्षा को खो देना ही श्रमिकों के लिए सबसे बड़ा अभिशाप हो सकता है जिसे आज का संगठित श्रमिक भी भुगत रहा है लेकिन यही बात संस्थानों के लिए वरदान हो जाती है इसलिए वे कुछ दे-दिलाकर श्रमिक से अतिरिक्त घंटे काम करा लेने को सहज-स्वीकार्य बनाते जा रहे हैं। यह श्रमिकों का वस्तुरूप में खरीदे जाने का ही एक प्रकार है। यह एक नया विनिमय मूल्य है। (याद करें दासप्रथा।) वे चाहते हैं कि इस स्थिति का कोई प्रतिरोध न हो। बल्कि वे यह तक कहने से पीछे नहीं हटते कि ऐसा करके हम श्रमिक के जीवन स्तर को बढ़ा रहे हैं। कहना चाहिए कि हाँ, आप ऐसा करके श्रमिक के जीवन-स्तर को कुछ हद तक आर्थिक तौर पर बढ़ा रहे हैं लेकिन उसके `जीवन की गुणवत्ता और आयु´ को काफी हद तक कम कर रहे हैं। यह बात पर्दे के पीछे रह जाती है कि वस्तुत: उनका लक्ष्य सिर्फ अपने संस्थान का लाभ बढ़ाना है। श्रमिक के जीवन-स्तर या उसकी समस्याओं से तो उनका तनिक भी सरोकार नहीं है। जिन सुविधाओं या वेतन की बात वे (संस्थान) करते हैं, वह तो श्रमिकों द्वारा घोर संघर्ष के बाद प्राप्त किया गया हैं।
यह उनका दिया हुआ नहीं, उनसे लिया हुआ है। इसमें उन्हें गर्व करने का हक ही नहीं है। संतोष की बात यह होना चाहिए कि अभी भी श्रमिकों में कुछ लोग ऐसे हैं जो अपना समय बेचकर किंचित सुविधा या पैसे को लात मारना चाहते हैं और अपने अवकाश के प्रति लालायित हैं। ये वे लोग हैं जो मनुष्य के रूप में अपनी भूमिका, रचनात्मकता, सामाजिकता और विविधता को तरजीह देते हैं। वे इसी तरह मनुष्य की आंशिक मुक्ति का ही स्वप्न देखते हैं। ट्रेड यूनियन के लिए भी यह स्वप्न, यह प्रयास और यह अभिलाषा शक्ति और दिशा देने वाला होनी चाहिए इसलिए संस्थान में उपस्थित `सुविधा और धन की चाह´ के नशे के आदी हो रहे कर्मचारी-अधिकारियों को नासमझ नशेलची मानकर उन्हें इससे मुक्ति दिलाना चाहिए, सही शिक्षा देना चाहिए। क्योंकि उन्हें नासमझों द्वारा निर्मित तर्क और हाल पर नहीं छोड़ा जा सकता अन्यथा वे तो इस विषम परिस्थिति का शिकार होंगे हीं, अन्य श्रमिकों के लिए भी प्रदूषण और दुष्प्रेरणा के नए स्‍त्रोत भी बनेंगे।

यह व्यवस्था तुम्हें मार नहीं डालना चाहती
अब्राहम लिंकन जब अपने पुत्र के शिक्षक को पत्र लिखते हैं कि `मेरे बेटे को तारों को, किताबों को, आकाश में विचरण करते पक्षियों को भी देख सकने का समय और सामर्थ्‍य मिलना चाहिए´ तो इसके बड़े़ आशय हैं। यदि हम इसमें चाँदनी रात, नौका-विहार, सूर्योदय-सूर्यास्त, नयी जगहों को देखने का सौन्दर्य, प्रिय को निहारने और झरने की कल-कल सुनने जैसी अनेक चीजें जरूरतों की तरह शामिल कर लें तो इसकी व्यापकता और बढ़ जाएगी। लिंकन जैसे अनेक विचारक मनुष्य के विकास और मुक्ति को विशाल अर्थों में देखते रहे हैं। इस विचार परंपरा को आगे बढ़ाना ही वांछनीय है। ध्यान रखना चाहिए कि `तनाव और आनंद´ का संबंध विलोम अनुपाती है। आप तनाव में रहते हुए, किसी भी उपलब्ध सुविधा का आनंद नहीं ले सकते। यही कारण है कि आज सांस्थानिक कर्मचारियों- अधिकारियों के घर में औसत सुख-सुविधा के साधन होते हुए भी वे आनंदित नहीं हैं और ऊपर से हँसते-मुसकराते हुए शोकमय जीवन बिता रहे हैं। सुविधाओं का आनंद ले पाने का सामथ्र्य उनमें बचा ही नहीं है। ये सुविधाएँ कई बार इसलिए भी दी जाती हैं कि वह भौतिक तौर पर अपने को उच्चतर या बेहतर अवस्था में अनुभव करे और किसी तरह का प्रतिरोध न कर सके। रघुवीर सहाय अपनी कविता में कहते हैं कि यह व्यवस्था आपको मार नहीं डालना चाहती। अर्थात् वह इतना जरूर आपको देती रहेगी कि आप जीवित रह सकें क्योंकि उसे आपसे काम लेना है। आपको मारकर तो वह खुद जीवित नहीं रह सकती। इसका नया विस्तार यह है कि वह आपको कुछ सुविधाएँ भी देगी (यद्यपि संघर्ष के बाद विवश होकर) क्योंकि वह आपके भीतर उपजने वाले संभव असंतोष को कुछ हद तक खतम करना चाहेगी ताकि उसे चुनौतियाँ और कर्मचारी का असंतोष न सहना पड़े। उसका अस्तित्व और लाभ बना रहे।
मध्यवर्ग मूलत: सर्वहारा ही है
हम देख सकते हैं कॉल सेन्टर्स में, निजीकृत तकनीकी और कंप्यूटर संबंधी इकाइयों में दस से बारह घंटों का काम लिया जा रहा है। इसके लिए कोई कानूनी क्रियान्वयन, श्रमिक आंदोलन या प्रभावी उपाय नहीं है तो उसका सबसे बड़ा कारण है कि देश के विशाल मध्यवर्ग के बीच यह भ्रम फैला देने में कामयाबी मिल गई है कि वे लोग श्रमिक नहीं हैं। वे तो `सेवा क्षेत्र´ में हैं और `बौद्धिक´ हैं या `आधुनिक तकनीक के जानकार´। जब यह दुष्प्रचार सफल हो गया हो कि एक समझदार, पढ़ा-लिखा, युवतर और विशाल वर्ग अपने आपको `श्रमिक´ न माने तो यह होना ही है कि वे पूँजीवाद और पूँजीपतियों के सिर्फ शिकार होते चले जाएँ। बाबुओं या बाबूनुमा अधिकारियों की सफेदपोश उपस्थिति को वे बढ़ावा देना ही चाहते हैं क्योंकि इससे एक ऐसा वर्ग बनता है जो `अपने को सर्वहारा वर्ग से अलग कर सकता है´ और किसी भी तरह के क्रांतिकारी आंदोलन का सच्चा सहायक नहीं हो सकता। जबकि व्यवहारिक और पारिभाषिक तौर पर वह सर्वहारा ही है : `वह वर्ग जिसका पूँजी पर कोई मालिकाना हक नहीं है और जो रोज-रोज अपना श्रम बेचने के लिए बाध्य है।´ नयी पीढ़ी को वैश्वीकरण ने एक ऐसे जाल में फँसा लिया है कि वे संघर्षपूर्ण दृष्टि से विचार करने लायक स्थिति में ही नहीं छोड़ दिए गए हैं। ऐसे युवाओं की जीवनचर्या पर भी यहाँ निगाह डालना उचित होगा। वे युवावस्था के जोश, उन्माद और क्षमता में जो काम कर रहे हैं उससे उनके पास समयाभाव है। थकान से भरे हुए वे प्राय: काम के बाद शराब, क्लबों और सतही मनोरंजन के सामने आत्मसमर्पण कर देते हैं। वे आरंभिक दिनों में खिले हुए फूल की तरह काम पर जाते हैं और जल्दी ही मुरझाए फूल की तरह काम से वापस आने लगते हैं। फिर वह दिन आता है कि वे एक बासी फूल, जिसकी पंखुरियाँ लटक रही होती हैं और जिसका पराग झर चुका होता है, की तरह काम पर जाते दिखते हैं और निढाल, कमजोर, चिड़चिड़े और चुके हुए कातर या मिनमिनाते आदमी की तरह वापस आते हैं। उनकी तुलना सिर्फ उस गन्ने के टुकड़े से हो सकती है जो रस निकालने के लिए जब मशीन में डाला जाता है तो स्वस्थ, सुडौल और रस से भरा होता है लेकिन दूसरी तरफ से निकलते हुए उसका रेशा-रेशा बिखर जाता है, रसहीन हो चुका होता है और महज छूँछन बचती है। श्रम की मशीन में अत्याधिक दबाव में काम करते हुए मनुष्य की यह हालत होने में दस-बीस साल लग सकते हैं लेकिन आर्थिक उदारवादी व्यवस्था ने जिस तरह का दिलकश उत्पीड़न श्रमिकों के लिए, खासतौर पर बौद्धिक श्रमिकों के लिए प्रस्तुत किया है वह मनुष्य को छूँछन बनाने में अधिक समय नहीं लेता, बमुश्किल तीन से पाँच बरस पर्याप्त सिद्ध होते हैं। छूँछन का यह असर जितना शरीर पर पड़ता है, आत्मा पर उससे कम नहीं।
आप-हममें से कौन ऐसा पालक होगा जो यह स्वप्न देखे कि `हमारे बच्चे को रुपए तो पचास हजार महीने मिलें फिर चाहे वह साढ़े नौ बजे काम के लिए निकले, वहाँ जुटा रहे, थक-हारकर रात आठ बजे तक घर लौटे, किसी पब में घुस जाए, कब्ज की गोलियाँ खाता रहे, टेलीविजन निहारता हुआ बिना कपड़े बदले ही सो जाए और फिर सुबह आठ बजे उठकर आपाधापी में तैयार होते हुए इसी दिनचर्या को दोहराता चला जाए। उसके साप्ताहिक अवकाश को भी संस्थान हजार-पाँच सौ रुपए में खरीद ले, एकाध अवकाश उसे हासिल हो तो उसमें खूब खाए-पीए और सोए ताकि अगले दिन से फिर कामकाजी दिनचर्या की भट्टी में प्रवेश कर सके। इस तरह धीरे-धीरे सामाजिक-सांस्कृतिक तौर पर वह निरंक होता चला जाए और जब उसका विवाह हो तो वह अपनी कामकाजी या घरेलू पत्नी को भी अपनी आपाधापी और अपने कोलाहल का हिस्सेदार बना ले।´ निश्चय ही कोई भी विचारशील व्यक्ति अपने बच्चों के लिए ऐसी कल्पना नहीं कर सकता। कितनी मजेदार बात है कि वह खुद ऐसी स्थितियों का शिकार होता चला जा रहा है लेकिन उसका प्रतिरोध गायब है। इस प्रतिरोध को जगाना, श्रमिक के, मनुष्य के मूल कत्र्तव्य के रूप में आज सबसे जरूरी है। जितना जटिल जीवन यह होता जा रहा है उसमें सप्ताहांत में दो दिन का अवकाश हो, अब बात यहाँ से प्रारंभ होनी चाहिए। पाँच दिन के काम के बाद, लगातार दो दिन का अवकाश ही एक श्रमिक को मनुष्य का वह अवकाश दे सकता है जिससे वह अधिक तनावमुक्त, आनंदित और अधिक नागरिक हो सके। लेकिन इसका अर्थ यह कतई नहीं है कि अपने कामकाजी दिनों में वह सुनिश्चित कार्यावधि से अधिक श्रम करे। यह सुनिश्चत किए जाने में कोई आपत्ति नहीं है कि श्रमिक अपने कामकाजी घंटों में पूरी क्षमता, योग्यता और जबावदारी से कार्य कर सके। प्रबंधन का मूल दायित्व भी यही है कि इस तरह से कार्य-संस्कृति और कार्य ले सकने का वह सुप्रबंध करे। इस संबंध में संस्थान अपने कुप्रबंध या प्रबंधन अक्षमता को कर्मचारियों के ऊपर ढकेल कर, उनसे अतिरिक्त श्रम कराए, यह स्थिति एकदम अस्वीकार्य होनी चाहिए।
संस्थागत काला जादू
जब संस्थान कहता है कि यह संस्था आपका परिवार है, अपनी क्षमता से अधिक काम करना और मर-मिट जाने की भावना या हार्दिकता से काम करना आपका धर्म है तो इससे अधिक चालाकी कुछ नहीं हो सकती। संस्था में काम कर रहे लोगों से तो पारिवारिकता हो सकती है लेकिन यह निर्दयी तथ्य है कि श्रमिक की किसी संवेदनशील या भावुक स्थिति में, संस्थान उसके साथ मित्र की तरह पेश नहीं आ सकता और न ही श्रमिक किसी भावना या भावुकता के तहत किसी संस्था में काम करना स्वीकार करते हैं। पिंच्यानबे प्रतिशत लोगों को नौकरियाँ उनकी रुचि के आधार पर नहीं मिलती हैं। वहाँ उनकी भर्ती नियमों, सेवाशर्तों, संस्थानों के लिए आवश्यक योग्यताओं और आर्थिक भुगतान के आधार पर होती है एवं वे अपनी ठोस, भौतिक जरूरतों के तहत वहाँ काम करते हैं ताकि वे एक मनुष्य के रूप में जीवित, सक्रिय और सकुशल रह सकें। लेकिन हम देख रहे हैं कि यह नारा उन्हें जीवित रखने में तो मददगार है लेकिन `सक्रिय और सकुशल´ नहीं रख पा रहा है। `सक्रिय और सकुशल´ केवल संस्था और उसके मालिक रह गए हैं। या अधिक से अधिक उसके उच्च प्रबंधकगण। जाहिर है कि ये सब नारे एक श्रमिक को भावनात्मक स्तर पर ब्लेक-मेल करने के साधन हैं ताकि उसका अधिकाधिक समय और श्रम चुराया जा सके। संस्थान द्वारा सामूहिक स्तर पर यह ब्लेक-मेलिंग सम्मोहन का असर पैदा कर सकती है इसलिए इन प्रयासों को `संस्थागत काला जादू´ कहना उचित होगा। इसका असर इस हद तक हो जाता है कि एक दिन श्रमिक को समय से अधिक काम करना नैतिक प्रतीत होने लग सकता है। जबकि यह कितना हास्यास्पद और विरोधाभासी है कि तनख्वाह दी जाएगी सात घंटे रोज की और यदि आप `केवल सात घंटे´ काम करेंगे तो आपकी निष्ठा और कार्यकारी चरित्र को ही संदिग्ध मान लिया जाएगा। ऐसा वातावरण बनने लगा है इसलिए भी अब इसका सार्थक प्रतिरोध आवश्यक है। ट्रेड यूनियन की दृष्टि से अब उन कर्मचारी-अधिकारियों को शत्रु मानने में कोई हर्ज नहीं होना चाहिए जो निर्धारित कार्यघंटों से अधिक काम करते हैं। निश्चय ही ये वे लोग हैं जो अपने कैरियरिज्म, भीरूता, प्रतिरोधहीनता और तुच्छ व्यक्तिगत लाभप्रदता के चलते संस्थान के मालिकों और प्रबंधकों को इस बात के लिए प्रोत्साहित कर देते हैं कि वे तयशुदा कार्य-समय से अधिक कार्य करने के लिए शेष श्रमिकों पर दबाव बना सकें। कर्मचारियों की मौजूदा संख्या से अधिकाधिक कार्य करा लेने के नवीनतम हथकंडे इस्तेमाल करने के तहत, संस्थानों ने समानांतर रूप से यह चाल चली है कि वे नयी भर्तियाँ लगभग नहीं कर रहे हैं। इससे एक पक्ष यह बन गया है कि संस्थानों में कार्यरत् मौजूदा श्रमिकों की औसत आयु `पैंतालीस वर्ष´ हो चली है। हम जानते हैं कि यह ऐसा आयुवर्ग है जब आदमी अपने पारिवारिक दायित्वों में सबसे ज्यादा फँसा और दबा रहता है। उसकी जवानी खतम हो चुकी होती है और वह प्रतिभाशाली होते हुए भी किसी नए उपक्रम में जाने लायक ऊर्जस्वित नहीं बचा रहता। उसकी लड़ाकू क्षमता कम होने लगती है और वह इन सब स्थितियों के चलते समझौतावादी हो जाता है। वे इस पूरी पीढ़ी के नष्ट अथवा सेवानिवृत्त हो जाने की प्रतीक्षा में हैं। उनकी बेचैनी इस हद तक है कि वे समयपूर्व सेवानिवृत्ति के पैकेज देने में नहीं हिचक रहे हैं। इस वजह से भी पिछले कुछ वर्षों में श्रमिक विरोधी परिस्थितियों को लागू किया जा सका है और श्रमिकों के खिलाफ कुछ नए प्रस्ताव उनके झोले में हैं। संस्थान ताक में है कि जैसे-तैसे यह पीढ़ी विदा हो जाए तो नयी भर्तियों को वे अधिक श्रमिक-विरोधी सेवाशर्तों के लाभदायक आलोक में कर सकें। यहाँ आप उचित समझें तो रुककर अपने बच्चों के जीवन और भविष्य के बारे में कुछ तटस्थ तरीके से विचार कर सकते हैं कि क्या आप ऐसा ही संसार उन्हें छोड़कर जाना चाहते हैं।

मालिकों या प्रबंधन से मित्रता एक खतरनाक विचार है
संस्थानों में मालिकों की उपस्थिति अब श्रंखला के रूप में स्थापित कर दी गई है। राजनीतिक-प्रशासनिक स्तर पर मार्क्‍स ने इसे देखा था और कहा था कि आइ.ए.एस. (उच्च प्रशासनिक अधिकारीगण) सरकारों के मुंशी होते हैं, इसके अलावा कुछ नहीं। अन्य संस्थानों में आइएएस का स्थान उच्च प्रबंधक लोग ले लेते हैं। जो भी कार्यपालक की स्थिति में होंगे वे अधिक चतुराई से मुंशीगिरी से भरी क्रूरता कर सकेंगे। उन्हें इस बात के लिए प्रारंभ में तथा बीच-बीच में बाकायदा प्रशिक्षित भी किया जाता है। इस मायने में ये सारे प्रशिक्षण केंद्र श्रमिकों के कातिलों को तैयार करते हैं। जो कार्यपालक होंगे वे मालिक के विश्वसनीय प्रतिनिधि के तौर पर ही काम करेंगे। इसलिए कार्यपालकों एवं अन्य अधिकारी-कर्मचारियों के बीच का संबंध द्वंद्वात्मक और संघर्षपूर्ण ही हो सकता है। रोजमर्रा की मुश्किलों से बचने के लिए उनसे स्थापित मैत्रीपूर्ण संबंध, श्रमिकों की दूरगामी और दीर्घकालिक लड़ाइयों को गहरा नुकसान पहुँचाने में सक्षम है। कार्यपालक तो मैत्रीपूर्ण संबंधों का उपयोग श्रमिक से, कार्यावधि के पश्चात् कार्य लेने में एवं अन्य तरह से शोषण करने में ही करेगा। ट्रेड-यूनियन के मूलभूत सिद्धांतों को याद करें तो याद आएगा कि `मालिक और श्रमिक (बुर्जुआ और सर्वहारा) के बीच असमाधेय वैमनस्यपूर्ण अंतर्विरोधी अस्तित्व का संबंध हैं।´ इसलिए उनसे मित्रतापूर्ण रवैया ट्रेड यूनियन आंदोलन को निस्तेज और निष्प्रभावी करने में समर्थ है। यह कपोल कल्पना नहीं है कि यंत्रीकरण के जरिए सारे पूँजीपति और पूँजीवादी संस्थान अपने यहाँ से एक दिन मनुष्य-कर्मचारियों को हटा देने की आकांक्षा रखते हैं ताकि वे निर्बाध गति से अपनी पूँजी बढ़ा सकें और समाज के सर्वहारावर्ग को कीड़ो-मकोड़ों में बदल सकें। इसलिए यहाँ श्रम-संगठनों के सामने, पूँजीपतियों द्वारा धड़ल्ले से किए जा रहे यंत्रीकरण ने अस्तित्व की ही चुनौती दे डाली है। बिडंवना यह है कि यंत्रीकरण के लिए आवश्यक अपार पूँजी का उत्पादन, श्रमिकगण/कर्मचारीगण कार्यावधि से अधिक काम कर पैदा कर रहे हैं। इसे ही अपनी कब्र आप खोदना कहते हैं।

संस्थानों का लाभ और उनकी बदमाशियाँ
यहाँ उदारवाद और निजीकरण के नारों से भरपूर इस समय में `संस्थानों के लाभ कमाए जाने´ की जरूरत पर भी संक्षिप्त विचार करना प्रासंगिक है। वैश्विक पूँजी और उपभोक्तावादी नजरिए का एकमात्र इरादा है कि कल्याणकारी राज्य या कल्याणकारी समाज की कल्पना को समूल नष्ट कर दिया जाए। श्रमिक की पूरी लड़ाई इस नृशंस विचार के विरोध में होना चाहिए इसलिए `संस्थानों के लाभ´ को उस तरह नहीं देखा जा सकता जिस तरह वे शुद्ध आर्थिक लाभ के रूप में इसकी परिगणना करते हैं। लाभ को उत्पादन की श्रेष्ठता के साथ-साथ, उत्पादकों (श्रमिकों) के `जीवन की गुणवत्ता और श्रेष्ठता´ से जोड़ा जाना चाहिए। यह पूँजीपति और श्रमिक दृष्टि में मूलभूत लेकिन निर्णायक अंतर है। यहीं सारा झगड़ा और झंझट है। दूसरा, यह तय है कि प्रबंधकीय क्षमताओं के साथ, श्रमिकवर्ग की मुश्किलों को दूर करते हुए भी, लाभ कमाया जा सकता है। हो सकता है कि इस तरह से जो लाभ पैदा हो वह मात्र एक करोड़ रुपए सालाना हो लेकिन श्रमिकों का गला काटकर, उन्हें मनुष्य के रूप में विकलांग बनाकर जो लाभ मिलेगा वह एक सौ करोड़ रुपए का हो। इस अतिलाभवादी, पूँजीवादी आकांक्षा और अमानुषिक व्यवस्था का ही तो विरोध होना चाहिए। क्योंकि उनका अतिलाभ श्रमिकों की गलती हुई हडि्डयों और छीजती हुई आत्मा की कीमत पर है। यह पूँजी है जो उन्हें जोंक की तरह चूस रही है और अट्टहास कर रही है। किसी देश या समाज की प्रगति का अर्थ कतई यह नहीं है कि संस्थान, कारखाने, उपक्रम और उनसे जुड़े पूँजीपति उल्लेखनीय लाभ कमाते रहें लेकिन उनमें काम करने वाले श्रमिकों या कर्मचारियों का जीवन गर्त में जाता रहे या वे एक कमतर मनुष्य का जीवन जीने के लिए विवश रहें। मनुष्य और समाज के विकास के लिए यह अत्यावश्यक है कि उनकी सिर्फ आर्थिक उन्नति ही न हो बल्कि वे सामाजिक, सांस्कृतिक और सृजनात्मक स्तर पर भी सक्रिय, प्रसन्न और विकासमान रहें। और अंत में, यह भी जाहिर बात हैं कि लाभ कमाते संस्थानों, कारखानों और उपक्रमों को पूँजीपति खरीदने या हड़पने के लिए किस तरह कागजों पर हानिप्रद संस्थानों में तबदील करने की महारत रखते हैं। ध्यान देने योग्य बात है कि जब भी इस तरह के संस्थान बिकते या नष्ट होते हैं तब उनके मालिक, उच्च प्रबंधकगण या पूँजी-स्वामी कभी नहीं उजड़ते। बेरोजगार या नष्ट होते हैं तो सिर्फ उसमें काम करने वाले श्रमिक। यह आरोप बहुत झूठा, बेतुका और फरेब पैदा करने वाला है कि कर्मचारियों या श्रमिकों की बदौलत कोई संस्थान दिवालिया होता है। शोचनीय स्थिति है कि इस तरह के आरोपों के पक्ष में, पूँजी के प्रचार माध्यमों ने विश्वसनीय लगने वाला वातावरण बनाने में सफलता प्राप्त कर ली है। प्रबंधन, नियमन की असफलता, भ्रष्ट आचरण, पद और पूँजी के दुरुपयोग ही निगमों-संस्थानों के घाटे में जाने के उत्तरदायी कारण होते हैं। इन चीजों को दुरुस्त करने के बजाय श्रमिकों से कार्यावधि से अधिक काम लेने की रणनीति मनुष्यविरोधी है और प्रखर प्रतिरोध की आवश्यकता को रेखांकित करती है। ध्यान रहे कि यह प्रतिरोध कार्यरत् श्रमिक ही कर सकते हैं। श्रम-संगठनों की महती भूमिका इस बारे में निर्णायक होगी। अभी तो कार्य के घंटे कानून द्वारा भी रक्षित हैं। इस अधिकार और स्वतंत्रता की रक्षा यदि श्रमिक नहीं कर पा रहे हैं तो इसकी जबावदारी श्रम-संगठनों पर जाएगी।
जहाँ श्रम संगठन नहीं हैं अथवा अप्रासंगिक हैं वहाँ उनके गठन और सक्रियता की आवश्यकता भी इसी विमर्श से पैदा होती है। क्‍योंकि इस पूरी श्रमिक विरोधी पूँजीवादी समाज की स्थितियों को केवल श्रम संगठनों के निर्माण और उनकी सक्रियता के बल पर ही बेहतर किया जा सकता है, कुछ अनुकू‍लित किया जाकर बदला जा सकता है।
000000

सोमवार, 14 सितंबर 2009

श्रमिक यंत्र नहीं, जीवित मनुष्‍य है

दूसरी किश्‍त
नौकरी और दासता में कुछ फर्क है
संस्थान में अधिक समय गुजारने का सीधा प्रभाव यह पड़ता है कि शेष समय में भी संस्थान और काम आपका पीछा करता है। यह लगभग वैसा ही है जैसे लंबी रेल-यात्रा के बाद, घर के बिस्तर पर सोते हुए भी हमारी नींद में हमें रेल-बर्थ पर सोने की अनुभूति बनी रहती है या रेल की धड़-धड़ और सीटी की आवाज हमारा पीछा करती है। जब रोजमर्रा के जीवन में यह पीछा होता है तो कार्य समाप्ति के बाद का अवकाश या रविवार का अवकाश भी आपको तनाव मुक्त नहीं कर सकता। फिर तनाव से सप्रयास बचने के लिए आप फिल्म देखते हैं, अधिक सेक्स करते हैं, झील किनारे घूमने जाते हैं, चुटकुले पढ़ते हैं, संगीत सुनते हैं, बागीचे में जाते हैं लेकिन कहीं भी आप स्वाभाविक नहीं रह पाते हैं। अगले दिन का काम, कार्यालय की उपस्थिति आपको घेरे रहती है। आपके बॉस का चेहरा और अगले दिन की संभव आक्रामकता आपके मस्तिष्क में जीवंत बनी रहती है। अब आप एक प्रसन्न, निश्चिंत और स्वाभाविक मनुष्य के रूप में नष्ट हो चुके हैं और एक चमकीले, कमाऊ, प्रतिष्ठित और अभिनयसंपन्न दास की तरह विकसित हो चले हैं। आप बिना किसी प्रतिरोध के अपना अधिकतम समय संस्थान को दे सकें इसलिए ही ओव्हरटाईम या अन्य प्रतिसाद में आर्थिक प्रलोभन की व्यवस्था की जाती है। स्मरण रहे कि लगातार सिटिंग में दिया गया अतिरिक्त समय, फलन के रूप में भी ड्योढ़ा होता है अर्थात आप यदि अनवरत् काम करते हुए दो घंटे अधिक बैठते हैं तो उसका श्रमफल अगले दिन पृथक से आकर किए जाने वाले तीन घंटे के कार्य के बराबर होगा। यह भी बेशी लाभ की तरह संस्थान की जेब में जाता है। किंतु लगातार की यह सिटिंग या श्रम श्रमिक के स्वास्थ्य पर दोगुना विपरीत असर डालती है। यहाँ मूल प्रश्न यह है कि `क्या श्रमिक को मनुष्य के रूप में उपलब्ध अपने समय´ को किसी भी कीमत पर अर्पित करना चाहिए या उसके उलट यह कि `क्या कोई भी राशि मनुष्य के अवकाश की कीमत चुका सकती है´ जाहिर है कि यह सवाल एक-दो दिन अथवा एक-दो वर्ष के लिए नहीं है, लंबी अवधि और लगभग स्थायी समस्या के रूप में देखने योग्य है। मजे की बात यह है कि अधिकांश अवसरों पर (नब्बे प्रतिशत अवसरों तक) श्रमिक को अपने अतिरिक्त श्रम और समय का कोई पारिश्रमिक नहीं दिया जाता है, आधे-एक घंटे की तो गणना होती ही नहीं है। सहज ही समझा जा सकता हैं कि पैसा, मनुष्य के लिए आवश्यक अवकाश का न तो भुगतान कर सकता है और न ही उसका किसी तरह का विकल्प बन सकता है। प्रतियोगिता, बाजारवाद और अस्तित्व बचाने के नाम पर जिन संस्थानों में अघोषित तौर पर कार्य करने के घंटे बढ़ गए हैं वहाँ के कर्मचारियों-अधिकारियों की स्वास्थ्य संबंधी समस्याएँ, एक से दो साल के भीतर ही चरम पर पहुँचने लगी हैं। विस्तृत बात करें तो पीठ दर्द, सिर दर्द, डायबिटीज, रक्तचाप, हृदयाघात, अनिद्रा, तनाव और मोटापा उनके बीच बेहद आम बीमारियाँ हैं। ऐसे श्रमिकों की औसत आयु कितनी कम हो जाएगी, इसका अनुमान लगाया जा सकता है लेकिन सर्वाधिक दुखद पक्ष है कि जितनी भी उम्र तक वे जीवन व्यतीत करेंगे वह दुखमय और रोगमय हो चुका होगा। अमीर संस्थान इनके स्वास्थ्य का पूरा बीमा भी कर दें अथवा इलाज का पूरा पैसा भी दे दें तब भी वे उनके स्वस्थ-जीवन के संभव आनंद का एक प्रतिशत भी वापस नहीं मिल सकता। बैंक, बीमा, संचार, मीडिया और निजी बड़े संस्थानों में, जिनमें श्रमिकों को वाकई कुछ अधिकार मिले हुए हैं, यह स्थिति बद से बदतर होती जा रही है। श्रम के घंटों को सीमित करने का जो न्यायपूर्ण, विवेकपूर्ण, नैतिक और मानवीय अधिकार, श्रम संगठनों एवं श्रमिक पैरोकारों द्वारा लंबे संघर्ष से अर्जित किया गया था, उस अधिकार को धीरे-धीरे हमारी आँखों के सामने चुराया जा रहा है, खतम किया जा रहा है अथवा हमसे खरीदा जा रहा है- ये तीनों स्थितियाँ तत्काल प्रतिरोध की और हस्तक्षेप की माँग करती हैं। अन्यथा हम श्रमिक से दास बनने की प्रक्रिया को तेज कर देंगे। वैसे भी श्रमिक `किश्तों में, रोज-रोज बिकने वाला दास है´ लेकिन पिछली शताब्दी में अर्जित जिन अधिकारों ने उसे मानव का दर्जा दिया उसमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण अधिकार `सुनिश्चित काम के घंटे´ ही था। ये सुनिश्चित कार्यघंटे ही उसे महत्वपूर्ण मायनों में दास से अलग करते हैं। नौकरी और दासता में फर्क है और वह फर्क अधिक व्यापक अर्थों में बना रहना चाहिए। हम मानते हैं कि इस समय ट्रेड यूनियन के सामने सबसे बड़ी चुनौती दैनिक व्यवहार में `श्रम के घंटे बढ़ा दिए जाने´ की है। नौकरी की सुरक्षा ( job security) एक अत्यंत महत्वपूर्ण लेकिन अलग मुद्दा है, उसे इस प्रश्न से मिलाना, घालमेल करना होगा। माँग यह होना चाहिए कि अनौपचारिक तौर पर या चोर रास्तों से कार्यघंटों में कोई वृद्धि न हो, इसका क्रियान्वयन सुनिश्चित (100 प्रतिशत) हो। स्थिति यहाँ तक आ गई है कि यदि कोई कर्मचारी-अधिकारी लगातार एक सप्ताह तक समयानुसार घर चला जाए या जाने की कोशिश करे तो वह न केवल हास्यास्पद स्थिति का शिकार हो जाता है बल्कि उच्चाधिकारीगण उसे कामचोर, असहयोगी या समस्यामूलक सिद्ध कर देते हैं। उसे अन्य तरीकों से भी `ठीक कर देने´ की कोशिश की जाती है यथा उसके अधिकारपूर्ण भुगतानों पर प्रश्न खड़े करने, अवकाश न देने, जोखिमपूर्ण कार्य अथवा अधिक कार्यभार देने, अपमानित करने और खिल्ली उड़ाने या दुष्प्रचार कर संस्थान में उसके विरोध में वातावरण बनाने जैसे प्रचलित तरीके भी प्रयोग में लाए जाते हैं। यह बिडंवना का भयावह और चिंताजनक पक्ष है। ध्यान रहे कि यह वही पुरानी समस्या है जब संस्थानों में आने का समय तो निश्चित होता था, वापस जाने का नहीं। इस बार यह समस्या अधिक तैयारी से आई है और उग्र होकर फैल रही है। इस समस्या से निजात पाने के लिए श्रम-संगठनों के जुझारू नेताओं ने अपना जीवन होम किया था। इसलिए वर्तमान श्रमिक-संगठनों की यह जबावदारी भी है कि उन साथियों का बलिदान व्यर्थ न हो।
श्रमिक यंत्र नहीं, जीवित मनुष्य है
इस प्रसंग में `प्रति कर्मचारी व्यवसाय´ या `प्रति कर्मचारी लाभप्रदता´ कर्मचारियों पर दबाव बनाने के नए औजार हैं। यह संकेतक इसलिए भी अमानवीय है कि इसमें मनुष्य (कर्मचारी) को एक यंत्र की तरह मान लिया जाता है। प्रति कंप्यूटर व्यवसाय देखने में और प्रति कर्मचारी व्यवसाय देखने में संवेदनशीलता और मानवीयता का फर्क स्पष्ट है। यह दृष्टि पिछले वर्षों में आक्रामक बाजारवाद और असमाप्य प्रतियोगिता से पैदा हुई है। यह बैलजोड़ियों या घोड़ों के प्रति अपनायी जाने वाली दृष्टि ही है। बैलगाड़ी दौड़ हेतु गाड़ीवान अपने बैलों को प्रतियोगिता लायक बनाने के लिए दाना-पानी देता है और तैयार करता है लेकिन जब वह दौड़ में पिछड़ रहा होता है तो क्रूर तरीके से अपने उन्हीं बैलों को मारने-पीटने में तनिक भी नहीं हिचकिचाता। सांस्थानिक प्रतियोगिताएँ अधिक शांत और सभ्य दिखती हैं लेकिन कहीं अधिक क्रूर होती हैं। इसलिए मनुष्य को स्थिरांक या यांत्रिक क्षमता में तबदील करते हुए वे गणितीय सूत्र निकालने में जरा भी नहीं शरमातीं। `मनुष्य और यंत्र´ एवं `मनुष्य का यंत्र में बदलना´ जैसे बहुविचारित विषयों को यहाँ स्मरण किया ही जाना चाहिए। संक्षेप में यह कि किसी भी यंत्र का आविष्कार इस उद्देश्य से नहीं किया गया कि वह मनुष्य को प्रतिस्थापित कर दे या मनुष्य को औजार में बदल दे। यंत्र को सदैव ही मनुष्य के सहायक और विस्तारित अंग (extended organ) के रूप में विकसित किया गया। यह तो बाजार और पूँजीपतियों की धनलिप्सा की भयावह चालें हैं जिनकी वजह से वे यंत्रों को मनुष्य की जगह स्थापित कर देना चाहते हैं। क्योंकि उनके लिए श्रमिक या सर्वहारा वर्ग `मनुष्य´ की श्रेणी में ही नहीं है। इसलिए यंत्र यदि मनुष्य को बेदखल भी कर दें तो उनको प्रसन्नता ही होगी बशर्ते कि वह यंत्र उनके लाभ में वृद्धि कर दे। यों भी जब किसी संस्थान में यंत्र अधिक होंगे और मनुष्य कम अथवा वहाँ कार्यरत् श्रमिक जितने अधिक यंत्राश्रित होंगे, वहाँ उतनी ही ज्यादा संभावना होगी कि विचारहीन और प्रतिरोधहीन श्रमिक उपलब्ध हो सकें। ट्रेड यूनियन आंदोलन को खतम करने की यह एक पूर्वपीठिका भी है। यहाँ हमें एक बार फिर माक्र्स याद आते हैं जिन्होंने बेशी मूल्य सिद्धांत में कहा था कि पूँजीवादी संस्थान, नयी तकनीकें लाते हुए हमेशा चाहेगा कि श्रमिकों की संख्या में बढ़ोत्तरी न हो लेकिन उन्हीं श्रमिकों से वह यांत्रिक मदद द्वारा अधिकतम कार्य ले सके और अपने लाभ को नयी ऊँचाइयों पर ले जाए। इसके चलते किसी यांत्रिक, अमानवीय संसार का निर्माण होता हो तो उसकी बला से। लेकिन जो शक्तियाँ श्रमिकों और मनुष्य के पक्ष में हैं, वे इस दुनिया का निर्माण धनपिपासुओं या पूँजीपतियों के स्वप्न के अनुसार नहीं होने दे सकतीं। इसलिए ही यहाँ श्रम-संगठनों, मानवाधिकारों के पक्षधरों और समतावादियों के हस्तक्षेप की, दायित्वपूर्ण निर्णायक भूमिका की महती आवश्यकता जान पड़ती है। आज के समय में और ज्यादा जबकि पूँजी का राक्षसी वैश्विक चरित्र बन रहा है और लोगों को गलत सूचनाएँ दे सकने का, अपने प्रचार का, शोषण का और एकध्रुवीय संसार बना देने का माद्दा उसमें कहीं अधिक दिख रहा है।
प्रश्न यह भी है कि संस्थान के लाभ को क्या प्रत्येक कर्मचारी में पूरी तरह वितरित किया जा सकता है। उत्तर स्पष्ट `नहीं´ है। क्योंकि वह कर्मचारी है, अंशधारक या मालिक नहीं। इसलिए लाभप्रदता क्या है, इस संकेतक को कर्मचारी के `श्रम के घंटो पर´ हंटर नहीं फटकारने दिया जा सकता। कर्मचारी एक श्रमिक के रूप में आपके पास काम करने के लिए आता है और उसकी सेवाशर्तें बेहद स्पष्ट हैं। वह अपनी पूरी क्षमता से काम करे, उसे कार्यस्थल पर उपयुक्त वातावरण और संरचनाएँ मिलें और कार्य-संस्कृति का विकास हो, ये पक्ष महत्वपूर्ण, मान्य और विचारणीय हैं। इन्हीं स्थितियों के भीतर व्यवसाय और लाभप्रदता का विकास हो, इसमें भला किसी को क्या आपत्ति हो सकती है लेकिन इसके लिए उससे कार्य-समय से अधिक काम लिया जाए, यह बात घनघोर आपत्तिजनक होनी चाहिए।
बेरोजगारी और रिजर्व श्रमिक सेना
अपवादी तौर पर, मसलन महीने में तीन-चार दिन यदि उससे अधिक काम लिया जाता है तो उसे अतिरिक्त पारिश्रमिक दिया जाए, इस पर स्वीकार्य स्थिति बनती है लेकिन यह स्थिति लगभग प्रतिदिन बन रही हो तो इसका सीधा संदेश है कि उस संस्थान को अधिक कर्मचारियों की जरूरत है जिन्हें भर्ती करने की स्थिति को वह संस्थान टाल रहा है। इसका संबंध देश में उपस्थित बेरोजगारी से भी जुड़ता है। अर्थात् 10 आदमी 13 आदमियों का काम कर रहे हैं अतएव उन दस व्यक्तियों का जीवन कष्टमय हो ही रहा है, 3 आदमियों का रोजगार भी छिन रहा है। इस तरह यह दो स्तरों पर समाज-विरोधी, देश-विरोधी और मनुष्य-विरोधी स्थिति है। यहाँ प्रसंगवश हमें माक्र्स द्वारा इंगित उस बिंदु पर ध्यान देना होगा जब वे लिखते हैं कि `इस तरह से बेरोजगारी बढ़ती जाती है लेकिन पूँजी के मालिकों के लिए यह सुविधाजनक स्थिति बनती है क्योंकि समाज में उब उसे `रिजर्व श्रमिक सेना´ उपलब्ध है।´ इसका अर्थ यह है कि संस्थान या मालिक अब अपने यहाँ कार्यरत् कर्मचारियों की जायज माँगे ठुकरा सकने और उन पर मनचाही शर्तें थोपने के लिए अधिक उपयुक्त अवसर पाता है। अब वह `हायर एंड फायर´ की माँग करता है क्योंकि उसे पता है कि पीछे रिजर्व श्रमिक सेना खड़ी हुई है जिसे वह मनचाही, अति अमानवीय सेवाशर्तों पर रख सकता है। आऊटसोर्सिंग के जरिए काम ले सकता है। यहीं वे परिस्थितियाँ हैं जहाँ तक आते-आते मालिकों के या संस्थान के पास `पूँजी का विशाल संचय´ होना प्रारंभ हो चुका होता है। अब वह रोजगार की सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं (No Job Security) जैसी स्थितियों पर विचार के लिए सरकारों को विवश कर सकता है क्योंकि वह लाभ कमाकर सरकार में हस्तक्षेप कर सकने की हैसियतवाला पूँजीपति हो चुका है। यह स्थिति उसने अपने उन कर्मचारियों के उस बेशी श्रम, जिसे कर्मचारियों ने कार्यावधि के बाद बैठकर किया, से बेशी लाभ कमाकर ही प्राप्त की है। इसी स्थिति को माक्र्स ने कहा है कि श्रमिक खुद दास बनने के लिए ही मानो पूँजीपति के लिए लाभ का सृजन करता है। इधर श्रम-कानूनों में जो बदलाव हुए हैं और संभव दिख रहे हैं वे इसी अकूत पूँजी की वजह से ही, जिससे वह कानून निर्माताओं को सीधे तौर पर प्रभावित करने की स्थिति में हैं। तमाम श्रम-संगठनों को इस चुनौती का सामना करने के लिए भी तैयार हो जाना चाहिए।

मंगलवार, 8 सितंबर 2009

'श्रम के घंटे और मनुष्‍य का अवकाश'


'श्रम के घंटे और मनुष्‍य का अवकाश' शीर्षक से यह निबंध करीब चार साल पहले 'कथन' पत्रिका में प्रका‍शित हुआ था और इसके कुछ अंश भी इधर-उधर आये थे। पिछली पोस्‍टों में दिए गए धर्म विषयक आलेख को जिस उत्‍साह और रुचि से पढ़ा गया, उससे मुझे आशा है कि इस निबंधात्‍मक आलेख को भी उत्‍सुकता और विश्‍लेषणपरकता के साथ देखा-पढ़ा जायेगा।

आर्थिक मंदी के इस सच्‍चे-झूठे दौर के उतार पर, जबकि श्रम कानूनों को नष्‍ट करने की प्रक्रिया तेज है और प्रतिभाओं को असीमित कार्यघंटों तक काम करने को विवश किया जा रहा है, नौकरियां असुरक्षित है, सामाजिक सुरक्षा के तत्‍व यथा पेंशन तथा वेलफेयर की योजनाएं सेवाशर्तों से गायाब हैं, तब शायद यह सब पुनर्विचार और प्रासंगिकता के लिहाज से प्रबुद्ध साथियों को भी आकर्षित कर सकेगा।

अपने आकार के कारण इसे चार-पांच किश्‍तों में ही दिया जाना संभव होगा।
यह पहली किश्‍त।


श्रम के घंटे और मनुष्य का अवकाश
दास प्रथा का स्मरण करें तो आज सभ्य, विकसित और विचारशील दृष्टि से उसकी तीन ऐसे प्रमुख बिंदु सहज ही सामने आते हैं जिनकी वजह से इस प्रथा को अमानवीय और कलंकित माना गया और इसके खिलाफ जबर्दस्त संघर्ष किया गया - 1. इसमें मनुष्य द्वारा ही मनुष्य का शोषण किया जाता था, मनुष्य के अधिकारों की तो बात छोड़िए, दासों को मनुष्य का दर्जा ही प्राप्त नहीं था। 2. उनसे काम लेते समय उनके कार्य के घंटों का अथवा न्यूनतम सुविधा का विचार नहीं किया जाता था। 3. उन्हें उपयोगी वस्तु या यंत्र की तरह मान लिया गया था। उनका विनिमय, क्रय, विक्रय किया जा सकता था, उन्हें उपहार में भी दिया जा सकता था। इन बिंदुओं को हम ध्यान में भर रख लें ताकि आगामी कथ्य और चर्चा में इनका स्मरण ओझल न हो।
प्रूंदों, हीगेल, रूसो, जैसे अनेक विचारकों ने मनुष्य की स्वतंत्रता, समता और न्याय के पक्ष में जो विमर्श किया उसे मार्क्‍स ने नयी ऊँचाई पर पहुँचाया। इस विमर्श का निकष यही है कि संसार में जितनी भी असमानता और शोषण है उसके आधार में पूँजी का खेल है। रूढ़ियाँ, धर्म और अंधविश्वास (अवैज्ञानिक दृष्टिकोण) इस शोषण और असमानता की न केवल रक्षा करते हैं बल्कि पूँजीपति के औजार की तरह काम आते हैं। पूँजी के बारे में बात करते हुए दो मुख्य बातें यहाँ विचारणीय होंगी- 1. पूँजी अपने आपमें कोई कीमत नहीं रखती, वह तो जड़ है, यह श्रम है जो उसे गति प्रदान करता है और इस तरह उसे मूल्य (लाभ) में बदलता है। 2. पूँजी का मालिक (पूँजीपति), अतिलाभ (overprofit) चाहता है और इसके लिए वह किसी भी तरह के हथकंडे अपना सकता है। इन बिंदुओं को भी ध्यान में रखा जाए।

थोड़े-से अधिक काम का मतलब करोड़ों रुपए
याद कीजिए बेशी मूल्य (surplus value) का सिद्धांत, जिसे आज तमाम कारखानों, वित्तीय संस्थानों और उत्पादक निगमों के संदर्भ में लगभग भुला दिया गया है। मार्क्‍स के सर्वोपरि प्रतिपादनों में से यह महत्वपूर्ण है। बेशी मूल्य का आधार है कि मालिकों या संस्थान द्वारा श्रमिकों से, पूँजी के बदले में आवश्यक उत्पादन मूल्य और श्रमिक के जीवनयापन के लिए आवश्‍यक राशि से अधिक कार्य कराते हुए अपने लाभ को कई गुना बढ़ाना। साथ ही, निश्चित कार्यघंटों से कुछ अतिरिक्‍त इस तरह काम लेना कि उसका पारिश्रमिक या वेतन न देना पड़े। इस तरह का `अदत्त वेतन´ ही वह बेशी मूल्य है जो संस्थान को सीधे लाभ के रूप में मिलता चला जाता है। पढ़ने-जानने में यह छोटी-सी बात लगती है लेकिन इसकी `भयंकर लाभप्रदता´ को एक छोटे उदाहरण से बखूबी समझा जा सकता है। मान लीजिए किसी मध्यम श्रेणी के राष्ट्रीयकृत संस्थान में 10,000 अधिकारी-कर्मचारी कार्यरत् हैं। ये सभी अपने तयशुदा कार्यसमय से, औसतन डेढ़ घंटे अधिक काम करते हैं। माह में 25 कार्यदिवस के हिसाब से ये लोग संस्थान के लिए कुल 3,75,000 घंटे अधिक काम करेंगे जो संस्थान के लिए मुत होगा। यह उतना काम होगा जितना कि 2,142 लोग पूरी तनख्वाह पर 7 घंटे प्रतिदिन के श्रम से एक माह में करते। अब यदि एक अधिकारी-कर्मचारी की औसत तनख्वाह और भत्ते पंद्रह हजार रूपए प्रतिमाह भी मानें जाए तो उस संस्थान को एक माह में रुपए 3,21,30,000 और वर्ष में 38,55,60,000 (मात्र अड़तीस करोड़ पचपन लाख साठ हजार रुपए) का लाभ बेशी श्रम के कारण हुआ। (यदि औसत वेतन दस हजार रुपए माना जाए तो यह लाभ लगभग 26 करोड़ रुपए बैठेगा।) जब तक गणना न की जाए, यह राशि किसी अनुमान में भी नहीं आती।
हमारे एक मित्र कहते हैं कि सार्वजनिक एवं अन्य निकायों में, उन लोगों से होने वाला घाटा भी गणना में लिया जाना चाहिए जो कुछ कर्मचारियों द्वारा प्रतिदिन औसतन दो घंटे कम काम करने से पैदा होता है। चलिए, उसकी गणना करते हैं। लेकिन रुकिए, पहले हम यह देख लें कि ऐसे अधिकारी-कर्मचारी किस तरह के हो सकते हैं जो संस्थान में औसतन दो घंटे कम काम करते हुए भी नौकरी में बने रह पाते हैं। ट्रेड यूनियन से जुड़े सक्रिय साथी, उच्च प्रबंधन के चाटुकार या संबंधी, खिलाड़ी, संगीत-साहित्य-कला या सांस्कृतिक गतिविधियों में दखल रखने वाले और अन्य प्रकार से सामाजिक-राजनीतिक क्षेत्र में प्रभामंडलीय कुछ लोग। इन सबकी संख्या औसतन दस प्रतिशत होती है। उपर्युक्त गणना से यह राशि लगभग पाँच करोड़ रुपए निकलती है। लेकिन अन्य कोण से देखें तो इस राशि को सीधे `बेशी मूल्य से प्राप्त मुफ्त के लाभ´ में से नहीं घटाया जाना चाहिए क्योंकि ऐसे तमाम अधिकारी-कर्मचारी जो ट्रेड यूनियन, प्रबंधन, खेल या कलाओं से जुड़े हैं वे संस्थान के लिए अनेक दूसरी तरह से उपयोगी होते हैं। औद्योगिक संबंधों में, ग्राहक जुटाने में, सामाजिक-राजनीतिक प्रकृति की मुश्किलों में सहायक होने में और संस्थान के लिए गुडविल एकत्र करने में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इनमें से अधिकांश तो संस्थान के अघोषित छोटे-बड़े ब्रांडनेम और शहर-समाज में प्रमुख चेहरों की तरह काम करते हैं। इन भूमिकाओं और कार्यों को यदि आर्थिक गणित में तबदील किया जाए तो वे पाँच की जगह दस करोड़ रुपए वार्षिक की अमूर्त (intengable) कमाई और अतिरिक्त भरपाई कर देते हैं। लेकिन संस्थान इनकी गिनती नहीं करना चाहता। धन को सब कुछ समझनेवालों की संतुष्टि के लिए यदि हम यह राशि कम भी कर दें तब भी, इस उदाहरण में, यह संस्थान 33.6 करोड़ रुपए प्रतिवर्ष `बेशी मूल्य´ के रूप में कमा लेगा। दूसरे शब्दों में, यहाँ उदाहरण बनाए गए संस्थान ने अपने अधिकारी-कर्मचारियों से एक साल में लगभग 34 करोड़ रुपए का काम बिना एक पैसा दिए करा लिया और यह उसका शुद्ध लाभ है। यह चौंकाने वाली राशि है लेकिन सच है। इसे बहुत छोटे कार्यालय के हिसाब से भी देखें तो एक कार्यालय जहाँ कुल 70 लोग कार्यरत हों तो उपरोक्त गणना के अनुसार, वे प्रतिदिन अदत्त वेतन पर डेढ़ घंटे ज्यादा काम करते हुए रुपए 27,00,000/- (केवल सत्ताईस लाख रुपए) बेशी मूल्य के रूप में संस्थान को बैठे-बिठाए वार्षिक कमाई पहुँचा देंगे।
व्यक्ति और कर्मचारी को प्राय: इसकी गणना और अनुमान नहीं होता है। लेकिन तमाम वाणिज्‍ियक संस्थान इस बेशी मूल्य का महत्व जानते हैं और अपने कर्मचारियों से `बस, थोड़ा-सा अधिक काम´ लेने के लिए जमीन-आसमान एक किए रहते हैं। इस हेतु वे प्रशिक्षण-कार्यक्रमों के दौरान, सेमिनारों में, छोटी-बड़ी बैठकों में आवश्यक प्रेरणा प्रदान करते हैं। संस्थान की ओर से `मोटो वाक्य´ प्रसारित करते हैं। इस `अधिक काम को लेने के लिए´ नैतिक जामा पहनाने की कोशिश करते हैं और भावनात्मक तरीकों का इस्तेमाल भी करते हैं। अन्य सांस्थानिक या कार्यालयीन तरीकों का उपयोग तो बेहिचक होता ही है अर्थात् नौकरी की बाध्यता, दबाव की रणनीतियाँ और आधिकारिक रौब। अब तो सीमा-शक्ति से अधिक कार्य करने के लिए `कार्पोरेट मेसैज´ का आविष्कार भी कर लिया गया है। वैश्वीकरण और आर्थिक उदारवाद के चलते `नौकरी की सुनिश्चिता´ बनाए रखने का लोभ बनाम धमकी भी इसमें शामिल हो गई है। संक्षेप में, ये सिर्फ `बेशी मूल्य´ को प्राप्त करने के सांस्थानिक हथकंडे हैं। इसलिए निश्चित कार्यघंटों से अधिक काम लेने के लिए हर तरह की बेरहमी से पेश आने के उदाहरण और औद्योगिक-निर्ममताएँ आज हमारे सामने हैं। यदि संस्थानों को `नियमानुसार कार्य´ (work to rule) का नारा घबराहट से भर देता है तो उसके पीछे बड़ा कारण यही है कि इससे `अदत्त पारिश्रमिक´ की आय पर एकदम रोक लग जाती है और मालिकों या संस्थान की प्रबंधकीय अक्षमताएँ उजागर होने लगती हैं। अब हम यहाँ प्रारंभ में विचार किए गए बिंदु को ध्यान में ला सकते हैं कि हर पूँजीवादी तरीके का लक्ष्य होता है कि अतिलाभ। अतिलाभ की यह आकांक्षा ही उसे लगातार अमानवीय, क्रूर, शोषक और धनपशु बनाती चली जाती है और फिर इन्हीं प्रवृत्तियों के आधार पर नियमों और कानूनों का निर्माण कराने के लिए भी प्रेरित करती है। हाल ही में भारत में हुए श्रम कानूनों में संशोधन किए जाने का कारण है कि पूँजीपतियों का राजनीति में वर्चस्व हुआ और श्रमिक पक्षधरता की राजनीति की आवाज कम हुई।

श्रमिक सबसे पहले एक मनुष्य है
पिछली ही शताब्दी में श्रमिकों ने कार्य के घंटे सुनिश्चित और समुचित करने के लिए जितने आंदोलन किए और तमाम न्यायविदों, विद्वानों, दार्शनिकों, आंदोलनकारी प्रतिभाओं, राजनीतिज्ञों, समाजवेत्ताओं और विचारकों ने इन आंदोलनों का समर्थन किया तो उसका सबसे बड़ा आधार था कि श्रमिक को एक मनुष्य के रूप में अवकाश मिलना चाहिए। मनुष्य को मिलने वाला अवकाश। यह अवकाश उसे न केवल जीवन के लिए स्वतंत्रता देगा बल्कि मनुष्य के रूप में विकसित होने के लिए आवश्यक समय और उत्साह भी देगा। ताकि वह अपनी सामाजिकता, कलाभिरुचियों और परिवार के लिए समुचित समय निकाल सके। यह अवकाश हर मनुष्य के लिए उतना ही आवश्यक है जितना कि भोजन या प्राणवायु। इस अवकाश के बिना वह दास या बँधुआ होता चला जाएगा। वह शोषण और यांत्रिकता का शिकार भी होगा। इस अवकाश का अभाव उसे सबसे पहले मन से रुग्ण करेगा और फिर उसका शरीर भी इस बलिदान में शामिल होता जाएगा। इस अवकाश का अभाव उसे मानसिक, शारीरिक और सामाजिक तौर पर नष्ट करने में सक्षम है। पहली बड़ी सफलता के रूप में जब यूरोप में श्रमिकों के लिए 10 घंटे का कार्य तय माना गया तब उसका जश्न इसलिए मनाया गया था कि इस सिद्धांत को विजय मिली कि कार्य के घंटे कम और सुनिश्चित होने चाहिए। लेकिन ये घंटे भी अधिक थे इसलिए लंबे संघर्षों के बाद छ: से सात घंटों के बीच आकर इसका समाधान हुआ। जहाँ पालियों में काम होता है वहाँ, कुछ अधिक सुविधाओं के साथ आठ घंटों तक का समझौता हुआ। अब जबकि अघोषित तौर पर, भारी प्रतियोगिता, उदारवाद और पूँजीवाद के नए आक्रमण के जरिए घोषित तौर पर श्रमिकों के कार्यदिवस के घंटे बढ़ाए जा रहे हैं तब इस कुल कवायद की मुश्किलों और प्रेरणाओं को समझना चाहिए।


क्या मनुष्य के अवकाश का सौदा संभव है?
ओव्हरटाईम अथवा अन्य किसी रूप में आर्थिक प्रतिपूर्ति क्या मनुष्य को वह अवकाश लौटा सकती है जो निश्चित कार्यावधि तक काम करने के बाद उसे मिलना चाहिए या जिस पर उसका `बेहद व्यक्तिगत और न्यायपूर्ण´ अधिकार था। कार्य के जो घंटे तय हुए हैं, उसमें यह बात विशेष तौर पर विचार में ली गई है कि औसत स्वस्थ आदमी को कितने घंटे तक अपनी समुचित क्षमता, रुचि और मानसिकता से काम करना चाहिए ताकि उसके पास एक नागरिक और मनुष्य का समय भी शेष रह सके। मान लीजिए कि यह सात घंटे की अवधि है। इसके बाद यदि एक घंटा भी अधिक काम किया जाता है तो वह आपकी क्षमता को तेजी से घटाता है और तन-मन पर काफी दबाव पैदा करता है। जीवन में से औसतन प्रतिदिन दो घंटे कम कर दिए जाने के अतिसामान्य दुष्परिणामों को इस तरह लक्षित किया जा सकता है :
1, अब आपका दिन बाईस घंटों का हो चुका है।
2. औसत कार्य से अधिक कार्य करने से दैनिक जीवन के अन्य सामाजिक, पारिवारिक और अभिरुचि संबंधी कार्यों एवं दायित्वों के प्रति आपकी क्षमता बेहद कम हो जाती है। (प्रतिशत में देखेंगे तो यह क्षमता पचास से लेकर एक सौ प्रतिशत तक घट जाती है। उदाहरणार्थ, सामान्य कार्यघंटों के उपरांत यदि आप इन कार्य-दायित्वों के लिए तीन से चार घंटों का वक्त निकाल सकते हैं, अब इसमें से दो घंटे घटा दिए जाएँ तो आपके पास एक या दो घंटे ही बचेंगे। लेकिन इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि `दो घंटे अधिक कार्य करने से उत्पन्न मानसिक-शारीरिक थकान´ आपको इस लायक भी नहीं छोड़ती कि बचे हुए एक-दो घंटों का आप कोई वास्तविक उपयोग कर सकें तब आप अपने सामाजिक, पारिवारिक और आनंदप्रद समय की लगभग 100 प्रतिशत हानि का शिकार हो जाते हैं। अथवा दो घंटे का काम एक घंटे में करने का साहसिक प्रयास करते हैं नतीजन तनाव, घबराहट और अन्य मुश्किलें आपको घेरना शुरू कर देती हैं।। बदले में आप टी.वी. देखने, मदिरापान करने, जंक फूड या अधिक भोजन करने और बच्चों के साथ गुस्सैल व्यवहार करने के आदी हो सकते हैं जो आपके सामने पुन: नयी प्रकार की समस्याएँ पैदा करेगा।)
3. इस प्रकार आप मनुष्य के रूप में कमतर होते जाएँगें। मनुष्यत्व खतम करने (dehumanization)की तरफ यह एक परोक्ष लेकिन तयशुदा कदम है।

शेष अगली किश्‍त में।
जारी

मंगलवार, 21 जुलाई 2009

खाना बनातीं स्त्रियाँ

अनेक दोस्‍तों के आग्रह पर यह कविता यहां दे रहा हूं। शायद पसंद की जायेगी।
पसंदगी से ज्‍यादा शायद इस स्थिति पर विचार किया जाये, जैसी इस समाज में हमने स्त्रियों की बना ही दी है। नियति की तरह।
खाना बनातीं स्त्रियाँजब वे बुलबुल थीं उन्होंने खाना बनाया
फिर हिरणी होकर
फिर फूलों की डाली होकर
जब नन्ही दूब भी झूम रही थी हवाओं के साथ
जब सब तरफ फैली हुई थी कुनकुनी धूप
उन्होंने अपने सपनों को गूँधा
हृदयाकाश के तारे तोड़कर डाले
भीतर की कलियों का रस मिलाया
लेकिन आखिर में उन्हें सुनाई दी थाली फेंकने की आवाज
आपने उन्हें सुंदर कहा तो उन्होंने खाना बनाया
और डायन कहा तब भी
उन्होंने बच्चे को गर्भ में रखकर खाना बनाया
फिर बच्चे को गोद में लेकर
उन्होंने अपने सपनों के ठीक बीच में खाना बनाया
तुम्हारे सपनों में भी वे बनाती रहीं खाना
पहले तन्वंगी थीं तो खाना बनाया
फिर बेडौल होकर
वे समुद्रों से नहाकर लौटीं तो खाना बनाया
सितारों को छूकर आईं तब भी
उन्होंने कई बार सिर्फ एक आलू एक प्याज से खाना बनाया
और कितनी ही बार सिर्फ अपने सब्र से
दुखती कमर में चढ़ते बुखार में
बाहर के तूफान में
भीतर की बाढ़ में उन्होंने खाना बनाया
फिर वात्सल्य में भरकर
उन्होंने उमगकर खाना बनाया
आपने उनसे आधी रात में खाना बनवाया
बीस आदमियों का खाना बनवाया
ज्ञात-अज्ञात स्त्रियों का उदाहरण
पेश करते हुए खाना बनवाया
कई बार आँखें दिखाकर
कई बार लात लगाकर
और फिर स्त्रियोचित ठहराकर
आप चीखे- उफ, इतना नमक
और भूल गए उन आँसुओं को
जो जमीन पर गिरने से पहले
गिरते रहे तश्तरियों में, कटोरियों में
कभी उनका पूरा सप्ताह इस खुशी में गुजर गया
कि पिछले बुधवार बिना चीखे-चिल्लाए
खा लिया गया था खाना
कि परसों दो बार वाह-वाह मिली
उस अतिथि का शुक्रिया
जिसने भरपेट खाया और धन्यवाद दिया
और उसका भी जिसने अभिनय के साथ ही सही
हाथ में कौर लेते ही तारीफ की
वे क्लर्क हुईं, अफसर हुईं
उन्होंने फर्राटेदार दौड़ लगाई और सितार बजाया
लेकिन हर बार उनके सामने रख दी गई एक ही कसौटी
अब वे थकान की चट्टान पर पीस रही हैं चटनी
रात की चढ़ाई पर बेल रही हैं रोटियाँ
उनके गले से, पीठ से
उनके अँधेरों से रिस रहा है पसीना
रेले बह निकले हैं पिंडलियों तक
और वे कह रही हैं यह रोटी लो
यह गरम है
उन्हें सुबह की नींद में खाना बनाना पड़ा
फिर दोपहर की नींद में
फिर रात की नींद में
और फिर नींद की नींद में उन्होंने खाना बनाया
उनके तलुओं में जमा हो गया है खून
झुकने लगी है रीढ़
घुटनों पर दस्तक दे रहा है गठिया
आपने शायद ध्यान नहीं दिया है
पिछले कई दिनों से उन्होंने
बैठकर खाना बनाना शुरू कर दिया है
हालाँकि उनसे ठीक तरह से बैठा भी नहीं जाता है।
00000

मंगलवार, 16 जून 2009

वैज्ञानिकता को धोखा


धर्म पर पुनर्विचार करते हुए लिखे गए इस लेख की अंतिम किश्‍त।
इतने लंबे लेख को, किश्‍तों में ही सही, पढ़ने के लिए पाठकों के प्रति आभार। और संलग्‍न आशा कि इस विमर्श को वे अपने-अपने स्‍तर पर बढ़ाएंगे।


वैज्ञानिकता को धोखा
धर्म से जुड़े चमत्कार हमेशा व्यक्तिगत प्रमाणों और अनुभवों के आधार पर प्रचलित और मान्य होते हैं। यथा- मैंने प्रेत देखा, ध्यानावस्था में मुझे जमीन से ऊपर उठने की अनुभूति हुयी, कल रात हनुमानजी या प्रभु ईशु मेरे सपने में आये, संत के आशीर्वाद से हमारे यहाँ बच्चा हुआ, गुरूकृपा से या किसी मजार पर चादर चढ़ाने से मैं उत्तीर्ण हुआ आदि-इत्यादि। इन व्यक्तिगत अनुभवों (जो दरअसल कल्पनाओं, चिंताओं, उम्मीदों, दिवास्वप्नों के मनोभावों से जुड़ी हैं और कोई भी मनोवैज्ञानिक उनका ज्यादा अच्छा स्पष्टीकरण दे सकता है) का कोई अर्थ समाज की प्रगति में नहीं है। इन निजी अनुभवों के गुब्बारे सामूहिकता के स्तर पर, विज्ञान के मानदंडों की कसौटी पर कसते ही फुस्स होकर फूट जाते हैं। इन व्यक्तिगत अनुभवों में कितना झूठ, सम्मोहन, आस्था-श्रद्धा, मनोरोग और कितना भक्ति-मुग्धभाव शामिल हो सकता है, यह सहज ही समझा जा सकता है।
नि:संदेह विज्ञान की सीमायें हैं और रहेंगी क्योंकि प्रकृति असीम है, मनुष्य सहित समस्त प्राणी जगत की संरचना अत्यंत जटिल है लेकिन विज्ञान जो भी जानता-बताता है वह प्रयोगों और पुष्टि के आधार पर ही। किसी भी गलत अवधारणा को वह तत्काल संशोधित करता है और कतई अंधविश्वास नहीं फैलाता। जो लोग विज्ञान से हर बात का प्रमाण का माँगते हैं, उससे तार्किक होने की अपेक्षा रखते हैं (याद रखें कि वह प्रमाण और तर्क देता भी है), वे लोग धर्म से क्यों किसी बात का प्रमाण नहीं माँगते? उससे तार्किक रूप से पेश क्यों नहीं आते? सीधा-सादा जबाव है कि वे धर्म को लेकर अंधविश्वासी हैं। इसकी हद यह है कि वे जब विज्ञान के आधुनिकतम आविष्कार जैसे कार या मोटरसायकिल खरीदते हैं तो उसकी भी पूजा करते हैं और कंप्यूटर खरीदते हैं तो सबसे पहले मॉनीटर पर साँतिया बना देते हैं।
वैज्ञानिक दृष्टिकोण या तार्किक जीवन प्रणाली के फैलाव को रोकने में विरोधी शक्तियाँ तो सक्रिय रहती ही हैं क्योंकि उनका काम ही यह ठहरा लेकिन प्रगतिशील- जनवादी-वामपंथी चेतना से जुडे़ लोग भी जाने-अनजाने यह भूमिका निभा देते हैं। परंपरा, संस्कृति और व्यवहारिकता के नाम पर वे काफी कुछ ढकोसले अपने जीवन में पाले रहते हैं। रैकी, टेलिपैथी जैसी चीजों के प्रति उनका आकर्षण और समझ ठीक वैसे ही काम करती है जैसे किसी अतार्किक व्यक्ति की। इसमें क्या और कितना वैज्ञानिक है, कितना ग्राह्य है और कितना अग्राह्य, इसका विश्लेषण भी वे प्राय: करते नजर नहीं आते। वे इन क्रियाओं को महज धार्मिक, आध्‍यात्मिक उपलब्धियों का अंग मानकर कुछ इस तरह पेश आते हैं कि उनका आचरण धर्म को, ईश्वर को, पुनरुत्थानवाद को सहायता पहुँचाता नजर आता है। टेलिपैथी जैसी धारणाएँ `संभाव्यता के नियम´ का लाभ उठाती हैं। जो आपका प्रिय है या संबंधी है, उसके बारे में आप अथवा आपके बारे में वह, एक साथ-एक ही समय में विचार कर सकता है। ऐसा सैंकड़ों बार हो सकता है और इसकी संभावना है कि दो-चार बार कुछ विचार सटीक बैठ जाएँ। यह गणितीय दृष्टि से, संभावना के नियम से सहज अपेक्षित है। इसी तरह, प्राय: ही हम अपने किसी प्रियजन के लिए आशंका से भर जाते हैं, उसकी दुर्घटना या मृत्यु तक की कल्पना कर बैठते हैं। अनेक बार ऐसा सोचते हुये, एकाध बार यह आशंका सही भी हो सकती है लेकिन इसका अर्थ कतई दैवीय आभास नहीं है। यह सहज संभावित है क्योंकि ट्रैफिक बढ़ रहा है, अनुशासन कम हो रहा है और आप बार-बार दुर्घटनाओं के बारे में विचार किये चले जा रहे हैं। यहाँ आप उन हजारों अवसरों को इस प्रसंग में भुला दे रहे हैं कि जब आपने दुर्घटना की आशंकाएँ की थीं लेकिन कुछ भी बुरा घटित नहीं हुआ। तब आपका यह पूर्वाभास कहाँ था?
हमारे ऐसे ही जन साठ की उम्र के आसपास पहुँचने पर अचानक मृत्युपार के जीवन पर विचार करने लगते हैं, घबराये दिखते हैं और धार्मिक मान्यताओं में अपनी घबराहट शांत करते नजर आते हैं। रूढ़िगत, परंपरागत, धार्मिक कृत्य तो वे करते दिखते ही हैं। (जैसे, मेरे एक प्रिय लेखक और विद्वान, जिनसे हम मार्क्‍सवाद सीखते रहे, अचानक मुंडनावस्था में मिले। मालुम हुआ कि कोई बुजुर्ग रिश्तेदार नहीं रहे। कहने लगे, मजबूरी में कराना पड़ा, मेरी माँ का आदेश हो गया था और मैं नहीं चाहता था कि 72 साल की माँ को पीड़ा पहुँचाऊँ। मैंने उनसे इतना भर पूछा कि क्या आपने पहले कभी अपनी माँ को किसी प्रसंग में पीड़ा नहीं पहुँचायी? वे चुप हो गये क्योंकि सुरापान, परनारी प्रसंग, सहज दैनिक अवज्ञा आदि अनेक प्रकरणों में वे अपनी माँ को ही नहीं, पूरे घर भर को कष्ट पहुँचाते रहे हैं।) दरअसल, ये लोग वैज्ञानिकता के पक्ष में अपना कुछ भी दाँव पर नहीं लगाना चाहते, अपने परिजनों का शिक्षण नहीं करते, जीवन में प्रतिबद्धता नहीं बताते, जरूरी दैनिक लड़ाइयाँ नहीं लड़ते और अंतत: अंधविश्वासों, रूढ़ियों की रक्षा करते हैं। अपने व्यक्ति-स्वातंत्र्य और मनमानियों के लिए वे घर में बखेड़ा खड़ा कर देंगे लेकिन वैज्ञानिक सोच, प्रगतिशील आचरण और नवाचार के अवसरों पर समझौते कर लेंगे। वस्तुत: ये लोग वैज्ञानिकता के, वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विरोधी हैं। ये अधजल गगरी हैं, आंतरिक शत्रु हैं और अधिक घातक हैं। इनका यह आचरण भी उत्तरदायी है कि हमारे देश में वैज्ञानिकता के पक्ष में प्रबल वातावरण नहीं बन पा रहा है। यह दुर्भाग्य है कि भारत में वामपंथी विचार से जुड़े अधिसंख्य लोग, अपने निजी जीवन में ऐसे ही उदाहरण पेश कर रहे हैं। यही नहीं, जहाँ वामपंथी लोग सत्ता में हैं या अन्य रूप से शक्तिसंपन्न हैं, वे भी वैज्ञानिकता का सघन, व्यवस्थित, योजनाबद्ध प्रचार करते नजर नहीं आते। और जिन लोगों ने सचमुच कुछ काम किया है वह विपुल आवश्यकता के बरअक्स ऊँट के मुँह में जीरा ही साबित हुआ है।

ऑपरेटिंग सिस्टम का सवाल
इस वैज्ञानिक दृष्टिकोण के प्रसार के लिए, आज भी ऐसे दैनिक अखबारों की जरूरत है जो जनता को जागरूक बनायें, अंधविश्वासों से बाहर लायें, प्रगतिशील विचारों का प्रसार करे। इसी तरह इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में चार-छ: चैनल्स होने चाहिये जो वैज्ञानिकता का, बुद्धिवाद का, भौतिकवाद का, तार्किकता का प्रचार करे और लोगों को उनके शोषण के बारे में सजग करे। दुनिया-जहान के विकास की ऐतिहासिक जानकारी दे, आदि-आदि। इसी तरह की अनेक प्रगतिशील, जनवादी, प्रगतिगामी संस्थाओं की आवश्यकता है। जो सचमुच सक्रिय हों और लंबी योजना के साथ प्रस्तुत हों। अपने समाज को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से संपन्न किये बिना, कोई भी प्रगतिमूलक, समाजवादी बदलाव नहीं हो सकता, और यदि हो भी जाए तो टिक नहीं सकता। मार्क्‍स ने तो बार-बार जोर देकर कहा है कि समाज में, जनमानस में बदलाव करो, जनशिक्षा बढ़ाओ और बौद्धिक रूप से ताकतवर बनाओ। इसे कंप्यूटर के उदाहरण से समझें कि `ऑपरेटिंग सिस्टम´ ही ठीक नहीं होगा तो उस पर कोई `सॉटवेयर´ कैसे काम करेगा! या कहें कि जैसा `ऑपरेटिंग सिस्टम´ होगा, वैसा ही सॉटवेयर काम करेगा। जाहिर है कि धर्म को, अंधविश्वासों को हटाये बिना, वैज्ञानिक समाजवाद, साम्यवाद आ ही नहीं सकता। भारत में तो धर्म ने वर्ण और जाति के आधार पर और ज्यादा जटिल समस्यायें पैदा कर दी हैं। हमारे समाज में धर्म-ईश्वर नामक ऑपरेटिंग सिस्टम है इसलिए इस पर पूँजीवादी, सामंती और घालमेलवादी सॉटवेयर आसानी से चल रहे हैं।
यहाँ यह जान लेना उचित होगा कि वैज्ञानिक, इंजीनियर, डॉक्टर, प्रशासक, थलसेनाध्यक्ष या प्रधानमंत्री होने से जरूरी नहीं कि कोई मनुष्य वैज्ञानिक दृष्टि से भी लैस हो जाएँ इन पदों तक कोई भी आदमी अकादेमिक-तकनीकी शिक्षा, प्रशासन या राजनीति में रुचि और दक्षता के कारण पहुँचता है। जैसे सायकिल की मरम्मत करना एक तरह की दक्षता है और हवाईजहाज उड़ाना दूसरे प्रकार की दक्षता किंतु यह जरूरी नहीं कि इन कार्यों में निपुणता रखनेवाले वैज्ञानिक दृष्टि भी रखते हों। वैज्ञानिक दृष्टि का संबंध इस बात से है कि आपको बचपन से, घर-परिवार और समाज में तथा अकादमिक तौर पर आखिर सिखाया-पढ़ाया क्या गया है! यदि आप धर्म या अन्य अंधविश्वासों को लेकर वयस्क होने पर भी महज आस्थावान और श्रद्धालु बने रहे हैं तो वैज्ञानिक दृष्टि का विकास हो ही नहीं सकता। एक अनपढ़ किसान या मजदूर भी वैज्ञानिक दृष्टि संपन्न हो सकता है, यदि उसने ऐसी दृष्टि पाने का वैचारिक, बौद्धिक उपक्रम किया है। यदि वह जिज्ञासु, संदेहशील होकर विचारशीलता की तरफ बढ़ा है।
जाहिर है कि विशाल स्तर पर प्रयास करने, वातावरण बनाने, तािर्ककता और बौद्धिकता के पक्ष में काम करते रहने पर समाज के वृहत्तर हिस्से को वैज्ञानिक दृष्टिसंपन्न बनाया जा सकता है। पाठ्यपुस्तकों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का शिक्षण शामिल करने एवं अवैज्ञानिक सामग्री को बाहर करते हुये भी इस काम को आगे बढ़ाया जा सकता है। अखबारों में, दूरदर्शन पर ज्योतिष सहित अन्य प्रकार के अंधविश्वास फैलाने को रोकने की मुहिम चलायी जा सकती है। (जैसे भाजपा द्वारा ज्योतिष को पढ़ाये जाने की मुहिम चलायी गयी।) जाहिर है कि इस तरह के सारे कदम और इसी क्रम में अन्य अनेक कदमों को योजनाबद्ध तरीकों से ही लागू किया जा सकता है। वैज्ञानिकता के प्रति सहज उत्सुकता नहीं होती क्योंकि वह बुद्धि-व्यापार के साथ एक तरह का आत्म-संघर्ष भी है, इसलिए नानाप्रकार के कदम उठाने होंगे। धर्म को `वैज्ञानिक दृष्टि´ से ही अपदस्थ किया जा सकता है। इसके पीछे राजनीतिक समर्थन और क्रियान्वयन भी जुटाना होगा। एक दिक्कत यह है कि हमारे देश में वामपंथ और वामपंथी आंदोलन संसदीय लोकतंत्र के जरिये चुनावी दलदल में फँस गया है और उसे लोकप्रियता की चिंता सताती है। वह डरता है कि धार्मिक मामले संवेदनशील हैं और जनता कहीं नाराज न हो जाएँ लेकिन इस तरह वह अपनी विचारधारा और जनता, दोनों के साथ धोखे कर रहा है। यह इतना बड़ा धोखा है कि आगे आने वाली नस्लों को वास्तविक काम करना दूभर हो जाएगा।
यदि
वैज्ञानिक दृष्टि की सबसे बड़ी विशेषता है कि वह कल्पनाशील तो होती है लेकिन किसी भी अमूर्त चिंतन का विरोध करती है। वह विवेक, विश्लेषण, अन्वेषण, बौद्धिक साहस और मानवीय श्रम को प्रोत्साहन देती है। यह दृष्टि कहती है कि बेहतर समाज के लिए, अपने आसपास के वातावरण को और परिस्थितियों को भी बदलना होगा, तदानुसार खुद की मान्यताओं को भी। पूरा मार्क्‍सवाद, `ब्ल्यू प्रिंट´ के साथ इसकी सामाजिक- आर्थिक व्याख्या करता है। धर्म-सुधार आंदोलन करते हुये बुद्ध ने एक कदम आगे जाकर कहा था- `संसार में दुख है´, मार्क्‍स ने एक और डग आगे बढ़कर कहा- `इस दुख के कारण और इसकी जड़ें समाज में हैं´। बुद्ध ने कहा-`दुखों को दूर किया जा सकता है´। मार्क्‍स ने कहा- `हाँ, अन्याय और शोषण को दूर करके, दुखों को दूर किया जा सकता है। सामाजिक क्रांति सब तरह के दुख दूर करने में समर्थ है।´ इन 5-6 शब्दों ने सब कुछ बदल दिया। और इस तरह एक नयी, बेहतर दुनिया का विकल्प सामने रख दिया। यह वैज्ञानिक दृष्टि संपन्नता होने के कारण ही हो सका।
`धर्म´ हर समाज में लंबे समय (हजारों वर्षों) के बाद ही विकसित और मान्य हो सका। धर्म का विकल्प भी विकसित होने में कुछ समय लेगा लेकिन उस दिशा में गंभीर, विचारपरक, योजनाबद्ध और प्रतिबद्ध काम तो शुरू हो। यह काम राजनीतिक और सामाजिक स्तर पर एक साथ शुरू करना होगा। भले ही हास्यास्पद लगे लेकिन मोटा अनुमान लगाते हुये कहा जा सकता है कि यदि आज से तमाम प्रगतिशील- जनवादी-वामपंथी-मानवतावादी शक्तियाँ जुट जाएँ तो 25-30 वर्षों में स्थिति काफी बेहतर हो सकती है और तब संभवत: `वैज्ञानिक दृष्टि´ धीरे-धीरे धर्म का विकल्प बनने लगे। यह `यदि´ महत्वपूर्ण है। और चुनौतीपूर्ण भी।
000000

बुधवार, 10 जून 2009

धर्म एक अंधविश्‍वास है


धर्म के विकल्‍प पर पु‍नर्विचार की श्रंखला में यह चौथी किश्‍त।
अंतिम किश्‍त जल्‍दी ही।


धर्म की अपराजेयता
अभी तक धर्म अपराजेय चला आ रहा है। उसके कुछ प्रमुख कारणों पर, संक्षेप में विचार करें तो सबसे पहला बिंदु यही उभरकर आता है कि वह एक अंधविश्वास है और उसे कुछ भी सिद्ध नहीं करना है। उसे आस्थामूलक, तर्कातीत बनाया गया है। धर्म के अंतर्गत जो लिखा है, जिन ग्रंथों में लिखा है उन्हें अपार प्रतिष्ठा दी जा चुकी है इसलिए अब वे प्रश्नातीत हैं।
दूसरा, वह ऐसे वायवीय प्रश्नों पर अचूक उत्तर देने का भ्रम फैलाता है, जिनका उत्तर देना वस्तुत: किसी के लिए भी लगभग असंभव है। जैसे मृत्यु, मृत्यु के बाद का जीवन, स्वर्ग-नरक की अवधारणा, पुनर्जन्म आदि की कपोल कथायें। (इन उत्तरों के जरिये भी उसे कुछ सिद्ध नहीं करना है, सिर्फ कह देना है और सुनने-जानने वाले को मान लेना है।)
तीसरे, उसमें संस्थागत लक्षण है और प्रचारक का गुण है। श्रद्धा का विषय तो वह बना ही दिया गया है अतएव उसे सुनने, मानने का सहज क्रियाकलाप समाज में मौजूद होता गया है।
चौथा, हर परिवार में, प्रत्येक घर में बच्चा पैदा होते ही उसे धार्मिक वातावरण एवं शिक्षा देना शुरू हो जाता है। बच्चा अपनी अबोध अवस्था में ही, धीरे-धीरे, रोज-रोज धार्मिक और कर्मकांडी बना दिया जाता है। धर्म के खिलाफ कुछ भी सोचने के लिए उसका वंध्यकरण कर दिया जाता है। और अंत में यह कि धर्म को `विश्वास का विषय´ बनाकर पेश किया जाता है।
बर्टेण्‍ड रसेल ने विश्वास के बारे में ठीक ही इंगित किया है: विश्वास अर्थात् किसी चीज को बिना प्रमाण के मानना। ऐसा विश्वास आखिर अंधविश्वास तो है ही।
वास्तविकता यह है कि संसार के किसी भी धर्म के सूत्र, आदेश या नियम कतई ईश्वरीय नहीं हैं बल्कि वे प्रकरांतर से अपने युग के अभिजात्यों, सामंतों, पुरोहितों, सत्ताधारकों अथवा सत्ता का प्रतिरोध कर रहे विचारकों, विद्वानों के आदेश भर हैं जो उन्होंने अपने पीढ़ी दर पीढ़ी चल सकनेवाले वर्चस्व के लिए, यश कामना के लिए अथवा पंथनिर्माण के लिए बनाये, उन्हें महिमामंडित किया और दंड-विधान के साथ लागू किया। विद्वान दार्शनिकों ने भी बीच-बीच में धर्म में सुधारात्मक रवैया अपनाया और प्राय: अपना एक धर्म खड़ा कर दिया। इसलिए महापंडित राहुल सांकृत्यायन ठीक ही निष्कर्ष निकालते हैं कि धर्म को ईश्वर से अलग करने पर वह महज एक बेहद पुराने जमाने के, अब अप्रासंगिक हो चुके आचरणसूत्र में विघटित और न्यून होकर रह जाएगा।
धर्म को ईश्वर से जोड़ देने के कारण ही वह आदेशात्मक और प्रभुत्ववादी हो उठता है। अब वह वैसा सर्प हो जाता है जिसमें मारक विष भी है। अब वह भयोत्पादक है और पूजनीय भी। इसी कारण वह परंपरा, स्मृति और संस्कृति से भी उच्चतर एवं अनुलघंनीय गरिमा प्राप्त कर लेता है। एक बार फिर मार्क्‍स का ही कथन यहाँ सहज याद आता है: `विश्व से परे किसी दर्शन का कोई अस्तित्व नहीं होता, जैसे कि मनुष्य के परे मस्तिष्क का कोई अस्तित्व नहीं होता।.....आप (धर्माचार्य) लोक-परलोक का आश्वासन देते हैं, दर्शन सत्य के अतिरिक्त किसी चीज का आश्वासन नहीं देता।´ जाहिर है कि यहाँ दर्शन का व्यापक भौतिकवादी अर्थ है और उसे इस उद्धरण की पहली पंक्ति में देखा जा सकता है।

वैज्ञानिक दृष्टिकोण
मोती जैसा कोहरा
सबसे पहले `गेलीलियो का जीवन´ (बेर्टोल्ट ब्रेष्ट) नाटक में से गेलीलियो के बड़े डॉयलाग के कुछ अंश देखे जाएँ, जो संशलिष्ट रूप में धर्म की साजिश, वैज्ञानिक दृष्टिकोण और वैज्ञानिकों के दायित्वबोध पर भी प्रकाश डालता है : `.....विज्ञान का अनुसरण भी मेरे मुताबिक, संदेह द्वारा पाये गये ज्ञान से है। विज्ञान सभी लोगों को सभी चीजों के बारे में ज्ञान उपलब्ध कराकर उनको अविश्वासी बनाने की कोशिश करता है। (यह अविश्वासी बनाना ही उनके विवेक को जाग्रत करना है तथा तर्क पद्वति का, स्वतंत्र चेतना का विकास करना है।-कुअं) जनसंख्या का एक बड़ा भाग उनके राजकुमारों, जमींदारों और पादरियों द्वारा (सत्ताधारी, अभिजात्य एवं पुरोहित वर्ग द्वारा) अंधविश्वासों और प्राचीन शब्दों के उस मोती जैसे कोहरे में रखा जाता है जो इन लोगों की साजिशों को ढक लेता है। अनेक लोगों की दरिद्रता पर्वतों की तरह पुरानी है और चर्च (धर्म) के प्रवचन-मंच और डेस्क से इसे पर्वतों की तरह अनश्वर बताया जाता है। सितारों की गतियाँ तो स्पष्ट हो गयी हैं मगर जनसाधारण के लिए अभी तक उनके मालिकों की गतियों का अनुमान लगाना असंभव है। संदेह के (ज्ञान के) द्वारा नक्षत्रों को नाप लेने की लड़ाई तो जीत ली गयी है लेकिन गृहणी की दूध के लिए लड़ाई, उसके (अंध)विश्वास के कारण बार-बार हारी जा रही है। विज्ञान का वास्ता दोनों तरह की लड़ाइयों से है। हजारों साल पुराने इस मोती जैसे सफेद कोहरे में ठोकर खाती यह मानवजाति, जो अपनी ही शक्तियों को पूरी तरह विकसित करना नहीं जानेगी तो यह तुम्हारे द्वारा दिखाई गयी प्राकृतिक शक्तियों को भी विकसित करने में असमर्थ होगी। तुम लोग किसलिए काम कर रहे हो? मेरा विश्वास है कि विज्ञान का एकमात्र उद्देश्य सिर्फ मानवीय अस्तित्व के घोर कष्टों को कम करना है। स्वार्थी सत्ताधारियों से डरकर जब वैज्ञानिक सिर्फ ज्ञान के लिए ही ज्ञान संचय करने लग जाते हैं तो विज्ञान विकलांग हो जाता है और तुम्हारी नयी मशीनें सिर्फ अत्याचर के नये तरीकों का प्रतिनिधित्व करती हैं।´
वैज्ञानिक दृष्टिकोण, जाहिर है मनुष्य को प्रश्नाकुल बनाता है, रहस्यों का उत्तर खोजने के लिए प्रेरित करता है लेकिन रहस्यवादी होने से बचाता है। अवैज्ञानिक दृष्टिकोण (जैसे धर्म) डराता है, उलझाता है, बहकाता है, ठगी करता है और ऐसे उत्तर देता है जिन्हें सिद्ध न किया जाए, स्वयंसिद्ध मान लिया जाएँ वैज्ञानिक दृष्टिकोण ही हमारे समय-समाज की प्रमुख समस्याओं का निदान बता सकता है। जैसे: गरीबी, अशिक्षा, जनसंख्यावृद्धि, बेरोजगारी, गैर-बराबरी के वस्तुगत और सच्चे उत्तर दे सकता है। किसी भी देश में ये सब समस्यायें बेहतर प्रबंधन, नियोजन, शिक्षाप्रसार, युक्तियुक्त कानून-नियमों-दंडप्रावधानों और अंधविश्वासों को दूर करते हुये खतम की जा सकती हैं। इसी संसार में अनेक समाजों-देशों में यह संभव हुआ है और कुछ देशों ने इन समस्याओं पर काफी हद तक विजय पायी है। यहाँ तक कि बाढ़, सूखा, भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदायें भी किस तरह मनुष्यनिर्मित हैं अथवा किस तरह इन आपदाओं से पार पा सकते हैं, यह भी वैज्ञानिक दृष्टिकोण से जानना संभव है। प्रख्यात अर्थशास्त्री अमर्त्‍य सेन को इसी केंद्रीय काम के लिए ही नोबेल पुरस्कार दिया गया है।
वैज्ञानिक दृष्टिकोण के जरिये मनुष्य अपने सुख-दुख के कारणों को, दुर्घटनाओं और अवसरों के कारणों को बेहतर तरीके से समझ सकता है, उन्हें विश्लेषित कर सकता है और सबसे बड़ी बात, भाग्यवादी या नियतिवादी न होकर, अपनी परिस्थितियों का मुकाबला करने के लिए और आवश्यकतानुसार उन्हें बदलने के लिए उद्यत हो सकता है। तब उसे किसी झूठे ईश्वरीय सहारे की जरूरत नहीं रहेगी और न ही किसी काल्पनिक सत्ता के होने की सांत्वना की जरूरत। यह सब एक दिन में नहीं होगा किंतु वैज्ञानिक दृष्टि के प्रसार, प्रचार और वातावरण बनाये जाने की गति और उत्साह पर निर्भर करेगा कि कितने समय में यह जगह बन सकेगी। संभव है इसमें दो सौ बर्ष भी लगें। या पचास वर्ष भी। यदि इसके पक्ष में काम नहीं किया जाएगा तो जाहिर है कि हजार सालों में भी कुछ नहीं होगा।
वैज्ञानिक दृष्टिकोण और विज्ञान मिलकर उन सब चीजों की वास्तविक व्याख्या कर सकने में समर्थ हैं, जिसका झूठा दावा धर्म करता है। एक उदाहरण से बात स्पष्ट की जा सकती है। मृत्यु के बाद क्या होता है, मनुष्य (प्राणी) कहाँ जाता है?? इसके संभव धार्मिक उत्तर हैं कि वह 1. पुनर्जन्म के जरिये अपनी योनि में वापस आता है। 2. किसी दूसरी योनि में चला जाता है। 3. स्वर्ग या नर्कवासी होता है और फिर बाद में कभी किसी योनि में जन्म लेता है। 4. मोक्ष/निर्वाण को प्राप्त होकर परमपिता का अंश बनता है।
ये सारे उत्तर काल्पनिक हैं और आज तक इन्हें कोई सिद्ध नहीं कर सका है, न संत, न योगी, न मठाधीश और न ही संसार का कोई धर्म। बहरहाल, वैज्ञानिक संभव उत्तर यह हो सकता है: संसार में जितने भी जीवित प्राणी हैं, वे अपने `जैविक अवयवों के समुच्चय´ ( biological setup) होने के कारण जीवित, ऊर्जावान और सक्रिय हैं। । जैसे मनुष्य को ही लें, तो अकेले हृदय, किडनी, लीवर, हाथ, पैर या मस्तिष्क को मनुष्य नहीं कहा जा सकता, ये सब और अनंत शिराओं-कोशिकाओं से मिलकर ही मनुष्य का `जैविक संयोजन´ बनता है। हर संयोजन का या उसके अवयवों का, विकासमान अवस्था के साथ एक आयुष्य होता है, चाहे वह जैविक प्रकृति हो या पदार्थों/तत्वों का संयोजन। यह संयोजन जैसे ही गड़बड़ाता है उसे हम बीमारी कहते हैं और उसका इलाज भी संभव है लेकिन जैसे ही वह प्राकृतिक तौर पर या दुर्घटना में नष्ट होता है या आयुष्य को पूरा होता है, मनुष्य/प्राणी का जीवन समाप्त हो जाता है। इसमें किसी अन्य लोक में जाने या मृत्योपरांत जीवन का प्रश्न ही कहाँ उठता है। यह ठीक वैसा ही है जैसे कंप्यूटर या रोबोट के जीवन के साथ होता है। फर्क यह है कि ये `इलेक्ट्रॉनिक सेटअप´ हैं। इनके अवयवों की भी एक आयु होती है, एक सीमा तक इन्हें ठीक (repair) किया जा सकता है और अंतत: एक दिन इनका भी जीवन पूरा हो जाता है। जैसे ये किसी अन्य लोक में नहीं जाते हैं, उसी तरह मनुष्य भी मृत्यु के बाद कहीं नहीं जाता।
लेकिन धर्म ठीक उलटी, मनगढंत बातें प्रचारित कर, जनता का जीवन लगातार दुखमय करता है। झूठे आश्वासन देकर, कष्टों के मूल कारणों से उसे अपरिचित रखता है। ब्राह्मणों, पुरोहितों, पंडों का जीवन-यापन तो इसी तरह के अनेक गपोड़पनों पर चल रहा है। इस तरह के तमाम सवालों, शंकाओं का उत्तर भी वैज्ञानिक दृष्टिकोण से ही दिया जाना संभव है। यदि किसी बात का उत्तर विज्ञान के पास आज नहीं है तो कल जरूर होगा, जैसे सौ-पचास वर्ष पहले उठे सैंकड़ों प्रश्नों के उत्तर उस समय के विज्ञान के पास भले न रहे हों किंतु आज उनके उत्तर विज्ञान के पास हैं। लेकिन धर्म के पास न तो आज उसके उत्तर हैं और न ही भविष्य में कभी हो सकते हैं क्योंकि वह विशुद्ध अंधविश्वास है।

सोमवार, 1 जून 2009

धर्म नशा है


धर्म का विकल्‍प: एक पुनर्विचार लेख की यह तीसरी किश्‍त।


धर्म नशा ही है
धर्म नशा है। अफीम से भी कहीं ज्यादा बड़ा नशा।
कीर्तन करते-कराते समूहों, हथियार लहराते, नानाप्रकार के क्रियाकलाप करते, नाचते-गाते या छाती पीटते धार्मिक जुलूसों, सांप्रदायिक दंगों (वस्तुत: वे धार्मिक दंगे हैं) में भयानक हिंसा का प्रदर्शन। इन सबको तटस्थ भाव से विश्लेषित कीजिये और देखिए, जो उनके अंग-संचालनों की स्थिति, मानसिक उत्ताप, अतािर्कक अवस्था, असहजता, अस्वस्थता होती है वह किसी भी बड़े और घातक नशे के दौरान ही संभव हो सकती है। सामूहिकता या भीड़ भी इस नशे को बढ़ाती है। सत्संग, कीर्तन, प्रार्थना, नमाज आदि के समय दिया गया प्रत्येक उपदेश उपस्थित समूह पर, उनके मनोजगत पर वशीकरण (हिप्नोटिज्म) की तरह काम करता है। इस अवसर पर दिया जानेवाला फतवा या धर्मादेश हिंसा फैलाने में सक्षम है। इसके रोजमर्रा के जीवन में ही अनेक उदाहरण हम देखते हैं। अनुयायियों को भड़काना आसान है क्योंकि धर्म उन्हें नशे में उन्मत्त तो कर ही चुका होता है। धार्मिकता की प्रत्येक अवस्था में भक्त केवल श्रद्धालु, आज्ञाकारी, अतािर्कक होता है और उसे विवेक प्रयोग करने की तो जैसे अनुमति ही नहीं होती। यह सब `नशा´ पैदा करके ही संभव है और धर्म यह करता है। चिकित्सीय कोण से देखें तो `धर्म के नशे से पैदा मानसिक उत्ताप या अवसाद´ बाकायदा एक मनोरोग है जिसकी विशिष्ट, निर्दिष्ट दवायें हैं: उदाहरण के लिए हौम्योपैथी में वेरेट्रम और स्ट्रेमोनियम। (संदर्भ: डॉ. जे.टी. केन्ट और डॉ बोरिक की रेपर्टरी)
`धर्म से उत्पन्न नशे´ की पृष्ठभूमि में ही चमत्कारों, अंधविश्वासों, अधूरी ज्ञान पद्धतियों, जादू-टोनों और कर्मकाण्डों को स्थापित कर पाना आसान है। क्योंकि नशे में अब विवेक नष्ट है, आस्था और जुनून प्रबल है। ज्योतिष-गणनाओं, भविष्यवाणियों, नक्षत्रगतियों, ग्रहप्रभावों, वरदानों, शापों, मंत्रों, रूढ़ियों आदि के लिए वह संरक्षक की भूमिका निबाहता है। ईश्वर नामक अंधविश्वास को प्रतिष्ठा देता है। (मदर टेरेसा को पोप द्वारा मरणोपरांत संत घोषित कर सकने के लिए दो चमत्कारों की माँग करना इसी श्रेणी का उदाहरण है।) हिन्दू-मुस्लिम-सिख-बौद्ध-जैन-ईसाई-पारसी आदि सभी धर्मों में, उनकी कथाओं में, अवतारी नायकों के चरित्रों में, चमत्कारी कथाओं का प्रमुख और आदरणीय स्थान है। इसीका परिणाम है कि मजार, कुटियों, आश्रमों सहित तमाम धार्मिक स्थानों और उनमें विराजमान धार्मिक लोगों के साथ करिश्मों के किस्से जोड़ दिये जाते हैं ताकि जनता उनके आस्थाजन्य प्रभामंडल का शिकार होती रहे। चूँकि बुद्धि सक्रिय, चेतन तत्व है और आस्था एक निष्क्रिय शरणागत स्थिति इसलिए वह चेतना का, बौद्धिक सक्रियता का, तािर्ककता का विरोध करता है। वह बुद्धि और आस्था में, आस्था को महत्व देता है, भक्ति, श्रद्धा आदि को वरेण्य मानता है। इस तरह वह मनुष्य की मेधा, श्रम और शक्ति को कुंठित करने में सहायक है।
धर्म की कुछ समस्यायें भी समय के साथ-साथ आधुनिक होती गयी हैं जो इस `नशे´ को नयी उपयोगिताओं में धकेलती हैं। पहली व्यवसायीकरण। इसके तहत अब धर्म एक विशाल वित्तीय संस्था का रूप ले चुका है। बड़ी संख्या में चर्चों, मंदिरों, मजारों, गुरुद्वारों, मिस्जदों, आश्रमों और अन्य धार्मिक स्थलों-स्थानों की स्थिति पूँजीपतियों की है। वहाँ इतना पैसा और संपत्ति है कि उत्तराधिकार, गद्दीनशीनी और पुजारी या ग्रंथी होने के लिए हिंसक झगड़े होना आम लक्षण है। इनके पास यह अकूत संपत्ति बेहिसाब है, प्राय: किसी प्रकार के कर और अन्य दायित्वों से मुक्त है और ये सारे स्थान इनसे जुड़े उच्च धर्मप्रमुखों के लिए सत्ता, भोग और इंद्रिय आनंद के केंद्र हैं। इस कारण प्रत्येक धर्म अब एक संस्थान (कार्पोरेट) है जिसके व्यवसाय का टर्नओव्हर खरबों रुपये है। इसी आर्थिक शक्ति के कारण इन धर्मप्रमुखों और संस्थानों ने पूरे संसार में प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का भरपूर उपयोग शुरू कर दिया है। ये विज्ञापन प्रकाशित कराते हैं, चैनल्स को भुगतान करते हुये उपदेश देते हैं और अपने भक्तों (ग्राहकों) की संख्या बढ़ाते हैं। यह इनके व्यवसायिक होने का ही प्रधान लक्षण है। इस प्रक्रिया में ये अपनी साख, प्रतिष्ठा, संपत्ति (दान, आयोजनों द्वारा) बढ़ाते चले जाते हैं। चूँकि इनके पास असीम पूँजी है इसलिए इनका व्यवहार, सत्ता में हस्तक्षेप और जनता को विमूढ़ रखते चले जाने की भूमिका ठीक वैसी है जैसी किसी पूँजीपति की होती है। बल्कि ये पूँजीपतियों से भी अधिक घातक हैं क्योंकि इनके पास धर्म की प्रभामंडलीय ओट और धर्म का ही हथियार है। इन आश्रमों, धर्मस्थलों, धर्मप्रधानों की तटस्थ, सघन जाँच की अनुपस्थिति ने इनका असली चेहरा कभी सामने नहीं आने दिया है। और कभी फुटकर उदाहरणों में सामने आया भी है तो इसके `नशामूलक´ असर के कारण जनता ने इन्हें वस्तुत: अपराधी माना ही नहीं। यह धर्म के प्रभाव की अनेक विडंबनाओं में से एक है।
दूसरी समस्या है, धर्म का राजनीतिकरण। जो पूरे संसार में, खासतौर पर भारत की दिनचर्या में कुछ ज्यादा ही बढ़ चुका है। कहा जा सकता है कि धर्म का यदि किसी जगह सर्वाधिक उपयोग किया जा रहा है तो वह राजनीति है। इससे सांप्रदायिकता की समस्या सीधे-सीधे जुड़ी है। मजेदार बात यह है कि यहाँ धर्म का आशय धर्मावलंबियों की संख्या, धार्मिक स्थानों तथा धार्मिक प्रतीकों में न्यून कर दिया गया है और तमाम मानवीयता, नैतिकता, मनुष्य की नागरिक समस्याओं - भोजन, गरीबी, पीने का पानी, न्याय, परिवहन, समता, मानवाधिकार, आवास आदि को दरकिनार करते हुये, किसी पार्टी विशेष की जीत को धर्म की जीत बताने की जुर्रत की जाती है। इस राजनीतिकरण के बारे में, इसके दुष्प्रभावों और अमानवीयता के बारे में सजग पत्रकारों-लेखकों द्वारा लगातार लिखा जा रहा है इसलिए यहाँ इतना कहना ही उचित है कि जो लोग सोचते हैं कि धर्म और सांप्रदायिकता अलग-अलग चीजें हैं, वे वस्तुत: अंगूर और अंगूर की शराब में जानबूझकर भेद नहीं करना चाहते हैं। अंगूर से जब तक शराब नहीं बनती, वह एक फल है, लेकिन अंगूर की शराब जब बनेगी तो अंगूर से ही बनेगी। इसी तरह प्रत्येक धर्म-विश्वासी सांप्रदायिक हो, यह कतई जरूरी नहीं, लेकिन प्रत्येक सांप्रदायिक आदमी किसी न किसी धर्म में, उपासना पद्धति में विश्वास करनेवाला होता ही है। धर्म की वजह से मनुष्य नैतिक, परोपकारी, समतावादी, न्यायवादी, सत्यप्रिय और मानवतावादी हो गया होता तो आज संसार में दृश्य कुछ और होता, तब धर्म के विरोध में यह सब सोचने-बताने की जरूरत ही नहीं पड़ती। जो धार्मिक हैं और बेहतर मनुष्य भी हैं, वे अपनी व्यक्तिगत वजहों, सामाजिक शिक्षा, निजी विवेक और प्रज्ञा इत्यादि के कारण ऐसे हैं। अन्यथा धार्मिक लोगों की संख्या समाज में कम से कम नब्बे प्रतिशत तो है ही और ऐसी स्थिति में लगभग नब्बे प्रतिशत लोग श्रेष्ठ मनुष्य होने चाहिये थे जबकि व्यवहार में हम देखते हैं कि स्थिति ठीक उलटी है। इसलिए धर्म को अपदस्थ करना एक कार्यभार भी है।

धर्म एक पुराना, भोंथरा, जंग लगा औजार
धर्म दरअसल अब एक पुराना, भोंथरा, जंग लगा औजार है। अस्तु, वह समााजरूपी शरीर को केवल हानि पहुँचा सकता है। जिस तरह आज पुराने औजारों से कोई डॉक्टर ऑपरेशन नहीं करता, जंग लगे औजारों से तो कतई नहीं। उसी तरह धर्म भी अब एक आधुनिक औजार नहीं है। बल्कि आधुनिक समाज के निर्माण के परिप्रेक्ष्य में तो वह जंग खाये हुये छुरे से अधिक कुछ नहीं, जो रक्षा का खतरनाक आश्वासन भी देता है लेकिन बदले में नयी-नयी संक्रामक बीमारियाँ फैलाता है। धर्म को क्रियान्वयित करने के लिए जो किताबें हैं (जिन्हें पवित्र धार्मिक मार्गदर्शी पुस्तकों का या धर्म-साहित्य का दर्जा प्राप्त है), उनके उपदेशों, नसीहतों, सिद्धांतों या अमृत-वचनों में वे सब बातें भी हैं जो किसी समाज को पुरातन, रूढ़िवादी, अंधविश्वासी और पिछड़ा बनाये रखने के लिए पर्याप्त हैं। अब या तो इन किताबों में संशोधन किया जाए, उनमें हस्तक्षेप कर उन्हें आधुनिक बनाया जाए अथवा उन्हें मार्गदर्शक न माना जाएँ लेकिन हम सहज ही समझ सकते हैं कि किसी धर्म में, कोई संस्था या व्यक्ति ऐसा नहीं है जो इन ग्रंथों में संशोधन कर सके, उसे स्वीकृत करा सके इसलिए उचित यही होगा कि प्रगतिशील, बुद्धिजीवियों द्वारा यह उपचार लगातार किया जाए कि वे अपराजेय, अपरिवर्तनीय मार्गदर्शक ग्रंथों या मेनुअल्स की तरह अपने-अपने समुदाय पर कुशासन न करती रह सकें। वे इन पुस्तकों को गरिमा देने का कार्य बाधित करें और कट्टरपंथियों, उदारपंथियों के संभव भय और विरोध के बरअक्स भी यह कहते रह सकें कि ये `कोड-मेनुअल्स´ आधुनिक समाज के काम नहीं आ सकते, इन पर निर्भरता खत्म होनी चाहिये।
मार्क्‍स सहित तमाम दार्शनिकों-विचारकों ने उचित ही स्पष्ट किया है कि धर्म आलोचना की चेतना को बाधित करता है, उस पर रोक लगाता है, `कंडीशनिंग´ करता है। हम समझ सकते हैं कि आलोचना की चेतना नहीं रहेगी तो सबसे पहले स्वाधीनता, न्याय, विद्रोह और समता की चेतना खंडित होती है। अपनी आलोचना के मामले में धर्म ने सदैव असहिष्णुता का परिचय दिया है। इस तरह वह सभ्यता के सम्यक विकास में ही अवरोध बन जाता है। धार्मिकता और भौतिकवाद में छत्तीस का आँकड़ा है। जैसे `उदारवादी भ्रष्टाचारिता´ और भ्रष्टाचारिता में कोई फर्क नहीं है, इसी तरह `उदारवादी धार्मिकता´ और `धार्मिकता´ में भी कोई फर्क नहीं होता। ये प्रत्यय लड़ाई के रास्ते से बचने के लिए ही प्रयुक्त किये जा सकते हैं। धर्म के प्रति लड़ाई संपूर्णता में लड़नी होगी और उन सब नजरियों के प्रति भी जो धर्म को रुतबा देते हैं।
धर्म का यह आधुनिक स्वरूप सामंती समाज की उपज है इसलिए वह अपने पूरे चरित्र में सामंती, तानाशाह और निरंकुश हो जाना चाहता है। वह न केवल अपने जन्म के समय (युग) की रूढ़ियों और अज्ञानता से जकड़ा है बल्कि वहीं अड़ा हुआ है। वह सत्ताओं से अपनी मित्रता करता है। प्रत्येक धर्म सत्ताओं के जरिये ही, व्यापक रूप से फैलाया गया है। उधर सत्तायें धर्म के जरिये अपना अस्तित्व कायम रखती हैं। सदियों से यही गठजोड़ चला आ रहा है। वे एक-दूसरे से टकराती नहीं हैं, मित्रता निबाहती हैं। वे आपस में सहयोगी हैं, एक-दूसरे की रक्षक हैं। उनका वैमनस्य दो-चार दिन भी नहीं चल पाता। वे एक-दूसरे के पूरक हैं। जैसा कि देख सकते हैं, पूँजीवादी समाज में धर्म ने पूँजीवाद से भी मित्रता कर ली है, अपने आपको संस्थाबद्ध कर लिया है और वित्तीय शक्ति प्राप्त कर ली है। धर्म अपनी उच्चतर, विकसित संस्थागत अवस्था में पूरी क्रूरता के साथ पेश आता है। जाहिर है कि प्रगतिशील विचारकों, मानवतावादी और जनपक्षधर लोगों के समक्ष इस सामंती, निरंकुश, सत्ताकांक्षी और अब पूँजीवादी धर्म के खिलाफ अनवरत संघर्ष करने की चुनौती है।

धर्म की सकारात्मक भूमिकाएँ
देखें, धर्म की समाज में प्रमुख सकारात्मक भूमिकाएँ, जो आज भी प्रासंगिक हो, क्या हो सकती हैं? उदाहरणार्थ, वह पारलौकिक विश्वासों के आधार पर व्यक्तियों को मानसिक सुरक्षा प्रदान करता है और उन्हें अपने असफल, दरिद्र, निराश क्षणों में यह विश्वास और संबल दिलाता है कि आगामी समय में अथवा अगले जन्म में तो चीजें़ बेहतर हो सकती हैं। हर घटना, जिस पर मनुष्य का व्यक्तिगत या सामूहिक वश नहीं चल पाता, उसे नियति से जोड़कर उसे तत्काल एक आश्वासन उपलब्ध कराता है। साथ ही, वह अपनी समझ और सीमा के अनुसार नैतिक विचारों एवं मूल्यों का प्रसार करता है। वह उस पूरे समाज को, जहाँ उसका प्रभाव और मान्यता है, नियंत्रित करते हुये, अपनी तरह की सामूहिकता, सामाजिकता और नैतिकता का निर्माण भी करता है।
उपरोक्‍त भूमिकाओं का जरा-सा भी सावधान विश्लेषण यह स्पष्ट कर देता है कि इस कुल भूमिका के परिणामस्वरूप मानवसमाज कूकपोलकल्पनाधारी, कूपमंडूप, अनावश्यक संतोषी, यथास्थितिवादी, अकर्मण्य, अपनी स्थिति के लिए खुद को जबावदेह न माननेवाला, अवतारों की प्रतीक्षा करनेवाला, प्रगतिविरोधी, कट्टर, अंधविश्वासी होता चला जाता है। इस धार्मिक दृष्टि और वैज्ञानिक दृष्टि में मूलरूप से गहरा मतभेद है क्योंकि जहाँ वैज्ञानिक दृष्टिकोण कार्य-कारण, निरीक्षण-परीक्षण-अन्वेषण-खोज एवं तािर्कक-औचित्यपूर्ण व्याख्याओं में खुद को प्रस्तुत करता है, वहीं धार्मिक दृष्टिकोण अलौकिक शक्ति, अवतारवाद, कर्मकाण्ड, भाग्यवादिता में विश्वास करता है। धर्म के इस प्रभाव में मनुष्य मान लेता है कि उसके सुख-दुख का दाता कोई परमशक्ति है, इस तरह वह सांत्वना प्राप्त कर लेता है। धर्म की इसी भूमिका के कारण वह सत्ताप्रिय होता है क्योंकि सत्ता के अपराधों, गलतियों और चूकों की वह जाने-अनजाने रक्षा करता है और सत्ता के प्रति किसी भी विरोध एवं विद्रोह का शमन कर सकता है। इसीलिए मार्क्‍स का यह कथन सटीक है कि धर्म जनता की अफीम है।
कुछ लोगों ने इधर तर्क दिया है कि मार्क्‍स ने अपने लेख में दरअसल धर्म की प्रशंसा यह कहते हुये की है कि `धर्म उत्पीड़ित प्राणी की आह है, निर्दय संसार का मर्म है, निरुत्साह परिस्थितियों का उत्साह है।´ लेकिन पूरे पैराग्राफ और लेख को पढ़ते हुये साफ हो जाता है कि ये सब वाक्य इस सुविचारित आक्रामक वाक्य की ही पुष्टि एवं ध्वनियाँ हैं कि धर्म जनता की अफीम है। संदर्भित लेख में वे फिर आगे लिखते ही हैं कि `धर्म के उन्मूलन का अर्थ है जनता के वास्तविक सुख की माँग करना.....धर्म की आलोचना मनुष्य का मोहभंग कर देती है ताकि वह मनुष्य अब विवेक के साथ चिन्तन और कर्म कर सके.....`धर्म की आलोचना´ इस सीख पर खतम होती है कि मनुष्य के लिए मनुष्य सर्वोच्च प्राणी है जिससे यह अनिवार्यता उजागर होती है कि उन समस्त संबंधों का खात्मा कर दिया जाए जो मनुष्य का दर्जा पतित, पराधीन, परित्यक्त या घृणास्पद बनाते हैं। (हेगेल के न्यायदर्शन की समालोचना का प्रयास-कार्ल मार्क्‍स।
एक कुतर्क और सामने आया है कि मार्क्‍स की धर्म संबंधी आलोचना दरअसल हिन्दू धर्म की आलोचना नहीं है। यह ऐसा ही है जैसे कि अमेरीका या जापान में बैठकर किये गये भ्रष्टाचार के अध्ययन को यह कहकर खारिज किया जाए कि यह भारत में चल रहे भ्रष्टाचार की आलोचना नहीं है, इसलिए भारतीय भ्रष्टाचार आलोच्य नहीं है।
मार्क्‍स स्पष्ट करते हैं कि धर्म एक काल्पनिक सुख देता है और वह सुख वास्तविकता में कभी प्राप्त नहीं हो सकता।
इसलिए धर्म का उन्मूलन अथवा वैज्ञानिक दृष्टि का विकास, जनता के लिए वास्तविक सुख की माँग करना है। ताकि मनुष्य अपने लिए, समाज के लिए वास्तविक और प्राप्य सुखों की माँग कर सके। स्वतंत्रता, समता, न्याय और मानवीय अधिकारों की माँग कर सके और लड़ सके और जान सके कि उसके साथ जो भी अन्याय, दुख, गरीबी और त्रास संलग्न है वह किसी भी अलौकिकता, पूर्वजन्मों के पाप आदि की वजहों से नहीं बल्कि इसी समाज में रह रहे नियामकों, सत्ताधारियों, धार्मिक आश्वस्तियों और पूँजीपतियों के शामिल खेल की वजह से है। जो लोग कहते हैं कि धर्म वैज्ञानिक है, तार्किक है, समाज को प्रगति की तरफ ले जानेवाला है उनसे तो यह फ्रांसीसी कहावत ही कही जा सकती है- `आप लिखते हैं `लंदन´ और पढ़ते-बोलते हैं `कुस्तुनतुनिया´।´