सोमवार, 12 दिसंबर 2011

डायरी : इधर उधर से बरामद कुछ कविताएं

प्रेम के दिन


पतझड़ से, मुसकराहटों से भरे
खुशी से लथपथ, चोट खाये हुए
घायल और क्षितिज पर टँगे
धूल झाड़कर हर बार खड़े तुम्हारे सामने
कभी घूरते हुए, कभी बिसूरते
कभी कंधे पर हाथ रखकर चलते

उनके बिना किसी का कोई जीवन नहीं।
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जैविक क्रिया


जिस वक्त को
व्यर्थ गवाँए वक्त की तरह याद करता हूँ
जैसे कहीं किसी प्रतीक्षा में, यों हीं ऊँघते हुए
कैरम खेलते या क्रिकेट देखते
या टूँगते हुए तारे या पत्थर या दीवार

वही वक्त किसी बोये गए बीज की तरह
यकायक प्रकट होता है डालियों से भरा पूरा
जब मैं होता हूँ सबसे ज्यादा निष्फल
सबसे ज्यादा असहाय।
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वजहें


किसी लेखक की तरह देखो अपना शहर
एक कवि, चित्रकार की निगाह से देखो अपना देश
तुम्हें अनगिन घाव दिखेंगे
उधड़ी हुयी खाल और चकत्ते
और बहता हुआ मवाद
और वे आदमी भी जो खदेड़ दिए गए हैं

और वहीं तुम्हें दिख सकती हैं वे वजहें भी
जो तुम्हारे नगर पालिका अध्यक्ष, विधायक
या सांसद बने रहने में हैं।
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यह एक पौधा


जबकि हर चीज किसी न किसी की व्यक्तिगत संपत्ति है
इन सबके बीच यह एक पौधा बच गया है
जो फिलहाल सार्वजनिक है

इसे मैं निर्भय उमगकर छूता हूँ।
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स्थगित अभिव्यक्तियाँ


शब्द भी प्रतीक्षा करते हैं और राह तकते हैं
उन्हें अभिवादन करते हुए
मुझे अपनी दिनचर्या में जाना पड़ता है

मैं लौटता हूँ तो वे सीढि़यों पर मिलते हैं
मुझे राह देते हुए रेलिंग की तरफ सट जाते हैं
फिर वे मेरे कमरे में आ जाते हैं
एक तरफ घुटने मोड़कर बैठेते हैं निशब्द

वे साथ नहीं छोड़ते, पीछा भी नहीं करते
बस आसपास बने रहते हैं
और कभी कभी देखते हैं इस तरह
कि मैं उनसे बस कुछ कह दूँ।
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कवि परंपरा


इस जीवन में
इस दुनिया में कुछ कमी है

वह क्या है जो नहीं है?
क्या है वह जो अटूट है, अनंत है?
आप बताना चाहते हैं तो लिखते हैं, कहते हैं
फिर लिखते हैं, फिर कहते हैं

फिर लगता है
ठीक से कुछ भी नहीं कहा जा सका
ठीक से कुछ भी नहीं लिखा जा सका
अब आप फिर से शुरू करते हैं

यह परंपरा है
यही कवि का जीवन है।
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मंगलवार, 18 अक्तूबर 2011

यात्रा के अंत में मितली

रस्किन बाण्ड, जैसा कि मैंने अपने अधिसंख्य लेखक मित्रों से बात करके जाना कि हिन्दी में बहुत प्रतिष्ठित और श्रेष्ठ, अंग्रेजी में लिखनेवाले, भारतीय लेखक की तरह स्वीकार नहीं किए जाते हैं। एक आदरणीय, लोकप्रिय, चर्चित, फ्रीलांसर और औसतन पठनीय लेखक की तरह ही हिन्दी में उनकी सहज स्वीकृति है।

रस्किन के यहॉं संभवतः कहानी में कला, यथार्थ, समकालीनता और गल्प में नए अन्वेषण का वैभव अनुपलब्ध है। खास तरह के परिवेश और सीमित परिधि के विषयों, खासकर आत्मकथात्मकता के साथ लिखी गईं उनकी ज्यादातर कहानियॉं इसका प्रमाण हो सकती हैं। लेकिन मुझे रस्किन की साहित्‍य अकादेमी द्वारा पुरस्‍कृत किताब ‘देहरा में आज भी उगते हैं हमारे पेड़’ कुछ कारणों से पसंद है।

पहला तो यही कि वरिष्ठ कवि सौमित्र मोहन ने इसका प्रशंसनीय अनुवाद किया है। उन्होंने जैसे रस्किन के अंग्रेजी में लिखे को ‘हिंदी में ही लिखित’ बना दिया है। इससे जो गद्य पैदा हुआ है, वह आकर्षक है, हृदय में बस जानेवाला है। दूसरी विशेषता यह है कि रस्किन अपनी इन कहानियों में अनेक मार्मिक वाक्य लिख सके हैं। एक ऐसा गद्य जो कहानी या उपन्यास या संस्मरणात्मक लेखन वगैरह की कोटि से ऊपर होता है और अपने अनूठेपन और औचकपन के कारण उस पूरी विधा को ही सहारा देकर किसी अप्रतिम जगह तक ले जाता है। बावजूद शेष लचर काया के।

एक बात और, इन कहानियों के आरंभिक और अंत के वाक्य प्रायः ऐसे हैं जो सुंदर, संवेदनशील और हार्दिक गद्य से ही संभव होते है। कई बार एक सूचनात्मक वाक्य भी निजी चमक रखता है। कुछ नमूने यहॉं पेश हैं, यह याद करते हुए कि रस्किन अपनी सीमाओं में ही सही, अपने लघु सीमांत में ही सही, मेरे जैसे पाठकों के लिए आकर्षक और पठनीय हैं। हम कई बार एक अच्छे वाक्य के लिए, अच्छे गद्य और उसके अप्रत्याशित विन्यास के लिए उन यात्राओं पर भी चले जाते हैं जो वैसे कठिन और सम्मोहक नहीं दिखती हैं।
बहरहाल, जायजे के लिए इस पुस्तक से उनकी कहानियों के पहले या अंतिम कुछ वाक्य-

‘किसी यात्रा के अन्त में महसूस होनेवाली हल्की सी मितली का संबंध शायद उस पहली घर वापसी से हो, जब मैं अपने पिता की मृत्यु के बाद लौटा था।’

‘मेपलवुड को छोड़े हुए मुझे बहुत साल नहीं हुए हैं लेकिन इस खबर से मुझे कतई हैरानी नहीं होगी कि वह कॉटेज अब नहीं रहा।’ ‘एक संघर्षशील लेखक के लिए यह पुराना कॉटेज बहुत उदार था।’

‘जावा की रानी में अभी फूल आए ही थे कि जकार्ता पर पहले बम गिरे और गलियों में फैले मलबे पर चटख गुलाबी फूल बिखरे दिखाई देने लगे।’

‘आप जहाँ भी जाते हैं या जो कुछ भी करते हैं, ज्यादातर वक्त आपकी जिन्दगी तो आपके दिमाग में ही बीत रही होती है। उस छोटे कमरे से बच पाना मुमकिन नहीं!’

‘मैंने जब देहरा छोड़ा था, तब उन्होंने और रामू ने जरूर यही सोचा होगा कि पक्षियों की तरह मैं भी दोबारा लौटूँगा।’

‘आजादी, मुझे अब लगने लगा था, वह चीज है, जिसके लिए लगातार आग्रह करते रहना होता है।’

‘मैं पैदल चलते हुए अपने होटल पहुँचा। मुझे इसका पूर्वबोध हो चला था कि मैं अपनी माँ से आखिरी बार मिल रहा हूँ।’

‘पेड़ भी तो हार चुके हैं, हाँ जब वे नीचे गिरते हैं तो गरिमा के साथ गिरते हैं। चिन्ता न करें। मनुष्य तो आते जाते रहते हैं, पहाड़ स्थायी हैं।’
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रविवार, 17 जुलाई 2011

सब कुछ एक साथ नहीं

कुछ पुरानी डायरी या कहें कि नोटबुक में से दो टुकड़े।

26.01.1998
इधर मैं उनमुक्त नहीं रह पा रहा हूँ जैसा कि मुझे रहना चाहिए।

एक मनुष्य अपने जीवन में सब कुछ एक साथ नहीं बन सकता। अर्थात् घोड़ा, बनिया, राक्षस, गणितज्ञ, लेखक, दुकानदार, संगीतकार, अनंत ज्ञान का स्वामी या कुछ और। इनमें से उसे कुछ न कुछ छोड़ देना होगा अथवा उससे छूट ही जाएगा। इनमें से एक-दो हो जाना और शेष न हो सकना, सफलता-असफलता के दायरे से बाहर है।

मैं अपनी सामर्थ्‍य और सीमाओं के साथ, एक कवि का ही जीवन जीना चाहता हूँ। यह कितना कठिन है। कितना अलभ्य। मुझे किस कदर बुलाता हुआ। यह एक रहस्यमयी पुकार है। धुंध और अँधेरे से आती हुई। कोहरे से आती हुई और कितनी स्पष्ट। कितनी आल्हादकारी!

इच्छा भर होना, प्राप्त होना तो नहीं है। लेकिन मैं इस आकांक्षा का शुक्रगुज़ार होता हूँ।
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तारीख नहीं। शायद 1993।
‘अगर तुम अपनी आकांक्षाओं के रास्ते में आने वाली हर चीज को खतम कर दोगे तो एक दिन पाओगे कि तुम बहुत अकेले हो गए हो..... और (आखिर में) पाओगे कि फिर कोई आकांक्षा भी नहीं बची रह गई है।’
-(एक फिल्म को देखते हुए आया ख्याल।)
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बुधवार, 13 जुलाई 2011

सर्जनात्मक अराजकता

सर्जनात्मक अराजकता
नागार्जुन की कविता पर एक संक्षिप्त टीप


एक उक्ति का सार है कि लेखकों को अपना घर ज्वालामुखियों के किनारे बनाना चाहिए। इसकी व्यंजना और ध्वनि मुक्तिबोध के कथन के इस आशय तक भी आती है कि सच्चे लेखकों को अभिव्यक्ति के खतरे उठाने ही होते हैं। बीसवीं सदी की समूची हिन्दी कविता में नागार्जुन ही एक मात्र कवि हैं जो इस तरह यायावरी करते हैं कि जहां जाते हैं वहां अपना घर और ज्वालामुखी साथ लेकर चलते हैं और अभिव्यक्ति के समस्त संभव खतरों से गुजरते हैं।

इन खतरों को निराला, मुक्तिबोध जैसे कवि भी उठाते हैं, नागार्जुन के सामने भी प्रस्तुत समय के सभी अंतर्विरोध, अमानुषिकता और सत्ता की शक्ति के भयावह रूप उपस्थित थे, साथ ही व्यक्तिगत जीवन की कठिनाइयां। इनके बीच कविता लिखना, सर्जक की तरह सक्रिय रहना किसी लेखक के मन में अनेक तरह की निराशाएं, भय और आशंकाएं भर सकता है, लेकिन इनके बरअक्स नागार्जुन कभी भी, किसी भी स्थिति में ‘पैरानोइया’ के लक्षणों से ग्रस्त नहीं होते। वे अपने कविकर्म में अपवाद स्वरूप भी अपना आत्मविश्वास, प्रतिरोध, प्रतिबद्धता और आशावाद कभी नहीं छोड़ते।

कबीर के साथ उनके आराध्य राम का, एक तरह की आध्यात्मिकता का संबल था लेकिन नागार्जुन सिर्फ और सिर्फ आमजन, शोषित बहुजन के संबल के सहारे ही एक अराजक सर्जनात्मकता को मुमकिन करते हैं। नागार्जुन का अध्यात्म यही जनता थी। उनकी समूची कविता में अनवरत एक ऐसी अराजकता विद्यमान है जो विशिष्ट और जनोन्मुखी सर्जनात्मकता का प्रादुर्भाव करती है। अधिकांश जगहों पर वह उनकी कविता में विन्यस्त विचारों में देखी जा सकती है और अन्य अनेक स्थलों पर भाषा, छंद और रूप के निर्माण और उल्लंघन में भी।

उनकी कविता में इस अराजकता का गहरा रचनात्मक मूल्य है इसलिए वह अकविता की शब्दावली में या किसी शून्यवाद में या तेज-तर्रार भाषा भर में गुम नहीं हो जाती। वह क्रोध, अपमान, मोह, आशा और घृणा के विवेक से संचालित है। जैसे ये पंचतत्व हैं जो उनकी कविता को बनाते हैं।

विषयों की दृष्टि से देखें तो नागार्जुन की कविता सर्वाधिक अप्रत्याशित, प्रतिबंधित और अनुपयुक्त क्षेत्रों में चली जाती है। सुअर, भुटटे, चूडि़यां, बादल, इंदिरा गांधी, नक्सलवाद, हरिजन, अकाल, मंत्र, जूतियां, खेत, विपल्व, बंदूक- इन कुछ शब्दों के सहारे अनुमान लगाया जा सकता है कि उनकी कविता की यात्रा किस हद तक बीहड़, जनोन्मुखी और अनुपमेय थी। जबकि काव्य विषय संबंधी ये शब्द उनकी काव्यधर्मिता का दशमलव एक प्रतिशत भी नहीं हैं।

उनकी कविताएं और उनका जीवन बता सकता है कि वे लगातार खुद को डि-क्लास करते हैं। अपना प्रतिरोध भी डि-क्लास होकर ही दर्ज करते हैं। उनकी कविता ‘एक्टिविस्ट’ है। सक्रिय, सचेतन और आबद्ध है। वह विचार, नारा और उक्ति को एकमएक कर देती है। वह समकालीनता की प्रामाणिक अभिव्यक्ति भी है जो अपने समकालीनता के बाड़े को, उसकी परिधि को लांघ जाती है। लेकिन वह अपने समय को दिनांकित करती चली जाती है। इसलिए उनकी कविता में अपने समय की राजनैतिक और सामाजिक घटनाओं को साक्ष्य की तरह और एक रचनाकार की व्याख्या की तरह भी देखा जा सकता है। बल्कि उसे एक क्रम में रखकर देखने से उसका एक ऐसा सामाजिक-राजनैतिक इतिहास लेखन संभव है जो सत्ता संरचनाओं के प्रतिरोध से उत्पन्न है।

वे कवि की ओर से लगातार एक ‘गजट’ प्रकाशित करते जाते हैं। वे समकालीनता को एक शक्ति में, विराट गतिशील रूपक और टकराहट में बदल देते हैं। वे अलसाये, अघाए, निश्चेष्ट, कलावादी और आत्मदया से लबरेज कवियों में लज्जा भर सकते हैं।

जादुई यथार्थवाद के तमाम रचनात्मक तामझाम के बीच मुझे यह विचित्र आकर्षण और अचरज का विषय लगता रहा है कि नागार्जुन ने ऐसे सीधे, अक्षुण्ण और बींधते यथार्थ को सामने रखा जिसने एक नए तरह का जादू अपनी तरह से संभव किया। यह यथार्थवादी जादू है। यह प्रगतिवादी और जनवादी जादू है। यह जनपक्षधरता, जनप्रतिबद्धता और जनसमूह के बीच खड़े रहने का, उसमें विश्वास का जादू है। यह कला और कविता का जादू है। यह अनलंकृत होने का और अभिव्यक्ति के साहस का और दृष्टिसंपन्नता का जादू है। यह उस भाषा का जादू है जो जनता के कारखाने में बनती है, जो महज साहित्य से साहित्य में प्रकट नहीं होती। यह अनुभव और जनसंघर्षों में भागीदारी का जादू है।

हिन्दी में अच्छी प्रेम कविताओं का अभाव सा है। जो कुछ बेहतर कविताएं हैं, उनमें नागार्जुन की कविता ‘वह तुम थीं’ अविस्मरणीय है। ‘कर गई चाक, तिमिर का सीना, जोत की फांक, वह तुम थीं’। इन शब्दों में मितव्ययी होने का और शब्दों से कुछ अधिक कार्यभार संपन्न करा लेना भी अविस्मरणीय है। यह कविता एवं प्रकृति के उपादानों से लिखी अन्य अनेक कविताएं हमें नागार्जुन के उस उदात्त, प्रेमिल, मानवीय और भावुक रूप का भी पता दे सकती हैं, जिसे नागार्जुन के संदर्भ में प्रायः विस्मृत सा कर दिया जाता है।

एक कवि के लिए विस्मय, चुनौती और प्रेरणा भी, तीनों नागार्जुन के पास जाने पर मिलेंगे।
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रविवार, 26 जून 2011

जबकि जीवन इसकी इजाज़त नहीं देता था

एक नयी पत्रिका 'अक्षर' में 2008 में लिखी डायरी के हिस्‍से प्रकाशित हैं।
उसी में से चयनित कुछ टुकड़े ।


2008 के दिनों में रहते हुए
कुछ शब्द

1
कई बार कोई तुम्हारी सहायता नहीं कर पाता। न स्मृति, न भविष्य की कल्पना और न ही खिड़की से दिखता दृश्य।
न बारिश और न ही तारों भरी रात।

न कविता, न कोई मनुष्य और न ही कामोद्दीपन।
संगीत से तुम कुछ आशा करते हो लेकिन थोड़ी देर में वह भी व्यर्थ हो जाता है।

शायद इसी स्थिति को सच्ची असहायता कहा जा सकता है।

2
मैं एक शब्द भूला हुआ था।

मुझे याद नहीं आता था कि वह कौन सा शब्द था। वह रोजमर्रा का ही कोई शब्द था।

आज सोने जाते समय, रात एक बजे वह अचानक कौंधा- ‘विषाद’।
हाँ, यही वह शब्द था जिसे मैं, अचरज है, कि किसी अविश्वसनीय बात की तरह, न जाने क्यों कुछ समय से भूला हुआ था। जबकि जीवन इसकी इजाज़त नहीं देता था।

3
मुश्किल और आशा का गहरा संबंध है।

जब आप कठिनाई या संकट में नहीं होते तो आशा की कोई जरूरत नहीं पड़ती।
जैसे ही कोई मुश्किल, विपदा, अवसाद या असंतोष पैदा होता है, आशा अपना काम करना शुरू कर देती है।

4

अर्नेस्ट हेमिंग्वे ने, जो बीमारी की वजह से नोबेल पुरस्कार लेने स्वयं उपस्थित न हो सके थे, अपने संक्षिप्त धन्यवाद भाषण में लिख भेजा थाः ‘कोई भी लेखक जो ऐसे अनेक महान लेखकों को जानता हो, जिन्हें यह पुरस्कार नहीं मिल सका, इस पुरस्कार को केवल दीनता के साथ ही स्वीकार कर सकता है। ऐसे लेखकों की सूची देने की आवश्यकता नहीं है। यहाँ प्रत्येक आदमी अपने ज्ञान और अंतर्विवेक से अपनी सूची बना सकता है।’

यह आत्म परीक्षण, लघुता भाव और विनम्रता हर भाषा के पुरस्कार प्राप्तकर्ताओं में देखी जाना चाहिए क्योंकि प्रत्येक समय, हर भाषा के महत्वपूर्ण पुरस्कारों में, ऐसे श्रेष्ठ लेखकों की सूची किसी कोने में पड़ी हो सकती है, जिन्हें वे पुरस्कार कबके मिल जाने चाहिए थे। लेकिन हिंदी में हम देख सकते हैं कि जो पुरस्कार लेते हैं उनमें ढीठता और अहमन्यता ही कहीं अधिक प्रकट होती है।
दीनता की जगह गहरा संतोष।

5
क्या संसार में कोई ऐसा भी है जो रेल्वे प्लेटफॉर्म पर खड़ा हो और छूटती हुई रेल जिसे उदास न करती हो? प्लेटफॉर्म के ठीक बाहर खड़ा पेड़, जो उसे फिर कुछ याद न दिलाता हो? क्या? क्या??

दिमाग पर जोर डालकर कुछ सोचना न पड़ता हो।

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सोमवार, 20 जून 2011

प्रतीक्षा

करीब एक दशक पहले अपने मित्र के लिए लिखी यह कविता अभी तक अप्रकाशित ही है।
आज अचानक य‍ह कागजों में मिली तो यहां प्रकाशित कर रहा हूं।

प्रतीक्षा
(एस.एन. के लिये)


दूर तैरता दिखता है बादल का टुकड़ा
और तुम जो यहाँ इतने करीब हो हृदय के
एक इस याद ने मुझे बना दिया है ताकतवर

कल भी मेरे बुखार में चला आया वह पेड़
जो तुम्हारे साथ रहने से ही बरगद था
अब तुम्हें देखे इतने बरस हुए कि उम्मीद होती है
मेरे पास पिछले सालों की हजार बातें हैं
जो सिर्फ तुम्हें बतायी जा सकती हैं
जिन्हें समझ सकते हो सिर्फ तुम ही
इस बीच मैंने कई चीजों को सहन किया
और चुप रहा कि एक दिन तुम मिलोगे

पिछली रात आकाश में अनुपस्थित
चंद्रमा ने जैसे मुझे समझायाः
‘कृष्ण पक्ष में हमें इंतजार करना चाहिए’
धीरे-धीरे पार हो रहा है जीवन का पठार
पीछे मुड़कर देखने पर केवल तुम हो
जो दिखाई देते हो मित्र की तरह रोशन
और चुपचाप करते हो मेरी प्रतीक्षा

मुझे मालूम है एक दिन अचानक
मैं पहुँच ही जाऊँगा तुम्हारे पास
या किसी रात खटखटाये जाने पर
जब दरवाजा खोलूँगा तो तुम ही दिखोगे सामने
वैसे ही सिमटे हुए और व्याकुल
वैसे ही अपरम्पार।
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बुधवार, 25 मई 2011

अन्तिम आदमी

किंचित निराशापूर्ण अंत के बावजूद यह कविता वर्षों से मुझे प्रिय है। शायद यह अंत दुखद यथार्थ का एक पहलू है, जिसे आशावाद में ढालने से कवि का इंकार है।
राजेन्‍द्र धोड़पकर की कविताओं में भाषा, लय, संगीत और मार्मिकता के विरल दृश्‍य सहज उपलब्‍ध हैं। और यह कविता उसका विलक्षण उदाहरण है।

अन्तिम आदमी
राजेन्‍द्र धोड़पकर


उस वक्‍त सारी कुर्सियां खाली हो चुकी थीं
सबसे अन्‍त में उनके बीच से निकला वह आदमी
और बीच रात में चलने लगा
उसके दोनों हाथ अपनी जेबों में थे
उसकी उंगलियों के इर्दगिर्द सवाल लिपटे थे
अन्तिम आदमी अकेला था सड़कों पर
कई सड़कों और गलियों से गुजरा वह
उसे रास्‍ते मालूम थे
उसे मालूम था कोई रास्‍ता उसके घर तक नहीं जाता

अन्तिम आदमी का कोई घर नहीं था
अन्तिम आदमी का कोई घर नहीं होता
उसके पास सिर्फ सवाल होते हैं जिन्‍हें
हल करते-करते जवाब में और सवाल पाता है वह
बहुत ठंडी थी वह रात
कोहरे के समुद्र में एक विशाल गेंद की तरह तैर रही थी पृथ्‍वी
जिसे सबसे अन्‍त में छोड़कर गया वह।

रविवार, 27 मार्च 2011

एक तारा टूटने से भी वीरान होता है आकाश

स्मृतिशेष कमला प्रसाद

उन्हें किसी धोखे से ही
खत्म किया जा सकता था


हमारे समय में लेखन, विचार और संगठन की यदि कोई संघीय, गणतांत्रिक और लोकतांत्रिक उपस्थिति है तो कह सकते हैं कि उसका एक प्रमुख स्तंभ गिर गया है।
सातवें दशक से लेकर अब तक प्रगतिशील लेखक संघ के पुनर्निर्माण में, उसे सक्रिय, गतिशील और स्पंदित रखने में कमला प्रसाद का अतुलनीय, असंदिग्ध और अप्रतिम योगदान है। प्रलेसं के प्रति प्रतिबद्धता से विचलन का या उससे विलग होने का किंचित विचार भी उनके मन में कभी नहीं आया। अवांछित आरोपों, मुश्किलों और मोहभंग के कुछ दुर्लभ क्षणों में भी वे इस विवेक को बचाये रखते थे कि संगठन ही सर्वोपरि है। दरअसल, धीरे-धीरे वे अनेक क्षुद्रताओं से ऊपर हो गए थे। उन्होंने अपने काम को, प्रलेसं से अपने जुड़ाव को कभी संकुचित या सीमित नहीं होने दिया और व्यापक वामपंथी लेखकीय एकता का स्वप्न भी देखते रहे।
अविभाजित मध्य प्रदेश के साथ ही पिछले कुछ वर्षों से राष्ट्रीय महासचिव के दायित्वों का निर्वहन करते हुए उन्होंने पूरे भारतवर्ष का दौरा किया और जगह-जगह इकाइयाँ बनाने, अचल को पुनर्जीवित करने का महती काम किया। अपने लेखन की वृहत्तर संभावनाओं और महत्वाकांक्षा को भी उन्होंने सांगठनिक क्रियाशीलता में खपा दिया। कहा ही जाना चाहिए कि यदि उनकी इतनी संलग्नता, सक्रियता न होती तो देश-प्रदेश में प्रलेसं की इतनी इकाइयाँ और हलचल संभव न होती।
यही नहीं, ‘वसुधा’ में लिखे अनेक संपादकीयों, सम्मेलनों-आयोजनों में दिए गए भाषणों, व्याख्यानों से जाहिर है कि उन्होंने वामपंथी, प्रगतिशील-जनवादी विचार को जीवंत रखने का, पक्षधरता बनाये रखने का काम लगातार किया। यह वह पक्ष है जिसे कमला प्रसाद के संदर्भ में अकसर गौण किया जाता रहा है या कम महत्व दिया गया है। उनके लिखे व उच्चरित शब्दों को यदि किसी क्रमवार तरीके से संकलित किया जाए तो उनकी यह भूमिका बेहतर रेखांकित हो जायेगी। इन्हीं सबके बीच आलोचनाकर्म को वे पूरी गंभीरता और सैद्धांतिकी के साथ करते रहे, उनकी आलोचना संबंधी प्रकाशित पुस्तकें और समीक्षाएँ इसका बेहतर साक्ष्य हैं। ‘पहल’ पत्रिका के सहयोगी रहते हुए उन वर्षों में उन्होंने काफी जमीनी काम भी किया।
इधर कमला प्रसाद कमाण्डर, सर, गुरूजी और आचार्य के संबोधनों से जाने जाते रहे यद्यपि इनमें से ‘कमाण्डर’ ही सर्वाधिक लोकप्रिय और सर्वमान्य हो गया था। अद्भुत सांगठनिक क्षमता, अनुशासित आयोजनधर्मिता और नेतृत्वशीलता के कारण उन्हें दिया गया यह संबोधन जैसे किसी बहुमत के अधीन सबको सहज ग्राह्य हो गया था।
उनका एक दुर्लभतम गुण थाः आत्मीय रिश्ते बनाना, पारिवारिकता कायम करना। वे इसे माक्र्सवादी लक्षण की तरह लेते थे। कि संगठन ही विस्तारित, सच्चा परिवार है। उनके व्यवहार में यह सहजता, निश्चलता, उदारता और अपनावा था कि उनसे किसी भी रूप में संपर्क में आये प्रत्येक व्यक्ति को, खासतौर पर लेखक समुदाय को, यह अधिकार हो जाता था कि वह कभी भी उनके घर आ सकता है, खाना खा सकता है और संकट के समय आश्रय भी पा ही सकता है। और वे भी अपने साथियों पर ऐसा अधिकार मानते थे, भले वे कभी-कभार ही इस अधिकार का उपयोग कर पाये हों। वे एक बार बन गये आत्मीय संबंधों को बहुत महत्व देते थे। लेखक साथियों की व्यक्तिगत परेशानियों में खुद को हिस्सेदार बना लेते थे, कई बार तो भोक्ता से ज्यादा वे चिंतित रहते। मैंने उनकी दैनिक कार्यसूची में ऐसे अनेक काम लिखे देखे हैं जो दिल्ली, पटना, मण्डी, गुवाहटी, कालीकट, विदिशा, मुंबई, बिलासपुर, आरा, होशियारपुर या अशोकनगर में रह रहे लेखक साथियों के निजी काम थे। इस संबंध में अपने संपर्कों के उपयोग में कोई संकोच नहीं बरतते थे। वे इन कामों में जुट जाते और असफल रहने पर दुख मनाते लेकिन सफलता का प्रचार नहीं करते थे।
इधर तो यह खूब हुआ कि नयी सामाजिक, राजनैतिक-आर्थिक और नैतिक वंचनाओं, व्यक्तिगत प्रतिबद्धताओं की कमी और निष्क्रियताओं से उपजी भीतरी सांगठनिक असफलताओं का ठीकरा भी कमला प्रसाद के माथे फोड़ दिया जाता। जैसे इस क्षयग्रस्त सामूहिकता के वे व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी हों। जीवन के उत्तरार्द्ध में सर्वाधिक कष्ट उन्हें इसी बात का रहा। उनकी निजी किसी चूक को भी संगठन की भूल की तरह प्रचारित किया गया। लेकिन इस तरह उनके कार्य का, उनकी महत्ता का अवमूल्यन संभव नहीं और मूल्याकंन तो कतई नहीं। उनका अपना प्रतिबद्ध दुःसाहस तो इस हद तक था कि गहन बीमारी में भी वे अभी एक महीने पहले प्रगतिशील लेखक संघ की राष्ट्रीय कार्यकारिणी समिति की बैठक में कालीकट चले गये। उनके संपादन में ‘वसुधा’ पत्रिका लगातार अधिक विचारशीलता और सर्जनात्मकता की तरफ यात्रा कर रही थी।
उनके पास एक बड़े परिवार के भरण-पोषण का जिम्मा था और आर्थिक मोर्चे पर वे ऐसे संपन्न नहीं थे कि बेपरवाही, असजगता या अराजक अव्यावहारिकता से रहा जा सके। समृद्ध, संपन्न और आत्मलीन लोगों ने उनकी इस स्थिति पर भी टिप्पणियाँ करने से गुरेज नहीं किया। लेकिन हम देख सकते हैं कि जीवन और विचार की लड़ाइयाँ उन्होंने सामने से लड़ीं। वे चुपचाप नहीं रहे, उन्होंने जवाब दिए, असहमतियाँ दर्ज कीं, हस्तक्षेप किया, अनंत मित्र बनाए और आवश्यकता लगने पर शत्रु बनाने में भी पीछे नहीं रहे। लेकिन रूठकर किसी कोने में बैठ जाना उनका स्वभाव नहीं रहा, वे हमेशा संवादी रहे। अनेक पीढि़यों को उन्होंने वैचारिक रूप से शिक्षित किया। सर्जनात्मक रचना-शिविरों को संभव किया। अनगिन लेखकों को प्रोत्साहन दिया। वे साथियों पर विश्वास करते थे और साथियों का विश्वास अर्जित करते थे। उन्हें सिर्फ धोखे से खत्म किया जा सकता था। कैंसर ने अपनी विषम अवस्था में यकायक प्रकट होकर, चुपचाप रक्तकोशिकाओं को घेरकर उन्हें धोखे से ही खत्म किया। निजी तौर पर उन्हें बेहद करीब से, दो महीनों में धीरे-धीरे इस तरह जाते हुए देखना एक त्रासद, अमिट, दारुण अनुभव है। दरअसल, हमने सक्रियता और ऊर्जा की दृष्टि से युवकोचित उत्साह के एक साथी को भी खो दिया है। उन्होंने एक कॉमरेड का जीवन चुना, साहित्य के क्षेत्र का वरण किया और उसी में जिये-मरे।
भोपाल में निराला नगर, जहाँ आज अनेक लेखक-पत्रकार रहते हैं, उसकी परिकल्पना और निर्माण में कमला प्रसाद की भूमिका थी, वहाँ जाना अब एक अशेष स्तब्धता और खालीपन को अनुभव करना है। एक की कमी भी बहुवचनीय होती है और कमला प्रसाद के प्रसंग में तो यह बहुगुणित है। ‘एक तारा टूटने से भी वीरान होता है आकाश’, इस पंक्ति को कमला प्रसाद के संदर्भ में याद करना औचित्यपूर्ण तो है लेकिन साथ ही एक व्यापक, असीम दुख के अंतरिक्ष में प्रवेश करना है।
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शनिवार, 12 मार्च 2011

अपमान


अपमान

वह नियमों में शामिल है और सड़क पर चलने में भी

सबसे ज्यादा तो प्यार करने के तरीकों में

वह रोजी-रोटी की लिखित शर्त है

और अब तो कोई आपत्ति भी नहीं लेता

सब लोग दस्तखत कर देते हैं


मुश्किल है रोज-रोज उसे अलग से पहचानना

वह घुलनशील है हमारे भीतर और पानी के रंग का है

वह हर बारिश के साथ होता है और अक्सर हम

आसमान की तरफ देखकर भी उसकी प्रतीक्षा करते हैं


आप देख सकते हैं : यदि आपके पास चप्पलें या स्वेटर नहीं हैं

तो कोई आपको चप्पल या कपड़े नहीं देगा सिर्फ अपमानित करेगा

या इतना बड़ा अभियान चलायेगा और इतनी चप्पलें

इतने चावल और इतने कपड़े इकट्ठे हो जायेंगे

कि अपमान एक मेला लगाकर होगा

कहीं-कहीं वह बारीक अक्षरों में लिखा रहता है

और अनेक जगहों पर दरवाजे के ठीक बाहर तख्ती पर


ठीक से अपमान किया जा सके इसके लिए बड़ी तनख्वाहें हैं

हर जगह अपमान के लक्ष्य हैं

कुछ अपमान पैदा होते ही मिल जाते हैं

कुछ न चाहने पर भी और कुछ इसलिए कि तरक्की होती रहे


वह शास्त्रोक्त है

उसके जरिये वध भी हो जाता है

और हत्या का कलंक भी नहीं लगता।