बुधवार, 25 मई 2011

अन्तिम आदमी

किंचित निराशापूर्ण अंत के बावजूद यह कविता वर्षों से मुझे प्रिय है। शायद यह अंत दुखद यथार्थ का एक पहलू है, जिसे आशावाद में ढालने से कवि का इंकार है।
राजेन्‍द्र धोड़पकर की कविताओं में भाषा, लय, संगीत और मार्मिकता के विरल दृश्‍य सहज उपलब्‍ध हैं। और यह कविता उसका विलक्षण उदाहरण है।

अन्तिम आदमी
राजेन्‍द्र धोड़पकर


उस वक्‍त सारी कुर्सियां खाली हो चुकी थीं
सबसे अन्‍त में उनके बीच से निकला वह आदमी
और बीच रात में चलने लगा
उसके दोनों हाथ अपनी जेबों में थे
उसकी उंगलियों के इर्दगिर्द सवाल लिपटे थे
अन्तिम आदमी अकेला था सड़कों पर
कई सड़कों और गलियों से गुजरा वह
उसे रास्‍ते मालूम थे
उसे मालूम था कोई रास्‍ता उसके घर तक नहीं जाता

अन्तिम आदमी का कोई घर नहीं था
अन्तिम आदमी का कोई घर नहीं होता
उसके पास सिर्फ सवाल होते हैं जिन्‍हें
हल करते-करते जवाब में और सवाल पाता है वह
बहुत ठंडी थी वह रात
कोहरे के समुद्र में एक विशाल गेंद की तरह तैर रही थी पृथ्‍वी
जिसे सबसे अन्‍त में छोड़कर गया वह।