रविवार, 29 नवंबर 2009

फूल रखो तो फूलदान की तरह

डायरी अंश

कमरे में एक सुराही रखी है। शो पीस की तरह। उसमें फूल भी रखे जा सकते हैं। फूल रखो तो फूलदान की तरह है। यह उतनी सुंदर नहीं है। इसे देख कर सुंदर, सुघड़ और पूर्णाकार की सुराहियाँ याद आती हैं। सुराही को देखना एक कला को देखना है। जब-जब भी मैं सुराही को देखता हूँ उसे उड़ती हुई निगाह से नहीं देख पाता। मेरी निगाह उस पर टिक ही जाती है। शायद एक आकर्षण सुराही को ले कर मन में बन गया है। चित्रों में देखी गई सुराहियों से शायद यह आकर्षण बना हो। या बचपन में गाँव में देखी गई किसी सुराही के कारण। कुछ याद नहीं पड़ता। सुराही की जरा लंबी ही गर्दन सबसे पहले ध्यान खींच लेती है। काम्य स्त्रियों के लिए सुराहीदार गर्दन की आकांक्षा अकसर ही साहित्य में, श्रृंगार की बातचीत में प्रकट है। लेकिन मुझे लगता है कि सुंदर सुराही की जितनी लंबी गर्दन होती है, आनुपातिक रूप से उतनी लंबी गर्दन किसी भी स्त्री को सुंदर नहीं बना सकती। बहरहाल, यह तो एक उपमा ही हुई !

एक अत्यंत सादा बनावट में भी सुराही की यह गर्दन अपनी रहस्यात्मकता के साथ मुझे खींचती है। उसके भीतर का सीधा-सादा अँधेरा मुझे अलौकिक लगता है। और सुराही पर अकसर ही की जाने वाली नक्काशियाँ और डिज़ायनें। हर बार वे एक दूसरे से किंचित भिन्न होती हैं। यह किंचित भिन्नता उन्हें और सुंदर बनाती है। लोक कला की यह एक अनिवार्य विलक्षणता ही है कि एक आदमी जितनी बार मोर या धनुष बनाएगा वह हर बार एक नयी कृति बना देगा। एक जैसा बनाने के लिए वह उतना सजग, उतना प्रवीण नहीं है। वैसा आकांक्षी भी नहीं। कभी-कभी सुराही के एक तरफ या दोनों तरफ हेण्डिल उसे एक बार फिर आकर्षक और अधिक उपयोगी बनाते हैं। पानी भरने के अन्य मिट्टी के पात्रों से वह कितनी अलग है। उसे देखना, उसके पास होना एक शीतलता के पास होना है। एक कला के पास होना है। वह एक अनघड़ कलाकार के लिए भी कला है और सुघड़ कलाकार के लिए कलात्मक चुनौती। वह कितनी साधारण है और कितनी अनुपम! कमरे में रखी यह छोटी-सी सुराही इसी मायने में सुंदर है कि यह एक बड़ी सुंदरता का, कला का आत्मीय स्मरण दिलाती है।
`सुराही´ - यह शब्द भी कितना सुंदर है ! जो सुंदर लगता है, उसका नाम भी सुंदर लगने लगता है। नहीं, यही एक मात्र कारण नहीं। सुराही शब्द है ही सुंदर। लयात्मक भी। मैं एक कविता सुराही पर लिखना चाहता था और यह सब लिख गया हूँ। कविता लिख पाता तो अधिक संतोष मिलता। मैं एक कविता इस पर लिखूँगा।
कभी।
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शुक्रवार, 13 नवंबर 2009

जैसा समाज होगा वैसा परिवार

पिछले वर्षों में कुछ नयी-पुरानी अवधारणाओं और नैतिकताओं पर विचार करता रहा हूं। फलस्‍वरूप छोटे-छोटे लेख/टिप्‍पणियां संभव हुईं। उनमें से विचारार्थ कुछ यहां दे रहा हूं। उस क्रम में यह पहला लेख।


जैसा समाज होगा वैसा परिवार
पूँजीवादी समाज में परिवार का स्वरूप

हम जानते हैं कि जब समाज अपनी प्रारंभिक अवस्था में था तो परिवार की शुरूआती अवधारणायें और परिणतियाँ अपने मूल व्यवहार में तमाम आडंबरों से रहित थीं। उनमें खुलापन, आजादी और यायावरी थी। सामंती समाज तक आते-आते परिवार पितृसत्तात्मक हो गया और पुष्ट हो गये सामंती समाज ने ही उस बंद, कट्टर, सुरक्षित, रागात्मक परिवार की नींव डाली जिसकी चिंता आज की जा रही है। जाहिर है कि इस समाज के परिवार में एक पुरुष मुखिया (या सामंत) होता है और उसकी इस अवस्थिति को बनाये रखने में समाज, परंपरा, कानून और धार्मिक व्याख्यायें शक्ति और सहायता प्रदान करती हैं। इस व्यवस्था में एक दास का होना आवश्यक है तभी परिवार का सामंती रूप पूर्ण हो सकता है। दासता के इस कार्यभार के लिये स्त्री को चुना गया। स्त्री को यह दासता गरिमापूर्ण लगे, इसके प्रति उसके मन में विद्रोह न हो इसलिये ममता, स्नेह, प्रेम, दायित्व, धर्म, कर्तव्य, शील आदि से उसे जोड़ा जाता रहा। लेकिन उसके नियम कभी भी स्त्री के लिये अनुकूल नहीं रहे। उसके लिये तो कैसे भी पति को प्रेम करना कर्तव्य और धर्म के अंतर्गत है। इस परिवार में स्त्री के शोषण के अनेक मान्य, प्रचलित और कठोर रूप रहे हैं।

स्त्री पर शासन आसान रहे इसलिये ही विवाहों में उम्र और शिक्षा को लेकर एक बेमेल पंरपरा कायम की गयी है जिसके तहत स्त्री का आयु में पुरुष से कम और शिक्षा में कमतर होना ही उचित मान लिया गया है। यदि वह आयु और शिक्षा में पुरुष से बड़ी या बराबर हुयी तो इस बात के आसार ज्यादा हैं कि उसे आसानी से शासित न किया जा सके। यद्यपि घरेलू, सामाजिक, औपचारिक, नैतिक और धार्मिक शिक्षा में इस बात की ग्यारंटी कर दी गयी है कि स्त्री, समाज की `पहली इकाई´ में प्रवेश करते ही किसी पुरुष का स्थायी उपनिवेश हो जाये। इसी तरह के संदर्भों में कहा जाता है कि स्त्री पैदा नहीं होती, बनायी जाती है। इस `सामंती परिवार´ में पुरुष का जीवन सर्वाधिक आनंद में गुजरता है। गृहस्थी में उसकी जो मुश्किलें हैं वे एक नागरिक, मनुष्य और मुखिया की मुश्किलें तो हैं लेकिन गुलाम या शासित की उन मुश्किलों से बिलकुल अलग हैं जो किसी मनुष्य की तमाम संभावना, प्रतिभा, स्वतंत्रता और चेतना को बाधित, कुंठित और प्राय: असंभव कर देती हैं।

इस तरह के परिवार में कुछ अन्य लक्षण सहज ही परिलक्षित होंगे, जो दरअसल सामंती व्यवस्था के सामाजिक-नागरिक लक्षणों से उत्पन्न हैं : जैसे स्त्री संपत्ति की तरह है और उसे अर्जित किया जा सकता है। उसे रक्षित करना जरूरी है अन्यथा घुसपैठ संभव है। वह पुरुष की प्रतिष्ठा का प्रश्न भी इसी वजह से है। चूँकि वह चल-संपत्ति है इसलिये उसे अपने पास बनाये रखने के लिये हिंसा भी जायज है। इस परिवार में हिंसा के तमाम रूपों की उपस्थिति सहज रहती आयी है। करुणा, दया, प्रेम, कृतज्ञता, नैतिकता, धार्मिकता और अभिनय का इस्तेमाल भी होता रहा है। आदि-इत्यादि। हर स्थिति में उसका अधिकार दोयम है, कर्तव्य प्राथमिक और अनिवार्य। पारिवारिक इकाई के इसी स्वरूप को तरह-तरह से विकसित, महिमामंडित और दृढ़ किया गया। अब इसकी रागात्मकता, सहजता, कार्यकुशलता और व्यवस्था खतरे में है।

यहाँ ध्यान देना होगा कि अब हमारा समाज राजनीतिक, औपचारिक शिक्षा, तकनीकी, न्यायिक, संवैधानिक और स्वप्नशीलता के क्षेत्रों में सामंती नहीं रह गया है, भले ही रूढ़ियों, परंपराओं, सामाजिक आचरणों, मान्यताओं, धार्मिक विश्वासों आदि में सामंतीपन का ही बोलबाला है। बल्कि इन्हीं वजहों से अभी तक परिवारों में सामंती परिवेश बना रह सका है। लेकिन धीरे-धीरे पूँजीवाद ने शासन और तंत्र के वर्चस्ववादी इलाकों में अपनी ध्वजा फहरायी है। लोकतांत्रिक व्यवस्था उसके लिये सर्वाधिक सहायक हो सकती है। लोकतंत्र की आड़ ही उसे तानाशाह होने की सीधी बदनामी से रोकती है। लेकिन लोकतंत्र की उपस्थिति अपना काम करती है और परिवार में किसी एक की तानाशाही अथवा सामंती प्रवृत्ति के खिलाफ भी वातावरण बनाती है। जाहिर है कि यह पूँजीवादी, उत्तर-आधुनिक समाज भी अपने जैसा ही परिवार बनायेगा। जैसा समाज, वैसा परिवार। क्या हम भूल रहे हैं कि परिवार समाज की पहली इकाई है! ऐसा हो ही नहीं सकता कि समाज पूँजीवादी होता जाये और परिवार का चरित्र सामंती बना रहे।

पूँजीवादी समाज में अर्थवाद, संबंधों की स्वार्थपरकता, मनुष्य से मनुष्य की हृदयहीनता, हर क्रिया में छिपा निवेश तत्व, प्रदर्शनकारिता, उपयोगितावाद, उपभोक्तावाद, बाजारवाद और आत्मकेंद्रिकता के लक्षण प्रमुख हैं। इन लक्षणों को सब रोज-रोज अनुभव कर ही रहे हैं। इन्हीं विलक्षणताओं के कारण पूँजीवाद में प्रेम, मनुष्यता, रागात्मकता आदि का ही नहीं बल्कि तद्जन्य संगीत, कला, साहित्‍य, अध्यवसाय का लोप होता जाता है। इन्हीं सब बिंदुओं को आप परिवार पर लागू करें तो पायेंगे कि आज के परिवार का संकट यही है। अर्थात वहाँ स्वार्थ, उपयोगितावाद, निवेश मन:स्थिति, आत्मकेंद्रिकता का प्रवेश हो गया है और जीवन की रागात्मकता, हार्दिकता, सामूहिकता, और संगीतात्‍मकता गायब है। यह होना ही है। इसे प्रस्‍तुत समाज व्‍यवस्‍था में रोका नहीं जा सकता।

अभी जो `पुराने परिवार´ के रूपक हैं और उदाहरणों की तरह टापू की तरह दिखते हैं वे सामंती अवशेष हैं। गाँवों और कस्बों के जीवन में सामंती रीतियाँ जाति, वंश, परिवार परंपरा, धार्मिकता के प्रभाव बाकी हैं अतएव वहाँ इन परिवारों का ध्वंस अभी उतना नजर नहीं आता लेकिन `पूँजीवादी समाज से उद्भूत और प्रभावित परिवार´ शहरों तथा मेट्रोज में आसानी से मिल जायेंगें। आगामी कुछ ही समय में ये `पूँजीवादी समाज के परिवार´ बड़ी संख्या में तबदील होते जायेंगे। विवाह के लिये औपचारिक संस्कार गौण होते जायेंगे और करार के विधिक, मौखिक या सहमति के अन्य प्रकार स्वीकार्य होंगे। यह पूँजीवाद के चरित्र का ही हिस्सा है। इसीके चलते संभव है कि परिवार `आजीवन संस्था´ न रहकर `अल्पकालीन या आवश्यकतानुसार अनुबंध´ तक सीमित होती चली जाये।

यहाँ एक बात गौर करने लायक है। पूँजीवादी समाज की निर्मिति से बन रहे इन परिवारों में स्त्री का पारिवारिक शोषण तो रुक जायेगा लेकिन मनुष्य की अस्मिता, गरिमा, स्वतंत्रता और उड़ान से वे काफी हद तक वंचित ही रहेंगी क्योंकि पूँजीवाद, स्त्री को `उपयोगी´ और `उपभोक्तावादी´ वस्तु में ही न्यून करता है। वह स्वतंत्र तो होगी लेकिन फिलहाल नियामक या निर्णायक नहीं। उसका `स्त्री´ होना उसके लिये नयी मुश्किलें और कुछ तात्कालिक आसानियाँ पेश करेगा। पूँजीवादी व्यवस्थायें और उसके गण उसका तदानुसार उपयोग करेंगे। यह आजादी विडंबनामूलक समस्या है। वह सामंती पिंजरे से निकलकर एक अथाह समुद्र में गिरेगी। यही कारण है कि अधिकांश लोगों को परिवार का सामंती रूप अधिक सुरक्षित और विकल्पहीन लगता है। इन परिवारों के विघटन और विनाश से पुरुषों का डर तो स्वाभाविक है क्योंकि उनका साम्राज्य इससे नष्ट होता है किंतु स्त्रियों का डर, अपने नरक से प्रेम करने और उसके पालन-पोषण के तरीकों में छिपा हुआ है। प्रसन्न इस बात पर तो हुआ ही जा सकता है कि स्त्री, सामंती परिवार के कारागार से बाहर निकल पायेगी एवं नितांत नयी समस्याओं के बीच स्वतंत्रचेता और स्वावलंबी होने के लिये विवश होगी। बहरहाल, यह संक्रमणकाल है और इसके बाद कुछ राहें निकलेंगी।

यह उम्मीद करना बेमानी और काल्पनिक नहीं है कि पूँजीवादी समाज अंतत: उस मानवीय, समतावादी और सामाजिक न्यायपूर्ण व्यवस्था से प्रतिस्थापित हो सकता है, जिसे `साम्यवादी व्यवस्था´ के स्वप्न में देखा जाता है। इस आकांक्षी व्यवस्था में ऐसे परिवार की कल्पना की जा सकती है जो अपने गठन, निर्माण और परिचालन में कहीं अधिक लोकतांत्रिक, समतावादी, रागात्मक और प्रेम भरा होगा, जिसमें स्त्री को मनुष्य का गरिमापूर्ण दर्जा मिलेगा और बच्चों के पालन-पोषण में अत्याचार, क्रूरता और इजारेदारी का हिस्सा खतम हो जायेगा। मार्क्‍स-एंगेल्स आज से 155 वर्ष पहले लिखे `कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र´ में यदि `बुर्जुआ सामंती परिवार´ के संकटों का जिक्र करते हुये उसे खारिज करना चाहते हैं तो वह कोई अराजक प्रस्ताव नहीं है। अब ऐसी परिवार व्यवस्था मुश्किल में आ रही है तो यह सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों का हिस्सा है, भले ही अभी यह हमारी श्रेष्ठ मानवीय आकांक्षाओं के अनुकूल नहीं है मगर यह अपनी प्रकृति में ऐतिहासिक और द्वंद्वात्मक है।
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बुधवार, 4 नवंबर 2009

मेरा प्रिय कवि

पुरातत्व कविता के कवि साथी शरद कोकास सहित अनेक मित्रों के आदेश और विशेष तौर पर नव्‍यतम पीढ़ी के चर्चित कथाकार और मेरे प्रिय चंदन पाण्‍डेय के आग्रह को रेखांकित करते हुए, संकोच के साथ ही सही, अब अपनी कुछ कविताएं यदा-कदा लेकिन नियमित तौर पर यहाँ देता रहूँगा।


मेरा प्रिय कवि

वह हिचकिचाते हुए मंच तक आया
उसके कोट और पैंट पर शहर की रगड़ के निशान थे
वह कुछ परेशान-सा था लेकिन सुनाना चाहता था अपनी कविता
लगभग हकलाते हुए शुरू किया उसने कविता का पाठ
मगर मुझे उसकी हकलाहट में एक हिचकिचाहट सुनाई दी
एक ऐसी हिचकिचाहट
जो इस वक्‍त में दुनिया से बात करते हुए
किसी भी संवेदनशील आदमी को हो सकती है
लेकिन उसने अपनी कविता में वह सब कहा
जो एक कवि को आखिर कहना ही चाहिए

वह हिचकिचाहट धीरे-धीरे एक अफसोस में बदल गई
और फिर उसमें एक शोक भरने लगा
उसकी कविता में फिर बारिश होने लगी
उसके चश्मे पर भी कुछ बूँदें आईं
जिन्हें मेरे प्यारे कवि ने उँगलियों से साफ़ करने की कोशिश की
लेकिन तब तक और तेज हो गई बारिश
फिर कविता में अचानक रात हो गई
अब उस गहरी होती रात में हो रही थी बारिश
बारिश दिख नहीं रही थी और बारिश में सब कुछ भीग रहा था
कवि के आधे घुँघराले आधे सफेद बालों पर फुहारें थीं
होठों पर धुएँ के साँवले निशानों को छूकर
कविता बह रही थी अपनी धुन में
एक मनुष्य होने के गौरव के बीच
संकोच झर रहा था उसमें से
वह एक आत्मदया थी वह एक झिझक थी
जो रोक रही थी उसकी कविता को शून्य में जाने से

कविता पढ़ते हुए वह
बार-बार वज़न रखता था अपने बाएँ पैर पर
बीच-बीच में किसी मूर्ति-शिल्प की तरह थिर होता हुआ
(एक शिल्प जो काव्य-पाठ कर सकता था)
उसके माथे पर साढ़े तीन सलवटें आती थीं
और बनी रहती थीं देर तक

मैं अपने उस कवि से कुछ निशानी -
जैसे उसका कोट माँगना चाहता था
लेकिन अचानक उसने मुझे एक गिलास दिया
और मेरे साथ बैठ गया कोने में
उसने कहा तुम्हें मैं राग देस सुनाता हूँ
फिर उसने शुरू किया गाना
वह एक कवि का गाना था
जिसे गा रही थी उसकी नाजुक और अतृप्त आत्मा

एक घूँट लेकर उसने कहा
कि तुम देखना मैं अगला आलाप लूँगा
और सुबह हो जाएगी

अचानक मेरा कवि मेरे करीब और करीब आया
कहने लगा मैं बहुत कुछ न कर सका इस संसार को बदलने के लिए
मैं शायद ज्‍यादा कुछ कर सकता था
मुझे छलती रहीं मेरी ही आराम-तलब इच्छाएँ
जिम्मेवारी की निजी हरकतों ने भी मुझे कुछ कम नहीं फँसाया
दायीं आँख का कीचड़ पोंछते हुए वह फिर कुछ गुनगुनाने लगा
कोई करुण संगीत बज रहा था उसमें
मैंने कभी न सुनी थी ऐसी मारक धुन
मेरे भीतर एक लहर उमड़ी और मैं रोने लगा

उधर मेरा प्रिय कवि
मंच से उतर कर
चला आ रहा था अपनी ही चाल से।
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दस बरस पहले की इस कविता के बारे में अनेक पाठकों-मित्रों-आलोचकों की राय रही है कि यह हिन्‍दी के किसी कवि विशेष को केन्‍द्र में रखकर लिखी गई है। आज कुछ मुखर होने का जोखिम लेकर मैं कहना चाहता हूँ कि यह कविता किसी कवि को केन्‍द्र में रखकर नहीं है बल्कि उसके बहाने 'समकालीन कविता के पाठ' -रिसाइटल- के पक्ष में लिखी गई है।

कविता को गाकर, चीखकर या अभिनय के साथ पढ़ने की पक्षधरता के बरअक्‍स यह मानवीय दुर्बलताओं के पाठ के साथ कविता का पक्ष रखने की भी एक कोशिश है। दूसरे, इसमें किसी कवि विशेष की नहीं बल्कि हमारे समय के अनेक कवियों की काव्‍यपाठ करने की स्‍म़तियॉं और बुदबुदाहटें है।