शनिवार, 29 दिसंबर 2012

फिर


फिर


यहॉं बैरीकेड्स लगे हैं

इससे आगे जाना लाठीचार्ज के लिए आमंत्रण है


प्रधानमंत्री से आप मिल नहीं सकते

आपको बता दिया गया है कि ज्ञापन

उधर चौकीदार को भी दिया जा सकता है

 

हर चीज की एक मर्यादा है

यदि आपको लगता है कि आप ज्‍यादा योग्‍य हैं

तो फिर सांसद का चुनाव क्‍यों नहीं लड़ते हैं

वैसे भी ऑंसूगैस ही पहले छोड़ी जाएगी

 

हम कहना चाहते हैं कि हम पर अत्‍याचार हुआ है

हमें नहीं मिला है न्‍याय

और हमें खदेड़ दिया गया है हर जगह से

 

ठीक है। हम भी उतने ही दुखी हैं

हमारा भी परिवार है, लड़के हैं, लड़कियॉं हैं

लेकिन रैली के लिए जगह नहीं है सड़कों पर

अनशन के लिए बसाया गया है बीस मील दूर

एक उजड़ा गॉंव

 

फिर। फिर।

क्‍या करें हम फिर।

 

दिमाग फिर गया है तुम्‍हारा

अब गोली चलाई जाएगी।

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गुरुवार, 20 दिसंबर 2012

अँधेरे में से अपने हक़ की रोशनी

'कविता की स्मृति' शीर्षक से एक स्‍तंभ कुछ अंकों में 'वसुधा' में कमला प्रसाद जी ने लिखवाया। उस क्रम में देवताले जी की एक कविता के संदर्भ में करीब दो बरस पहले यह नोट प्रकाशित हुआ था, जो अब उन्‍हें साहित्‍य अकादेमी पुरस्‍कार दिए जाने के प्रसंग में यहॉं भी दे रहा हूँ। शुरू में वह भूमिका है जो स्‍तंभ शुरू करते समय लिखी गई थी। नोट के अंत में संदर्भित कविता है।

कुछ कविताएं स्मृति में अटक जाती हैं। उनमें से भी बहुत थोड़ी कविताएं आपके साथ रहने लगती हैं। साहित्य के दृश्य में प्रायः कोई उनकी याद नहीं दिलाता।उन्हें आप भी याद नहीं रखना चाहते थे लेकिन वे आपके संग हो जाती हैं। जगमगाती। कभी अंधेरे में गुमसुम। अपने संगीत और संगति में मग्न। अपनी कोमलता और पत्थरपन के साथ। सपनों और इच्छाओं की तरह। आपके तहखाने में भी वे रह लेती हैं। आपकी पंसद और शास्त्रीय समझ से परे वे आपका पीछा करती हैं। अनाक्रामक और शांत। उनका विपय, विन्यास, दुस्साहस, उत्कंठित सरलता, गुस्सा, धीरज, औचकपन या अकबकापन आपको कहीं भी, किसी भी जगह, किसी भी समय में अचानक घेर लेता है। वे आपको अपनी जद में लिए रहती हैं।
हालांकि, विस्मृति बहुत अधिक भेद नहीं करती है। वह अच्छी औ
र कम अच्छी चीजों के साथ एक सा व्यवहार कर सकती है। लेकिन स्मृति भी अपना काम करती है। चुपचाप। यह प्रक्रिया मारक है और जीवनदायी भी।
और इसी प्रक्रिया में कुछ कविताएं आपके भीतर, अपनी स्थायी नागरिकता प्राप्त कर लेती हैं। इसी में एक लेखक का, साहित्यिक का, पाठक का अकथनीय जीवन बनता जाता है।


अँधेरे में से अपने हक़ की रोशनी

करीब 15 साल पहले चंद्रकांत देवताले दैनिक भास्कर में स्तंभ लिखते थे और उसमें उन्होंने एक बार अपनी कविता प्रकाशित करायी, जो बाद में उनके कविता संग्रह ‘उजाड़ में संग्रहालय’ में संकलित हुई है। उस स्तंभ में पहली बार पढ़ी इस कविता की स्मृति जब-तब पीछा करती है।

देवताले जी की कुल कविता जीवन के अनंत प्रसंगों से बनती है और आसपास की, रोजमर्रा की छोटी-बड़ी घटनाएँ उनके काव्य विषय हैं। उनके पास अपेक्षाकृत लंबी कविताओं की सहज उपस्थिति है। शब्द स्फीति भी जैसे वहॉं काव्य उपकरण बन जाती है और उनके शिल्प का, कवि की नाराजगी, असंतोष, व्यग्रता और सर्जनात्मक बड़बड़ाहट का हिस्सा होती है। एक कवि जो अकथनीय को भी कह देना चाहता है, इसके अप्रतिम उदाहरण चंद्रकांत देवताले की कविता में देखे जा सकते हैं। परंपरागत आलोचकीय समझ एवं औजार यहॉं अपर्याप्त और कमजोर सिद्ध हो सकते हैं।

पुस्तक मेले के प्रसंग से किताबों, पुस्तकालयों, पाठकों और लेखकों के साथ बदलते समाज की प्राथमिकताओं तथा विडम्बनाओं को समेटती इस कविता का फलक व्यापक है और लगभग हर पैराग्राफ में यह अपने को नए आयामों में विस्तृत करती चली जाती है, बिना अपने केन्द्रीय विषय को विस्मृत किए।

पहली दो पंक्तियाँ ही कविता का प्रसंग और वातावरण तैयार कर देती हैं और फिर आवेग से कविता आगे बढ़ती चली जाती है। वे शब्दों और किताबों की महत्ता को, मुश्किलों को नए सिरे से काव्यात्मकता में आविष्कृत करते हैं। इस उपभोक्तावादी, प्रदर्शनकारी, महॅंगे जमाने में इन किताबों तक पहुँचना आसान नहीं रहा और इसलिए  ‘मजबूत और प्राणलेवा बन्द दरवाजे हैं/ अॅंधेरे के जैसे, वैसे ही रोशनी के भी’। किताबें, जो ज्ञान, मुक्ति और इसलिए रोशनी का घर हैं। जो अनेक तालों की चाबियॉं हैं।

पुस्तकालयों की दुर्दशा और वहाँ का विजुअल दृष्टव्य है, जिनकी जगह या जिनके आसपास अब शराबघर, जुए के अड्डे, जूतो-मोजों की दुकानें हैं या फिर इस कदर ठसाठस भरी पार्किंग है कि किताबों तक पहुँचना नामुमकिन है। लेकिन किताबें हैं कि इस युग में भी छपती ही चली जा रही हैं, अपने ताम-झाम और उत्तर आधुनिकता के साथ कदमताल करतीं। अंतर्विरोध और हतभाग्य यही कि हमारे जैसे महादेश के अधिसंख्य लोग आजादी के अर्धशतक के बावजूद इन पुस्तक मेलों में नहीं जा सकते हैं और फैले हुए विराट अॅंधेरे में से अपने हक की रोशनी नहीं उठा सकते। चाहे फिर वह कफन या गोदान के नाम से हो या किसी अन्य संज्ञा से उसे पुकारें। यह फ्रेक्चर भीतरघात से हुआ है।

इन्हीं के बीच एक अधिक सक्षम, लोकप्रिय खण्ड है जो सफलता और धन कमाने के उपायों के लिए किताबें रचता है, दुनिया को जीतने के रहस्य, अंग्रेजी जानने के तरीके बताता है और फिर साज-सज्जा से लेकर मोक्ष, व्यंजन पकाने की विधियॉं और बागवानी तक की किताबों की श्रंखला है, जिसमें बच्चों की किताबें भी हैं लेकिन वे चमक-दमक और रईसी का जीवन जी रहे मध्यवर्ग या उच्चवर्ग के बच्चों को ही नसीब हो सकती हैं। वंचित बच्चों की संख्या विशाल है। यह कविता बारीक तरीके से सबल और निर्बल, सक्षम और अक्षम, सुविधासंपन्न और वंचितों के बीच में लगातार एक तनाव रचती है। यह दो किनारों को मिलाती नहीं है, लगातार याद दिलाती है कि दो सिरे हैं और इनका होना हमारे समय का एक अविस्मरणीय लक्षण है। ये दो सिरे अनेक रूपों में दिखते हैं। औद्योगिक मेला और पुस्तक मेला, ताकतवर आवाज और कमजोर का रोना, अॅंधेरा और रोशनी, हाथी और कनखजूरे, इतिहास और भविष्य, पुच्छलतारा और आत्मा, किताबें जो तैरा सकती हैं दुनिया को लेकिन खुद डूब रही हैं, साक्षरता अभियान और निरक्षरता, लोकप्रिय और साहित्यिक पुस्तकें जैसे अनेक विलोम-संदर्भों से यह कविता अपना वितान, अपना आग्रह संभव करती है।

हमारे करीब फैली पुस्तकों-पाठकों की समस्या के रैखिक से दिखते यथार्थ को यह कविता तमाम जटिलताओं और करुण हास्यास्पदता के बीच रखकर जाँचती परखती है। कविता अपने अंत में कवि, कथाकार, विचारक, लेखकों, प्रकाशकों को भी सवालों के घेरे में लेती है और इधर के एक सामान्य लेकिन बार-बार उठाये जानेवाले प्रश्न को रखती हैः ‘इन्हें जो लिखेंगे क्या वे ही पढ़ेंगे? कहेंगे जो वे ही सुनेंगे?’ और वे तमाम लोग जो फिर पीछे छूट गए हैं, क्या वे कभी जान पाएँगे कि उनका भी कोई घर भाषा के भीतर हो सकता है? इस कविता का विशिष्ट पहलू यह भी है कि यह सीधे-सीधे अपने वर्तमान से, समकालीनता से टकराती है और अपनी परिधि को संकुचित नहीं रहने देती।
एक कवि अपने समय-समाज के शब्दों और किताबों के साथ होनेवाली दुर्घटना को लेकर, अन्यथा उसकी उपलब्धियों पर विचार करते हुए कितना बेचैन और सजग हो सकता है, यह कविता इसी का विमर्श तैयार करती है। विचार करें तो यह विमर्श अभी भी प्रासंगिक बना हुआ है।


करिश्मे भी दिखा सकती हैं अब किताबें



चन्द्रकांत देवताले
 
औद्योगिक मेले के बाद अब यह पुस्तकों का
मेला लगा है अपने महानगर में,
और भीड़ टूटेगी ही किताबों पर
जबकि रो रहे हैं बरसों से हम, कि नहीं रहे
किताबों को चाहने वाले, कि नहीं बची अब
सम्मानित जगह दिवंगत आत्माओं के लिए घरों में
कहते हैं छूंछे शब्दों के विकट शोर-शराबे में
हाशिए पर चली गई है आवाज़ छपे शब्दों की
यह भी कहते हैं कि संकट में फँसे समाज और जीवन की
छिन्न-भिन्नताओं के दौर में ही
उपजती है ताकतवर आवाज़ जो मथाती है
धरती की पीड़ा के साथ, पर इन दिनों सुनाई नहीं देती
मज़बूत और प्राणलेवा बन्द दरवाज़े हैं
अँधेरे के जैसे, वैसे ही रोशनी के भी
इन पर मस्तकों के धक्के मारते थे मदमस्त हाथी कभी
अब किताबें हाथी बनने से तो रहीं
पर बन सकती हैं चाबियाँ-
कनखजूरे निकल कर
इनमें से हलकान कर सकते हैं मस्तिष्कों को
फूट सकती है पानी की धारा इनमें से
और हाँ! आग भी निकल सकती है
इन्हीं में है अपनी पुरानी बन्द दीवार घड़ी
बमुश्किल साँस लेता हुआ
मनुष्यों का इकट्ठा चेहरा
हमारे युद्ध और छूटे हुए असबाब
हवाओं के किटकिटाते दाँतों में फँसे हमारे सपने
रोज़मर्रा के जीवन में धड़कती हमारी अनन्तता
और उन रास्तों का समूचा इतिहास
जिनसे गुज़रते यहाँ तक आए
और हज़ारों सूरज की रोशनी के नीचे
धुन्ध और धुएँ के बिछे हुए वे रास्ते भी
भविष्य जिनकी बाट जोहता है
पता नहीं अब कौन सा पुच्छलतारा
आकाश से गुजरा
कि विचारों के गर्भ-गृह के सबसे निकट होने की
ज़रूरत थी जब
आदमी पेट और देह से सट गया
और अपनी प्रतिभा के चाकुओं से जख्मी करने लगा
अपनी ही आत्मा
जो पवित्र स्थानों को मंडियों में बदल सकते हैं
उनके सामने पुस्तकों-पुस्तकालयों की क्या बिसात
जहाँ पुस्तकालय थे कभी, वहाँ अब शराबघर हैं
जुए के अड्डे, जूतों-मोजों की दुकानें हैं
और जहाँ बचे हैं पुस्तकालय वहाँ बाहर
पार्किंग ठसाठस वाहनों की
जिनसे होकर किताबों तक पहुँचना लगभग असम्भव है
भीतर सिर्फ आभास है पुस्तकालय होने का
और किताबें डूब रही हैं और जाहिर है कह नहीं सकतीं
'बचाओ! बचाओ-दुनियावालों तुम्हारे
पाँव के नीचे की धरती और चट्टान खिसक रही है।‘
अपने उत्तर आधुनिक ठाटबाट के साथ
धड़ल्ले से छपती हैं फिर भी किताबें
सजी-धजी बिकती हैं थोक बाजार में गोदामों के लिए
करिश्मे भी दिखा सकती हैं अब किताबें
सर्कस का-सा भ्रम पैदा करते खड़ी हो सकती हैं
उनमें से निकल सकते हैं जेटयान, गगनचुम्बी टॉवर
कारखाने, खेल के मैदान, बगीचे, बाघ-चीते
और लकड़बग्घा हायना कहते हैं जिसे
पुस्तकें ऐसी भी जिनसे तकलीफ न हो आँखों को
खुद-ब-खुद बोलने लग जाए
चाहो जब तक सुनते रहो
दबा दो फिर बटन-अँधेरा और आवाज़ बन्द हो जाए
जिन्हें अपनी पचास साला आज़ादी ने
नहीं छुआ अभी तक भी इतना
कि वे घुस सकें पुस्तक-मेले में
उठा लें अपने हक की रोशनी 'कफन’, 'गोदान’
या मुक्तिबोध के 'अँधेरे में’ से
और वे भी जो फँसे हैं
साक्षरता-अभियान के आँकड़ों की
भूल-भुलैया में नहीं जानते
कि करोड़ों के नसीब के भक्कास अँधेरे
और गूँगेपन के खिलाफ कितना ताकतवर गुस्सा
छिपा है किताबों के शब्दों में
और दूसरे घटिया तमाशों के लिए हज़ारों के
टिकट बेचने-खरीदने वालों की जि़न्दगी में
चमकते ब्रांडों के बीच गर होती जगह थोड़ी-सी
सही किताबों के लिए
तो वे खुद देख लेते छलनाओं की भीतरघात से
हुआ फ्रेक्चर
घटिया गिरहकट किताबों के हमले से
जख्मी छायाओं की चीख सुन लेते
अपने फायदे या जीवन की चिन्ता की
जिस सीढ़ी पर होंगे जो
खरीदेंगे-ढूंढ़ेंगे वैसी ही रसद अपने लिए
सफलता और धन कमाने
और दुनिया को जीतने के रहस्यों के बाद
अंग्रेज़ी सीखने और इसका ज्ञान बढ़ाने वाली
किताबों पर टूटेगी भीड़
इन्हीं पुस्तकों में छिपा होगा कहीं न कहीं
अपनी आबादी और मातृभाषा को
विस्मृत करने का अदृश्य पाठ
फिर प्रतियोगी परीक्षाएँ, साज-सज्जा
स्वास्थ्य, सुन्दरता, सैक्स, व्यंजन पकाने की
विधियाँ, कम्प्यूटर से राष्ट्रोत्थान
धार्मिक खुराकों से मोक्ष और फूहड़ मनोरंजन
टाइम पास-जैसी किताबों के बाद भी
बचेगी लम्बी फेहरिस्त जो होगी
क्रिकेट, खेलकूद, बागवानी, बोनसाई,
अदरक, प्याज, लहसुन, नीम इत्यादि-इत्यादि के
बारे में रहस्यों को खोलने वाली
बीच में होगा आकर्षक बगीचा बच्चों के लिए
चमकती, बजती, महकती और बोलती पुस्तकों का
मुट्ठी भर बच्चे ही चुन पाएँगे जिसमें से
और जो बाहर रह जाएँगे असंख्य
उनके लिए सिसकती पड़ी रहेंगी
चरित्र-निर्माण की पोथियाँ
और अन्तिम सीढ़ी पर प्रतीक्षा करते रहेंगे
दिवंगत-जीवित कवि, कथाकार, विचारक
वहाँ भी होंगे चाहे संख्या में बहुत कम
जिनके लिए सिर्फ संघर्ष है आज का सत्य
इन्हें जो लिखेंगे क्या वे ही पढ़ेंगे?
कहेंगे जो वे ही सुनेंगे?
और जिनके लिए जीवन के महासागर से
भरी गई विराट मशकें
साँसों की धमन भट्टी से दहकाए शब्द
क्या वे कभी जान पाएँगे कब जान पाएँगे
कि उनका भी घर है भाषा के भीतर!!

सोमवार, 19 नवंबर 2012

एक कवि ऋणग्रस्‍त ही होता है


यह साक्षात्‍कार आईसाहित्‍य http://isahitya.com  द्वारा करीब एक साल पहले लिया गया था। इसे आज अचानक पढ़ते हुए मुझे लगा कि इसे ब्‍लॉग पर रखा जाए। किंचित संपादित रूप में यह यहॉं हैं। पूरी बातचीत के लिए इसका लिंक है- http://isahitya.com/index.php/2011-09-20-18-35-32/interviews/222-talk-to-isahitya

 कैसा रहा आपका अब तक का सफर एक कवि , एक लेखक के तौर पर? शायद रचनाकर के लिए कभी संतुष्टि होना संभव नहीं हैं लेकिन फिर भी आप अब तक के सफर को किस तरह देखते हैं?

 यह यात्रा है और जारी है। इसकी सुंदरता, उपलब्धि और संतुष्टि अनवरत होने में ही है। 
 हम आपके पुराने समय में लौटना चाहेंगे , क्या आप  हमेशा से लिखना चाहते थे क्या शुरुआत में ही आपने सोच लिया था की आप आगे चल कर साहित्य को गंभीरता से लेंगे ? उस कहानी के बारे में जानना चाहेंगे जिसने आपको एक रचनाकार बना दिया ?
 कहानी, कविता पढ़ना चौंकाता था, जीवन में कुछ अलग रसायन पैदा करता था। चीजों के बारे में विचार बनने लगते थे और लगता था कि अब अपने आसपास को लेकर, इस दुनिया-जहान के बारे में, मैं अन्य समवयस्कों की तुलना में कुछ अधिक वाक्य बोल सकता हूँ। लेकिन लिखना कठिन काम लगता था। लगभग 26 वर्ष की आयु में लगा कि साहित्य को कुछ गंभीरता से लिया जाना चाहिए। साहित्य में मेरा प्रवेश कुछ उम्रदराज होकर ही हुआ है।
‘साक्षात्कार’ के कवितांक और ‘पहल’ के कुछ अंकों से जब परिचय हुआ तो बेहतर साहित्य से मुलाकात हुई। फिर अनेक पत्रिकाएँ और किताबें। लगभग चार-पाँच साल तक खूब पढ़ना हुआ। इसी के साथ लिखना भी हुआ। मेरे कस्बे के जीवन में मुझे अनेक अनुभव और दृश्य ऐसे लगते थे जिनका कविता में कोई इंद्राज नहीं हुआ था। मैं व्यग्रता से भरकर, संवेदित होकर लिखता चला गया। अनेक कविताएँ लिखीं और बरसों तक कहीं नहीं छपीं। जहाँ भी भेजो वहाँ से तीन-चार दिन में ही लौटकर आ जाती थीं, जैसे वे मुझे छोड़कर कहीं जाना ही नहीं चाहती थीं। एकाध अपवाद भी हुआ।
 1988 में ‘वसुधा’ ने मेरी चैबीस कविताओं की काव्य पुस्तिका ‘सुनेंगे हम फिर’ प्रकाशित की। और इसी वर्ष ‘हंस’,‘साक्षात्कार’ और ‘दस्तावेज’ ने भी कुछ कविताएँ छापीं। इससे दृश्य एकदम परिवर्तित हो गया। मुझे अनेक पत्र मिले। शायद पाँच-छह सौ से ज्यादा चिट्ठियाँ आई होंगी। और 1989 में इन्हीं कविताओं में से ‘किवाड़’ को, जो ‘साक्षात्कार’ में प्रकाशित हुई थी, श्री नेमिचंद्र जैन ने भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार दिया। मैं तब एक बहुत छोटे कस्बे ‘मुँगावली’ में रहता था। साहित्य की दुनिया में मेरा कोई विशेष परिचय नहीं था। और इस एक पुरस्कार ने मेरे लिए काफी कुछ बदल दिया।
 कविता को चुनने के पीछे कोई विशेष कारण , प्रभाव ? एक कवि के तौर पर आपके प्रेरणा स्त्रोत कौन कौन से रचनाकार रहे जिन्हें आपने अपने शुरुआती दिनो में  पढ़ा और उनसे बेहद प्रभावित हुये ?
 शायद मैं कविता ही लिख सकता था। एक संवेदना, एक विचार और एक दृश्य मुझ पर जैसे झपट्टा मारता था। उस आवेग का प्रतिफलन कविता में होता था।रामचरितमानस की अनेक भावप्रवण और उपमाओं, रूपकों से भरी पंक्तियों का प्रारंभ में मेरे ऊपर काफी प्रभाव रहा है। 
 प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़ते हुए वामपंथ और मार्क्‍सवाद से गहरा परिचय हुआ। पच्चीस से अधिक रचना शिविरों में शिरकत की और खूब बहस हुई। इससे विचार, समझ और दृष्टि में व्यापकता आई। अपनी कमजोरियों और कमतरियों का अनुमान भी हुआ। फिर धीरे धीरे निराला, मुक्तिबोध, नागार्जुन, शमशेर, केदारनाथ अग्रवाल, नेरूदा, व्हिटमैन, रघुवीर सहाय, श्रीकांत वर्मा, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, विनोद कुमार शुक्ल, केदारनाथ सिंह, धूमिल, की कविताओं से गुजरते हुए कविता के वैविध्य और नयी ताकत का अहसास हुआ। चंद्रकांत देवताले, विष्णु खरे, ज्ञानेंद्रपति, भगवत रावत, अशोक वाजपेयी और मंगलेश डबराल, उदय प्रकाश, अरुण कमल, राजेश जोशी, असद जैदी, विष्णु नागर के संग्रह  गुना की जिला शासकीय लायब्रेरी से पढ़े। दुष्यंत कुमार के संग्रह भी। इन जिला शासकीय पुस्तकालयों की स्थापना में अशोक वाजपेयी की प्रखर भूमिका थी। 
इनसे कविता के पक्ष में धारणा और प्रेम कुछ और दृढ़ हुआ होगा, ऐसा मुझे अब लगता है। किंचित असहमति भी पैदा हुई और लगा कि इन सबसे पृथक कुछ मेरे अनुभव में है जिसे मैं कविता में रूपायित कर सकता हूँ। असहमतियाँ भी प्रेरक होती हैं। लेकिन बाद में मुक्तिबोध की कविताओं के साथ उनकी डायरी ने काफी प्रभावित किया। इधर मेरे तमाम दूसरे समकालीन विमल कुमार, देवीप्रसाद मिश्र, एकांत श्रीवास्‍तव, बद्रीनारायण, कात्‍यायनी, सविता सिंह, अनीता वर्मा, आशुतोष दुबे, बोधिसत्‍व, हरिओम राजौरिया, नीलेश रघुवंशी सहित इधर आये अनेक कवियों की कविताएं दिलचस्‍पी और चुनौती का कारण बनती हैं।
एक रचनाकार पर अपने आसपास की हर चीज का, हर शब्द का और हर ध्वनि का प्रभाव पड़ता है। वह ऋणग्रस्‍त ही है। वह दस हजार तत्वों से मिलकर बनता है। रोज बनता रहता है। उसे किसी एक दो प्रभावों में न्यून नहीं किया जा सकता। सबसे ज्यादा प्रभाव तो अपने बचपन का, स्मृतियों का, अपनी असहायताओं, जिज्ञासाओं और असमर्थताओं का होता है। जैसे एक कवि कविता लिखते हुए इन सब पर विजय पाना चाहता है या इन्हीं में घुलकर कोई नया पदार्थ बन जाना चाहता है। मुझे लगता है कि एक कहानीकार, उपन्यासकार या आलोचक की तुलना में कवि इस संसार में कहीं अधिक मिस फिट और अवसादग्रस्त व्यक्ति होता है। अधिक संवेदित, स्पर्शग्राही, और कहीं अधिक भावुक और विश्वासी। एक कवि बार-बार धोखे खा सकता है, एक कवि को किसी अन्य रचनाकार की तुलना में कहीं अधिक आसानी से ठगा जा सकता है। यह उसकी कोई प्रशंसा, निंदा या प्रशस्ति नहीं है, बस एक स्वभाव और बनावट पर ध्यानाकर्षण है। हालाँकि सजग, चतुर और चालाक कवियों की भी उपस्थिति हो सकती है लेकिन मैं उन्हें आपवादिक मानता हूँ।
 किवाड़ , क्रूरता , अतिक्रमण और अनिंतम , आपके प्रमुख कविता संग्रह रहे हैं । लेकिन एक प्रश्न जो सबसे पहले 
मन में आता हैं की इन शीर्षकों को चुनने के पीछे आपका कोई विशेष विचार ?
 पहले संग्रह का नाम तो पुरस्कृत, स्वीकृत और चर्चित कविता के नाम पर सहज ही हो गया। लेकिन ‘क्रूरता’, ‘अनंतिम’, ‘अतिक्रमण’ और अभी ‘अमीरी रेखा’ः इन संग्रहों के नाम समय विशेष के दौरान लिखी गई कविताओं के कुल चरित्र, प्रतिवाद और आकांक्षा को केंद्र में रखकर ही चुने हैं। एक तरह से वे अपने उस कालखण्ड पर टिप्पणी, विमर्श, प्रतिरोध, पराभव और प्रस्ताव को लक्षित करते हैं। इनमें समकालीन प्रवृत्त्यिों की पहचान की कोशिश है और हाशिए पर छूट गई कुछ चीजों को बीच बहस में शामिल करने की मंशा भी। संभव है कि इनका यही अर्थ और भावना पाठकों तक भी पहुँची हो।
 आपकी अतिक्रमण (2002) कविता संग्रह के बाद आपका एक गद्य इच्छाए (2008द) प्रकाशित हुआ। क्या इस बीच के समय कोआपने विशेष रूप से गद्य (कहानियो) को दिया ? आप गद्य हमेशा से लिखते थे लेकिन आपने अचानक से इन्हें प्रकाशित करने का निर्णय कैसे लिया ?  क्या लिखते समय आप प्रकाशन या किसी  निश्चित समय में इसे पूरा करने के बारे में सोचते हैं?
 मैं विनम्रता लेकिन दृढता से कहना चाहता हूँ कि कहानियाँ मैंने इसलिए लिखीं कि मैं पिछले दस-पंद्रह साल की अधिसंख्‍य हिंदी कहानियों के गद्य से बेहद निराश था। उनकी कृत्रिमता, नाटकीयता, इतिवृत्तामत्कता, अलौकिकता, इतिहास की कोई घटना या दुर्लभ बीमारियों के संदर्भ से बनाया गया कथासार, उनकी स्थूलता, विद्रूपता, शिल्प की अतिरिक्त सजगता, महीनता, काम चित्रावली और बौद्धिकता से मैं, अपनी तरह का एक पाठक, थक गया था। वे बहुत से शब्दों से बनी हुई विशाल, बड़बोली कहानियाँ थीं जिन्हें लिखनेवाला किसी उच्चतर जगह पर बैठा सृष्टा था। मुझसे वे पढ़ी भी नहीं जाती थीं। उनमें सब कुछ था बस सहजता, संबंध, जीवन का उत्स, सच्ची निराशा, अपराधबोध, मार्मिकता और अवसाद गायब था। वे महान कहानियाँ थीं और उनमें साधारण चीजें, रोजमर्रा का जीवन और आपाधापी अनुपस्थित थी। उनमें गद्य का एक अच्छा, स्वाभाविक पैराग्राफ खोजने पर भी नहीं मिलता था। यद्यपि ढर्रे में लिखा गया विपुल गद्य। प्रसंगों और घटनाओं के लिए आविष्कृत बरसों पुराना बासी गद्य। एक अच्छा वाक्य खोजने के लिए, कथा में जीवन, उत्साह, आलोचना, अस्वीकार और स्क्रीनिंग के लिए मुझे एक चैथाई सदी पीछे, ज्ञानरंजन के पास जाना पड़ता था। मैं महज अपना एक प्रतिवाद रखना चाहता था। एक शिकायत और एक इच्छा। मैं आलोचक की तरह यह काम करने में समर्थ नहीं था इसलिए मेरे पास इसका कोई सर्जनात्मक उपाय ही मुमकिन था। मैं नहीं कह सकता कि क्या कुछ मैं कर पाया लेकिन उसे एक रचनात्मक आकांक्षा और असहमति की तरह भी देखा जा सकता है। संभवतः इसलिए ही उनमें विषयों और विधागत अतिक्रमण का वैविध्य भी संभव हो सका। किस्सागोई के शाश्वत तरीके भी खास तरह की ऊब पैदा करते हैं।
 जानना दिलचस्प लग सकता है कि एक कहानी तो ‘पहल’ के लिए ज्ञानरंजन जी ने आग्रहपूर्वक लिखवा ली क्योंकि किसी अंक में वे कवियों का गद्य छापना चाहते थे। बाकी कहानियाँ फिर लिखी होती गईं लेकिन उन्हें कहीं प्रकाशन के लिए भी दो बरस तक नहीं भेजा। किसी प्रसंग में रवीन्द्र कालिया जी को तीन कहानियाँ भेजी गईं और उन्होंने तीनों कहानियों को ‘वागर्थ’ के लगातार अंकों में और फिर ‘ज्ञानोदय’ में चार-पाँच कहानियों को प्रकाशित किया। इस तरह वे संग्रहाकार लायक हो गईं।
 अपनी नयी कविता संग्रह  अमीरी रेखा के बारे में  कुछ बताइये । इसके शीर्षक के पीछे भी गहरी सामाजिक 
समस्या का अनुभव होता हैं । इस कविता संग्रह में आपकी किस तरह की कविताओ का संग्रह हैं? आज के समय आर्थिक विषमता,  भ्रष्टाचार , कमजोर होता लोक तंत्र और हमारे सामाजिक जीवन में संस्कृति व सभ्यता का पतन कुछ बुनियादी  मुद्दे हैं तो क्या ये कविता संग्रह इन  सब को सामने लाने की कोशिश हैं क्योंकि ये संग्रह आपका उस समय आया हैं जब वाकई हर जगह इन समस्याओ पर क्रोध हैं ।
जैसा कि मैंने ऊपर इंगित किया कि किसी कालखंड में लिखी कविताएँ अपने समय और समाज से प्रतिकृत होती ही हैं। अमीरी की रेखा कोई हो नहीं सकती और उसकी पड़ताल करना मुश्किल है। वह प्रवृत्तियों में, अमानुषिकता और पूँजीवादी विचार में कहीं खोजी जा सकती है। और ऐसे तमाम प्रत्यय हैं, विडंबनाएँ और विषमताएँ हैं जो इधर समाज में बढ़ती जा रही हैं लेकिन उन पर विमर्श गायब है। बहस के, विचार के गलियारों से भी वे बहिष्कृत हैं। मुझे अपनी प्रतिबद्धताओं के चलते ये सब चीजें कहीं अधिक विचारणीय लगती हैं, संवेदित करती हैं, परिचालित करती हैं। याद रखने की बात है कि सामाजिक न्याय, लोकतांत्रिकता, समानता और समाजवाद की चाह अभी अप्रासंगिक नहीं हुई है। इन सबको एक ग्लोबल ओट में रखा जा रहा है।

शनिवार, 6 अक्तूबर 2012

यानिस रित्‍सोस की एक कविता

अग्रज कवि नरेन्‍द्र जैन बहुत अच्‍छे अनुवादक भी हैं। 
यूनानी कवि यानिस रित्‍सोस की एक कविता यहॉं दी जा रही है।
यह 'समय के साखी' पत्रिका के ताजा अंक में उनके द्वारा अनूदित अन्‍य कुछ कविताओं के साथ प्रकाशित है।

सिर्फ़ एक चीज़

तुम्‍हें पता है, मृत्‍यु का कोई 
अस्तित्‍व नहीं होता
उसने कहा यही, स्‍त्री से

मैं जानती हूँ हॉं, चूँकि मैं
मृत्‍यु को हो चुकी हूँ प्राप्‍त
स्‍त्री ने जवाब दिया

तुम्‍हारी दो कमीजों पर
की जा चुकी है इस्‍तरी और वे
दराज़ में रखी हैं
सिर्फ़ एक चीज़ जो मुझसे छूट गई है
वह एक गुलाब है तुम्‍हारे वास्‍ते।
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शनिवार, 29 सितंबर 2012

लेकिन वह तो परम्‍परा है

ब्‍लॉग के अपहरण के बाद फिर वह बरामद हुआ। 
फेसबुक के जरिए मित्रों ने इसमें तत्‍काल योगदान दिया।

बहरहाल, यह एक नई पोस्‍ट। 
यह कविता।

अकेले का विरोध

तुम्हारी नींद की निश्चिंतता में
वह एक कंकड़ है
एक छोटा-सा विचार
तुम्हारी चमकदार भाषा में एक शब्द
जिस पर तुम हकलाते हो
तुम्हारे रास्ते में एक गड्ढा है
तुम्हारी तेज रफतार के लिए दहशत

तुम्हें विचलित करता हुआ
वह इसी विराट जनसमूह में है
तुम उसे नाकुछ कहते हो
इस तरह तुम उस पर ध्यान देते हो

तुमने सितारों को जीत लिया है
आभूषणों  गुलामों  मूर्तियों   लोलुपों
और खण्डहरों को जीत लिया है
तुम्हारा अश्व लौट रहा है हिनहिनाता
तब यह छोटी-सी बात उल्लेखनीय है
कि अभी एक आदमी है जो तुम्हारे लिए खटका है
जो अकेला है लेकिन तुम्हारे विरोध में है

तुम्हारे लिए यह इतना जानलेवा है
इतना भयानक कि एक दिन तुम उसे
मार डालने का विचार करते हो
लेकिन वह तो कंकड़ है  गड्ढा है
एक शब्द है  लोककथा है  परंपरा है।
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शनिवार, 15 सितंबर 2012

तो इसमें नाराज होनेवाली क्या बात है?

महमूद दरवेश की कविता ‘परिचय पत्र’ का अनुवाद, यहाँ शीर्षक बदलकर।


तो इसमें नाराज होनेवाली क्या बात है?

इसे रिकॉर्ड में दर्ज करो।
    मैं एक अरब हूँ
और मेरे पहचान पत्र का नम्बर है पचास हजार
मेरे आठ बच्चे हैं
और नौवाँ गर्मियों के बाद आनेवाला है।
तो इसमें नाराज होनेवाली क्या बात है?

इसे रिकॉर्ड में दर्ज करो।
मैं एक अरब हूँ
खदान में अपने साथियों के साथ करता हूँ कठोर मेहनत
मेरे आठ बच्चे हैं जिनके लिए चट्टानों से जूझता
कमाता हूँ रोटियाँ, कपड़े और किताबें
और नहीं माँगता तुम्हारे दरवाजे पर भीख,
न ही झुकता हूँ तुम्हारी चौखट पर।
तो इसमें नाराज होनेवाली क्या बात है?

इसे रिकॉर्ड में दर्ज करो।
मैं एक अरब हूँ।
मैं एक नाम हूँ बिना किसी उपाधि के,
सहनशीलता से रहता आया एक ऐसे देश में
जहाँ हर चीज गुस्से के भँवर में रहती है।
मेरी जड़ें खोद दी गईं
समय की उत्पत्ति से ही पहले
युगों-कल्पों की कोंपल फूटने से पहले ही,
चीड़ और जैतून के पेड़ों से भी पहले,
घास की पत्तियों के आने से भी पहले।

मेरे पिता किसान परिवार से थे
किसी कुलीन सामंती खानदान से नहीं।
और मेरे दादा भी एक किसान थे
बिना किसी महान वंशावली के।
मेरा घर दरबान की झौंपड़ी जैसा है
घास और बल्लियों से बना हुआ
क्या आप संतुष्ट हैं मेरे इस जीवन-स्तर से ?
मैं एक नाम हूँ बिना किसी उपनाम के।

इसे रिकॉर्ड में दर्ज करो।
मैं एक अरब हूँ।
मेरे बालों का रंगः गहरा काला।
आँखों का रंगः भूरा।
विशेष पहचान चिन्हः
मेरे माथे पर पगड़ी और उस पर दो काली डोरियाँ
छुओगे तो रगड़ खा जाओगे।
मेरा पताः
मैं आया हूँ एक दूर, विस्मृत कर दिए गए गाँव से
जिसकी गलियों का कोई नाम नहीं
और जिसके सभी आदमी जुते हुए हैं खेतों और खदानों में
            तो इसमें नाराज होने की क्या बात है?

इसे रिकॉर्ड में दर्ज करो।
मैं एक अरब हूँ।
तुमने मेरे पुरखों के बगीचों को छीन लिया
और वह जमीन जिसे मैं जोतता था
मैं और मेरे बच्चे जोतते थे उस जमीन को,
और तुमने हमारे लिए और मेरे बाल-बच्चों के लिए
इन पत्थरों के अलावा कुछ नहीं छोड़ा।
क्या तुम्हारी सरकार इन्हें भी कब्जे में ले लेगी,
जैसी कि घोषणा की जा रही है?

बहरहाल!
इसे पहले पन्ने पर सबसे ऊपर दर्ज करोः
मैं लोगों से नफरत नहीं करता,
न ही किसी की संपत्ति पर करता हूँ अतिक्रमण
फिर भी, यदि मैं भूखा रहूँगा
तो खा जाऊँगा अपने लुटेरे का गोश्त

खबरदार, मेरी भूख से खबरदार
और मेरे क्रोध से!
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‘द विन्टेज बुक ऑव कंटेप्रेरी वर्ल्‍ड पोएट्री’ से, डेनिस जॉन्‍सन-डेवीज के अंग्रेजी अनुवाद के आधार पर हिन्दी में अनूदित। प्रकाशक- विन्टेज बुक्स, न्यूयॉर्क।

शुक्रवार, 7 सितंबर 2012

जहॉं हम मानते हैं कि हम ही सही हैं


इधर कुछ दिनों से येहूदा आमीखाई की यह कविता याद आती रही।
इसका भावानुवाद सह पुनर्लेखन जैसा कुछ किया है।
शायद इसका कुछ प्रासंगिक अर्थ भी निकले।


जहाँ हम मानते हैं कि हम ही सही हैं

जहाँ हम मानते हैं कि हम ही सही हैं
उस जगह फिर कभी
वसंत में भी फूल नहीं खिलेंगे

जहाँ सिर्फ हम सही होते हैं
वह जगह फिर बाड़े की जमीन की तरह
कठोर और खूँदी हुई हो जाती है

ये संशय और प्रेम ही होते हैं
जो दुनिया को उसी तरह खोदते रहते हैं
जैसे कोई छछूंदर या जुताई के लिए हल
और सुनाई देती है फिर एक फुसफुसाहट उसी जगह से
जहाँ कभी हुआ करता था एक उजड़ा हुआ मकान।
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बुधवार, 5 सितंबर 2012

जीवन विवेक ही साहित्‍य विवेक है




करीब दो बरस पहले  यह टिप्‍पणी लिखी गई थी। 
एक स्‍थानीय आयोजन से प्रेरित। बहरहाल।
एक-दो वाक्‍यों में संपादन के साथ यह यहॉं है।


साहित्यिक आयोजनों का अजैण्डा

साहित्य संबंधी आयोजनों को मोटे-मोटे दो वर्गीकरणों में देखा जा सकता है।
1.स्पष्ट कार्यसूची (अजैण्डे) के साथ आयोजन। 2.बिना कार्यसूची के साथ आयोजन।

पहले वर्ग में, किसी विचारधारा विशेष, जैसे वामविचार को केंद्र में रखकर, उसके अंतर्गत कुछ अभीष्ट या उद्देश्य बनाकर आयोजन किए जाते हैं। उनके इरादे, घोषणाएँ, प्रवृत्ति और पक्षधरता को साफ पहचाना जा सकता है। वहाँ साहित्य संबंधी एक दृष्टि, विचार सरणी होती है और कुछ साहित्यिक मापदण्ड और समझ के औजार भी उस दृष्टि और सरणी से निसृत होकर सामने रहते हैं। तत्संबंधी नयी चुनौतियाँ भी। विचारधाराओं से प्रेरित तमाम लेखक संगठनों के आयोजन इसी वर्ग में रखे जाएँगे। और वे भी आयोजन भी, जो वाम-विचारधारा विरोधी साहित्यिकों या संस्थाओं द्वारा संभव होते हैं।

लेकिन इन सभी का अजैण्डा असंदिग्ध रूप से जाहिर होता है। सार्वजनिक। उनके उद्देश्य स्पष्ट होते हैं। प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ, जन संस्कृति मंच, पूर्व में ‘परिमल’ के आयोजन और इधर अस्तित्व में आईं अनेक सांस्कृतिक दक्षिणपंथी संस्थाओं के कार्यक्रम, जिनकी वामविरोधी राजनीति स्पष्ट है। प्रायः इस तरह की संस्थाओं या संगठनों में औपचारिक/अनौपचारिक सदस्यता होती है और वे अपनी प्रतिबद्धताओं के लिए जवाबदेह होते हैं। इस वर्ग के ये कुछ उदाहरण हैं।

दूसरे वर्ग में मुख्यतः निजी महत्वाकांक्षाएँ, व्यक्तिगत यशकामना और/या व्यावसायिक समझ के साथ किए जानेवाले आयोजन हैं। वे किसी सामूहिक जनचेतना, व्यापक विचार या विचारधारा से प्रेरित नहीं होते। इसलिए कभी-कभार उनमें विभिन्न विचारधाराओं के लेखक भी, निजी कारणों से, एक साथ सक्रिय दीख सकते हैं। इनके एक, दो, दस आयोजनों को विश्लेषित कर लें तब भी कुछ हाथ नहीं आएगा। सिवाय इसके कि व्यक्तिगत वर्चस्व, नेतृत्व कामना के लिए, प्रकाशकीय लोभ-लाभ के लिए, पत्रिका की लांचिंग या प्रचार हेतु अथवा निजी धाक जमाने के लिए, पब्लिक रिलेशनशिप के लिए इनका आयोजन हुआ।

जब तक कोई ‘धन या अधिकार संपन्न व्यक्ति’, व्यवसायी या संक्षिप्त समूह इसके पीछे काम करता है, तब तक ये आयोजन होते हैं और फिर सिरे से गायब हो जाते हैं। फिर उनकी उतनी गूँज भी बाकी नहीं रहती जितनी एक छोटे से अंधे कुएँ में आवाज लगाने से होती है। उसका ऐतिहासिक महत्व तो दूर, उसकी किंचित उपलब्धि भी अल्प समय के बाद ही, कोई नहीं बता सकता। संक्षेप में कहें तो इनकी नियति एक ‘क्लब’ में बदल जाती है जहाँ साहित्य को लेकर, रचनाधर्मिता के संदर्भ में कोई ऐसी बात संभव नहीं जिसे गहन सर्जनात्मकता एवं बड़े विमर्श तक ले जाया जा सके। आयोजन के बाद उसे विचार की किसी परंपरा से जोड़ा जा सके। किसी आंदोलन के हिस्से की तरह उसे देखा जा सके या उस संदर्भ में नयी पीढ़ी को शिक्षित अथवा उत्प्रेरित किया जा सके।

ऐसे आयोजन, एक तरह के अवकाश को भरने या बोरियत दूर करने, साथ मिलजुलकर बैठने की इच्छा या समकालीनता में इस तरह ही सही, अपना नाम दर्ज कराने की सहज-सरल आकांक्षा, ध्यानाकर्षण की योजना अथवा समानांतर सत्ता संरचना की कामना से भी प्रेरित होते हैं और कई बार इस प्रतिवाद से भी कि उन्हें अपेक्षित रूप से स्वीकार नहीं मिला है। या उन्हें कमतर समझा गया है। या यह कि उन्हें और, और, और, और, और जगह चाहिए। लेकिन इनका जो भी आयोजक होगा, उसकी महत्वाकांक्षाओं या इरादों को समझा जा सकता है। हालॉंकि सतह पर तैरती चतुराई के कारण उनके वास्तविक उद्देश्य स्पष्ट होने में किंचित समय भी लग सकता है।

लेकिन एक बात यहाँ सबसे महत्वपूर्ण होती हैः वह यह कि इनका कोई घोषित अजैण्डा नहीं होता। या इनकी कोई कार्यसूची होती भी है तो उससे साहित्य या जीवन, (याद करें मुक्तिबोध का महान वाक्यः ‘जीवन विवेक ही साहित्य विवेक है।’) के प्रति, किसी भी विचारधारा और दृष्किोण से संबंध नहीं बैठाया जा सकता। इसलिए ऐसे आयोजन एक मिलन समारोह, पर्यटन, सामूहिक दस्तरखान के सुख, आनंददायी तस्वीरों और अन्य मधुर स्मृतियों में ही न्यून हो जाते हैं। इन्हें अन्य द्वारा वित्तपोषित ‘साहित्यिक किटी पार्टियों’ की तरह भी देखा जा सकता है।

एक अन्य उपवर्ग उन संस्थानों का बनता है जिनके पास शासकीय या गैरशासकीय स्त्रोतों से बजट है और वे उस बजट को खपाने के लिए, अपने संस्थान की क्रियाशीलता को बनाए रखने के लिए तमाम आयोजन करने को विवश हैं। प्रायः, जब तक कि संप्रति सरकारों का दबाब न हो, उनका किसी विचारधारा विशेष के प्रति विरोध या समर्थन नहीं होता। वहाँ कोई भा आ-जा सकता है और उनसे लाभ लिया जा सकता है। उसमें भागीदारी से किसी को कोई उज्र या ऐतराज नहीं होता, जब तक कि कुछ विचारधारात्मक सवालों से मुठभेड़ न हो। आकाशवाणी, दूरदर्शन, साहित्य अकादमियाँ, हिंदी उन्नयन संस्थाएँ आदि इसके उदाहरण हैं। इन संस्थाओं के पास भी, साहित्य को लेकर कोई विशिष्ट औचित्य या दृष्टि नहीं होती, सिवाय इस महान वाक्य के कि ‘वे साहित्य और रचनाकारों की सेवा कर रहे हैं और उनका जन्म बस यही करने के लिए हुआ है।’

बहरहाल, यदि पहले वर्ग के आयोजनों में किसी के द्वारा शिरकत की जा रही है तो वह खास तरह के वैचारिक अजैण्डा की जानकारी के साथ, उसके प्रति सहमति, प्रतिबद्धता या उत्सुकता से की जाएगी। और दूसरे वर्ग के आयोजन में शिरकत की जा रही है तो वह मूलतः मौज मस्ती, मेल-मिलाप, उत्सवधर्मिता और संबंधवाद के लिए। लेकिन प्रकारांतर से इस तरह लोग जाने-अनजाने किसी की महत्वाकांक्षा या छिपे हुए निजी अजैण्डा के सहभागी हो जाते हैं। और कई बार तो कृतज्ञ भी। जाहिर है कि शिरकत करते हुए तमाम लोग निजी रूप से निर्णय लेते हैं, अपना चुनाव करते हैं लेकिन फिर लाजिमी है कि वे जलसा उपरांत कुछ विचार भी करें। मसलन यह, कि आखिर क्या वे इन चीजों का वाकई हिस्सा होते रहना चाहते हैं!

ऐसा भी हो सकता है कि किसी आयोजन में विभिन्न विचारधाराओं से प्रेरित या विचारधाराहीन (??) लेखकों का जमावड़ा कराया जाए, उनके बीच मुठभेड़ कराई जाए और फिर उसे आयोजनकर्ता दिलचस्पी से देखें, अपनी स्पॉन्सरशिप का भरपूर आनंद उठाएँ। इसका कुछ विचारणीय पक्ष शायद तब भी हो सकता है कि जब वे कुछ गंभीर सवालों को खड़ा करें, उन्हें सूचीबद्ध करें, बताएँ कि ये महत्वपूर्ण निष्पत्तियाँ हैं, इन पर व्यापक विमर्श हो। इसलिए अपेक्षित होगा कि ये आयोजनकर्ता, औपचारिक तौर पर बताएँ कि इससे उनके किन उद्देश्यों की पूर्ति होती है और आगे भी इस तरह की ‘कांग्रेस’ करते रहने के पीछे उनकी क्या राजनीति, योजना, मंशा और आकांक्षा है। और इसे व्यापक करने की क्या रणनीति है।

निजी तौर पर यों मौज-मस्‍ती और हो-हल्‍ले का विरोधी नहीं हूँ लेकिन यह शायद आग्रह या दुराग्रह हो कि मैं हर उस आयोजन के समर्थन में आसानी से हूँ जिसका अजैण्डा जाहिर हो। भले ही, उनका वह आयोजकीय प्रयास असफल सिद्ध हो। कि मैं तत्संबंधी उद्देश्यों और आकांक्षाओं को पहले समझ तो लूँ। यानी फिर वही अमर सवालः ‘पार्टनर, तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है?’

पिछले कुछ वर्षों से यदि अजैण्डा आधारित आयोजन, विचारधारा संपन्न कार्यक्रम प्रचुरता से नहीं हो पा रहे हैं तो तमाम वामपंथी कहे और समझे जानेवाले लेखकों के लिए इसका अर्थ या विकल्प कदापि यह नहीं हो सकता कि अजैण्डाविहीन, मौजमस्ती मूलक आयोजनों में अपने को गर्क किया जाए।

और यह भी याद कर लेना यहाँ अप्रासंगिक न होगा कि दीर्घकालीन दृष्टि और किसी अजैण्डे के साथ काम करने से ही संगठन और संस्थाएँ बनती हैं। विमर्श आग्रगामी होता है। अजैण्डाविहीन ढ़ंग से काम करने से ‘गुट’ बनते हैं। भावुक, आभारी बनानेवाली, सी-सा मित्रताएँ बनती हैं। और इन्हीं सबके बीच आत्मतोषी रचनापाठ, कुछ आत्मीय विवाद, वैचारिक-उत्तेजनाविहीन कलह और आमोद-प्रमोद होता है। और यह किसी साहित्यिक आयोजन का अजैण्डा हो नहीं सकता।

इसलिए ऐसे आयोजनों को जब किसी उतावलेपन में, उत्साह में या अनुग्रहीत अनुभव करते हुए साहित्यिक उपलब्धि की तरह प्रचारित किया जाता है अथवा उस तरह से पेश करने की कोशिश की जाती है, इन आयोजनों के लिए फिर-फिर आकांक्षा प्रकट की जाती है तो कुछ सवाल नए सिरे से उठते हैं।
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मंगलवार, 4 सितंबर 2012

पुराने पन्‍नों से बरामद


यह कविता करीब दस बरस पहले की डायरी में से बरामद हुई। जो अभी अन्‍यथा अप्रकाशित ही है।
सोचा कि इसे यहॉं शेयर करूँ।


पहला शो

फिल्म का पहला शो देखने की किशोरावस्था की प्रतिज्ञा
और युवकोचित उत्साह की स्मृति में आए हैं हम यहाँ

भीड़ उसी तरह अपार है
और बुकिंग खिड़की के ठीक आगे उसी तरह अभेद्य
लेकिन अब कंधों पर चढ़ कर काउण्टर तक पहुँचना
न तो बस की बात है और न ही कोई तुक
जिन दूरियों पर आज हम यहाँ आ गए हैं सक्षम
वहॉं केवल सौ रूपए ज्यादा देने से मिल गई है निजात

टिकट जेब में हैं और पुराना उत्साह रंग मार रहा है
आने लगा है भीड़ का मजा
पहले शो का रोमांचवही फिकरेबाजी
तालियाँ,  सीटियॉं और एक हद के बाद न फिल्माए गए दृश्य की
स्‍वरों और व्‍यंजनों से होती क्षतिपूर्ति

इनमें शामिल होते हुए
लेकिन हम भीतर ही भीतर दूर छिटक रहे हैं धीरे-धीरे
जबकि इस पहले शो का कुल दृश्य उतना ही उत्तेजक
और उतना ही आय-हाय वाला है
जिसकी अव्यक्त चाह में हम चले आए हैं चार जन यहॉं

और इस जीवन के नये सिनेमा हॉल में
अचानक हो गए हैं ऐसे
             जैसे किसी प्राचीन श्वेत-श्याम वृत्तचित्र के हिस्से
जिसमें चलती तसवीरों और कहे गए संवादों के बीच का असंतुलन
तंद्रा को भंग करता है बार-बार।
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गुरुवार, 23 अगस्त 2012

चीजों को आहट से भी पहचानना चाहिए

इधर मध्य प्रदेश के संस्क़ति विभाग के अधीन संस्थाओं में से एक 'भारत भवन' में 'आज थियेटर कंपनी', नयी दिल्ली की 18 अगस्त की प्रस्तुति 'तमाशा न हुआ' के प्रसंग में दो खबरें प्रकाशित हुई हैं। पहली दैनिक भास्कर, भोपाल में और दूसरी जनसत्ता, दिल्‍ली में। जनसत्ता की खबर पर साथी सत्येंद्र रघुवंशी ने ध्यानाकर्षण किया। ये दोनों खबरें यहॉं इसलिए दी जा रही हैं कि इन्हें हमारे वक्तव्य में दर्ज अनेक चिंताओं से जोडकर देखा जा सकता है।
हमारे शामिल वक्‍तव्‍यों, 'सोने में जंग लगेगी तो फिर लोहा क्‍या करेगा' अंतर्गत  'सार्वजनिक साहित्यिक संस्‍थाओं का राजानीतिक रूपांतरण और लेखकों की प्रतिरोधी भूमिका' एवं ' सांस्‍कृतिक विकृतिकरण फासीवाद का ही पूर्वरंग है' इनके लिए इस ब्‍लॉग की पुरानी पोस्‍ट देख सकते हैं और यहॉं दिए गए लिंक सहित कई अन्‍य ब्‍लॉग्‍स पर भी जा सकते हैं। 

पहली खबर
दैनिक भास्कर, सिटी एडीशन, भोपाल, 19 अगस्त 2012
नाटक में भाजपा सांस्कृतिक प्रकोष्ठ के प्रदेश अध्यक्ष राजेश भदौरिया भी बतौर दर्शक मौजूद थे। उन्होंने नाटक के निर्देशक से कहा- 'मुझे लगता है यह नाटक पाकिस्तान में होना चाहिए था। आपने पाक की तरफदारी की है। असम के मसले पर आपने जो दिखाया वो ठीक नहीं था। इस पर निर्देशक का जवाब था-' ऐसा आपको लगता है, मुझे नहीं।'

राजेश ने बाद में बयान दिया कि नाटक के कलाकारों ने दो पक्षों के बीच बहस करते हुए गॉंधी और टैगोर पर कीचड़ उछाला है। नाटक में उनहोंने टैगोर को एक जगह देशद्रोही भी कहा। पाकिस्तान के प्रति सहानुभूति दिखाई और देश को अन्यायी कहा। कलाकारों के खिलाफ देशद्रोह का मामला दर्ज होना चाहिए। भारत भवन के अधिकारी भी दोषी हैं, उनके खिलाफ भी कार्यवाई होनी चाहिए।

दूसरी खबर
जनसत्ता 23 अगस्त, 2012:
भारतीय जनता पार्टी की निगाह में जनतंत्र और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए कितनी जगह है, इसका अंदाजा भोपाल की ताजा घटना से लगाया जा सकता है। वहां भारत भवन में रंगमंडल थिएटर उत्सव के दौरान बीते शनिवार की शाम भानु भारती के निर्देशन में ‘तमाशा न हुआ’ नाटक का मंचन था। रवींद्रनाथ ठाकुर के प्रसिद्ध नाटक ‘मुक्तधारा’ पर आधारित इस नाटक में विभिन्न पात्रों के कुछ संवाद, भाजपा के सांस्कृतिक प्रकोष्ठ के संयोजक को इतने आपत्तिजनक लगे कि उन्होंने उसे राष्ट्रविरोधी तक घोषित कर डाला और मामला उच्चाधिकारियों तक ले जाने की बात कही।

इसके पहले भाजपा ने ‘नील डाउन ऐंड लिक माइ फीट’ नाटक पर भी आपत्ति जताते हुए उसे ‘पवित्र’ भारत भवन में मंचित होने से रोक दिया था। मध्यप्रदेश में भाजपा की सरकार है, इसलिए शायद उसके कार्यकर्ताओं को अपने मन-मुताबिक सांस्कृतिक पहरेदारी करने में सुविधा हो सकती है। लेकिन जिस तरह वे ‘तमाशा न हुआ’ नाटक को राष्ट्रविरोधी बता कर उसके खिलाफ वितंडा खड़ा करने में लगे हैं, वह किसी के गले नहीं उतर रहा। यह नाटक देश के अलग-अलग हिस्सों में कई बार मंचित हो चुका है और हर बार उसकी सराहना हुई है। इसमें ‘मुक्तधारा’ के पूर्वाभ्यास के बहाने गांधीवाद, मार्क्सवाद, रवींद्रनाथ ठाकुर के विचार, यांत्रिकता, मनुष्य, प्रकृति और विज्ञान के बीच संबंधों पर किसी भी खास विचारधारा में बंधे बिना निर्देशक और पात्रों के बीच गंभीर बहस होती है।

कोई भी सुलझा हुआ व्यक्ति ऐसी बहस को एक स्वस्थ और जनतांत्रिक समाज की निशानी मानेगा। लेकिन भाजपा के सांस्कृतिक पहरुओं को केवल एक बात याद रह जाती है कि इसमें एक जगह भारत-बांग्लादेश सीमा पर फरक्का बांध और चिनाब नदी पर बगलिहार पनबिजली परियोजनाओं के कारण बांग्लादेश और पाकिस्तान के नागरिकों के सामने पैदा होने वाले संकट की चर्चा की गई है। सिर्फ इसी वजह से भाजपा ने इस नाटक को यहां के बजाय पाकिस्तान में मंचित करने की सलाह दे डाली।

विचित्र है कि जिन बहसों और बातचीत से एक प्रगतिशील समाज की बुनियाद मजबूत होती है, वे भाजपा के अनुयायियों को राष्ट्रविरोधी लगती हैं। सवाल है कि क्या वे ऐसा समाज चाहते हैं जहां विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और बहस के लिए कोई जगह नहीं होगी? अब तक आमतौर पर आरएसएस से जुड़े बजरंग दल, विश्व हिंदू परिषद या श्रीराम सेना जैसे कट्टरपंथी धड़े ऐसी असहिष्णुता दर्शाते रहे हैं। मकबूल फिदा हुसेन के चित्रों की प्रदर्शनी से लेकर कला माध्यमों में मौजूद प्रगतिशील मूल्य उन्हें भारतीय संस्कृति के लिए खतरा नजर आते हैं और उनका विरोध करने के लिए वे हिंसा का सहारा भी लेते रहे हैं। लेकिन सच यह है कि खुद भाजपा भी भावनात्मक मसलों को अपनी राजनीति चमकाने के लिहाज से फायदेमंद मानती रही है, इसलिए उन्हें मुद्दा बनाने का वह कोई मौका नहीं चूकती।

सत्ता में आने पर अपने एजेंडे पर अमल करना उसके लिए और सुविधाजनक हो जाता है। गौरतलब है कि मध्यप्रदेश में संस्कृति की रक्षा के नाम पर सभी सरकारी और स्थानीय निकायों में ‘वंदे मातरम’ का गायन अनिवार्य कर दिया गया है, स्कूल-कॉलेजों में फैशन शो पर पाबंदी लगा दी गई है और करीब एक दर्जन शहरों को पवित्र घोषित करके वहां खाने-पीने की चीजों को लेकर कई तरह के फरमान जारी किए गए हैं। देश की जनतांत्रिक राजनीति में खुद को एक ताकतवर पक्ष मानने वाली भाजपा को यह सोचना चाहिए कि अभिव्यक्ति की आजादी का सम्मान करना उसका पहला दायित्व है।