मंगलवार, 29 सितंबर 2009

जनगीत

अशोक नगर इप्‍टा और प्रलेस के साथी, जिनमें हरिओम राजौरिया, पंकज दीक्षित, राजेश खैरा, विनोद शर्मा जैसे दसियों साथी शामिल हैं, वे जनगीत गायन में इतनी भावना, हार्दिकता और ऊर्जा भरते हैं कि वह सुनने का एक अनुभव हो जाता है। उसी तरह के अनुभवों को स्‍मरण करते हुए यह कविता उन्‍हें समर्पित है। सादर और सप्रेम।


जनगीत
(`इप्टा´ अशोक नगर के साथियों के लिए)


जिन तीन लोगों का स्वर अच्छा नहीं है
और वे दो जो बेसुरे हैं
ये सब दूसरी तमाम आवाज़ों के साथ मिलकर
कितने सुरीले लग रहे हैं
और अब एक तूफान खड़ा कर रहे हैं
उनकी उठान देखिए, वे नक्षत्रों तक पहुँच गए हैं
एक शब्द के फेंफड़ों में कितने लोग फूँक रहे हैं अपनी साँस
उस शब्द की छिपी ताकत दिखने लगी है
सोयी हुई पंक्तियों की अँगड़ाइयों ने रच दी है नयी देहयष्टि

एक पान की दुकान से निकलकर आया है
दूसरे की आवाज़ में सीमेंट की धूल की खरखराहट है
और एक बाँसुरी जैसे शरीर में से
नगाड़े की आवाज़ पैदा कर रहा है
जिंदगी ने खरोंच दी है उसकी आवाज
और उसे पता ही नहीं अब वह क्या कमाल कर रहा है

चीजों पर जमा धूल गिर गई है
और वे चमक रही हैं धातुओं की तरह

मनुष्य ही है जो गा सकता है गीत
दुर्दिनों के बरअक्स रखता हुआ अपने स्वप्न
कि बस अब सब कुछ ठीक होने को ही है
और इसे कोई ईश्वर वगैरह ठीक नहीं करेगा
आरोह में यह पुकार जो प्रार्थना की खाई में नहीं गिरती
यहाँ याद आती है अनायास ही गोर्की की यह बात :
`अगर तुममें वह शक्ति नहीं
और वह कुछ करने की तीव्र इच्छा नहीं
जिसकी शिक्षा देता है यह गीत
तो इसे गाने भर से कुछ नहीं मिलनेवाला !´

संगीत और शब्दों की जुगलंबदी के बहाने
यह याद दिलाने के लिए शुक्रिया
कि उठकर चलने का एक और मौका
ठीक हमारे सामने है।
0000

बुधवार, 16 सितंबर 2009

यह व्‍यवस्‍था तुम्‍हें मार नहीं डालना चाहती


'श्रम के घंटे और मनुष्‍य का अवकाश' लेख की यह तीसरी और अंतिम किश्त।
यह कुछ बड़ा अंश है। लेकिन आशा है कि इसे धीरजपूर्वक पढ़ लिया जायेगा।

जीवन-स्तर और जीवन की गुणवत्ता
जो लोग तर्क देते हैं कि यदि वे अपना कार्यालयीन काम छोड़कर जाएँगें तो अगले दिन वही काम करना तो उन्हें ही पड़ेगा। उनके तर्क में ही असली समाधान छिपा हुआ है - कि `वह काम `अगले दिन´ करना होगा, उसी दिन नहीं।´ पूरी समस्या तो एक दिन में कार्यावधि से अधिक काम करने से संबंध रखती है। जो एक दिन में पूरा नहीं हो रहा है वह उस दिन का काम नहीं है, अगले दिन का काम है। और जो काम एक महीने में पूरा नहीं हो रहा है, दरअसल वह काम एक से अधिक आदमियों का काम है। अब तो ट्रेड यूनियनें यह बात सगर्व कहने लगी हैं कि देखिए, हमारे कर्मचारियों ने समय से भी अधिक बैठकर काम किया है और संस्थान के लिए इतना अधिक लाभ अर्जित किया है जबकि उन्हें इस बात पर किंचित लज्जित और चिंतित होना चाहिए और ऐसा न हो, इसके हर संभव उपाय करना चाहिए।
प्रतिष्ठित संस्थानों में आर्थिक अथवा अन्य सुविधाओं का प्रलोभन देकर, अधिक समय तक काम लेने की प्रवृत्ति ने अधिकारी-कर्मचारियों को भी खास तरह के नशे का शिकार बना दिया है। उनमें से तो अनेक न केवल इसे उचित मानते हैं बल्कि उन्हें लगता है कि इससे उन्हें कुछ धनलाभ हो रहा है, वह बरकरार रहना चाहिए। यह अतिरिक्त आय का नशा है जिसमें वे भूल जाते हैं कि इस तरह वे रोज-रोज `कम मनुष्य´ (less human) हो रहे हैं और उन सब नकारात्मकताओं और मुश्किलों की जकड़न में आ रहे हैं जिनका कुछ विवरण ऊपर दिया गया है। इन नशेलचियों में वे लोग भी शामिल हैं जो कैरियरिस्ट हैं। वे इस बात की सुखद कल्पना करने की ताकत ही खो बैठे हैं कि किस तरह उनके जीवन से `अतिरिक्त प्राप्य एक हजार रुपया महीना कम हो जाए लेकिन समय पर कार्यालय से वापसी हो जाए´ तो मनुष्य के रूप में उन्हें कितनी शांति, प्रफुल्लता, स्वास्थ्य और आंनद मिल सकता है। (जिसे पाने के लिए बाद में उन्हें औसतन दो हजार रूपए महीने खर्च करने ही पड़ते हैं।) मनुष्य की इच्छा, सुखद कल्पनाशीलता और आकांक्षा को खो देना ही श्रमिकों के लिए सबसे बड़ा अभिशाप हो सकता है जिसे आज का संगठित श्रमिक भी भुगत रहा है लेकिन यही बात संस्थानों के लिए वरदान हो जाती है इसलिए वे कुछ दे-दिलाकर श्रमिक से अतिरिक्त घंटे काम करा लेने को सहज-स्वीकार्य बनाते जा रहे हैं। यह श्रमिकों का वस्तुरूप में खरीदे जाने का ही एक प्रकार है। यह एक नया विनिमय मूल्य है। (याद करें दासप्रथा।) वे चाहते हैं कि इस स्थिति का कोई प्रतिरोध न हो। बल्कि वे यह तक कहने से पीछे नहीं हटते कि ऐसा करके हम श्रमिक के जीवन स्तर को बढ़ा रहे हैं। कहना चाहिए कि हाँ, आप ऐसा करके श्रमिक के जीवन-स्तर को कुछ हद तक आर्थिक तौर पर बढ़ा रहे हैं लेकिन उसके `जीवन की गुणवत्ता और आयु´ को काफी हद तक कम कर रहे हैं। यह बात पर्दे के पीछे रह जाती है कि वस्तुत: उनका लक्ष्य सिर्फ अपने संस्थान का लाभ बढ़ाना है। श्रमिक के जीवन-स्तर या उसकी समस्याओं से तो उनका तनिक भी सरोकार नहीं है। जिन सुविधाओं या वेतन की बात वे (संस्थान) करते हैं, वह तो श्रमिकों द्वारा घोर संघर्ष के बाद प्राप्त किया गया हैं।
यह उनका दिया हुआ नहीं, उनसे लिया हुआ है। इसमें उन्हें गर्व करने का हक ही नहीं है। संतोष की बात यह होना चाहिए कि अभी भी श्रमिकों में कुछ लोग ऐसे हैं जो अपना समय बेचकर किंचित सुविधा या पैसे को लात मारना चाहते हैं और अपने अवकाश के प्रति लालायित हैं। ये वे लोग हैं जो मनुष्य के रूप में अपनी भूमिका, रचनात्मकता, सामाजिकता और विविधता को तरजीह देते हैं। वे इसी तरह मनुष्य की आंशिक मुक्ति का ही स्वप्न देखते हैं। ट्रेड यूनियन के लिए भी यह स्वप्न, यह प्रयास और यह अभिलाषा शक्ति और दिशा देने वाला होनी चाहिए इसलिए संस्थान में उपस्थित `सुविधा और धन की चाह´ के नशे के आदी हो रहे कर्मचारी-अधिकारियों को नासमझ नशेलची मानकर उन्हें इससे मुक्ति दिलाना चाहिए, सही शिक्षा देना चाहिए। क्योंकि उन्हें नासमझों द्वारा निर्मित तर्क और हाल पर नहीं छोड़ा जा सकता अन्यथा वे तो इस विषम परिस्थिति का शिकार होंगे हीं, अन्य श्रमिकों के लिए भी प्रदूषण और दुष्प्रेरणा के नए स्‍त्रोत भी बनेंगे।

यह व्यवस्था तुम्हें मार नहीं डालना चाहती
अब्राहम लिंकन जब अपने पुत्र के शिक्षक को पत्र लिखते हैं कि `मेरे बेटे को तारों को, किताबों को, आकाश में विचरण करते पक्षियों को भी देख सकने का समय और सामर्थ्‍य मिलना चाहिए´ तो इसके बड़े़ आशय हैं। यदि हम इसमें चाँदनी रात, नौका-विहार, सूर्योदय-सूर्यास्त, नयी जगहों को देखने का सौन्दर्य, प्रिय को निहारने और झरने की कल-कल सुनने जैसी अनेक चीजें जरूरतों की तरह शामिल कर लें तो इसकी व्यापकता और बढ़ जाएगी। लिंकन जैसे अनेक विचारक मनुष्य के विकास और मुक्ति को विशाल अर्थों में देखते रहे हैं। इस विचार परंपरा को आगे बढ़ाना ही वांछनीय है। ध्यान रखना चाहिए कि `तनाव और आनंद´ का संबंध विलोम अनुपाती है। आप तनाव में रहते हुए, किसी भी उपलब्ध सुविधा का आनंद नहीं ले सकते। यही कारण है कि आज सांस्थानिक कर्मचारियों- अधिकारियों के घर में औसत सुख-सुविधा के साधन होते हुए भी वे आनंदित नहीं हैं और ऊपर से हँसते-मुसकराते हुए शोकमय जीवन बिता रहे हैं। सुविधाओं का आनंद ले पाने का सामथ्र्य उनमें बचा ही नहीं है। ये सुविधाएँ कई बार इसलिए भी दी जाती हैं कि वह भौतिक तौर पर अपने को उच्चतर या बेहतर अवस्था में अनुभव करे और किसी तरह का प्रतिरोध न कर सके। रघुवीर सहाय अपनी कविता में कहते हैं कि यह व्यवस्था आपको मार नहीं डालना चाहती। अर्थात् वह इतना जरूर आपको देती रहेगी कि आप जीवित रह सकें क्योंकि उसे आपसे काम लेना है। आपको मारकर तो वह खुद जीवित नहीं रह सकती। इसका नया विस्तार यह है कि वह आपको कुछ सुविधाएँ भी देगी (यद्यपि संघर्ष के बाद विवश होकर) क्योंकि वह आपके भीतर उपजने वाले संभव असंतोष को कुछ हद तक खतम करना चाहेगी ताकि उसे चुनौतियाँ और कर्मचारी का असंतोष न सहना पड़े। उसका अस्तित्व और लाभ बना रहे।
मध्यवर्ग मूलत: सर्वहारा ही है
हम देख सकते हैं कॉल सेन्टर्स में, निजीकृत तकनीकी और कंप्यूटर संबंधी इकाइयों में दस से बारह घंटों का काम लिया जा रहा है। इसके लिए कोई कानूनी क्रियान्वयन, श्रमिक आंदोलन या प्रभावी उपाय नहीं है तो उसका सबसे बड़ा कारण है कि देश के विशाल मध्यवर्ग के बीच यह भ्रम फैला देने में कामयाबी मिल गई है कि वे लोग श्रमिक नहीं हैं। वे तो `सेवा क्षेत्र´ में हैं और `बौद्धिक´ हैं या `आधुनिक तकनीक के जानकार´। जब यह दुष्प्रचार सफल हो गया हो कि एक समझदार, पढ़ा-लिखा, युवतर और विशाल वर्ग अपने आपको `श्रमिक´ न माने तो यह होना ही है कि वे पूँजीवाद और पूँजीपतियों के सिर्फ शिकार होते चले जाएँ। बाबुओं या बाबूनुमा अधिकारियों की सफेदपोश उपस्थिति को वे बढ़ावा देना ही चाहते हैं क्योंकि इससे एक ऐसा वर्ग बनता है जो `अपने को सर्वहारा वर्ग से अलग कर सकता है´ और किसी भी तरह के क्रांतिकारी आंदोलन का सच्चा सहायक नहीं हो सकता। जबकि व्यवहारिक और पारिभाषिक तौर पर वह सर्वहारा ही है : `वह वर्ग जिसका पूँजी पर कोई मालिकाना हक नहीं है और जो रोज-रोज अपना श्रम बेचने के लिए बाध्य है।´ नयी पीढ़ी को वैश्वीकरण ने एक ऐसे जाल में फँसा लिया है कि वे संघर्षपूर्ण दृष्टि से विचार करने लायक स्थिति में ही नहीं छोड़ दिए गए हैं। ऐसे युवाओं की जीवनचर्या पर भी यहाँ निगाह डालना उचित होगा। वे युवावस्था के जोश, उन्माद और क्षमता में जो काम कर रहे हैं उससे उनके पास समयाभाव है। थकान से भरे हुए वे प्राय: काम के बाद शराब, क्लबों और सतही मनोरंजन के सामने आत्मसमर्पण कर देते हैं। वे आरंभिक दिनों में खिले हुए फूल की तरह काम पर जाते हैं और जल्दी ही मुरझाए फूल की तरह काम से वापस आने लगते हैं। फिर वह दिन आता है कि वे एक बासी फूल, जिसकी पंखुरियाँ लटक रही होती हैं और जिसका पराग झर चुका होता है, की तरह काम पर जाते दिखते हैं और निढाल, कमजोर, चिड़चिड़े और चुके हुए कातर या मिनमिनाते आदमी की तरह वापस आते हैं। उनकी तुलना सिर्फ उस गन्ने के टुकड़े से हो सकती है जो रस निकालने के लिए जब मशीन में डाला जाता है तो स्वस्थ, सुडौल और रस से भरा होता है लेकिन दूसरी तरफ से निकलते हुए उसका रेशा-रेशा बिखर जाता है, रसहीन हो चुका होता है और महज छूँछन बचती है। श्रम की मशीन में अत्याधिक दबाव में काम करते हुए मनुष्य की यह हालत होने में दस-बीस साल लग सकते हैं लेकिन आर्थिक उदारवादी व्यवस्था ने जिस तरह का दिलकश उत्पीड़न श्रमिकों के लिए, खासतौर पर बौद्धिक श्रमिकों के लिए प्रस्तुत किया है वह मनुष्य को छूँछन बनाने में अधिक समय नहीं लेता, बमुश्किल तीन से पाँच बरस पर्याप्त सिद्ध होते हैं। छूँछन का यह असर जितना शरीर पर पड़ता है, आत्मा पर उससे कम नहीं।
आप-हममें से कौन ऐसा पालक होगा जो यह स्वप्न देखे कि `हमारे बच्चे को रुपए तो पचास हजार महीने मिलें फिर चाहे वह साढ़े नौ बजे काम के लिए निकले, वहाँ जुटा रहे, थक-हारकर रात आठ बजे तक घर लौटे, किसी पब में घुस जाए, कब्ज की गोलियाँ खाता रहे, टेलीविजन निहारता हुआ बिना कपड़े बदले ही सो जाए और फिर सुबह आठ बजे उठकर आपाधापी में तैयार होते हुए इसी दिनचर्या को दोहराता चला जाए। उसके साप्ताहिक अवकाश को भी संस्थान हजार-पाँच सौ रुपए में खरीद ले, एकाध अवकाश उसे हासिल हो तो उसमें खूब खाए-पीए और सोए ताकि अगले दिन से फिर कामकाजी दिनचर्या की भट्टी में प्रवेश कर सके। इस तरह धीरे-धीरे सामाजिक-सांस्कृतिक तौर पर वह निरंक होता चला जाए और जब उसका विवाह हो तो वह अपनी कामकाजी या घरेलू पत्नी को भी अपनी आपाधापी और अपने कोलाहल का हिस्सेदार बना ले।´ निश्चय ही कोई भी विचारशील व्यक्ति अपने बच्चों के लिए ऐसी कल्पना नहीं कर सकता। कितनी मजेदार बात है कि वह खुद ऐसी स्थितियों का शिकार होता चला जा रहा है लेकिन उसका प्रतिरोध गायब है। इस प्रतिरोध को जगाना, श्रमिक के, मनुष्य के मूल कत्र्तव्य के रूप में आज सबसे जरूरी है। जितना जटिल जीवन यह होता जा रहा है उसमें सप्ताहांत में दो दिन का अवकाश हो, अब बात यहाँ से प्रारंभ होनी चाहिए। पाँच दिन के काम के बाद, लगातार दो दिन का अवकाश ही एक श्रमिक को मनुष्य का वह अवकाश दे सकता है जिससे वह अधिक तनावमुक्त, आनंदित और अधिक नागरिक हो सके। लेकिन इसका अर्थ यह कतई नहीं है कि अपने कामकाजी दिनों में वह सुनिश्चित कार्यावधि से अधिक श्रम करे। यह सुनिश्चत किए जाने में कोई आपत्ति नहीं है कि श्रमिक अपने कामकाजी घंटों में पूरी क्षमता, योग्यता और जबावदारी से कार्य कर सके। प्रबंधन का मूल दायित्व भी यही है कि इस तरह से कार्य-संस्कृति और कार्य ले सकने का वह सुप्रबंध करे। इस संबंध में संस्थान अपने कुप्रबंध या प्रबंधन अक्षमता को कर्मचारियों के ऊपर ढकेल कर, उनसे अतिरिक्त श्रम कराए, यह स्थिति एकदम अस्वीकार्य होनी चाहिए।
संस्थागत काला जादू
जब संस्थान कहता है कि यह संस्था आपका परिवार है, अपनी क्षमता से अधिक काम करना और मर-मिट जाने की भावना या हार्दिकता से काम करना आपका धर्म है तो इससे अधिक चालाकी कुछ नहीं हो सकती। संस्था में काम कर रहे लोगों से तो पारिवारिकता हो सकती है लेकिन यह निर्दयी तथ्य है कि श्रमिक की किसी संवेदनशील या भावुक स्थिति में, संस्थान उसके साथ मित्र की तरह पेश नहीं आ सकता और न ही श्रमिक किसी भावना या भावुकता के तहत किसी संस्था में काम करना स्वीकार करते हैं। पिंच्यानबे प्रतिशत लोगों को नौकरियाँ उनकी रुचि के आधार पर नहीं मिलती हैं। वहाँ उनकी भर्ती नियमों, सेवाशर्तों, संस्थानों के लिए आवश्यक योग्यताओं और आर्थिक भुगतान के आधार पर होती है एवं वे अपनी ठोस, भौतिक जरूरतों के तहत वहाँ काम करते हैं ताकि वे एक मनुष्य के रूप में जीवित, सक्रिय और सकुशल रह सकें। लेकिन हम देख रहे हैं कि यह नारा उन्हें जीवित रखने में तो मददगार है लेकिन `सक्रिय और सकुशल´ नहीं रख पा रहा है। `सक्रिय और सकुशल´ केवल संस्था और उसके मालिक रह गए हैं। या अधिक से अधिक उसके उच्च प्रबंधकगण। जाहिर है कि ये सब नारे एक श्रमिक को भावनात्मक स्तर पर ब्लेक-मेल करने के साधन हैं ताकि उसका अधिकाधिक समय और श्रम चुराया जा सके। संस्थान द्वारा सामूहिक स्तर पर यह ब्लेक-मेलिंग सम्मोहन का असर पैदा कर सकती है इसलिए इन प्रयासों को `संस्थागत काला जादू´ कहना उचित होगा। इसका असर इस हद तक हो जाता है कि एक दिन श्रमिक को समय से अधिक काम करना नैतिक प्रतीत होने लग सकता है। जबकि यह कितना हास्यास्पद और विरोधाभासी है कि तनख्वाह दी जाएगी सात घंटे रोज की और यदि आप `केवल सात घंटे´ काम करेंगे तो आपकी निष्ठा और कार्यकारी चरित्र को ही संदिग्ध मान लिया जाएगा। ऐसा वातावरण बनने लगा है इसलिए भी अब इसका सार्थक प्रतिरोध आवश्यक है। ट्रेड यूनियन की दृष्टि से अब उन कर्मचारी-अधिकारियों को शत्रु मानने में कोई हर्ज नहीं होना चाहिए जो निर्धारित कार्यघंटों से अधिक काम करते हैं। निश्चय ही ये वे लोग हैं जो अपने कैरियरिज्म, भीरूता, प्रतिरोधहीनता और तुच्छ व्यक्तिगत लाभप्रदता के चलते संस्थान के मालिकों और प्रबंधकों को इस बात के लिए प्रोत्साहित कर देते हैं कि वे तयशुदा कार्य-समय से अधिक कार्य करने के लिए शेष श्रमिकों पर दबाव बना सकें। कर्मचारियों की मौजूदा संख्या से अधिकाधिक कार्य करा लेने के नवीनतम हथकंडे इस्तेमाल करने के तहत, संस्थानों ने समानांतर रूप से यह चाल चली है कि वे नयी भर्तियाँ लगभग नहीं कर रहे हैं। इससे एक पक्ष यह बन गया है कि संस्थानों में कार्यरत् मौजूदा श्रमिकों की औसत आयु `पैंतालीस वर्ष´ हो चली है। हम जानते हैं कि यह ऐसा आयुवर्ग है जब आदमी अपने पारिवारिक दायित्वों में सबसे ज्यादा फँसा और दबा रहता है। उसकी जवानी खतम हो चुकी होती है और वह प्रतिभाशाली होते हुए भी किसी नए उपक्रम में जाने लायक ऊर्जस्वित नहीं बचा रहता। उसकी लड़ाकू क्षमता कम होने लगती है और वह इन सब स्थितियों के चलते समझौतावादी हो जाता है। वे इस पूरी पीढ़ी के नष्ट अथवा सेवानिवृत्त हो जाने की प्रतीक्षा में हैं। उनकी बेचैनी इस हद तक है कि वे समयपूर्व सेवानिवृत्ति के पैकेज देने में नहीं हिचक रहे हैं। इस वजह से भी पिछले कुछ वर्षों में श्रमिक विरोधी परिस्थितियों को लागू किया जा सका है और श्रमिकों के खिलाफ कुछ नए प्रस्ताव उनके झोले में हैं। संस्थान ताक में है कि जैसे-तैसे यह पीढ़ी विदा हो जाए तो नयी भर्तियों को वे अधिक श्रमिक-विरोधी सेवाशर्तों के लाभदायक आलोक में कर सकें। यहाँ आप उचित समझें तो रुककर अपने बच्चों के जीवन और भविष्य के बारे में कुछ तटस्थ तरीके से विचार कर सकते हैं कि क्या आप ऐसा ही संसार उन्हें छोड़कर जाना चाहते हैं।

मालिकों या प्रबंधन से मित्रता एक खतरनाक विचार है
संस्थानों में मालिकों की उपस्थिति अब श्रंखला के रूप में स्थापित कर दी गई है। राजनीतिक-प्रशासनिक स्तर पर मार्क्‍स ने इसे देखा था और कहा था कि आइ.ए.एस. (उच्च प्रशासनिक अधिकारीगण) सरकारों के मुंशी होते हैं, इसके अलावा कुछ नहीं। अन्य संस्थानों में आइएएस का स्थान उच्च प्रबंधक लोग ले लेते हैं। जो भी कार्यपालक की स्थिति में होंगे वे अधिक चतुराई से मुंशीगिरी से भरी क्रूरता कर सकेंगे। उन्हें इस बात के लिए प्रारंभ में तथा बीच-बीच में बाकायदा प्रशिक्षित भी किया जाता है। इस मायने में ये सारे प्रशिक्षण केंद्र श्रमिकों के कातिलों को तैयार करते हैं। जो कार्यपालक होंगे वे मालिक के विश्वसनीय प्रतिनिधि के तौर पर ही काम करेंगे। इसलिए कार्यपालकों एवं अन्य अधिकारी-कर्मचारियों के बीच का संबंध द्वंद्वात्मक और संघर्षपूर्ण ही हो सकता है। रोजमर्रा की मुश्किलों से बचने के लिए उनसे स्थापित मैत्रीपूर्ण संबंध, श्रमिकों की दूरगामी और दीर्घकालिक लड़ाइयों को गहरा नुकसान पहुँचाने में सक्षम है। कार्यपालक तो मैत्रीपूर्ण संबंधों का उपयोग श्रमिक से, कार्यावधि के पश्चात् कार्य लेने में एवं अन्य तरह से शोषण करने में ही करेगा। ट्रेड-यूनियन के मूलभूत सिद्धांतों को याद करें तो याद आएगा कि `मालिक और श्रमिक (बुर्जुआ और सर्वहारा) के बीच असमाधेय वैमनस्यपूर्ण अंतर्विरोधी अस्तित्व का संबंध हैं।´ इसलिए उनसे मित्रतापूर्ण रवैया ट्रेड यूनियन आंदोलन को निस्तेज और निष्प्रभावी करने में समर्थ है। यह कपोल कल्पना नहीं है कि यंत्रीकरण के जरिए सारे पूँजीपति और पूँजीवादी संस्थान अपने यहाँ से एक दिन मनुष्य-कर्मचारियों को हटा देने की आकांक्षा रखते हैं ताकि वे निर्बाध गति से अपनी पूँजी बढ़ा सकें और समाज के सर्वहारावर्ग को कीड़ो-मकोड़ों में बदल सकें। इसलिए यहाँ श्रम-संगठनों के सामने, पूँजीपतियों द्वारा धड़ल्ले से किए जा रहे यंत्रीकरण ने अस्तित्व की ही चुनौती दे डाली है। बिडंवना यह है कि यंत्रीकरण के लिए आवश्यक अपार पूँजी का उत्पादन, श्रमिकगण/कर्मचारीगण कार्यावधि से अधिक काम कर पैदा कर रहे हैं। इसे ही अपनी कब्र आप खोदना कहते हैं।

संस्थानों का लाभ और उनकी बदमाशियाँ
यहाँ उदारवाद और निजीकरण के नारों से भरपूर इस समय में `संस्थानों के लाभ कमाए जाने´ की जरूरत पर भी संक्षिप्त विचार करना प्रासंगिक है। वैश्विक पूँजी और उपभोक्तावादी नजरिए का एकमात्र इरादा है कि कल्याणकारी राज्य या कल्याणकारी समाज की कल्पना को समूल नष्ट कर दिया जाए। श्रमिक की पूरी लड़ाई इस नृशंस विचार के विरोध में होना चाहिए इसलिए `संस्थानों के लाभ´ को उस तरह नहीं देखा जा सकता जिस तरह वे शुद्ध आर्थिक लाभ के रूप में इसकी परिगणना करते हैं। लाभ को उत्पादन की श्रेष्ठता के साथ-साथ, उत्पादकों (श्रमिकों) के `जीवन की गुणवत्ता और श्रेष्ठता´ से जोड़ा जाना चाहिए। यह पूँजीपति और श्रमिक दृष्टि में मूलभूत लेकिन निर्णायक अंतर है। यहीं सारा झगड़ा और झंझट है। दूसरा, यह तय है कि प्रबंधकीय क्षमताओं के साथ, श्रमिकवर्ग की मुश्किलों को दूर करते हुए भी, लाभ कमाया जा सकता है। हो सकता है कि इस तरह से जो लाभ पैदा हो वह मात्र एक करोड़ रुपए सालाना हो लेकिन श्रमिकों का गला काटकर, उन्हें मनुष्य के रूप में विकलांग बनाकर जो लाभ मिलेगा वह एक सौ करोड़ रुपए का हो। इस अतिलाभवादी, पूँजीवादी आकांक्षा और अमानुषिक व्यवस्था का ही तो विरोध होना चाहिए। क्योंकि उनका अतिलाभ श्रमिकों की गलती हुई हडि्डयों और छीजती हुई आत्मा की कीमत पर है। यह पूँजी है जो उन्हें जोंक की तरह चूस रही है और अट्टहास कर रही है। किसी देश या समाज की प्रगति का अर्थ कतई यह नहीं है कि संस्थान, कारखाने, उपक्रम और उनसे जुड़े पूँजीपति उल्लेखनीय लाभ कमाते रहें लेकिन उनमें काम करने वाले श्रमिकों या कर्मचारियों का जीवन गर्त में जाता रहे या वे एक कमतर मनुष्य का जीवन जीने के लिए विवश रहें। मनुष्य और समाज के विकास के लिए यह अत्यावश्यक है कि उनकी सिर्फ आर्थिक उन्नति ही न हो बल्कि वे सामाजिक, सांस्कृतिक और सृजनात्मक स्तर पर भी सक्रिय, प्रसन्न और विकासमान रहें। और अंत में, यह भी जाहिर बात हैं कि लाभ कमाते संस्थानों, कारखानों और उपक्रमों को पूँजीपति खरीदने या हड़पने के लिए किस तरह कागजों पर हानिप्रद संस्थानों में तबदील करने की महारत रखते हैं। ध्यान देने योग्य बात है कि जब भी इस तरह के संस्थान बिकते या नष्ट होते हैं तब उनके मालिक, उच्च प्रबंधकगण या पूँजी-स्वामी कभी नहीं उजड़ते। बेरोजगार या नष्ट होते हैं तो सिर्फ उसमें काम करने वाले श्रमिक। यह आरोप बहुत झूठा, बेतुका और फरेब पैदा करने वाला है कि कर्मचारियों या श्रमिकों की बदौलत कोई संस्थान दिवालिया होता है। शोचनीय स्थिति है कि इस तरह के आरोपों के पक्ष में, पूँजी के प्रचार माध्यमों ने विश्वसनीय लगने वाला वातावरण बनाने में सफलता प्राप्त कर ली है। प्रबंधन, नियमन की असफलता, भ्रष्ट आचरण, पद और पूँजी के दुरुपयोग ही निगमों-संस्थानों के घाटे में जाने के उत्तरदायी कारण होते हैं। इन चीजों को दुरुस्त करने के बजाय श्रमिकों से कार्यावधि से अधिक काम लेने की रणनीति मनुष्यविरोधी है और प्रखर प्रतिरोध की आवश्यकता को रेखांकित करती है। ध्यान रहे कि यह प्रतिरोध कार्यरत् श्रमिक ही कर सकते हैं। श्रम-संगठनों की महती भूमिका इस बारे में निर्णायक होगी। अभी तो कार्य के घंटे कानून द्वारा भी रक्षित हैं। इस अधिकार और स्वतंत्रता की रक्षा यदि श्रमिक नहीं कर पा रहे हैं तो इसकी जबावदारी श्रम-संगठनों पर जाएगी।
जहाँ श्रम संगठन नहीं हैं अथवा अप्रासंगिक हैं वहाँ उनके गठन और सक्रियता की आवश्यकता भी इसी विमर्श से पैदा होती है। क्‍योंकि इस पूरी श्रमिक विरोधी पूँजीवादी समाज की स्थितियों को केवल श्रम संगठनों के निर्माण और उनकी सक्रियता के बल पर ही बेहतर किया जा सकता है, कुछ अनुकू‍लित किया जाकर बदला जा सकता है।
000000

सोमवार, 14 सितंबर 2009

श्रमिक यंत्र नहीं, जीवित मनुष्‍य है

दूसरी किश्‍त
नौकरी और दासता में कुछ फर्क है
संस्थान में अधिक समय गुजारने का सीधा प्रभाव यह पड़ता है कि शेष समय में भी संस्थान और काम आपका पीछा करता है। यह लगभग वैसा ही है जैसे लंबी रेल-यात्रा के बाद, घर के बिस्तर पर सोते हुए भी हमारी नींद में हमें रेल-बर्थ पर सोने की अनुभूति बनी रहती है या रेल की धड़-धड़ और सीटी की आवाज हमारा पीछा करती है। जब रोजमर्रा के जीवन में यह पीछा होता है तो कार्य समाप्ति के बाद का अवकाश या रविवार का अवकाश भी आपको तनाव मुक्त नहीं कर सकता। फिर तनाव से सप्रयास बचने के लिए आप फिल्म देखते हैं, अधिक सेक्स करते हैं, झील किनारे घूमने जाते हैं, चुटकुले पढ़ते हैं, संगीत सुनते हैं, बागीचे में जाते हैं लेकिन कहीं भी आप स्वाभाविक नहीं रह पाते हैं। अगले दिन का काम, कार्यालय की उपस्थिति आपको घेरे रहती है। आपके बॉस का चेहरा और अगले दिन की संभव आक्रामकता आपके मस्तिष्क में जीवंत बनी रहती है। अब आप एक प्रसन्न, निश्चिंत और स्वाभाविक मनुष्य के रूप में नष्ट हो चुके हैं और एक चमकीले, कमाऊ, प्रतिष्ठित और अभिनयसंपन्न दास की तरह विकसित हो चले हैं। आप बिना किसी प्रतिरोध के अपना अधिकतम समय संस्थान को दे सकें इसलिए ही ओव्हरटाईम या अन्य प्रतिसाद में आर्थिक प्रलोभन की व्यवस्था की जाती है। स्मरण रहे कि लगातार सिटिंग में दिया गया अतिरिक्त समय, फलन के रूप में भी ड्योढ़ा होता है अर्थात आप यदि अनवरत् काम करते हुए दो घंटे अधिक बैठते हैं तो उसका श्रमफल अगले दिन पृथक से आकर किए जाने वाले तीन घंटे के कार्य के बराबर होगा। यह भी बेशी लाभ की तरह संस्थान की जेब में जाता है। किंतु लगातार की यह सिटिंग या श्रम श्रमिक के स्वास्थ्य पर दोगुना विपरीत असर डालती है। यहाँ मूल प्रश्न यह है कि `क्या श्रमिक को मनुष्य के रूप में उपलब्ध अपने समय´ को किसी भी कीमत पर अर्पित करना चाहिए या उसके उलट यह कि `क्या कोई भी राशि मनुष्य के अवकाश की कीमत चुका सकती है´ जाहिर है कि यह सवाल एक-दो दिन अथवा एक-दो वर्ष के लिए नहीं है, लंबी अवधि और लगभग स्थायी समस्या के रूप में देखने योग्य है। मजे की बात यह है कि अधिकांश अवसरों पर (नब्बे प्रतिशत अवसरों तक) श्रमिक को अपने अतिरिक्त श्रम और समय का कोई पारिश्रमिक नहीं दिया जाता है, आधे-एक घंटे की तो गणना होती ही नहीं है। सहज ही समझा जा सकता हैं कि पैसा, मनुष्य के लिए आवश्यक अवकाश का न तो भुगतान कर सकता है और न ही उसका किसी तरह का विकल्प बन सकता है। प्रतियोगिता, बाजारवाद और अस्तित्व बचाने के नाम पर जिन संस्थानों में अघोषित तौर पर कार्य करने के घंटे बढ़ गए हैं वहाँ के कर्मचारियों-अधिकारियों की स्वास्थ्य संबंधी समस्याएँ, एक से दो साल के भीतर ही चरम पर पहुँचने लगी हैं। विस्तृत बात करें तो पीठ दर्द, सिर दर्द, डायबिटीज, रक्तचाप, हृदयाघात, अनिद्रा, तनाव और मोटापा उनके बीच बेहद आम बीमारियाँ हैं। ऐसे श्रमिकों की औसत आयु कितनी कम हो जाएगी, इसका अनुमान लगाया जा सकता है लेकिन सर्वाधिक दुखद पक्ष है कि जितनी भी उम्र तक वे जीवन व्यतीत करेंगे वह दुखमय और रोगमय हो चुका होगा। अमीर संस्थान इनके स्वास्थ्य का पूरा बीमा भी कर दें अथवा इलाज का पूरा पैसा भी दे दें तब भी वे उनके स्वस्थ-जीवन के संभव आनंद का एक प्रतिशत भी वापस नहीं मिल सकता। बैंक, बीमा, संचार, मीडिया और निजी बड़े संस्थानों में, जिनमें श्रमिकों को वाकई कुछ अधिकार मिले हुए हैं, यह स्थिति बद से बदतर होती जा रही है। श्रम के घंटों को सीमित करने का जो न्यायपूर्ण, विवेकपूर्ण, नैतिक और मानवीय अधिकार, श्रम संगठनों एवं श्रमिक पैरोकारों द्वारा लंबे संघर्ष से अर्जित किया गया था, उस अधिकार को धीरे-धीरे हमारी आँखों के सामने चुराया जा रहा है, खतम किया जा रहा है अथवा हमसे खरीदा जा रहा है- ये तीनों स्थितियाँ तत्काल प्रतिरोध की और हस्तक्षेप की माँग करती हैं। अन्यथा हम श्रमिक से दास बनने की प्रक्रिया को तेज कर देंगे। वैसे भी श्रमिक `किश्तों में, रोज-रोज बिकने वाला दास है´ लेकिन पिछली शताब्दी में अर्जित जिन अधिकारों ने उसे मानव का दर्जा दिया उसमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण अधिकार `सुनिश्चित काम के घंटे´ ही था। ये सुनिश्चित कार्यघंटे ही उसे महत्वपूर्ण मायनों में दास से अलग करते हैं। नौकरी और दासता में फर्क है और वह फर्क अधिक व्यापक अर्थों में बना रहना चाहिए। हम मानते हैं कि इस समय ट्रेड यूनियन के सामने सबसे बड़ी चुनौती दैनिक व्यवहार में `श्रम के घंटे बढ़ा दिए जाने´ की है। नौकरी की सुरक्षा ( job security) एक अत्यंत महत्वपूर्ण लेकिन अलग मुद्दा है, उसे इस प्रश्न से मिलाना, घालमेल करना होगा। माँग यह होना चाहिए कि अनौपचारिक तौर पर या चोर रास्तों से कार्यघंटों में कोई वृद्धि न हो, इसका क्रियान्वयन सुनिश्चित (100 प्रतिशत) हो। स्थिति यहाँ तक आ गई है कि यदि कोई कर्मचारी-अधिकारी लगातार एक सप्ताह तक समयानुसार घर चला जाए या जाने की कोशिश करे तो वह न केवल हास्यास्पद स्थिति का शिकार हो जाता है बल्कि उच्चाधिकारीगण उसे कामचोर, असहयोगी या समस्यामूलक सिद्ध कर देते हैं। उसे अन्य तरीकों से भी `ठीक कर देने´ की कोशिश की जाती है यथा उसके अधिकारपूर्ण भुगतानों पर प्रश्न खड़े करने, अवकाश न देने, जोखिमपूर्ण कार्य अथवा अधिक कार्यभार देने, अपमानित करने और खिल्ली उड़ाने या दुष्प्रचार कर संस्थान में उसके विरोध में वातावरण बनाने जैसे प्रचलित तरीके भी प्रयोग में लाए जाते हैं। यह बिडंवना का भयावह और चिंताजनक पक्ष है। ध्यान रहे कि यह वही पुरानी समस्या है जब संस्थानों में आने का समय तो निश्चित होता था, वापस जाने का नहीं। इस बार यह समस्या अधिक तैयारी से आई है और उग्र होकर फैल रही है। इस समस्या से निजात पाने के लिए श्रम-संगठनों के जुझारू नेताओं ने अपना जीवन होम किया था। इसलिए वर्तमान श्रमिक-संगठनों की यह जबावदारी भी है कि उन साथियों का बलिदान व्यर्थ न हो।
श्रमिक यंत्र नहीं, जीवित मनुष्य है
इस प्रसंग में `प्रति कर्मचारी व्यवसाय´ या `प्रति कर्मचारी लाभप्रदता´ कर्मचारियों पर दबाव बनाने के नए औजार हैं। यह संकेतक इसलिए भी अमानवीय है कि इसमें मनुष्य (कर्मचारी) को एक यंत्र की तरह मान लिया जाता है। प्रति कंप्यूटर व्यवसाय देखने में और प्रति कर्मचारी व्यवसाय देखने में संवेदनशीलता और मानवीयता का फर्क स्पष्ट है। यह दृष्टि पिछले वर्षों में आक्रामक बाजारवाद और असमाप्य प्रतियोगिता से पैदा हुई है। यह बैलजोड़ियों या घोड़ों के प्रति अपनायी जाने वाली दृष्टि ही है। बैलगाड़ी दौड़ हेतु गाड़ीवान अपने बैलों को प्रतियोगिता लायक बनाने के लिए दाना-पानी देता है और तैयार करता है लेकिन जब वह दौड़ में पिछड़ रहा होता है तो क्रूर तरीके से अपने उन्हीं बैलों को मारने-पीटने में तनिक भी नहीं हिचकिचाता। सांस्थानिक प्रतियोगिताएँ अधिक शांत और सभ्य दिखती हैं लेकिन कहीं अधिक क्रूर होती हैं। इसलिए मनुष्य को स्थिरांक या यांत्रिक क्षमता में तबदील करते हुए वे गणितीय सूत्र निकालने में जरा भी नहीं शरमातीं। `मनुष्य और यंत्र´ एवं `मनुष्य का यंत्र में बदलना´ जैसे बहुविचारित विषयों को यहाँ स्मरण किया ही जाना चाहिए। संक्षेप में यह कि किसी भी यंत्र का आविष्कार इस उद्देश्य से नहीं किया गया कि वह मनुष्य को प्रतिस्थापित कर दे या मनुष्य को औजार में बदल दे। यंत्र को सदैव ही मनुष्य के सहायक और विस्तारित अंग (extended organ) के रूप में विकसित किया गया। यह तो बाजार और पूँजीपतियों की धनलिप्सा की भयावह चालें हैं जिनकी वजह से वे यंत्रों को मनुष्य की जगह स्थापित कर देना चाहते हैं। क्योंकि उनके लिए श्रमिक या सर्वहारा वर्ग `मनुष्य´ की श्रेणी में ही नहीं है। इसलिए यंत्र यदि मनुष्य को बेदखल भी कर दें तो उनको प्रसन्नता ही होगी बशर्ते कि वह यंत्र उनके लाभ में वृद्धि कर दे। यों भी जब किसी संस्थान में यंत्र अधिक होंगे और मनुष्य कम अथवा वहाँ कार्यरत् श्रमिक जितने अधिक यंत्राश्रित होंगे, वहाँ उतनी ही ज्यादा संभावना होगी कि विचारहीन और प्रतिरोधहीन श्रमिक उपलब्ध हो सकें। ट्रेड यूनियन आंदोलन को खतम करने की यह एक पूर्वपीठिका भी है। यहाँ हमें एक बार फिर माक्र्स याद आते हैं जिन्होंने बेशी मूल्य सिद्धांत में कहा था कि पूँजीवादी संस्थान, नयी तकनीकें लाते हुए हमेशा चाहेगा कि श्रमिकों की संख्या में बढ़ोत्तरी न हो लेकिन उन्हीं श्रमिकों से वह यांत्रिक मदद द्वारा अधिकतम कार्य ले सके और अपने लाभ को नयी ऊँचाइयों पर ले जाए। इसके चलते किसी यांत्रिक, अमानवीय संसार का निर्माण होता हो तो उसकी बला से। लेकिन जो शक्तियाँ श्रमिकों और मनुष्य के पक्ष में हैं, वे इस दुनिया का निर्माण धनपिपासुओं या पूँजीपतियों के स्वप्न के अनुसार नहीं होने दे सकतीं। इसलिए ही यहाँ श्रम-संगठनों, मानवाधिकारों के पक्षधरों और समतावादियों के हस्तक्षेप की, दायित्वपूर्ण निर्णायक भूमिका की महती आवश्यकता जान पड़ती है। आज के समय में और ज्यादा जबकि पूँजी का राक्षसी वैश्विक चरित्र बन रहा है और लोगों को गलत सूचनाएँ दे सकने का, अपने प्रचार का, शोषण का और एकध्रुवीय संसार बना देने का माद्दा उसमें कहीं अधिक दिख रहा है।
प्रश्न यह भी है कि संस्थान के लाभ को क्या प्रत्येक कर्मचारी में पूरी तरह वितरित किया जा सकता है। उत्तर स्पष्ट `नहीं´ है। क्योंकि वह कर्मचारी है, अंशधारक या मालिक नहीं। इसलिए लाभप्रदता क्या है, इस संकेतक को कर्मचारी के `श्रम के घंटो पर´ हंटर नहीं फटकारने दिया जा सकता। कर्मचारी एक श्रमिक के रूप में आपके पास काम करने के लिए आता है और उसकी सेवाशर्तें बेहद स्पष्ट हैं। वह अपनी पूरी क्षमता से काम करे, उसे कार्यस्थल पर उपयुक्त वातावरण और संरचनाएँ मिलें और कार्य-संस्कृति का विकास हो, ये पक्ष महत्वपूर्ण, मान्य और विचारणीय हैं। इन्हीं स्थितियों के भीतर व्यवसाय और लाभप्रदता का विकास हो, इसमें भला किसी को क्या आपत्ति हो सकती है लेकिन इसके लिए उससे कार्य-समय से अधिक काम लिया जाए, यह बात घनघोर आपत्तिजनक होनी चाहिए।
बेरोजगारी और रिजर्व श्रमिक सेना
अपवादी तौर पर, मसलन महीने में तीन-चार दिन यदि उससे अधिक काम लिया जाता है तो उसे अतिरिक्त पारिश्रमिक दिया जाए, इस पर स्वीकार्य स्थिति बनती है लेकिन यह स्थिति लगभग प्रतिदिन बन रही हो तो इसका सीधा संदेश है कि उस संस्थान को अधिक कर्मचारियों की जरूरत है जिन्हें भर्ती करने की स्थिति को वह संस्थान टाल रहा है। इसका संबंध देश में उपस्थित बेरोजगारी से भी जुड़ता है। अर्थात् 10 आदमी 13 आदमियों का काम कर रहे हैं अतएव उन दस व्यक्तियों का जीवन कष्टमय हो ही रहा है, 3 आदमियों का रोजगार भी छिन रहा है। इस तरह यह दो स्तरों पर समाज-विरोधी, देश-विरोधी और मनुष्य-विरोधी स्थिति है। यहाँ प्रसंगवश हमें माक्र्स द्वारा इंगित उस बिंदु पर ध्यान देना होगा जब वे लिखते हैं कि `इस तरह से बेरोजगारी बढ़ती जाती है लेकिन पूँजी के मालिकों के लिए यह सुविधाजनक स्थिति बनती है क्योंकि समाज में उब उसे `रिजर्व श्रमिक सेना´ उपलब्ध है।´ इसका अर्थ यह है कि संस्थान या मालिक अब अपने यहाँ कार्यरत् कर्मचारियों की जायज माँगे ठुकरा सकने और उन पर मनचाही शर्तें थोपने के लिए अधिक उपयुक्त अवसर पाता है। अब वह `हायर एंड फायर´ की माँग करता है क्योंकि उसे पता है कि पीछे रिजर्व श्रमिक सेना खड़ी हुई है जिसे वह मनचाही, अति अमानवीय सेवाशर्तों पर रख सकता है। आऊटसोर्सिंग के जरिए काम ले सकता है। यहीं वे परिस्थितियाँ हैं जहाँ तक आते-आते मालिकों के या संस्थान के पास `पूँजी का विशाल संचय´ होना प्रारंभ हो चुका होता है। अब वह रोजगार की सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं (No Job Security) जैसी स्थितियों पर विचार के लिए सरकारों को विवश कर सकता है क्योंकि वह लाभ कमाकर सरकार में हस्तक्षेप कर सकने की हैसियतवाला पूँजीपति हो चुका है। यह स्थिति उसने अपने उन कर्मचारियों के उस बेशी श्रम, जिसे कर्मचारियों ने कार्यावधि के बाद बैठकर किया, से बेशी लाभ कमाकर ही प्राप्त की है। इसी स्थिति को माक्र्स ने कहा है कि श्रमिक खुद दास बनने के लिए ही मानो पूँजीपति के लिए लाभ का सृजन करता है। इधर श्रम-कानूनों में जो बदलाव हुए हैं और संभव दिख रहे हैं वे इसी अकूत पूँजी की वजह से ही, जिससे वह कानून निर्माताओं को सीधे तौर पर प्रभावित करने की स्थिति में हैं। तमाम श्रम-संगठनों को इस चुनौती का सामना करने के लिए भी तैयार हो जाना चाहिए।

मंगलवार, 8 सितंबर 2009

'श्रम के घंटे और मनुष्‍य का अवकाश'


'श्रम के घंटे और मनुष्‍य का अवकाश' शीर्षक से यह निबंध करीब चार साल पहले 'कथन' पत्रिका में प्रका‍शित हुआ था और इसके कुछ अंश भी इधर-उधर आये थे। पिछली पोस्‍टों में दिए गए धर्म विषयक आलेख को जिस उत्‍साह और रुचि से पढ़ा गया, उससे मुझे आशा है कि इस निबंधात्‍मक आलेख को भी उत्‍सुकता और विश्‍लेषणपरकता के साथ देखा-पढ़ा जायेगा।

आर्थिक मंदी के इस सच्‍चे-झूठे दौर के उतार पर, जबकि श्रम कानूनों को नष्‍ट करने की प्रक्रिया तेज है और प्रतिभाओं को असीमित कार्यघंटों तक काम करने को विवश किया जा रहा है, नौकरियां असुरक्षित है, सामाजिक सुरक्षा के तत्‍व यथा पेंशन तथा वेलफेयर की योजनाएं सेवाशर्तों से गायाब हैं, तब शायद यह सब पुनर्विचार और प्रासंगिकता के लिहाज से प्रबुद्ध साथियों को भी आकर्षित कर सकेगा।

अपने आकार के कारण इसे चार-पांच किश्‍तों में ही दिया जाना संभव होगा।
यह पहली किश्‍त।


श्रम के घंटे और मनुष्य का अवकाश
दास प्रथा का स्मरण करें तो आज सभ्य, विकसित और विचारशील दृष्टि से उसकी तीन ऐसे प्रमुख बिंदु सहज ही सामने आते हैं जिनकी वजह से इस प्रथा को अमानवीय और कलंकित माना गया और इसके खिलाफ जबर्दस्त संघर्ष किया गया - 1. इसमें मनुष्य द्वारा ही मनुष्य का शोषण किया जाता था, मनुष्य के अधिकारों की तो बात छोड़िए, दासों को मनुष्य का दर्जा ही प्राप्त नहीं था। 2. उनसे काम लेते समय उनके कार्य के घंटों का अथवा न्यूनतम सुविधा का विचार नहीं किया जाता था। 3. उन्हें उपयोगी वस्तु या यंत्र की तरह मान लिया गया था। उनका विनिमय, क्रय, विक्रय किया जा सकता था, उन्हें उपहार में भी दिया जा सकता था। इन बिंदुओं को हम ध्यान में भर रख लें ताकि आगामी कथ्य और चर्चा में इनका स्मरण ओझल न हो।
प्रूंदों, हीगेल, रूसो, जैसे अनेक विचारकों ने मनुष्य की स्वतंत्रता, समता और न्याय के पक्ष में जो विमर्श किया उसे मार्क्‍स ने नयी ऊँचाई पर पहुँचाया। इस विमर्श का निकष यही है कि संसार में जितनी भी असमानता और शोषण है उसके आधार में पूँजी का खेल है। रूढ़ियाँ, धर्म और अंधविश्वास (अवैज्ञानिक दृष्टिकोण) इस शोषण और असमानता की न केवल रक्षा करते हैं बल्कि पूँजीपति के औजार की तरह काम आते हैं। पूँजी के बारे में बात करते हुए दो मुख्य बातें यहाँ विचारणीय होंगी- 1. पूँजी अपने आपमें कोई कीमत नहीं रखती, वह तो जड़ है, यह श्रम है जो उसे गति प्रदान करता है और इस तरह उसे मूल्य (लाभ) में बदलता है। 2. पूँजी का मालिक (पूँजीपति), अतिलाभ (overprofit) चाहता है और इसके लिए वह किसी भी तरह के हथकंडे अपना सकता है। इन बिंदुओं को भी ध्यान में रखा जाए।

थोड़े-से अधिक काम का मतलब करोड़ों रुपए
याद कीजिए बेशी मूल्य (surplus value) का सिद्धांत, जिसे आज तमाम कारखानों, वित्तीय संस्थानों और उत्पादक निगमों के संदर्भ में लगभग भुला दिया गया है। मार्क्‍स के सर्वोपरि प्रतिपादनों में से यह महत्वपूर्ण है। बेशी मूल्य का आधार है कि मालिकों या संस्थान द्वारा श्रमिकों से, पूँजी के बदले में आवश्यक उत्पादन मूल्य और श्रमिक के जीवनयापन के लिए आवश्‍यक राशि से अधिक कार्य कराते हुए अपने लाभ को कई गुना बढ़ाना। साथ ही, निश्चित कार्यघंटों से कुछ अतिरिक्‍त इस तरह काम लेना कि उसका पारिश्रमिक या वेतन न देना पड़े। इस तरह का `अदत्त वेतन´ ही वह बेशी मूल्य है जो संस्थान को सीधे लाभ के रूप में मिलता चला जाता है। पढ़ने-जानने में यह छोटी-सी बात लगती है लेकिन इसकी `भयंकर लाभप्रदता´ को एक छोटे उदाहरण से बखूबी समझा जा सकता है। मान लीजिए किसी मध्यम श्रेणी के राष्ट्रीयकृत संस्थान में 10,000 अधिकारी-कर्मचारी कार्यरत् हैं। ये सभी अपने तयशुदा कार्यसमय से, औसतन डेढ़ घंटे अधिक काम करते हैं। माह में 25 कार्यदिवस के हिसाब से ये लोग संस्थान के लिए कुल 3,75,000 घंटे अधिक काम करेंगे जो संस्थान के लिए मुत होगा। यह उतना काम होगा जितना कि 2,142 लोग पूरी तनख्वाह पर 7 घंटे प्रतिदिन के श्रम से एक माह में करते। अब यदि एक अधिकारी-कर्मचारी की औसत तनख्वाह और भत्ते पंद्रह हजार रूपए प्रतिमाह भी मानें जाए तो उस संस्थान को एक माह में रुपए 3,21,30,000 और वर्ष में 38,55,60,000 (मात्र अड़तीस करोड़ पचपन लाख साठ हजार रुपए) का लाभ बेशी श्रम के कारण हुआ। (यदि औसत वेतन दस हजार रुपए माना जाए तो यह लाभ लगभग 26 करोड़ रुपए बैठेगा।) जब तक गणना न की जाए, यह राशि किसी अनुमान में भी नहीं आती।
हमारे एक मित्र कहते हैं कि सार्वजनिक एवं अन्य निकायों में, उन लोगों से होने वाला घाटा भी गणना में लिया जाना चाहिए जो कुछ कर्मचारियों द्वारा प्रतिदिन औसतन दो घंटे कम काम करने से पैदा होता है। चलिए, उसकी गणना करते हैं। लेकिन रुकिए, पहले हम यह देख लें कि ऐसे अधिकारी-कर्मचारी किस तरह के हो सकते हैं जो संस्थान में औसतन दो घंटे कम काम करते हुए भी नौकरी में बने रह पाते हैं। ट्रेड यूनियन से जुड़े सक्रिय साथी, उच्च प्रबंधन के चाटुकार या संबंधी, खिलाड़ी, संगीत-साहित्य-कला या सांस्कृतिक गतिविधियों में दखल रखने वाले और अन्य प्रकार से सामाजिक-राजनीतिक क्षेत्र में प्रभामंडलीय कुछ लोग। इन सबकी संख्या औसतन दस प्रतिशत होती है। उपर्युक्त गणना से यह राशि लगभग पाँच करोड़ रुपए निकलती है। लेकिन अन्य कोण से देखें तो इस राशि को सीधे `बेशी मूल्य से प्राप्त मुफ्त के लाभ´ में से नहीं घटाया जाना चाहिए क्योंकि ऐसे तमाम अधिकारी-कर्मचारी जो ट्रेड यूनियन, प्रबंधन, खेल या कलाओं से जुड़े हैं वे संस्थान के लिए अनेक दूसरी तरह से उपयोगी होते हैं। औद्योगिक संबंधों में, ग्राहक जुटाने में, सामाजिक-राजनीतिक प्रकृति की मुश्किलों में सहायक होने में और संस्थान के लिए गुडविल एकत्र करने में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इनमें से अधिकांश तो संस्थान के अघोषित छोटे-बड़े ब्रांडनेम और शहर-समाज में प्रमुख चेहरों की तरह काम करते हैं। इन भूमिकाओं और कार्यों को यदि आर्थिक गणित में तबदील किया जाए तो वे पाँच की जगह दस करोड़ रुपए वार्षिक की अमूर्त (intengable) कमाई और अतिरिक्त भरपाई कर देते हैं। लेकिन संस्थान इनकी गिनती नहीं करना चाहता। धन को सब कुछ समझनेवालों की संतुष्टि के लिए यदि हम यह राशि कम भी कर दें तब भी, इस उदाहरण में, यह संस्थान 33.6 करोड़ रुपए प्रतिवर्ष `बेशी मूल्य´ के रूप में कमा लेगा। दूसरे शब्दों में, यहाँ उदाहरण बनाए गए संस्थान ने अपने अधिकारी-कर्मचारियों से एक साल में लगभग 34 करोड़ रुपए का काम बिना एक पैसा दिए करा लिया और यह उसका शुद्ध लाभ है। यह चौंकाने वाली राशि है लेकिन सच है। इसे बहुत छोटे कार्यालय के हिसाब से भी देखें तो एक कार्यालय जहाँ कुल 70 लोग कार्यरत हों तो उपरोक्त गणना के अनुसार, वे प्रतिदिन अदत्त वेतन पर डेढ़ घंटे ज्यादा काम करते हुए रुपए 27,00,000/- (केवल सत्ताईस लाख रुपए) बेशी मूल्य के रूप में संस्थान को बैठे-बिठाए वार्षिक कमाई पहुँचा देंगे।
व्यक्ति और कर्मचारी को प्राय: इसकी गणना और अनुमान नहीं होता है। लेकिन तमाम वाणिज्‍ियक संस्थान इस बेशी मूल्य का महत्व जानते हैं और अपने कर्मचारियों से `बस, थोड़ा-सा अधिक काम´ लेने के लिए जमीन-आसमान एक किए रहते हैं। इस हेतु वे प्रशिक्षण-कार्यक्रमों के दौरान, सेमिनारों में, छोटी-बड़ी बैठकों में आवश्यक प्रेरणा प्रदान करते हैं। संस्थान की ओर से `मोटो वाक्य´ प्रसारित करते हैं। इस `अधिक काम को लेने के लिए´ नैतिक जामा पहनाने की कोशिश करते हैं और भावनात्मक तरीकों का इस्तेमाल भी करते हैं। अन्य सांस्थानिक या कार्यालयीन तरीकों का उपयोग तो बेहिचक होता ही है अर्थात् नौकरी की बाध्यता, दबाव की रणनीतियाँ और आधिकारिक रौब। अब तो सीमा-शक्ति से अधिक कार्य करने के लिए `कार्पोरेट मेसैज´ का आविष्कार भी कर लिया गया है। वैश्वीकरण और आर्थिक उदारवाद के चलते `नौकरी की सुनिश्चिता´ बनाए रखने का लोभ बनाम धमकी भी इसमें शामिल हो गई है। संक्षेप में, ये सिर्फ `बेशी मूल्य´ को प्राप्त करने के सांस्थानिक हथकंडे हैं। इसलिए निश्चित कार्यघंटों से अधिक काम लेने के लिए हर तरह की बेरहमी से पेश आने के उदाहरण और औद्योगिक-निर्ममताएँ आज हमारे सामने हैं। यदि संस्थानों को `नियमानुसार कार्य´ (work to rule) का नारा घबराहट से भर देता है तो उसके पीछे बड़ा कारण यही है कि इससे `अदत्त पारिश्रमिक´ की आय पर एकदम रोक लग जाती है और मालिकों या संस्थान की प्रबंधकीय अक्षमताएँ उजागर होने लगती हैं। अब हम यहाँ प्रारंभ में विचार किए गए बिंदु को ध्यान में ला सकते हैं कि हर पूँजीवादी तरीके का लक्ष्य होता है कि अतिलाभ। अतिलाभ की यह आकांक्षा ही उसे लगातार अमानवीय, क्रूर, शोषक और धनपशु बनाती चली जाती है और फिर इन्हीं प्रवृत्तियों के आधार पर नियमों और कानूनों का निर्माण कराने के लिए भी प्रेरित करती है। हाल ही में भारत में हुए श्रम कानूनों में संशोधन किए जाने का कारण है कि पूँजीपतियों का राजनीति में वर्चस्व हुआ और श्रमिक पक्षधरता की राजनीति की आवाज कम हुई।

श्रमिक सबसे पहले एक मनुष्य है
पिछली ही शताब्दी में श्रमिकों ने कार्य के घंटे सुनिश्चित और समुचित करने के लिए जितने आंदोलन किए और तमाम न्यायविदों, विद्वानों, दार्शनिकों, आंदोलनकारी प्रतिभाओं, राजनीतिज्ञों, समाजवेत्ताओं और विचारकों ने इन आंदोलनों का समर्थन किया तो उसका सबसे बड़ा आधार था कि श्रमिक को एक मनुष्य के रूप में अवकाश मिलना चाहिए। मनुष्य को मिलने वाला अवकाश। यह अवकाश उसे न केवल जीवन के लिए स्वतंत्रता देगा बल्कि मनुष्य के रूप में विकसित होने के लिए आवश्यक समय और उत्साह भी देगा। ताकि वह अपनी सामाजिकता, कलाभिरुचियों और परिवार के लिए समुचित समय निकाल सके। यह अवकाश हर मनुष्य के लिए उतना ही आवश्यक है जितना कि भोजन या प्राणवायु। इस अवकाश के बिना वह दास या बँधुआ होता चला जाएगा। वह शोषण और यांत्रिकता का शिकार भी होगा। इस अवकाश का अभाव उसे सबसे पहले मन से रुग्ण करेगा और फिर उसका शरीर भी इस बलिदान में शामिल होता जाएगा। इस अवकाश का अभाव उसे मानसिक, शारीरिक और सामाजिक तौर पर नष्ट करने में सक्षम है। पहली बड़ी सफलता के रूप में जब यूरोप में श्रमिकों के लिए 10 घंटे का कार्य तय माना गया तब उसका जश्न इसलिए मनाया गया था कि इस सिद्धांत को विजय मिली कि कार्य के घंटे कम और सुनिश्चित होने चाहिए। लेकिन ये घंटे भी अधिक थे इसलिए लंबे संघर्षों के बाद छ: से सात घंटों के बीच आकर इसका समाधान हुआ। जहाँ पालियों में काम होता है वहाँ, कुछ अधिक सुविधाओं के साथ आठ घंटों तक का समझौता हुआ। अब जबकि अघोषित तौर पर, भारी प्रतियोगिता, उदारवाद और पूँजीवाद के नए आक्रमण के जरिए घोषित तौर पर श्रमिकों के कार्यदिवस के घंटे बढ़ाए जा रहे हैं तब इस कुल कवायद की मुश्किलों और प्रेरणाओं को समझना चाहिए।


क्या मनुष्य के अवकाश का सौदा संभव है?
ओव्हरटाईम अथवा अन्य किसी रूप में आर्थिक प्रतिपूर्ति क्या मनुष्य को वह अवकाश लौटा सकती है जो निश्चित कार्यावधि तक काम करने के बाद उसे मिलना चाहिए या जिस पर उसका `बेहद व्यक्तिगत और न्यायपूर्ण´ अधिकार था। कार्य के जो घंटे तय हुए हैं, उसमें यह बात विशेष तौर पर विचार में ली गई है कि औसत स्वस्थ आदमी को कितने घंटे तक अपनी समुचित क्षमता, रुचि और मानसिकता से काम करना चाहिए ताकि उसके पास एक नागरिक और मनुष्य का समय भी शेष रह सके। मान लीजिए कि यह सात घंटे की अवधि है। इसके बाद यदि एक घंटा भी अधिक काम किया जाता है तो वह आपकी क्षमता को तेजी से घटाता है और तन-मन पर काफी दबाव पैदा करता है। जीवन में से औसतन प्रतिदिन दो घंटे कम कर दिए जाने के अतिसामान्य दुष्परिणामों को इस तरह लक्षित किया जा सकता है :
1, अब आपका दिन बाईस घंटों का हो चुका है।
2. औसत कार्य से अधिक कार्य करने से दैनिक जीवन के अन्य सामाजिक, पारिवारिक और अभिरुचि संबंधी कार्यों एवं दायित्वों के प्रति आपकी क्षमता बेहद कम हो जाती है। (प्रतिशत में देखेंगे तो यह क्षमता पचास से लेकर एक सौ प्रतिशत तक घट जाती है। उदाहरणार्थ, सामान्य कार्यघंटों के उपरांत यदि आप इन कार्य-दायित्वों के लिए तीन से चार घंटों का वक्त निकाल सकते हैं, अब इसमें से दो घंटे घटा दिए जाएँ तो आपके पास एक या दो घंटे ही बचेंगे। लेकिन इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि `दो घंटे अधिक कार्य करने से उत्पन्न मानसिक-शारीरिक थकान´ आपको इस लायक भी नहीं छोड़ती कि बचे हुए एक-दो घंटों का आप कोई वास्तविक उपयोग कर सकें तब आप अपने सामाजिक, पारिवारिक और आनंदप्रद समय की लगभग 100 प्रतिशत हानि का शिकार हो जाते हैं। अथवा दो घंटे का काम एक घंटे में करने का साहसिक प्रयास करते हैं नतीजन तनाव, घबराहट और अन्य मुश्किलें आपको घेरना शुरू कर देती हैं।। बदले में आप टी.वी. देखने, मदिरापान करने, जंक फूड या अधिक भोजन करने और बच्चों के साथ गुस्सैल व्यवहार करने के आदी हो सकते हैं जो आपके सामने पुन: नयी प्रकार की समस्याएँ पैदा करेगा।)
3. इस प्रकार आप मनुष्य के रूप में कमतर होते जाएँगें। मनुष्यत्व खतम करने (dehumanization)की तरफ यह एक परोक्ष लेकिन तयशुदा कदम है।

शेष अगली किश्‍त में।
जारी