सोमवार, 5 सितंबर 2016

मेरी हँसी में मेरे पिता की हँसी शामिल है।

एक सवाल की तरह और फिर एक विवाद की तरह। 
कुछ चीजें हमेशा, ही संवाद में बनी रहती हैं। 
ये उन अमर प्रश्‍नों की तरह हैं जिनके उत्‍तर भी उतने ही शाश्‍वत हैं। जिनसे सब सहमत हैं और ठीक उसी समय सभी असहमत। बहरहाल, एक पुरानी पोस्‍ट साझा कर रहा हूँ, जो गद्य की मेरी नयी पुस्‍तक 'थलचर' में भी अतिशीघ्र प्रकाश्‍य है।

'पहल-71' में डायरी प्रकाशित हुई थी, उसमें से यह एक अंश यहाँ। इसमें  एक पंक्ति और शामिल हुई है। 
शायद यह दिलचस्‍प लगे।

मेरी हँसी में मेरे पिता की हँसी शामिल है।
27-06-98

रचनाशीलता में मौलिकता एक तरह का मिथ है।
जिस तरह एक मौलिक मनुष्य असंभव है उसी तरह एक मौलिक रचना नामुमकिन है। मौलिकता एक अवस्थिति भर है। (जैसे शतरंज के चौसठ खानों में बत्तीसों या कम ज़ादा मोहरों के रहते, तमाम स्थितियॉं बनती-बिगड़ती रह सकती हैं और एक मोहरा इधर-उधर करने से भी एक नितांत नई अवस्थिति बन जाती है।) एक दी हुई दुनिया है जिसमें आपको अपनी एक दुनिया को जन्म देना है। अपनी अवस्थिति का निर्माण करना है। दी हुई दुनिया का अतिक्रमण भी करना है। यही रचनाशीलता है। यह अवस्थिति मौलिकता है।

सर्जक अपनी रचनाशीलता में कुछ ऐसा ही करते हैं कि एक मोहरे को, कुछ मोहरों को इस तरह रखते हैं कि वह एक नया संयोजन हो जाए। पूरा जीवन विस्तृत खानों से भरा संसार है। शब्द मोहरे हैं। विचार, संयोजन की आधारशिलाऍं हैं। कारक हैं। गणित में संख्याऍं हैं। उनसे असीमित संभावनाओं को, अनगिन संयोजनों को जन्म दिया जाना संभव है। वह सब कुछ अगण्य है। इस सब कुछ में से रचनाकार अपनी सर्जनात्मकता के जरिए, एक परिप्रेक्ष्य देता है। यह परिप्रेक्ष्य कुछ हद तक `मौलिकता´ जैसा समझा जा सकता है।

मेरी हँसी में मेरे पिता की हँसी शामिल है। मेरी चाल में मेरे पितामह हैं। और मेरी जल्दबाजी मुझे मेरे नाना से मिली है। यही मेरी मौलिकता है। एक नया संयोजन। मैं इसमें कुछ अपनी तरफ से भी जोड़ रहा होउँगा। जिसके बारे में यह दावा भी हास्यास्पद होगा कि वह वस्तुत: सिर्फ मेरा ही है। लेकिन उससे एक नयी अवस्थिति बनती है। यह मौलिकता का मिथ है।

अवयव मौलिक नहीं हो सकते। वे हमारे माध्यम के हिस्से हैं। संयोजन नया हो सकता है। तथाकथित मौलिकताऍं यदि कुछ हैं भी तो वे समाज में, जीवन में बनती हैं, साहित्य में उनकी छायाओं को दर्ज भर किया जा सकता है। इसी सब के बीच रचना की कोई मौलिकता, यदि वह वाकई हो सकती है तो, छिपी हो सकती है। यही सर्वाधिक नैसर्गिक है। एक रचनाकार सबका कर्ज़दार होता है। उसके आसपास की हर जीवित-अजीवित चीज का। दृश्य-अदृश्य का। वही उसकी पूँजी है। कर्ज की पूँजी मौलिक नहीं होती। और यह पूँजी समाज में लंबे कालखंड से विद्यमान है। उसके निवेश और उसके उपयोग का तरीका अलग हो सकता है। यही मौलिकता का मिथ है।

मैं और मेरी रचना उतनी ही मौलिक है जितना कि इस संसार में मेरा अस्तित्व मौलिक है। मेरी मौलिकता पूरे जड़-चेतन से सापेक्ष है, निरपेक्ष नहीं। इसलिए ही वह किसी शुद्ध मौलिकता की तरह मौलिक नहीं।

हॉं, एक बात और:
हमारी अज्ञानता भी कई चीजों को, मौलिकता के पद (Term) में `मौलिक´ घोषित कर सकती है।
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पुन:
17 जुलाई 2008
रचनाशीलता में 'शुद्ध मौलिकता' दरअसल एक तरह का अंधविश्‍वास है।

शुक्रवार, 2 सितंबर 2016

कार्ल सैन्‍डबर्ग की घास और उसकी पत्तियाँ

घास की पत्तियाँ


घास को लेकर संसार में अनेक कविताऍं लिखी गई हैं लेकिन 1918 में कार्ल सैन्‍डबर्ग द्वारा लिखी गई कविता शायद सर्वोपरि है। इसके बाद जो भी कविताऍं इस विषय पर लिखी गईं, उनमें सैन्‍डबर्ग की इस कविता का प्रभाव चला ही आता है। संक्षिप्त होकर भी कोई कविता अपनी कुल आभा, कथ्‍य, संप्रेषण और काव्‍य-कला में कितनी परिपूर्ण हो सकती है, सैन्‍डबर्ग की यह कविता उसका एक उदाहरण है।

(प्रेमिल और रोमैंटिक रूप में जरूर हिन्‍दी की ही कविताओं में कुछ दृश्‍य हैं जैसे, अज्ञेय की 'हरी घास पर क्षण भर', शमशेर बहादुर सिंह की 'टूटी हुई बिखरी हुई' या ज्ञानेन्‍द्रपति की कविता 'ट्राम में एक याद' में की कुछ पंक्तियॉ- आह, तुम्‍हारे दाँतों से जो दूब के तिनके की नोक/ उस पिकनिक में चिपकी रह गई थी,/ आज तक मेरी नींद में गड़ती है। वहॉं उगी है घास वहॉं चुई है ओस वहॉं किसी ने निगाह तक नहीं डाली है। आदि। घास के दूसरे पहलुओं पर भी कुछ कविताएँ हिंदी में हैं जो उतनी प्रभावी या महत्‍वपूर्ण नहीं हैं।) 

कार्ल सैन्‍डबर्ग की कविता के अलावा तीन कविताऍं, जिनका शीर्षक 'घास' ही है, यहॉ दी जा रही हैं- तदेऊश रूजेविच, पाश और नरेश सक्‍सेना की ये कविताऍं, इस क्रम में कुछ बता सकती हैं क्‍या??  
प्रभाव, प्रेरणा, परछाईं या छायाप्रतियाँ। किसी भी सावधान पाठक के लिए यह बहुत स्‍पष्‍ट है। हालॉंकि, इससे किसी भी कवि का मान कम नहीं होता, सिवाय इसके कि एक श्रेष्‍ठ पूर्वज, श्रेष्‍ठ पूर्वज ही बना रह सकता है। या वॉल्‍ट व्ह्टिमैन के अमर कविता संग्रह के नाम से प्रेरित होकर कह सकते हैं कि ये सब कविताऍं 'लीव्ज ऑव ग्रास' ही हैं।

सैन्‍डबर्ग का फौरी अनुवाद मेरा है। तदेऊश रूजेविच की अनूदित कविता 'जलसा-4' से साभार। बाकी दोनों, कवियों के उपलब्‍ध संकलनों से।
इनका आनंद लें।

घास

कार्ल सैन्‍डबर्ग

लाशों का ऊँचा ढेर लगा दो ऑस्‍ट्रलिट्ज और वाटरलू में
उन्‍हें धकेल दो कब्रों में और मुझे मेरा काम करने दो-
                मैं घास हूँ, मैं सब कुछ ढक लूँगी

और लगा दो उनका ऊँचा अंबार गेटिसबर्ग में
और ऊँचा ढेर लगा दो उनका ईप्राह और वरडन में
फिर धकिया दो उन्‍हें गढ्ढों में और मुझे मेरा काम करने दो
दो साल, दस साल, और मुसाफिर पूछेंगे कण्‍डक्‍टर से :
                          यह कौन सी जगह है?
                          हम अभी कहॉं हैं?

मैं घास हूँ
मुझे मेरा काम करने दो।
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घास
तदेऊश रूजेविच
मैं उगती हूँ
दीवारों की संधि में
वहॉं जहॉं वे
जुड़ती हैं
वहॉं जहॉं वे आ मिलती हैं
वहॉं जहॉं वे मेहराबदार हो जाती हैं

वहॉं मैं बो देती हूँ
एक अंधा बीज
हवाओं का बिखेरा गया

धैर्य के साथ मैं फैलती हूँ
सन्‍नाटे की दरारों में
मुझे इन्‍तजार है दीवरों के गिरने
और जमीन पर लौटने का

तब मैं ढक लूँगी
नाम और चेहरे।

घास
पाश

मैं घास हूँ
मैं आपके हर किए-धरे पर उग आऊँगा

बम फेंक दो चाहे विश्‍वविद्यालय पर
बना दो होस्‍टल को मलबे का ढेर
सुहागा फिरा दो भले ही हमारी झोंपडि़यों पर

मेरा क्‍या करोगे
मैं तो घास हूँ हर चीज पर उग आऊँगा

बंगे को ढेर कर दो
संगरूर मिटा डालो
धूल में मिला दो लुधियाना जिला
मेरी हरियाली अपना काम करेगी
दो साल, दस साल बाद
सवारियॉं फिर किसी कंडक्‍टर से पूछेंगी
यह कौन-सी जगह है
मुझे बरनाला उतार देना
जहॉं हरे घास का जंगल है

मैं घास हूँ, मैं अपना काम करूँगा
मैं आपके हर किए-धरे पर उग आऊँगा।
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घास
नरेश सक्‍सेना

बस्‍ती वीरानों पर यकसॉं फैल रही है घास
उससे पूछा क्‍यों उदास हो, कुछ तो होगा खास

कहॉं गए सब घोड़े, अचरज में डूबी है घास
घास ने खाए घोड़े या घोड़ों ने खाई घास

सारी दुनिया को था जिनके कब्‍जे का अहसास
उनके पते ठिकानों तक पर फैल चुकी है घास

धरती पानी की जाई सूरज की खासमखास
फिर भी कदमों तले बिछी कुछ कहती है यह घास

धरती भर भूगोल घास का तिनके भर इतिहास
घास से पहले, घास यहॉं थी, बाद में होगी घास।

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शनिवार, 27 अगस्त 2016

किताबें और साहित्‍य

 यह एक पन्‍ना मेरे हाथ लगा है जिस मैंने पिछले बीस साल से सँभालकर रखा है। आज उसे सार्वजनिक करता हूँ।

किताबें

एर्विन श्ट्रिटमाटर

मेरे अध्‍ययन कक्ष में बहुत सी किताबें रखी हैं। कुछ को देखकर मुझे लगता है, उनमें मुझसे कहने के लिए कुछ नहीं है, उन्‍हें बंद करता हूँ और भूल जाता हूँ।

कुछ दूसरी किताबों में इधर-उधर कोई सच मिल जाता है या फिर यदा-कदा मेरे अपने विचार की कोई पुष्टि। कभी मुझे उनकी कथावस्‍तु पसंद आती है तो कभी वाक्‍य-संरचना। सालों बाद एक बार फिर उन्‍हें हाथ में लेता हूँ, सिर्फ वही पढ़ने के लिए जो मुझे उनमें पसंद आया था।

ऐसी भी किताबें हैं जो अजनबियों की तरह मेरे कमरे में खड़ी हैं किंतु एक दिन वे अपनी ओर आकर्षित करती हैं। क्‍या मैं उनकी मा‍नसिक-क्षमता की सीमा में आ गया हूँ ?  उन्‍हें खोलता हूँ, एक सॉंस में पढ़ जाता हूँ। हफ्तों बाद एक बार फिर पढ़ता हूँ। उनमें से बहुत सी बहुत पुरानीं हैं, न जाने कितने वर्ष पार कर चुकी हैं किंतु फिर भी वे मुझे युवकों-सी ऊर्जा देती हैं और मेरे समय को समझने में मेरी मदद करती हैं। यह युवकों-सी ऊर्जा देने की शक्ति जो इन किताबों में बसती है, यही साहित्‍य कहलाती है।

                                                   मूल जर्मन से अनुवाद: महेश दत्‍त 

सोमवार, 1 अगस्त 2016

तुलसीदास की एक और संक्षिप्‍त लेकिन प्रभावी, प्रेमाभिव्‍यक्ति।

महाकवि तुलसीदास और गीतकार आनंद बक्षी


बात बहुत छोटी सी है लेकिन चालीस साल से मन में धँसी है।
''माय लव'' फिल्‍म का एक गीत है जिसे, एक अल्‍प चर्चित किंतु श्रेष्‍ठ संगीतकार दानसिंह के लिए, गीतकार आनंद बक्षी ने लिखा था और मुकेश ने गाया था। गीत खासा परिचित है- जिक्र होता है जब कयामत का, तेरे जलवों की बात होती है।
इस गीत का यह अंतरा पढें-
           'तुझको देखा है मेरी नजरों ने तेरी तारीफ हो मगर कैसे
           कि बने ये नजर जुबॉं कैसे, कि बने ये जुबॉं नजर कैसे
           न जुबॉं को दिखाई देता है, न निगाहों से बात होती है'

इस पूरी बात को जिसे लंबी पंक्तियों में आनंद बक्षी ने कहा हैउसे सीधे तुलसीदास से तो लिया ही गया है, मगर दृष्‍टव्‍य यह कि उस अभिव्‍यक्ति को तुलसीदास ने कितने सारगर्भित और काव्‍यात्‍मक ढंग से मात्र एक अर्धाली में रखा है -
रामचरितमानस, प्रकाशक गीताप्रेस गोरखपुर, के बालकाण्‍ड के दोहा क्रमांक 228 के बाद की दूसरी चौपाई है, जब सीता की सखी राम-लक्ष्‍मण की सुंदरता का बखान करने में अपनी असमर्थता इन शब्‍दों में बता रही है-
            ''गिरा अनयन नयन बिनु बानी।''
अर्थात- गिरा यानी जिह्वा/वाणी के पास नेत्र नहीं हैं और नेत्रों के पास बाणी नहीं है।

चौपाई की इस अंतिम अर्धाली को, आनंद बक्षी गीत के अंतरे की दो-तीन पंक्तियों में लिखते हैं। तुलसीदास इस अभिव्‍यक्ति को आधी पंक्ति में दर्ज कर देते हैं।

बस, यह एक छोटा सा ध्‍यानाकर्षण है।
तुलसीदास की यह एक और संक्षिप्‍त लेकिन प्रभावी, प्रेमाभिव्‍यक्ति तो है ही।
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मंगलवार, 19 अप्रैल 2016

महाकवि तुलसीदास की प्रेम कविता

सात-अाठ साल पहले 'वसुधा' में एक कविता के साक्ष्‍य से स्‍तंभ में जब ज्ञानेन्‍द्रपति की कविता 'ट्राम में एक याद' पर अपना पाठ लिख रहा था, तब मैंने अपनी पसंद की प्रेम कविताओं का जिक्र किया था। सुन्‍दरकाण्‍ड में विन्‍यस्‍त कुछ पंक्तियों के आधार पर निहित तुलसीदास की प्रेम कविता, नागार्जुन की 'वह तुम थीं' और शमशेर बहादुर सिंह की 'टूटी हुई, बिखरी हुई'। तब से ही नहीं बल्कि करीब तीस बरस से यह सोचता रहा कि सुन्‍दरकाण्‍ड से उन पंक्तियों को एक साथ रख दिया जाए, जो मुझे एक महान राग-वियोगजन्‍य प्रेम कविता का पाठ उपलब्‍ध कराती रही हैंं।

इस कविता में उपमा, उत्‍प्रेक्षा, आलंबन और रूपक के उदहारण तो हैं ही, कहन की अद्भुत भंगिमाऍं भी हैं। कोमल-नए पत्‍तों की लालिमा से अग्नि आभास और चंद्रमा के ताप को सीता तथा राम द्वारा किंचित फर्क से देखना भी दृष्‍टव्‍य हो सकता है। यानी एक ही उपमा के दो रंग। दो निष्‍कर्ष। यह स्‍मरण रहे कि इन पंक्तियों में जो भाव हैं वे बाद की हिन्‍दी-उर्दू कविता में, फिल्‍मी गानों तक में कई तरह से आ चुके हैं, और अब कुछ परिचित लग सकते हैं, लेकिन मेरे पाठक की निगाह में तुलसीदास की यह कविता अपनी तरह से अनूठी और नवोन्‍मेषी है।

आरंभ में इसका एक मोटा-सा अनुवाद, जिसमें भावानुवाद ही प्राथमिक है, इसलिए देने की धृष्‍टता की है ताकि उन पूरी चौपाइयों को जब एक साथ पढ़ा जाए तो संदर्भ, प्रसंग अनुसार उनका आस्‍वाद लेने में संभवत: आसानी हो। यों शायद इसकी उतनी जरूरत भी न थी, फिर भी।


तुलसीदास की प्रेम कविता
(सुन्दरकाण्ड के स्थलों से निकसित)

ये नये कोमल पत्ते अग्नि समान
विरह से व्याकुल सीता का वर्णन

असह्य विरह की वेदना से तो अग्नि-समाधि लेना ही बेहतर है
लेकिन यहाँ आग कहाँ से मिलेगी। आकाश में अंगारे प्रकट हैं
लेकिन एक भी तारा मेरे पास, धरती पर टूटकर नहीं आता।
चंद्रमा अग्निमय है लेकिन वह भी मुझे हतभागिनी जानकर आग नहीं बरसाता।
अशोक वृक्ष, तू मेरी विनती सुन,  मेरा शोक हर ले,
इस तरह अपना नाम सार्थक कर दे।
तेरे ये नये कोमल पत्ते अग्नि के समान हैं,
इनसे ही मुझे अग्नि दे और मेरे विरह रोग का निदान कर दे। 
                                                                                                                             दोहा 11- चैपाई 1 से 6 के अंशों से।
क्या कभी वह समय भी आएगा?
विरह वेदना के दौरान सीता की हनुमान से मुलाकात

राम का जन (दूत) जानकर आँखों में आँसू आ गए और शरीर पुलकित हो गया
कि मैं तो विरहसागर में डूब रही थी, तुम मेरे लिए जहाज हो गए।
बताओ, कोमल चित्तवाले, कृपा करनेवाले राम ने
मेरे लिए यह कैसी निष्ठुरता धारण कर ली है?
सहज वाणी से सबको सुख देनेवाले वे क्या कभी मेरी याद करते हैं?
क्या कभी वह समय भी आएगा जब उनके
साँवले, मृदुल शरीर को देखकर मेरी आँखों को शीतलता मिल सकेगी??
(भावातिरेक में बोल भी नहीं निकल रहे हैं, बस आँखें आँसुओं से भर गई हैं) -
हा नाथ, तुमने मुझे बिलकुल ही बिसरा दिया है! 
                                                                 दोहा 13- चैपाई 1 से 4 के अंशों से।

जो हर चीज हित करती थी वही देती है पीड़ा
राम की ओर से कहे गए हनुमान के शब्द

हे मेरी प्रिय सीते, तुम्हारे वियोग में मेरे लिए सभी पदार्थ प्रतिकूल हो गए हैं
वृक्षों के नए-नए कोमल पत्ते मानो अग्नि के समान हैं और रात कालरात्रि की तरह
और चंद्रमा सूर्य के समान तपता है
कमल का जंगल भालों का अरण्य लगता है, बादल मानो गरम तेल बरसाते हैं,
जो हर चीज हित करती थी, वही अब पीड़ा देने लगी है,
त्रिविध (शीतल, मंद और सुगंधित) वायु,  साँप के श्‍वास की तरह लगती है,
यह सब दुख किसी को कह देने से कुछ कम हो सकता है
लेकिन कहूँ किससे, ऐसा आत्मीय कोई दिखता भी नहीं,
तेरे-मेरे प्रेम का रहस्य बस एक मेरा मन ही जानता है
और वह मन सदा तेरे पास रहता है,
तुम इतने में ही मेरे प्रेम-रस को समझ लो।
                                                                                                                          दोहा 14- चैपाई 1 से 4 के अंशों से।

 नयनों का अपराध कि इनमें आप बसे हैं
राम को सीता का विरह हाल सुनाते हुए हनुमान

आपका नाम रात-दिन पहरा देनेवाला है, आपका ध्यान ही किवाड़ है,
आँखें आपके चरणों के ध्यान में जड़ी हैं, यही ताला है,
प्राण किस रास्ते से निकलें!!
मेरा एक दोष अवश्‍य है कि आपसे वियोग होते ही प्राण क्यों न निकल गए
लेकिन यह नेत्रों का अपराध है जो प्राण निकलने में हठपूर्वक बाधा देते हैं,
कि इनमें आप बसे हुए हैं
विरह अग्नि समान है, शरीर रूई है और यह श्‍वास पवन है-
इस संयोग से यह शरीर क्षणमात्र में जल सकता है लेकिन
अपने हित के लिए ये आँखें पानी ढहाती रहती हैं
इसीसे विरह की अग्नि भी इस देह को जला नहीं पा रही है।
(सीता की विपत्ति विशाल है, उसे न कहने में ही भला है।)
                                                                                                                               दोहा 30 एवं चैपाई 1 से 5 के अंशों से।
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अब ये सभी दोहा, चौपाइयाँ एक साथ, जो बेहतर ढंग से
आकुलता और प्रेम को अभिव्यक्त करती हैं, और इन्‍हें
एक पूरी वियोगजन्‍य प्रेम कविता की तरह पढ़ा जा सकता है-

(तजौं देह करु बेगि उपाई, दुसह बिरहु अब नहिं सहि जाई।).......
कह सीता बिधि भा प्रतिकूला, मिलहि न पावक मिटिहि न सूला।
देखिअत प्रगट गगन अंगारा, अवनि न आवत एकउ तारा।
पावकमय ससि स्रवत न आगी, मानहुँ मोहि जानि हतभागी।
सुनहि बिनय मम बिटप असोका, सत्य नाम करु हरु मम सोका।
नूतन किसलय अनल समाना, देहि अगिनि जनि करहि निदाना।

हरिजन जानि प्रीति अति गाढ़ी, सजल नयन पुलकावलि बाढ़ी।
बूड़त बिरह जलधि हनुमाना, भयहु तात मो कहुँ जलजाना।
कोमलचित कृपाल रघुराई, कपि केहि हेतु धरी निठुराई।
सहज बानि सेवक सुखदायक, कबहुँक सुरति करत रघुनायक।
कबहुँ नयन मम सीतल ताता, होइहहिं निरखि स्याम मृदु गाता।
बचनु न आव नयन भरे बारी। अहह नाथ हौं निपट बिसारी।।

कहेउ राम बियोग तव सीता, मो कहुँ सकल भए बिपरीता।
नव तरु किसलय मनहुँ कृसानू, कालनिसा सम निसि ससि भानू।
कुबलय बिपिन कुंत बन सरिसा, बारिद तपत तेल जनु बरिसा।
जे हित रहे करत तेइ पीरा, उरग स्वास सम त्रिबिध समीरा।
कहेहू तें कछु दुख घटि होई, काहि कहौं यह जान न कोई।
तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा, जानत प्रिया एक मनु मोरा।
सो मन सदा रहत तोहि पाहीं, जानु प्रीति रसु एतनेहि माहीं।।

नाम पाहरू दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट,
लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहिं बाट।
अवगुन एक मोर मैं माना, बिछुरत प्रान न कीन्ह पयाना।
नाथ सो नयनन्हि को अपराधा, निसरत प्रान करहिं हठि बाधा।
बिरह अगिनि तनु तूल समीरा, स्वास जरइ छन माहिं सरीरा।
नयन स्रवहिं जलु निज हित लागी, जरैं न पाव देह बिरहागी।
सीता कै अति बिपति बिसाला, बिनहिं कहें भलि दीनदयाला।।

00000                                       (श्रीरामचरित मानस, गीताप्रेस गोरखपुर, 46वाँ संस्करण)