बुधवार, 22 अक्तूबर 2014

फासिज़्म लोकतन्त्र के कपड़े पहने हुए है

नवम्‍बर 2014 में भारत भवन, भोपाल में प्रस्‍तावित 'बिहार उत्‍सव' के प्रसंग में राजेश जोशी की यह एक गौरतलब टिप्‍पणी है। लेखकों को अपने समय की राजनीति समझना ही होती है और अपना पक्ष भी स्‍पष्‍ट रखना होता है। हम देखा ही रहे हैं कि पिछले कुछ वर्षों में लेखकों की पक्षधरता में न केवल कमी आई है बल्कि उसमें अवसरवाद को जगह मिली है। और इस बहाने अनेक तर्क- वितर्क- कुतर्क के निर्माण भी हुए हैं। प्रसंगवश याद दिलाना उचित होगा कि हम तीन लेखकों, राजेश जोशी, कुमार अंबुज, नीलेश रघुवंशी, ने दो बरस पहले दो वक्‍तव्‍यों के जरिए मध्‍य प्रदेश की सांस्‍कृतिक स्थि‍ति और उसकी राजनीति पर यथाशक्ति प्रकाश डाला था और अपने उस पक्ष को स्‍पष्‍ट किया था जिसे हम पिछले एक दशक से निबाह रहे हैं। बहरहाल, यह टिप्‍पणी संलग्‍न है।
इसलिए: राजेश जोशी
भारत भवन में बिहार उत्सव.....जय हो !
मध्यप्रदेश सरकार के संस्कृति विभाग और भारत भवन ने प्रदेशों की संस्कृति और साहित्य पर केन्द्रित कार्यक्रमों की श्रृंखला शुरू करने का विचार किया है। पहला प्रदेश बिहार चुना गया है। मैं सोच रहा हूँ कि प्रथम पदेश के रूप में बिहार क्यों? न तो अकारान्त क्रम में बिहार पहले आता है न हिन्दी प्रदेशों में बिहार कोई शीर्श पर है। फिर बिहार पर यह अतिरिक्त प्रेम क्यों? अमरीका जब युद्ध के निशाने साधने के लिये देशों का चयन करता है तो उसके दिमाग में प्रमुखता से तेल होता है। मध्यप्रदेश सरकार जो सांस्कृतिक श्रृंखला शुरू कर रही है तो निशाना साधने के लिये उसकी निगाह किस तेल पर है या किस तेल की धार पर?
कांग्रेस मुक्त भारत का नारा धीरे धीरे छोटे राजनीतिक दलों और क्षैत्रिय दलों को अपने घेरे में ले रहा है। हरियाणा और महाराष्ट्र में कांग्रेस मुक्त भारत के साथ क्षैत्रिय दलों से मुक्ति का अभियान भी शुरू किया जा चुका है। मोदी और शाह की भाजपा ने शिवसेना को उसकी औकात दिखा दी है। किनारे पर बैठी शिवसेना रूआँसी हुई जा रही है। उद्धव ठाकरे बिचारे इंतज़ार कर रहे हैं कि कब बुलावा आये और वे दौड़ पड़ें। लेकिन यह बात मेरी समझ से बाहर है कि इस राजनीति के खेल में मध्यप्रदेश को बिहार पर यह अतिरिक्त लाड़ क्यों उमड़ रहा है? शिवराज किसका खेल खेल रहे हैं? मोदी और शाह का या कोई अलग राग गाने की तैयारी है? भाजपा में भीतर ही भीतर कुछ सुलग तो रहा है पर अभी बाहर नहीं आ पा रहा है।
बहरहाल भारत भवन में अब बिहार उत्सव होने जा रहा है । मध्यप्रदेश के संस्कृति विभाग को अपना कोई अलग नामकरण कर लेना चाहिये। संस्कृति का जैसा सत्यानाश पिछले पन्द्रह वर्ष में भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने किया है, उसकी कोई दूसरी मिसाल मध्यप्रदेश के इतिहास में ढूंढना मुश्किल है। साहित्यिक कार्यक्रमों में जो लेखक बुलाये जा रहे हैं वो कौन है? प़ित्रकाओ की दुर्गत तो और भी ज्यादा हास्यास्पद है। जिस सरकारी सांस्कृतिक वैभव का ढिढौरा पीटते सरकार के कभी हाथ न थकते थे आज उसी मध्यप्रदेश की सरकारी सांस्कृतिक गतिविधियों की फूहड़ता पर ठीक से हँस सकना भी संभव नहीं है। हालांकि इसे फूहड़ कह कर टाल जाना भी एक किस्म का सरलीकरण ही होगा। इसके पीछे एक खास किस्म की राजनीति- ‘सांस्कृतिक राजनीति’ और काइयाँपन छिपा हुआ है। कुछ लेखकों ने इसके पीछे छिपे फासीवाद की धीमी आवाज़ की ओर बहुत पहले ही इशारा किया था।
गालिब कह गये थे कि वो न समझे हैं न समझेंगे मेरी बात इसलिए बिाहार के या बिहार से बाहर रह रहे बिहार के अनेक लेखक न समझें तो कोई क्या करे ? सुना है कई लेखक बिहार उत्सव में शिरकत फरमाने आने वाले हैं । आइये, आइये, भाजपा की भगवा कार्पेट बिछी हुई है। अगर आपकी चड्डी में लाल रंग का नाड़ा डला हो तो उसे फेंक आइये। उन दिनों जब देश में भाजपा की सरकार नहीं आयी थी तब भी हमने मध्यप्रदेश की भाजपा सरकार द्वारा की जा रही सांस्कृतिक गतिविधियों में छिपी हुई मंशाओं की ओर इशारा करते हुए लेखकों से यह अनुरोध किया था कि भारत भवन और अन्य सांस्कृतिक परिषदों के कार्यक्रमों में हिस्सेदारी का बहिष्कार करें। पर तब भी हिन्दी के हमेशा सरकारी कार्यक्रमों के प्रति लालायित रहने वाले रचनाकारों ने बहिष्कार नहीं किया तो अब जब केन्द्र में मोदी सरकार आ चुकी है तो उनसे क्या उम्मीद की जाये। जर्मनी में फासिज़्म के चरम पर आ जाने के बाद भी अनेक लेखक उसका पक्ष ले रहे थे तो हमारे यहाँ तो अभी फासिज़्म लोकतन्त्र के कपड़े पहने हुए है उसके विरोध में जाने का तो सवाल ही नहीं उठता ।
तो मध्यप्रदेश में बिहार उत्सव हो रहा है। नितीश और लालू यादव सोचें...... विचार करें कि यह क्यों हो रहा है? इसके पीछे छिपी मंशा क्या है? राजनीति क्या है? और कौन लोग हैं जो इसमें हिस्सेदारी कर रहे हैं?
बहराल भारत भवन में आने ...गाने ...बजाने...मटकने ...लटकने...ठुमकने...फुदकनेवालों की जय हो...जय हो...।
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शनिवार, 13 सितंबर 2014

मुक्तिबोध: उनके वाक्य, ताला भी कुंजी भी


बी बी सी हिंदी से, मुक्तिबोध के निधन की अाधी शताब्‍दी पूरी होने के संदर्भ में, एक संक्षिप्‍त बातचीत। 
इस बातचीत का लिंक यहॉं नीचे है।
http://www.bbc.co.uk/hindi/india/2014/09/140912_muktibodh_kumar_ambuj_rns.shtml

कुमार अम्बुज
मुक्तिबोध के निधन के बाद के पाँच दशक गवाह हैं कि उनके जाने के बाद उनकी प्रासंगकिता और ज़्यादा बढ़ी है. इन पाँच दशकों में शायद हिन्दी के प्रत्येक कवि ने मुक्तिबोध को हमेशा ही अपनी स्मृति में रखा है.
मुक्तिबोध का पूरा रचनाकर्म, जो सृजनधर्मिता थी वह हिन्दी के लिए गौरव की बात है. यह बहुत महत्वपूर्ण अवसर है कि हम मुक्तिबोध की कुछ बातों को अपने-अपने तरीक़े से याद करें.
कवि और कथाकार के रूप में तो मुक्तिबोध की ख्याति है ही लेकिन उनका पत्रकार रूप भी लोगों को याद रहना चाहिए. उनके दो काम और भी विलक्षण थे जिन्हें मैं उनके कवि कर्म से कम महत्वपूर्ण नहीं मानता हूँ.
एक, उन्होंने जो डायरी लिखी है उसमें रचना प्रक्रियाओं को लेकर एक लेखक के मन की उधेड़बुन, व्यग्रता और मुश्किलें शामिल हैं. वह 'एक साहित्यिक की डायरी' नाम से प्रकाशित हुई और उनकी रचनावली में यह सम्पूर्ण रूप में है.
दूसरा, उन्होंने 'इतिहास और संस्कृति' के नाम से भारत का इतिहास लिखा. जो बहुत विवादास्पद भी रहा, जिसको लेकर मुक़दमेबाज़ी हुई, लेकिन वह वैज्ञानिक ढंग से लिखा गया इतिहास है.
उनकी डायरी की कई पंक्तियाँ इतनी सारगर्भित हैं कि लगभग एक वाक्य से ही हम बहुत सारे निष्कर्षों की तरफ़, बहुत सारी अवधारणाओं की तरफ़ जा सकते हैं. वह अपने आप में ताला भी हैं और कुंजी भी हैं.
उनकी रचनावली के पाँचवें खंड में जो डायरी है उसमें एक हिस्से की शुरुआत इस वाक्य से होती है, "साहित्य विवेक मूलतः जीवन-विवेक है." यह वाक्य मुझे बहुत अनुप्राणित करता रहा है. इस वाक्य को अगर हम खोलने की कोशिश करें तो हम पाएँगे कि यह एक पूरा विमर्श है.
जनता का साहित्य क्या है?
इसी तरह उन्होंने बहुत दिलचस्प शीर्षक से डायरी लिखी है कि जनता का साहित्य किसे कहते हैं. यह सवाल बार-बार उठता है कि साहित्य बहुत लोकप्रिय नहीं होता है, जो अच्छा साहित्य है उसे बहुत पढ़ने वाले नहीं मिलते हैं और उसे हम जनता का साहित्य कैसे कहें जिसे जनता पढ़ ही नहीं सकती.
मुक्तिबोध लिखते हैं, "साहित्य का संबंध आपकी भूख-प्यास से है, मानसिक और सामाजिक. किसी भी प्रकार का आदर्शात्मक साहित्य जनता से असबंद्ध नहीं है. दरअसल जनता का साहित्य का अर्थ, जनता को तुरंत ही समझ में आने वाले साहित्य से हरगिज़ नहीं. ऐसा होता तो क़िस्सा, तोता-मैना और नौटंकी ही साहित्य के प्रधान रूप होते."
वह आगे कहते हैं, "तो फिर जनता का साहित्य का अर्थ क्या है. इसका अर्थ है ऐसा साहित्य जो जनता के जीवन मूल्यों को, जनता के जीवन आदर्शों को प्रतिष्‍ठापित करता हो, उसे अपने मुक्तिपथ पर अग्रसर करता हो. इस मुक्तिपथ का अर्थ राजनीतिक मुक्ति से लेकर अज्ञान से मुक्ति तक है."
कला के क्षण
इसी तरह डायरी के वे हिस्से बहुत महत्वपूर्ण हैं जिसमें उन्होंने कला के दूसरे और तीसरे क्षण के बारे में लिखा है. किसी लेखक और रचना के लिए होने वाले संघर्ष-आत्मसंघर्ष, उसकी प्रक्रिया के बारे में उन्होंने बहुत संवेदनशीलता और बहुत ज़िम्मेदारी से लिखा है.
मुक्तिबोध की 'अंधेरे में', 'भूल-ग़लती' जैसी कई कविताएं बहुत लोकप्रिय हैं लेकिन मैं यहाँ उनकी ऐसी कविता का स्मरण करना चाहता हूँ जो शायद उतनी उद्धृत नहीं है. यह कविता है 'भूरी भूरी ख़ाक धूल' संग्रह में शामिल कविता 'झरने पुराने पड़ गए'. यह उनकी लगभग अधूरी रचना है. यह कविता उनकी मृत्यु से क़रीब चार-पाँच साल पहले 1959-60 में लिखी गई थी.
दुनिया बदलने का एक सपना
उनकी कविता में तद्भव और तत्सम शब्दों का विशाल सपुंजन और समावेश है, लेकिन 1955 के बाद उन्होंने जो कविताएं लिखी हैं उनमें आम बोलचाल की भाषा लगातार बढ़ती गई है.
वैज्ञानिक शब्दावली, आविष्कारों और खोजों के प्रति उनकी उत्सुकता, श्रद्धा और जीवन को ये आविष्कार बदलेंगे इसका विश्वास, साथ में वैज्ञानिक दृष्टिकोण उनके कुल लेखन में कभी भी अनुपलब्ध नहीं रहे.
मुक्तिबोध इसलिए हमारे लिए आजतक महत्वपूर्ण बने हुए हैं क्योंकि वह जनता से जुड़कर, जीवन से जुड़कर इस दुनिया को बदलने के लिए एक सपना हमेशा देखते रहे.
संदर्भित कविता 'झरने पुराने पड़ गए' का अंश
झरने पुराने पड़ गए
उनकी उपमा अब कोई नहीं देता
शायद धोबी दें,
जो वहाँ कपड़े फचीटते हैं,
या किसान
जो उसमें फंसी हुई गाड़ी घसीटते हैं लेकिन
वो सभ्य नहीं हैं
इसलिए झरने की उपमा अब लभ्य नहीं है
फिर भी मैं झरने की उपमा ज़रूर दूँगा
उस सुदूर को
जो बहता हुआ हमारी ओर आ रहा है
हमारे पास लगातार आ रहा है
इसलिए नहीं कि हम नदी या तालाब हैं,
जिसमें मिल जाएगा
बल्कि इसलिए कि हम वे टीले हैं
जिन्हें घाव-ही-घाव हैं
टूटे हैं तड़के हैं
फिर भी ठहराव है
एक रुकाव है, इसीलिए सब तरफ़ चेहरे ये पीले हैं
वह आ रहा है, अनक़रीब है,
हमें बहा ले जाएगा!!
कहाँ ले जाएगा?
तो उसी का क़िस्सा है
पुराने जमाने में
भयानक परिपाटी-सी
एक घाटी थी
उसकी वह माटी भी अजीब थी,
बहुत ग़रीब, बहुत बदनसीब थी
वहाँ कई लड़ाइयाँ हुई थीं,
खूब ठठरियाँ फैली थीं,
टूटी हुई हड्डियों के टुकड़े
अभी भी देखे जा सकते हैं
निरखे जा सकते हैं, परखे जा सकते हैं.
लेकिन कौन इस धंधे में पड़े
तो हाँ, वहाँ हजारों किसान मारे गए थे,
बड़े युद्धवीर थे
इसीलिए तलवार के घाट उतारे गए थे
और भी दूसरे कई-कई लोग थे,
बड़े लड़ाकू थे, मरण-संयोग थे
उन्होंने गढ़ और गढ़ियाँ,
दुर्ग और क़िले ढहा दिए
बड़े-बड़े अहंकार और गर्व बहा दिए
आज उसी एक क़िले के हिस्से में
मेरा यह कॉलेज है
टेबल और मेज है,
आर्ट्स और साइंस, कॉमर्स हैं
मुझे यह हर्ष है
कि उसी क़िले के एक महत् सिंहद्वार के
ऊपर और नीचे के कक्षों में मुझको बसाया गया,
क्वार्टर्स बन गए.
 (रंगनाथ सिंह, बी बी सी हिंदी, से बातचीत पर आधारित)

सोमवार, 8 सितंबर 2014

ख्‍वाजा अहमद अब्‍बास की जन्‍मशती

निर्विवाद रूप से श्री विष्‍णु खरे हमारे समय के सबसे अधिक उर्वर, अध्‍यवसायी और चैतन्‍य मस्तिष्‍कों में से एक हैं। और यह पक्ष उन्‍हें अनेक अनुशासनों में दखल देने योग्‍य बनाता है। ख्‍वाजा अहमद अब्‍बास की जन्‍मशती के प्रसंग में लिखा गया उनका यह महत्‍वपूर्ण आलेख यहॉं 'बुद्धू-बक्‍सा' ब्‍लॉग से साभार। युवतर पीढ़ी के लिए यह अनेक जानकारियॉं और अब्‍बास को देखने की दृष्टि भी उपलब्‍ध कराता है।
 
वह अपनी हर विधा में प्रगतिकामी मूल्यों पर अडिग रहे
विष्‍णु खरे


ख्वाज़ा अहमद अब्बास को ‘बहुमुखी प्रतिभा का धनी’ कहना एक पिष्टोक्ति है लेकिन उसके सिवा उन्हें कुछ कहा भी नहीं जा सकता – आप चाहें तो उसमें सिर्फ़ कहीं ‘प्रतिबद्ध’ जोड़ सकते हैं. उन्होंने 20 की उम्र के आसपास उर्दू कहानीकार के रूप में अपनी सृजन-यात्रा शुरू की, फ़क़त 27वें बरस में सार्थक सिनेमा से आजीवन जुड़ाव का आग़ाज़ किया, साथ-साथ उर्दू-हिंदी और अंग्रेज़ी पत्रकारिता में गहरा सक्रिय दख़ल दिया और 1935 के इर्द-गिर्द अदीब की हैसियत से तरक्क़ीपसंद तहरीक़ (प्रगतिशील आन्दोलन) और उसकी जन्मदात्री वैश्विक वामपंथी राजनीति से वाबस्ता हुए. यह सब करते हुए उन्हें चौतरफ़ा मुसीबतों और विवादों का सामना करना पड़ा लेकिन वह डटे रहे और वैसा आत्मपावन, शहीदाना पलायन नहीं किया जो उनके पहले और समान्तर प्रेमचंद या अमृतलाल नागर आदि कर चुके थे.
समस्या यह है कि अब्बास को मुख्यतः क्या माना जाए – मुख्तलिफ़ हैसियतों से उनके नाम पर क़रीब पाँच दर्ज़न फ़िल्में दर्ज़ हैं, अलग-अलग ज़ुबानों में कोई पचहत्तर किताबों पर उनके दस्तख़त हैं, उनके लिखे सियासी-ग़ैरसियासी अख़बारी कॉलमों की सही-सही शुमारी कठिन है और प्रगतिशील आन्दोलन और ‘इप्टा’ वगैरह में उन्होंने कौन-से कारनामे अंज़ाम दिए इसी के दस्तावेज़ मिलना मुश्किल है. फिर भी सच यही है कि 1941-91 की (‘नया संसार’ से ‘बॉबी’ तक की) अर्धशती में अगर संसार-भर के करोड़ों लोगों ने उनका नाम जाना, जो आज डीवीडी, इन्टरनैट, एमआरक्यूई और आइऐमडीबी वगैरह के ज़रिये ‘और अमर’ है, तो वह सिनेमा के साथ उनकी सोहबत की वजह से ही है. लेकिन यह भी सच है कि अगर वह सिर्फ़ लेखक होते, पत्रकार या सांस्कृतिक-राजनीतिक-सैद्धांतिक सक्रियतावादी ही, तब भी जन्मशती मनाए जाने के अधिकारी होते.
दूसरी आलमी जंग शुरू होने से पहले ही युवा अब्बास वामपंथी हो चुके थे और मध्य-1941 में मार्शल योसिफ़ स्त़ालीन के नेतृत्व में जब सोवियत रूस विश्व-इतिहास के अब तक के सबसे बड़े हमले का मुक़ाबला कर रहा था और वर्ष के अंत तक जर्मनी की नात्सी फौजों को परास्त कर अपने यहाँ से खदेड़ देने वाला था, अब्बास ने अपने जीवन की पहली सिने-कहानी और पटकथा लिखी और इस तरह ‘नया संसार’ शीर्षक फिल्म बनी जो प्रतिबद्ध पत्रकारिता जैसे अश्रुतपूर्व विषय पर शायद पहली भारतीय फिल्म थी और अपने सामयिक आदर्शवाद के बावजूद ख़बरख़रीद के इस बेहया ज़माने में अब भी प्रासंगिक है. 1946 में चेतन आनंद ने ‘इप्टा’ की आर्थिक मदद से बनाई गई अपनी फिल्म ‘नीचा नगर’ की पटकथा लिखने के लिए अब्बास को चुना और इस फिल्म ने युद्धोत्तर पहले कान फिल्म समारोह में भारत के लिए पहला सह-ग्रांप्री हासिल कर इतिहास बनाया. अब्बास की इन दोनों उपलब्धियों ने उनके अपने हौसले और दूसरों के उनकी प्रतिभा में यकीन को इतना बढ़ाया कि उन्होंने बंगाल के दुर्भिक्ष सरीखे जोखिम-भरे विषय पर आधारित अपनी पटकथा पर ‘इप्टा’ के सहयोग से 1946 में ही ‘धरती के लाल’ जैसी कालजयी फिल्म का निर्माण और निदेशन किया. इस वर्ष को अब्बास के फ़िल्मी जीवन का परिभाषी या निर्णायक वर्ष कहा जा सकता है क्योंकि उनकी प्रतिभा को वी. शांताराम जैसे व्यावसायिक रूप से सफल, आदर्शवादी मराठी-हिंदी निर्माता-निदेशक ने पहचाना और अपनी फिल्म ‘डॉ कोटनिस (मूल मराठी में ‘कोटणीस’ है) की अमर कहानी’ की कहानी और पटकथा के लिए चुना. मुझे याद है कि 1946-47 में मुझ जैसे लाखों बच्चों तक की ज़ुबान पर इस फिल्म का नाम रहा करता था.
भारतीय सिनेमा के इतिहास में ऐसी सार्थक शुरूआत शायद ही किसी और लेखक-निदेशक को मिली हो लेकिन आज़ादी के वर्ष 1947 में जिस ‘आज और कल’ शीर्षक फिल्म का निदेशन अब्बास ने किया उसके बारे में सिर्फ़ यही पता चलता है कि उसमें श्याम, आरिफ़, नीता और नयनतारा ने काम किया था – गानों का भी कोई वजूद बचा नहीं है. ज़ाहिर है कि फिल्म अच्छी-ख़ासी फ्लॉप रही होगी क्योंकि उसके चार बरस बाद तक अब्बास को कोई काम नहीं मिला. लेकिन जब मिला तो ऐसा कि बहुत कम को नसीब होता है. अल्लाह बेहतर जानता है कि इस पूरे किस्से में कितना सच है लेकिन अब्बास अपनी नई स्क्रिप्ट लेकर महबूब के पास गए जिन्होंने कहा कि उसमें बाप के रोल में अशोक कुमार को लेंगे और बेटे के रोल में दिलीप कुमार को. अब्बास राज़ी न हुए. नर्गिस को मालूम पड़ा कि कहानी नायाब है. उसने राज कपूर को बताया. राज कपूर अब्बास से मिलने उस होटल में गया जिसमें अब्बास आठ आने प्रति रात्रि एक खटिया पर सोते थे. राज कपूर की जेब में बयाने के लिए डेढ़ रुपये थे लेकिन अब्बास ने कहा कि इसे लौटने के किराये के वास्ते बचा ले जाओ. राज कपूर के अतिनाटकीय पापाजी पृथ्वीराज कपूर फिल्म के लिए राज़ी होंगे या नहीं इस पर भी सस्पैन्स रहा.
‘आवारा’ ने इतना इतिहास रचा जो कई सदियों पर भारी है. बेशक़ उसमें कुछ मेलोड्रामा है और कोर्ट-सीन को चीख़-पुकार के साथ खींचा गया है लेकिन वह शायद भारत की पहली ‘आधुनिक’ ‘वयस्क’ फिल्म है, जिसने सोवियत संघ और तत्कालीन कई पूर्वी और पश्चिमी विकासशील देशों के दर्शकों, सिनेमा और संगीत पर गहरा असर डाला और राज कपूर–नर्गिस की जोड़ी को भारत में ही नहीं, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अभूतपूर्व लोकप्रियता दी. बेशक़ ‘आवारा’ के हर 35 मि.मी. पर राज कपूर की मुहर है लेकिन खुद राज कपूर के किरदार पर अब्बास की अमिट छाप है. उसके बाद राज कपूर पहले जैसा नहीं रहा और जितना उसने बदलने की कोशिश की, ‘आवारा’ जैसा होता गया.
‘आवारा’ में अब्बास ने राज कपूर के किरदार को कैसा गढ़ा था यह देखते हुए नर्गिस ने 1952 में अब्बास से गुजारिश की वह उनके लिए एक ख़ास फिल्म लिखें और डायरेक्ट करें जिसमें बेशक़ हीरो राज कपूर ही रहे लेकिन नायिका के रूप में उनकी भूमिका ऐसी हो जैसी  पहले किसी हीरोइन की नहीं रही. अब्बास ने ठीक वही, बल्कि उससे ज़्यादा, कर दिखाया. ‘अनहोनी’ न सिर्फ़ पहली नारी-मनोवैज्ञानिक फिल्म थी बल्कि नायिका के ‘डुअल रोल’ वाली पहली ऐतिहासिक भारतीय फिल्म भी थी. हालाँकि नर्गिस बहुत बाद में ‘रात और दिन’ में भी ऐसी ही दुहरी भूमिका निभाने वाली थीं लेकिन ‘अनहोनी’ में अब्बास का यह करिश्मा खेल बदल देने वाला था. नर्गिस की वह भूमिका और अदाकारी कुछ महानतम उपलब्धियों में शुमार की जाती है और महिला-एक्टिंग की एक ‘प्रैक्टिकल’ पाठ्य-पुस्तक या ‘मास्टरक्लास’ की तरह है. सच तो यह है कि ‘अनहोनी’ में राज कपूर के साथ यह अनहोनी हुई कि वह नर्गिस के सहायक अभिनेता की तरह नज़र आया. लेकिन वह ज़माना पूर्णरूपेण टुच्चे ईगोटिज्म का न होकर कुछ ‘महान विचारों’, चुनौतियों तथा फ़न और हुनर को समर्पण का भी था. ध्यान रहे कि यह अब्बास की पहली aut फिल्म थी. 1952 में ’आन’, ’बैजू बावरा’, ’जाल’ और ‘दाग’ के बाद ‘अनहोनी’ ने बॉक्स-ऑफिस पर सबसे ज़्यादा कमाई की थी, हालाँकि वह 1950 के ‘आवारा’ से बहुत कम थी लेकिन फिल्म हिट थी.
अब्बास के फ़िल्मी जीवन में एक पैटर्न देखा जा सकता है. उन्होंने बीसियों फिल्मों का निदेशन किया और उस हैसियत से अंतर्राष्ट्रीय ख्याति अर्जित की लेकिन उस अहंकार में उन्होंने कभी-भी दूसरों के या ‘दूसरे’ सिनेमा के लिए कहानियाँ, पटकथा या संवाद लिखने से गुरेज़ नहीं किया. इसके पीछे एक मार्क्सवादी श्रमजीवी का ‘प्रोफ़ेशनलिज्म’ तो था ही, साथ में अपनी फ़िल्में अपनी कमाई, अपनी शर्तों और अपनी मर्जी से बनाने की एक प्रतिबद्ध रणनीति भी थी. उनके नाम से जुड़ी हुई कोई भी फिल्म यदि चर्चित या सफल होती थी तो उस ख्याति का फ़ौरन फ़ायदा उठा कर वह अपनी कोई नई फिल्म की घोषणा कर देते थे जिसमें अपनी यत्किंचित् पूंजी तो लगाते ही थे, पुराने या नए मित्रों, प्रशंसकों, आशावादी फ़िनान्सिअरों से भी पैसे उगाह लेते थे. यह उन्हीं की सूझ-बूझ नहीं थी, अनेक मुसीबतज़दा निर्माता-निदेशक आज भी ऐसा ही करते हैं. एक तो वह निस्बतन सस्ती फिल्मों का ज़माना था, दूसरे अब्बास को भी (कभी-कभी ज़रूरत से ज़्यादा) किफ़ायती फ़िल्में बनाना आता था. दरअसल वह वाजिब लागत की फ़िल्में ही बनाना चाहते थे. उनकी कुछ फ़िल्में अच्छी चलीं, कुछ अपनी लागत ही वसूल कर पाईं लेकिन बहुत कम इतनी नाकामयाब हुईं कि अब्बास दीवालिया होकर सड़क पर आ जाते.
1953 की फिल्म ‘राही’ शायद उनकी सबसे महत्वाकांक्षी फिल्मों में गिनी जाए. ब्रिटिश-कालीन चाय बागान की पृष्ठभूमि पर आधारित अपने प्रगतिशील-युग के मित्र मुल्कराज आनंद के विख्यात अंग्रेज़ी उपन्यास ‘टू लीव्ज़ एंड अ बड’ पर बनाई गई इस फिल्म में उस ज़माने की बॉक्स-ऑफिस जोड़ी देवानंद-नलिनी जयवंत और हिंदी फिल्मों के पहले और आख़िरी कम्यूनिस्ट और महान अभिनेता बलराज साहनी ने काम किया था और संगीत अनिल बिस्वास का था जिनकी फिल्म के शीर्षक पर आधारित कालजयी धुन ‘इस पल रुक जाना, जाने वाले राही’ और उपन्यास के शीर्षक पर आधारित कोरल  थीम-सॉंग ‘इक कली दो पतियाँ जाने हमरी सब बतियाँ’ पुराने नहीं पड़े हैं. कहा जाता है कि फिल्म टिकट-खिड़की पर मक़बूल रही थी लेकिन याद नहीं आता कि हमारे क़स्बे छिन्दवाड़ा तक पहुँची हो. उसके बाद, दुर्भाग्यवश, अब्बास ने बिना गानों की शायद पहली फिल्म ‘मुन्ना’ बनाकर एक जुआ खेला लेकिन पाँसे उलटे पड़े. फिल्म असफल रही पर इस योग्य समझी गई कि लन्दन में ‘पथेर पांचाली’ के साथ दिखाई जाए और पॉल रोथा उसकी सराहना करें. बहुत बाद में चेतन आनंद ने ‘मुन्ना’ की कहानी का इस्तेमाल ‘आख़िरी ख़त’ के लिए किया जो अपने अमर गीत ‘बहारो,मेरा जीवन भी संवारो’ के साथ सफल रही.
‘आवारा’ के सुपर-हिट कहानी-पटकथा-संवाद के यौगिक को दुहराते हुए राज कपूर ने 1955 में यह तिहरी ज़िम्मेदारी फिर अब्बास को सौंपी, जिसका अज़ीमुश्शान नतीज़ा था ‘श्री 420’, जो ‘आवारा’ से कहीं बेहतर फिल्म तो है ही, आज साठवें साल में भी इतनी अकाट्य है कि उससे एक फ़्रेम, एक शॉट, एक डायलॉग, एक आइडिआ निकालना लगभग असंभव है. ‘आवारा’ आज एक सीमित, आरोपित और ‘लेबर्ड’ समस्या लगती है जबकि ‘श्री 420’ अपने पहले चंद लम्हों में ही सर्वहारा और पूंजी के चिरंतन द्वंद्व में कूद पड़ती है. 1955 में अलाहाबाद यूनिवर्सिटी का सिर्फ़ एक गोल्ड मैडलिस्ट मुड़-मुड़ के न देखने के लिए सेठ सोनाचंद धर्मानंद की पत्तेबाज़ बम्बैया ‘दोल्चे वीता’ दुनिया द्वारा निगल लिया गया था, आज लाखों राज इसीलिए सुनहरी तमग़ा पाना चाहते हैं कि कैम्पस पर ही ‘बॉडी स्नैचर्स’ उन्हें आकर तिब्बत में सोने की ‘स्कैम’ दुनिया में ले जाएँ, उनके द्वारा लाखों को करोड़ों-अरबों से ठगा जाए, अपने निजी घर के सपने दिखलाकर नौदौलतिए सिन्धी, पंजाबी, मारवाड़ी बिल्डर मुंबई के झोपड़पट्टीवालों को फ़ुटपाथों पर फेक दें, ईमानदार, मेहनती निम्न और मध्यवर्गीय सुफ़ैदगरेबानों की ज़िंदगी-भर की जमा-पूंजी लूट कर चम्पत हो जाएँ.
अब्बास और राज कपूर के परस्पर बहुविध सहयोग का गहरा विश्लेषण शायद अब तक हुआ नहीं है. ‘आवारा’, ‘अनहोनी’, ‘श्री 420’, ‘जागते रहो’, ‘चार दिल चार राहें’, ‘मेरा नाम जोकर’, ‘बॉबी’ और (मरणोपरांत) ‘हिना’ के माध्यम से अब्बास ने बतौर निर्माता, निर्देशक और अभिनेता के राज कपूर की, और एक निर्माण-गृह के रूप में आर.के.फिल्म्स की, जो छवि राष्ट्रीय-वैश्विक स्तर निर्मित की वह हिंदी फिल्म के इतिहास में अद्वितीय संगत है. दुर्भाग्य यह है कि इस चार दशक लम्बे साथ पर न तो राज कपूर ने सविस्तार लिखा और न अब्बास ने, और हमारे मित्र जयप्रकाश चौकसे तो दोनों को ख़ूब जानते हुए भी  ‘भास्कर’ के अपने प्रेम-लपेटे अटपटे कॉलम में ही मगन हैं. बहरहाल, ‘आवारा’ का शीर्षक भले ही चैप्लिन के ‘ट्रैम्प’ से प्रेरित हो, उसमें राज कपूर का किरदार मार्लन ब्रैंडो या जेम्स डीन के ज़्यादा करीब है लेकिन वह पहले ही दिलीप कुमार का इलाका बन चुका था, इसलिए ‘श्री 420’ में अब्बास ने मूलतः वामपंथी चार्ली चैप्लिन से सीख कर राज कपूर को जो पहली बार आपादमस्तक ‘चैप्लिनिस्क’ ‘कॉमिक हीरो’ बनाया उसने उनकी वह छवि सदा-सर्वदा के लिए पेटेंट कर दी. यूँ राज कपूर जब भी अपनी वाली पर आते थे तो दिलीप की टक्कर के ट्रैजिक हीरो भी बन जाते थे – ‘श्री 420’ में ही उनका एक पुराना मुखौटा उतारने और नया पहनने का सीन है जो लाजवाब है, और फिल्म के टाइटिल्स के पीछे ग्रीक ट्रैजिक-कॉमिक मास्कों का बहुत सार्थक इस्तेमाल किया गया है - लेकिन उनमें थोड़ी रूमानियत रहती ही थी, दिलीप-जैसा अस्तित्ववादी ‘मिस्टीक’ आ नहीं पाता था.
‘श्री 420’ में चार्लियत और चैप्लिनीयता के इतने तत्व हैं कि उस पर सिनेमा में एम.फ़िल. की एक तुलनात्मक शोध-निबंधिका लिखी जा सकती है. अब्बास में यदि राज कपूर के क़द-बुत, शरीर-भाषा, सलाहियत, प्रतिभा वगैरह की समझ न होती और राज कपूर अब्बास के दिमाग़ और ‘कमिटमेंट’ को जान न पाया होता तो यह फिल्म जैसी बनी है वैसी बन ही न पाती. इसमें छोटे-से-छोटा ‘केमिओ’ या ‘एक्स्ट्रा’ तक लगता है हमारे छिन्दवाड़ा के कुशल, अब दिवंगत, ‘मास्टर-क्राफ्ट्समैन’ छुट्टू कुम्हार द्वारा अपने चाक पर गढ़ा गया है. मैं इसे राज कपूर की सबसे बड़ी फिल्म मानता हूँ लेकिन अब्बास की लेखनी के बिना यह इतनी बुलंदी छू ही नहीं सकती थी. अब्बास के बगैर भी राज कपूर ने सफल फ़िल्में बनाईं मगर  उनमें सार्थकता और बौद्धिक कलात्मकता का अभाव ही रहा. आज साठ वर्ष बाद भी ‘श्री 420’ का जादू कम नहीं हुआ है, जिसमें संगीत की अहम भूमिका को नकारा नहीं जा सकता. लेकिन अब्बास की महान उपलब्धि है पूंजीपति खलनायक सेठ सोनाचंद धर्मानंद का किरदार, जिसके लिए नीमो को मानों स्वयं ईश्वर ने अपने हाथों से रचा था. उन्हें ‘कास्ट’ करने का कमाल किसका था यह मालूम नहीं लेकिन अब्बास ने नीमो को जो शख्सियत, दृश्य और संवाद दिए हैं वह अद्भुत हैं. उनका ‘पीपलीनगर में कपड़े ही कपड़े हैं’ और ‘नो,राज,नो’ कहने का अंदाज़ बेमिसाल है. 1955 में पता नहीं कितने सेठ सोनाचंद थे, आज तो हर कॉर्पोरेट हाउस, अखबार और टीवी चैनल का सी.ई.ओ. उसका वंशज नज़र आता है. अब्बास ने अपनी प्रतिबद्ध पत्रकारिता से ‘श्री 420’ को कितना मालामाल किया है, इसका भी विश्लेषण अभी होने को है. सेठ सोनाचंद धर्मानन्द से अधिक ‘कम्प्लीट’ खलनायक हिंदी परदे पर फिर दिखाई न दिया. सिर्फ़ नीमो के लिए यह फिल्म बार-बार देखी जानी चाहिए.
‘जागते रहो’ में राज कपूर का एकमात्र, अंतिम एकालाप फिल्म का खुलासा है. उसके बाद अब्बास ने सोवियत संघ के सहयोग से निर्मित अपनी महत्वाकांक्षी हिंदी-रूसी फिल्म ‘परदेसी’ का पटकथा-लेखन-निदेशन किया, जिसके रूसी रूपांतर के निदेशक वासिली प्रोनीन थे. अफ़ानासी निकीतीन नामक एक ईसाई रूसी व्यापारी, जो भारत आने वाला दूसरा यूरोपीय व्यक्ति था, 15वीं सदी में किसी तरह महाराष्ट्र. कहते हैं आज की मुंबई के पास के एक गाँव में, पहुँच सका और तीन बरस इस देश में रहा. निकीतीन का मृत्यु-वर्ष 1472 ही मालूम है. उन दिनों उत्तर-पश्चिमी दक्षिण भारत पर देश की पहली आज़ाद मुस्लिम, बहमनी, सल्तनत का निज़ाम था जो दिल्ली के मोहम्मद बिन तुग़लक़ से बग़ावत के बाद वुजूद में आई थी. निकीतीन ने अपने भारत-प्रवास पर रूसी में ‘खोषदेनिए ज़ा त्री मोर्या’ (‘तीन समन्दरों का सफ़र’) शीर्षक से  बहुत दिलचस्प और मूल्यवान संस्मरण लिखे हैं और ऐसा शक़ किया जाता है कि वह (सुन्नी) मुस्लिम हो गया था. बहरहाल, वह वाक़ई भारत-रूस संबंधों का पहला, असली प्रतीक और प्रतिनिधि है. ‘परदेसी’ ऐतिहासिक नहीं, तत्कालीन सामाजिक फिल्म है जिसमें अफ़ानासी को एक मराठी, हिन्दू युवती चंपा की मुहब्बत की गिरफ़्त में दिखाया जाता है. ओलेग स्त्रीषेनौफ़, जिन्होंने निकीतीन की भूमिका निबाही थी, के बारे में अब तक पता नहीं चल सका है कि सोवियत संघ में उनकी ख्याति क्या थी – दरअसल भारत में देखे गए वह पहले और अंतिम रूसी हीरो थे – लेकिन चंपा का किरदार नर्गिस को मिला जिनसे उनकी ‘आवारा’ की घनघोर लोकप्रियता की वजह से लगभग हर सोवियत नागरिक परिचित था.
‘परदेसी’ जैसी फ़िल्मों की क्या मजाल कि वे सारे जहाँ से अच्छा अरुण यह मधुमय देश हमारा में चल भी पाएँ लेकिन अपरिचित, कमज़ोर, दढ़ियल, रूसी हीरो के बावजूद वह दिलचस्प है. नर्गिस, पद्मिनी, पृथ्वीराज कपूर और डेविड तो उसमें हैं ही, लोकशाहीर की भूमिका में बलराज साहनी और अनिल बिस्वास के संगीत पर गाया गया प्रेम धवन रचित उनका मन्ना डे और शुरूआती कोरस वाला उद्बोध-गीत ‘भई तुझमें राम मुझमें राम सबमें राम समाया’, जो आज भी रोंगटे खड़े कर देता है, अविस्मरणीय हैं. सोवियत सहयोग के कारण ‘परदेसी’ पहली भारतीय रंगीन वाइड-स्क्रीन सिनेमास्कोप फिल्म होने का श्रेय भी प्राप्त कर सकी. ‘अलविदा’ के लिए रूसी शब्द ‘दस्वीदान्या’ पहली बार इसी में सुना गया. इसके बाद अब्बास साहब ने ‘ज़िन्दगी या तूफ़ान’ जैसी अकालकवलित फिल्म के कहानी-संवाद लिखकर खुद को रुसवा किया.
उनके करिअर में ऐसे उतार-चढ़ाव आते ही रहे. ऐसा लगता है कि उनके भीतर जो क्लासिकी ‘एजिटप्रॉप’ कॉमरेड बैठा हुआ था उस पर जल्द नतीज़े और असर का शैदाई मुसन्निफ़-अख़बारनवीस ज़्यादा हावी था और वह उससे जाने-अनजाने कतराते थे, या उसकी परवाह नहीं करते थे, जिसे वह अपने लिए ज़रुरत से ज़्यादा ‘कलात्मकता’ या ‘कलावादिता’ समझते रहे होंगे. मैं राज कपूर को अब्बास का एक शरारती, तेज़ शागिर्द ही समझता हूँ जो जब-जब करें इरादे अपने उस्ताद की क्लास में जा बैठता भी था और ‘बंक’ भी करता रहता था. दरअसल अब्बास को शायद राज कपूर से लोकप्रिय कला का हुनर सीखना चाहिए था और राज कपूर को अपनी ग़ैर-अब्बासीय फिल्मों में उन-जैसा ‘कमिटमेंट’. इस पर बहस हो सकती है कि यदि राज कपूर (या बिमल रॉय,या हृषीकेश मुखर्जी) ‘राही’, ’ग्यारह हज़ार लड़कियाँ’, ‘शहर और सपना’, ‘आसमान महल’, ‘बंबई रात की बांहों में’, ‘सात हिन्दुस्तानी’, ‘द नक्सलाइट्स’ या ‘लव इन गोआ’ जैसी फ़िल्में बनाना चाहते तो क्या उनमें ज़्यादा ‘सफल’ रचाव-बसाव नहीं होता?
ऐसी सारी यदिकिन्तुवादी अटकलबाज़ी के बावजूद यह लगभग तय है कि 1959 में ‘चार दिल चार राहें’ जैसी प्रतिबद्ध किन्तु प्रयोगशील फिल्म बनाने की ख़ुद्कुशीपज़ीर दीवानगी सिर्फ़ अब्बास में थी. एक चौरस्ते पर तीन प्रेम कहानियाँ और एक शहादत की कथा – चारों में कोई सम्बन्ध नहीं – रेखागणित की तरह एक-दूसरे को अनजाने काटती हुई अपनी-अपनी कभी सफल कभी असफल राहों पर निकल जाती हैं. बहुत कम लक्ष्य किया गया है कि राज कपूर–मीना कुमारी की प्रेम-कथा हिन्दू सवर्ण उत्तराधिकारी और अनुसूचित जाति-बाल विधवा  की है, अजीत एक भोला-भाला दोटूक पठान मोटर-चालक और निम्मी एक ‘संभ्रांत’ तवायफ है, शम्मी कपूर एक अनाथ ईसाई युवक है और कुमकुम एक ग़रीब और शोषित आया, और जयराज अपनी जान से ज़्यादा अपने आन्दोलन से मुहब्बत करनेवाला सक्रियतावादी. गाँव की खापें और राज कपूर का अहीर-चौधरी परिवार शादी के ख़िलाफ़ हैं लेकिन हिंदी फिल्मों के एक महानतम दृश्य में दूल्हा बना हुआ अकेला राज कपूर एक मशाल और एक ढोलची के साथ संकरी गलियों से चौड़े-धाड़े धमधमाता गुज़रता हुआ अपनी दुल्हन मीना कुमारी को लिवाने जाता है. शम्मी कपूर ने एक छोटी-सी भूमिका में अपने जीवन की पहली और अंतिम मार्मिक एक्टिंग की है. मीना कुमारी, निम्मी, कुमकुम, अजीत सभी अपने उरूज पर हैं. साहिर ने मुकेश के लिए ‘नहीं किया तो करके देख’ और लता के वास्ते ‘इन्तिज़ार और अभी’ जैसे गीत लिखे हैं जिन्हें अनिल बिस्वास ने अमर कर दिया है. लेकिन फिल्म को चलना नहीं था सो नहीं चली. ‘बॉबी’ चली जिसने नौबालिग़ ऋषि कपूर-डिंपल को और अधेड़ प्रेमनाथ को स्टार बना दिया, और ज़ेबा बख्तियार को भारत में ‘हिना’ ने. कहानियाँ अब्बास की थीं.
1942-1980 के बीच अब्बास को सिनेमा के लिए दर्ज़नों छोटे-बड़े सम्मान और पुरस्कार मिले. उनकी कई फ़िल्में अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोहों के चक्कर लगाती रहीं. उन्होंने सिने-संसार को अनेक प्रतिभाएं दीं. लेकिन एक दोस्त फिक्रमंद बाप ने उन्हें ख़त लिखा कि उसका बेटा फिल्म-लाइन में स्ट्रगल कर रहा है, हो सके तो उसे कैसा भी कोई चांस दो. बाप खुद कोई मामूली आदमी नहीं था, जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गाँधी के रिश्तेदार-जैसा था. सो अब्बास ने अपने दोस्त हरिवंशराय बच्चन के बेटे अमिताभ बच्चन को एक नौजवान बिहारी मुस्लिम शायर अनवर अली ‘अनवर’ के किरदार में 1969 में ‘सात हिन्दुस्तानी’ में ‘ब्रेक’ दिया. यह एक पूरी तरह सेauteur फिल्म थी. आज की नई दर्शक पीढ़ी, जो ख्वाजा अहमद अब्बास को न जानती है, न जानना चाहती है क्योंकि शायद जानने की सलाहियत नहीं रखती, इसी से तरद्दुद में पड़ सकती है कि अमिताभ बच्चन को ‘डिस्कवर’ करने वाले इस ख्वाजा को कैसे डिस्कवर किया जाए. जबकि खुद अब्बास ने अमिताभ की अपनी ‘खोज’ को कभी तूल नहीं दिया. वह तो उनके कारनामों की किताब में महज़ एक दिलचस्प, शायद ज़रूरी भी, फ़ुटनोट है. दूसरे तो इससे एक पूरी तिजारत कर लेते. देखा जाए तो खुद अब्बास आजीवन कई स्तरों पर एक महान स्ट्रग्लर रहे. ‘द नक्सलाइट्स’ सरीखी बाद की फिल्म को लेकर भी, जिसमें मिथुन चक्रवर्ती और स्मिता पाटिल थे और इंदिरा गाँधी तब जीवित थीं, वह परेशानी में पड़ चुके थे. उनकी मृत्यु से पहले ही भारतीय सिनेमा में उन जैसा कोई दूसरा प्रतिबद्ध फिल्मकार नहीं था और उनके बाद, विशेषतः अब, सुदूर भविष्य में भी, किसी युवा अब्बास की कल्पना कठिन है. यह ज़रूर है कि उनकी फिल्मों को, उनके पैग़ामों को, जो कई मुक़ाबलों और संघर्षों में हौसलाअफ़ज़ा और कारगर रहेंगे, नेस्तनाबूद कर पाना नामुमकिन साबित होगा. अगले सौ बरसों तक हमें एक बड़ा सहारा ख्वाजा अहमद अब्बास की फिल्मों का भी है

शुक्रवार, 25 जुलाई 2014

जिसने अपनी आवाज का कभी सौदा नहीं किया

ब्रायन सिलास का पियानो इस सदी की शुरुआत में पहली बार सुना था। तबसे अब तक सैंकड़ों बार। सिलास को सुनने के बाद ही यह कविता संभव हुई थी जो अन्‍यथा कई सालों से दिमाग में चक्‍कर लगा रही थी। आज सुबह से ब्रायन सिलास काे अनवरत सुनते हुए यह कविता भी याद आई।
पियानो

उसके विशाल पहलू में हमेशा
एक मनुष्य के लिये जगह खाली है
वह जगह दिन-रात तुम्हारी प्रतीक्षा करती है

उसे वही बजा सकता है
जिसे कुछ अंदाजा हो जीवन की मुश्किलों का
जो रात का गाढ़ापन, तारों का प्रकाश और चांद का एकांत याद रखता है

उसमें से, तुमने सुना होगा, मादक आवाज उठती है
जिसमें शामिल होता है एक रुंधा हुआ स्वर
जो किसी बेचैन आदमी का ही हो सकता है
जिसने कभी अपनी आवाज का सौदा नहीं किया
वही आवाज तुम्हें रोक लेती है बाजू पकड़कर
जैसे वह किसी धीरोदात्त का टूटता हुआ संयम है
अपनी कथा कह देने के लिये आखिर उद्यत

तुम्हारी तरह उसके भीतर भी पके गले से उठता कोई संताप है
और धीरे-धीरे फैलती हुई उमंग

उसे तमाम वाद्ययंत्रों के बीच देखो
वह उस राजा की तरह दिखेगा
जो संगीत के पक्ष में अपना राजपाट ठुकराकर यहां आ गया है

यह भी कह सकते हैं कि वह अपने होने में जंगल में शेर की तरह है
लेकिन मैं उसे हाथी कहना पसंद करूंगा
ध्यान दें, उसकी धीर गंभीर और बिलखती आवाज में
गुर्राहट नहीं, अपने को रोकती, खुद को पीती हुई एक चिंघाड़ है
जो भीतर के विलाप, क्राेध और अवसाद को बदल देती है संगीत में

क्या तुमने वह दृश्य देखा है
जब उसके कंधे पर सिर रखकर कोई उसे बजाता है
और वह अपना सब कुछ अपनी आवाज को सौंप देता है
यहीं दिख सकती है समुद्र और हवा के खेल में उसकी दिलचस्पी

उसे कौन छुयेगा ?
वही,   सिर्फ वही-
जो अपनी पहचान
        उसकी पहचान में खो सकता है।
0000

सोमवार, 7 जुलाई 2014

एक अत्‍यंत महत्‍वपूर्ण खबर

यह खबर जनसत्‍ता एक्‍सप्रेस की साइट http://www.jansattaexpress.net/electronic/7024.html# से साभार यहॉं दी जा रही है। कि वे लोग जो इस खबर को किन्‍हीं वजहों से नहीं पढ़ पाए, उन तक यह पहुँचे, खासताैर पर साहित्‍य-विचार से जुड़े साथियों के बीच। इस बीच अंग्रेजी आउटलुक सहित अन्‍य कुछ जगहों पर विस्‍तार से इस बारे में लेख और आमुख लेख भी प्रकाशित किए गए हैं। इस खबर को बहुत बुरे दिनों की पुख्‍ता सूचना की तरह भी पढ़ा जा सकता है।
 
हाल ही में रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड ने नेटवर्क-18 समूह की 78 फीसदी हिस्सेदारी खरीदने की घोषणा की है। इस सौदे के बाद समूह के सभी खबरिया चैनलों और वेबसाइटों का स्वामित्व रिलायंस के हाथों में चला आया है।

मीडिया में रिलायंस के विस्तार के अगले चरण में कुछ अखबारी घरानों आ सकते हैं। रिलायंस की नजर उन अखबारों पर है जो क्षेत्रीय स्तर पर विभिन्न राज्यों में अपनी मजबूत पकड़ रखते हैं।

इस कंपनी के कर्ताधर्ता मुकेश अंबानी हैं। उनके इस पहल ने साफ कर दिया है कि आगे वे भारतीय मीडिया पर कब्जा जमाने की दिशा में बढ़ गए हैं। वो भी एक मजबूत कदम के साथ। हालांकि, अब से दो साल पहले भी मुकेश अंबानी की कंपनी ने नेटवर्क-18 के साथ एक सौदा किया था, जिसके तहत देश के सबसे बड़े क्षेत्रीय टेलीविजन नेटवर्क ई. टीवी का अधिग्रहण किया था। तब तक इस मीडिया कंपनी में रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड की भूमिका प्रत्यक्ष न होकर परोक्ष थी। इन बातों को विस्तार से समझने से पहले यह जानना रोचक रहेगा कि रिलायंस का नेटवर्क-18 के साथ मौजूदा सौदा क्या है।

रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड ने मीडिया जगत में अपनी धमक बढ़ाने के लिए ‘इंडिपेंडेंट मीडिया ट्रस्ट’ का गठन किया है। इसी ट्रस्ट को रिलायंस की ओर से मीडिया कंपनियों में हिस्सेदारी खरीदने का काम दिया गया है। रिलायंस की पूर्ण स्वामित्व वाले इस ट्रस्ट ने ही नेटवर्क-18 समूह की 78 फीसदी हिस्सेदारी खरीदने की घोषणा हाल में की है। यह सौदा 4,000 करोड़ रुपए में हुआ है। इस सौदे के बाद समूह के सभी खबरिया चैनलों और वेबसाइटों का स्वामित्व रिलायंस के हाथों में चला आया है। इन चैनलों में सीएनबीसी, टीवी-18, सीएनएन-आईबीएन, आईबीएन-7, और सीएनबीसी आवाज प्रमुख है। इसके अलावा नेटवर्क-18 के पास कई सफल वेबसाइट्स हैं। इस सौदे के बाद इनका स्वामित्व भी रिलायंस के पास चला जाएगा।

भारतीय मीडिया जगत के इस सौदे को बेहद अहम इसलिए भी माना जा रहा है, क्योंकि रिलायंस 4-जी कारोबार में ‘रिलायंस जिओ’ के नाम से उतर रही है। कंपनी के पास 4-जी का देशव्यापी लाइसेंस है। जानकारों का मानना है कि कंपनी को अपनी इस सेवा के लिए कोई ऐसी मीडिया कंपनी चाहिए, जो उसे खबरों से संबंधित सामग्री मुहैया करा सके। माना जा रहा है कि रिलायंस कंपनी के इस सौदे के पीछे की यह भी एक बड़ी वजह है। हालांकि, मीडिया की बारीकियों को समझने वालों का कहना है कि अगर रिलायंस को सिर्फ अपनी इस सेवा के लिए सामग्री की जरूरत थी, तो वह किसी भी मीडिया कंपनी से इसके लिए अलग से समझौता कर सकती थी। इसके लिए कंपनी को अलग से 4,000 करोड़ रुपए के भारी-भरकम सौदे की जरूरत नहीं थी। यह भी माना जा रहा है कि रिलायंस का हालिया कदम उसकी एक लंबी अवधि की योजना का हिस्सा है, जिसके तहत रिलायंस न सिर्फ भारतीय मीडिया जगत पर कब्जा जमाना चाहता है, बल्कि इसके साथ-साथ वह भारत में सूचनाओं के प्रचार-प्रसार पर भी अपना नियंत्रण स्थापित करना चाहता है।

बहरहाल, रिलायंस की ओर से नेटवर्क-18 का अधिग्रहण करने की खबर आने के बाद से इस खबरिया समूह में अफरा-तफरी का माहौल है। यहां काम करने वाले कई पत्रकारों ने इस्तीफा दे दिया है। समूह के निदेशक राघव बहल ने भी इस्तीफा दे दिया है। सीएनएन-आईबीएन के प्रधान संपादक राजदीप सरदेसाई और सागरिका घोष महीने भर की लंबी छुट्टी पर चले गए हैं। हालांकि, चर्चा यह भी है कि मुकेश अंबानी के करीबी मनोज मोदी ने राजदीप सरदेसाई से चैनल में बने रहने को कहा है। उन्हें भरोसा दिलाया गया है कि उनके काम करने की आजादी बनी रहेगी। लेकिन इसका मतलब यह नहीं होगा कि उन्हें पूरी तरह से संपादकीय आजादी मिली रहेगी। खैर, कंपनी के मुख्य वित्त अधिकारी ने भी कंपनी को अलविदा कह दिया है।

इस सौदे का अहम पहलू यह है कि अब रिलायंस का मीडिया समूह जो स्वरूप लेगा, उससे वह देश का सबसे बड़ा मीडिया समूह बन जाएगा। यहीं से देश की मीडिया के सामने सबसे बड़ा संकट पैदा होने का खतरा बन गया है। भारत में अभी कोई ऐसा कानून नहीं है, जिसके तहत मीडिया में एकाधिकार को रोका जाए। अमेरिका जैसे देशों में यह कानून है। भारत को विविधताओं वाला देश कहा जाता है, जो हर क्षेत्र में दिखलाई देता है। देश में जिस तरह की सांस्कृतिक और सामाजिक विविधता है, उसी तरह की विविधताएं मीडिया और इसके जरिए प्रसारित होने वाले सूचनाओं में भी दिखती हैं। लेकिन किसी एक कंपनी का मीडिया जगत पर एकाधिकार होगा तो इसका सबसे बड़ा खतरा इसकी विविधता पर होगा। इसके अलावा अगर एक ही कंपनी मीडिया के बहुत बड़े हिस्से पर नियंत्रण रखेगी तो एक खतरा यह भी बना रहेगा कि वह खबरों और सूचनाओं को अपने हिसाब से प्रसारित करे। उन खबरों को अपने हिसाब से खास दिशा में मोड़कर जनमत को प्रभावित करने की कोशिश करे।

रिलायंस को लेकर पहले से ही मुख्यधारा की मीडिया में भय का माहौल है। इसका हालिया उदाहरण वरिष्ठ पत्रकार परांजॉय गुहा ठाकुरता की किताब ‘गैस वॉर’ से जुड़ा है। ठाकुरता ने इस किताब में कृष्णा-गोदावरी बेसिन में रिलायंस की ओर से की गई गड़बड़ियों का विस्तार से वर्णन किया है। इतनी महत्वपूर्ण मुद्दे पर लिखी गई इस किताब को लेकर मुख्यधारा की मीडिया में गजब की खामोशी रही। मुख्यधारा के अखबारों और खबरिया चैनलों ने इस किताब पर कोई चर्चा नहीं की। इस खामोशी की वजह हर किसी को समझ में आ रही थी। दरअसल, मामला सीधे रिलायंस से जुड़ा था, इसलिए कोई भी मीडिया समूह इस पर कुछ बोलना नहीं चाह रहा था। कई मीडिया कंपनियों में रिलायंस ने प्रत्यक्ष या फिर अप्रत्यक्ष तौर पर हिस्सेदारी खरीद रखी है। कई वरिष्ठ पत्रकारों ने साझा बयान जारी कर मीडिया की इस खामोशी पर हैरानी भी जताई।

अब थोड़ा पीछे लौटते हैं। तब यह बात स्पष्ट हो जाती है कि मीडिया में रिलायंस की ओर से अपनी धमक बढ़ाने की यह पहली कोशिश नहीं है। इससे पहले भी रिलायंस ने नेटवर्क-18 को ई. टीवी समूह का अधिग्रहण करने के लिए 1,700 करोड़ रुपए का कर्ज दिया था। बदले में रिलायंस को अन्य फायदों के साथ-साथ 4-जी नेटवर्क के लिए सामग्री मुहैया कराने का वादा संबंधित समूह ने किया था। यह सौदा 2012 में आरआईएल के साथ हुए नेटवर्क-18 के करार का हिस्सा था। नेटवर्क-18 समूह ने ई. टीवी उत्तर प्रदेश, ई. टीवी मध्य प्रदेश और ई. टीवी राजस्थान सहित क्षेत्रीय हिंदी समाचार चैनलों में सौ प्रतिशत हिस्सेदारी खरीदी थी। साथ ही इसने ई. टीवी मराठी, ई. टीवी कन्नड़ और ई. टीवी बांग्ला सहित मनोरंजन चैनलों में 50 प्रतिशत हिस्सेदारी खरीदी थी। इसके अलावा समूह ने ई. टीवी तेलुगू और ई. टीवी तेलुगू न्यूज की 24.5 प्रतिशत हिस्सेदारी खरीदी थी।

यदि इससे भी पहले जाएं और बीती शताब्दी के अस्सी के दशक को याद करें तो यह साफ होता है कि अंबानी बंधु के पिता धीरूभाई अंबानी की दिलचस्पी भी मीडिया में थी। कंपनी के पास बिजनस एंड पॉलिटिकल ऑब्जर्वर के अलावा संडे ऑब्जर्वर जैसे अखबार थे। जानकार बताते हैं कि उस वक्त रिलायंस ने इन अखबारों को इंडियन एक्सप्रेस के मुकाबले खड़ा करने की कोशिश की थी, क्योंकि इंडियन एक्सप्रेस ने रिलायंस के खिलाफ लगातार खबरें प्रकाशित कर रहा था। दरअसल, इंडियन एक्सप्रेस अखबार रिलायंस और इंदिरा गांधी के आपसी संबंधों और इससे कंपनी को हुए लाभ को लेकर खबरें प्रकाशित कर रहा था। लेकिन उस दौर की तुलना में अगर मौजूदा दौर को देखें तो एक बड़ा फर्क यह नजर आता है कि उस समय एक नई मीडिया कंपनी को खड़ा करने की कोशिश कॉरपोरेट घराने करते थे। अब वे पहले से चल रही नामी कंपनियों को ही खरीद रहे हैं। रिलायंस की ओर से नेटवर्क-18 का अधिग्रहण इसी कड़ी का हिस्सा माना जा रहा है।

जब ई. टीवी के अधिग्रहण के लिए रिलायंस ने नेटवर्क-18 को कर्ज दिया था, उसी समय से इस समूह के खबरिया माध्यमों में रिलायंस के खिलाफ खबरें दिखनी बंद हो गईं। यह बात कोई और नहीं, बल्कि उसी समूह से निकले हुए लोग बता रहे हैं। जब रिलायंस से संबंधित कोई साक्षात्कार होना होता था तो उसके लिए तैयार किए गए सवालों को कई स्तरों से गुजरना पड़ता था। इनमें से कई वैसे सवाल निकाल दिए जाते थे जो रिलायंस के लिए परेशानी पैदा करने वाला हो सकता था।

इसके बावजूद रिलायंस के हाथों नेटवर्क-18 छोड़कर जा रहे राघव बहल अपने कर्मचारियों और पत्रकारों को भेजे आखिरी ई-मेल में लिखते हैं, “पूर्व और वर्तमान में उनकी टीम के साथ हजारों साथी जुड़े रहे। जिन्होंने अपने तेजस्वी कर्मों से नेटवर्क-18 को ऐसी स्थिति में पहुंचाया, जहां वह आज है। मैं इसके लिए उनका हार्दिक आभारी हूं। अंबानी एक अच्छे इंसान हैं और हमें इसमें कोई संदेह नहीं है कि नेटवर्क-18 इस व्यवस्था में आगे बढ़ने में कामयाब होगा। आप सभी के पास उत्साहित और आशावादी रहने की वजह मौजूद है।”

यह बताना जरूरी है कि नेटवर्क-18 से निकलने और कंपनी में उनके शेयरों के बदले राघव बहल को 707 करोड़ रुपए मिल रहे हैं। इसलिए अगर राघव बहल यदि मुकेश अंबानी के पक्ष में बोल रहे हैं तो इसमें किसी को कोई अचरज नहीं होना चाहिए। जानकारों का मानना है कि रिलायंस कंपनी इस योजना पर काम कर रही है कि आने वाले दिनों में वह नेटवर्क-18 समूह के तहत कई और मीडिया कंपनियों का अधिग्रहण करेगी।

मीडिया में रिलायंस के विस्तार के अगले चरण में कुछ अखबारी घरानों आ सकते हैं। रिलायंस की नजर उन अखबारों पर है जो क्षेत्रीय स्तर पर विभिन्न राज्यों में अपनी मजबूत पकड़ रखते हैं। दरअसल, रिलायंस एक ऐसे रास्ते पर बढ़ चला है, जिसमें सूचना तंत्र पर उसकी मजबूत पकड़ हो और वह अपने हितों के हिसाब से सूचनाओं के प्रसार पर अपना नियंत्रण बनाए रख सके।

मंगलवार, 1 जुलाई 2014

साहित्य में पूँजीवाद का ग्लूकोज

करीब साल भर पहले लिखी एक टीप का पुनर्लेखन।
यह संतुलनवाद है

जब पैसा पास में आ जाता है तो विचारधारा अनावश्यक जान पड़ने लगती है। आज साहित्य में नवधनाढ्यवर्ग कहीं अधिक ताकत के साथ घुस गया है और वह लगातार विचारधारा के विरोध में बात करता है। जबकि वह लगभग अपढ़ है। उसने अपने मंच बना लिए हैं, लघु पत्रिकाओं तक को वित्तीय सहायता प्रदान कर दी है। आप ऐसे लोगों को जरा नजदीक से देखें, जानें तो पता चलेगा कि इनके पास काफी धन-संपत्ति है। या ये ऐसी नौकरी में है जहाँ प्रचुर आर्थिक सुरक्षा है। शानदार पेंशन है। या बेहतर व्यवसाय है। अति साधन-संपन्नता है। जैसे ही धन का प्रवेश होता है, विचारधारा गायब होने लगती है। क्योंकि विचारधारा रहेगी तो खुद के खिलाफ ही मुश्किल पेश करेगी।

फिर ये  लोग अपनी मतिमंदता छिपाने के लिए मानवतावाद की दुहाई देने लगते हैं। जबकि शोषक भी मानव होता है और शोषित भी। अत्याचारी भी मनुष्य ही होता है और प्रताडि़त व्यक्ति भी मनुष्य है। फोर्ब्‍स सूची के अमीरों में भी मनुष्यों के नाम दर्ज हैं और निर्धनतम लोगों में भी मनुष्य ही रहते आए हैं। मानवतावाद की आड़ में आप पक्षधर होने से बचना चाहते हैं। अपनी राय और अपनी सहानुभूति को जाहिर नहीं करना चाहते। साहित्य में और जीवन में भी वंचित समाज के साथ खड़े नहीं होना चाहते। लेखक को विचारशील, पक्षधर की तरह पेश होना होता है, मानवाधिकार आयोग के माननीय सदस्य की तरह नहीं।

यहीं वे कारण हैं कि इधर वे तमाम पत्रिकाएँ, जिनमें हमारी अनेक आदर्श लघु पत्रिकाएँ भी शामिल हैं, जिन्हें अब हर तरफ से विज्ञापन चाहिए, आर्थिक सहारे चाहिए, अफसरों-व्यापारियों की कृपा चाहिए क्योंकि उन्हें पत्रिका से कमाई करना है, उन सबमें आप देख सकते हैं कि पिछले रास्तों से समावेशी दृष्टि प्रवेश कर चुकी है। उनकी विचारधारा क्षीण हो गई है और एक उदार छबि बनती जा रही है। वामपंथ या पक्षधरता उनके स्वभाव और आकांक्षा से विलोपित हो रही है। भले ही वे आज भी पक्षधर पत्रिका होने की घोषणा करती हैं। वे सच्ची आलोचना का एक प्रखर वाक्य भी हजम नहीं कर सकतीं। तुरंत वमन देखने को मिलेगा। लेकिन मजे की बात है कि वे लेखकों को मौके-बेमौके गरियाती-लतियाती रहती हैं कि लेखक प्रतिरोध नहीं कर रहे हैं। जबकि जितना भी प्रतिरोध सामने आ रहा है वह लेखकों की तरफ से ही संभव हुआ है। यद्यपि उस प्रतिरोध को समाज में तवज्जो नहीं मिल रही है, यह एक पृथक विचारणीय प्रश्न है, इसकी अनेक वजहें समाज में हैं। यह पराभव भी सामने है कि ऐसी पत्रिकाओं में दक्षिणपंथी विचार के लेखकों और दोयम दर्जे के रचनाकारों को जगह मिलना शुरू हो गई है, जबकि कुछ समय पहले इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। वे हर हाल में लोकप्रियता की तरफ बढ़ना चाहती हैं, उनके लिए श्रेष्ठता का और परिर्वतनकामी स्वप्न भंग हो चुका है। वे संतुलनवादी हो रही हैं।

दरअसल, यह पूॅंजीवाद है और धनलिप्सा है जो रिसकर सब दूर शिराओं में पैठ गई है। इसलिए इधर साहित्यिक गोष्ठियों में, पत्रिकाओं में कहीं कोई विचारोत्तेजक विमर्श नहीं है, कोई मतभेद नहीं, कोई झगड़ा-टंटा नहीं, चिंता की कोई लकीर नहीं है, एक सहज आश्वस्ति है, मित्रभाव है, बेधड़क आशा है और ‘हाई-टी’ है। तथा जो प्रतिवाद, यथार्थ और स्‍वप्‍न से संचालित लेखन है, उसके प्रति अवहेलना है।
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बुधवार, 25 जून 2014

पिछले साठ वर्षों से हिंदी कविता का स्थायी मिज़ाज जन-पक्षधरता का रहा है



श्री विष्‍णु खरे द्वारा लिखित 'प्रतिनिधि कविताऍं' की भूमिका के कुछ अंश, जिनमें पिछले कुछ वर्षों की हिंदी कविता का एक जायजा शामिल है। शायद यह रुचिवान पाठकों को दिलचस्‍प लगेगा।

1970 तक यह लगभग तय हो चुका था कि हिंदी कविता की प्रासंगिक (चाहें तो उसे ‘प्रमुख’ या ‘केन्द्रीय’ भी कह लें) धारा मुक्तिबोध की आधारभूत प्रतिबद्ध चराचर चेतना, अधुनातन वैचारिकता, वैज्ञानिक ब्रह्मांडीय मीमांसा तथा रघुवीर सहाय के दैनंदिन, ज़मीनी, जन-पक्षधर राजनीति-बोध से मिलकर ही बनेगी, यद्यपि दोनों में निजी जीवन-तत्व भी कम महत्वपूर्ण नहीं हैं. बेशक़ इसमें सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, नागार्जुन, शमशेर बहादुर सिंह, भवानी प्रसाद मिश्र, त्रिलोचन आदि का न्यूनाधिक योगदान भी स्पष्ट देखा जाएगा और जो समर्थ युवतर कवि ‘चाँद का मुँह टेढ़ा है’ (मुक्तिबोध,१९६४) और ‘आत्महत्या के विरुद्ध’ (रघुवीर सहाय,१९६७) के आसपास उस मुख्यधारा से जुड़े वे भी अपने तब तक के अनुभवों और प्रतिभा से उसमें कुछ निजी और नया जोड़ पाए. स्वयं रघुवीर सहाय ने 1980 तक अकुंठ-भाव से पहचान लिया था कि उनके सिलसिले में, भले ही कुछ अलग, एक कनिष्ठ पीढ़ी काव्य-परिदृश्य पर आ चुकी है.

इस युवतर पुश्त ने शायद यह समझ लिया था कि कविता का दायरा अब उत्तरोत्तर फैलता ही जाएगा – उसे अंतर्राष्ट्रीय राजनीति, विचारधारा और कविता का भी वह समुत्सुक और समझदार अहसास था जो उससे पहले हिंदी में उतना कभी नहीं था – और एक प्रतिबद्ध विवेकशील विश्व-बोध के अंतर्गत वह एक साथ ‘सभी कुछ’ की और ‘अभी की नहीं तो कभी की नहीं’ कविता होती चली जाएगी. इस कविता के लिए किंचित् नई भाषा,शैली और शिल्प की दरकार होगी और सभी जड़-चेतन को, सम्पूर्ण सृष्टि को देखने का मानस-विन्यास भी न्यूनाधिक बदलना होगा – बल्कि नई स्थिति में यह सब स्वयं बदलते जाएँगे. इस प्रक्रिया में वह पहले कभी मुक्तिदायिनी समझी गई किन्तु अब कभी-कभी अवरोधक ‘पद्यात्मकता’ के बंधों को खोलती हुई एक जोखिम-भरी लेकिन सर्वसुलभ ‘आभासी’ ‘गद्यात्मकता’ तक पहुँच जाया करेगी.

यदि कहा जा रहा है कि ब्रह्मांड भी एक नहीं, अनेक हैं तो कविता को भी अपनी नई-नई समष्टियाँ खोजनी-बनानी-उच्चारनी होंगी – सिर्फ दो चीज़ें नहीं बदलेंगी, बदलने नहीं दी जाएँगी – सारी कायनात में जो श्रेयस्कर है उसे सर्वथा बचाने में सहयोग और जो कुछ भी उसे नष्ट करना चाहे उसे पूरे पूर्वाग्रह के साथ नष्ट कर डालने का समर्थन. 1964-67 के बीच मुक्तिबोध और रघुवीर सहाय के कारण हिंदी कविता ने जो सघन एजेंडा हासिल किया, 1970 के दशक की पीढ़ी ने उसका लगभग कल्पनातीत, किन्तु अधिक व्यावहारिक, अनुप्रयोज्य विस्तार करना शुरू किया और कविता की जिम्मेदारियों को हमेशा के लिए अभिव्यक्ति के सभी खतरे उठाने की अप्रत्यावर्ती सीमाओं तक पहुँचा दिया; इस तरह आज मौजूद सारी प्रासंगिक कवि-पीढ़ियों के सामने जहाँ सृजनशीलता के अक्षुण्ण संसार खोल दिए गए, वहीं सार्थक, प्रतिबद्ध, उत्कृष्ट कविता लिख पाना एक चुनौती-भरा उपक्रम बन गया. इस दुनिया में प्रवेश सब का था, शर्त सृजन-संकल्प और अपनी जगह खुद खोजने-बनाने की थी.

जब हम यह कहते हैं कि 1980 के दशक के युवा कवियों को मुक्तिबोध-रघुवीर सहाय-1970-79 की कविता उपलब्ध थी तो हम यह भी मान रहे होते हैं कि उनका परिचय प्रत्यक्ष या परोक्ष, गंभीर या सरसरी तौर पर 1950-60-70 के दशकों की वृहत्तर कविता से भी रहा होगा. यह तीस वर्ष सहज ही आधुनिक हिंदी काव्य के सर्वाधिक महत्वपूर्ण, केन्द्रीय वर्ष कहे जा सकते हैं जिनमें मैथिलीशरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी, जयशंकर प्रसाद को छोड़कर तीनों बड़े ‘छायावादी’, तीनों सप्तकों के सारे कवि, अनेक क्लासिकल और नव-प्रगतिवादी कवि, राष्ट्रवादी और स्वच्छंदतावादी कवि, ’नई कविता’ के कवि,’ आधुनिकतावादी’ कवि, ’नवगीतात्मकतावादी’ कवि, ’अकविता’ के कवि, अनेक प्रकार के ‘मंचीय’ कवि, सक्रियतावादी वामपंथी कवि और फिर उपरोक्त ’70 की दहाई के अपेक्षाकृत युवा कवि, अपनी-अपनी प्रासंगिकताओं-अप्रासंगिकताओं के साथ, कभी एक ही अवधि में कभी अलग-अलग, कभी समूहों में कभी व्यष्टिक, मौजूद थे. यूँ तो कोई भी ‘दशक’ किसी भी पंचांग, तिथि और घड़ी से सुनिर्धारित नहीं होता, फिर वह पिछले ‘दशक’ का ‘विस्तार’ और आगामी ‘दशक’ का ‘स्रोत’ ही होता है, यानी जब तक कोई असंदिग्ध एलियटीय ‘संवेद्यता-विच्छेद’ (‘डिसोसिएशन ऑफ़ सेंसिबिलिटी’) न हो तब तक सारी कथित समय-अवधियाँ अलग लगती हुई भी एक-दूसरी से गुँथी हुई ही होती हैं, फिर भी उपरोक्त तीस वर्षों का कविता- काल-खंड, सब कुछ के बावजूद, हैमिंग्वे के पैरिस-जैसा “मूवेबिल फ़ीस्ट” था, जब, वर्ड्सवर्थीय शब्दों में, “ब्लिस इट वाज़ इन दैट डॉन टु बि अलाइव, बट टु बि यंग वाज़ वैरी हैवन !”

काव्यलोक का विस्तार और वैविध्य ‘निराला’, शमशेर, भवानीप्रसाद, त्रिलोचन, मुक्तिबोध और रघुवीर सहाय में अलग-अलग मिज़ाज और मात्रा का है लेकिन उनमें से ‘निराला’ और शमशेर ने अपेक्षाकृत संकोचहीनता से अपने निजी ब्यौरों,  हताशाओं,पराजयों को छिपाया नहीं, उनकी तरसप्रेरक नुमाइश नहीं की – औरों ने भी नहीं की – क्योंकि उन्होंने स्वयं को अवतार-पुरुष या अतिमानव नहीं बल्कि आम इंसान ही बताया. काव्य में वैविध्य केवल बाह्य का नहीं, आंतरिक या ‘आत्म’ अथवा ‘स्व’ का भी है और यह मात्र कोई आध्यात्मिक योगमुद्रा नहीं है, इसका वास्ता बहुत ‘सांसारिक’ मनोलोक से है. संस्कृत का कवि तो निर्वैयक्तिक है, वह अपने जीवन, मनोलोक, भावनाओं की बात तो दूर, अपना नाम तक सार्वजनिक करने में संकोच करता है. उसने एलिअट से सदियों पहले व्यक्तित्व-विलोपन कर रखा था. अपनी विचारधारा, आस्था, पक्षधरता, विद्रोह, जय-पराजय, परिवेश, अपराध-बोध, आत्मकथा के ब्यौरे आदि हिंदी में पहली बार इतने दो-टूक और निस्संकोच रूप से शायद कबीर में आते हैं, कुछ मीरा में, आंशिक रूप से तुलसीदास के मानसेतर काव्य में और उसके बाद इतनी शिद्दत से ‘निराला’ में. फिर हिंदी कविता अनेक तरीकों से अपने निजी संघर्षों को भी मुखरित करने की सारी पर्दादारी तर्क कर देती है. उर्दू शाइरी का एक हिस्सा हमेशा-से इकबालिया रहा है लेकिन हिंदी में बाकायदा वैसा हुए अभी सौ बरस भी नहीं हुए हैं. अब हिंदी कवि सिर्फ खुद को नहीं देखता बल्कि अपने निकटतम परिवार,मित्रों,परिचितों-अपरिचितों, पहले और आख़िरी बार मिल या दिख जानेवालों, सजीव-निर्जीव वस्तुओं-प्राणियों,घटनाओं,स्थितियों ’स्टिल लाइफ़’ – गोया जितनी भी मुमकिन हो उतनी दुनिया - को अपनी कविता में जगह और ज़ुबान देने लगता है. यह प्रक्रिया,जो ‘मैक्रो’ और ‘माइक्रो’ दोनों स्तर पर है, ’70 के दशक से कविता को अधिकाधिक लोकतंत्रीय और वैश्विक बनाने लगती है और वाक़ई सिद्ध कर देती है कि कविता के क्षेत्र में प्रबुद्ध और प्रतिबद्ध कवि के लिए कुछ भी और कोई  भी वर्जित, ’आउट ऑफ़ बाउन्ड्स’ नहीं है. ब्रह्माण्ड में कुछ भी अकाव्यात्मक नहीं है – जो कविता में है वही बाहर है और जो कविता में नहीं है वह कहीं नहीं है. कविता में वर्ग-व्यवस्था, वर्ण-व्यवस्था, जाति-भेद, लिंग-भेद, धर्म-भेद नष्ट होने लगते हैं.

पिछले साठ वर्षों से हिंदी कविता का स्थायी, अभिभावी मिज़ाज जन-पक्षधरता का रहा है, भले ही अधिकांश कवि पार्टी-या यूनियन-सदस्य न हों न होना चाहें, न क्लासिकल या नव-मार्क्सवाद पढ़े हों, बल्कि कुछ  पढ़ना भी न चाहते हों – एक आधारभूत साम्यवाद तो हमेशा मानवता में रहा है और रहेगा - यहाँ तक कि उनमें से कुछ को अलग-अलग कारणों से मार्क्स और मार्क्सवादियों से एक स्वस्थ नफ़रत हो या वे उन्हें कुछ कुतूहल और परिहास-भाव से देखते हों. इसका एक कारण तो यही है कि अधिकांश घटिया पत्रिकाओं में और सभी परिवारों के वामपंथी लेखक-संघों में धूर्त, मौक़ापरस्त, छद्म, कैरिअरवादी और शुद्ध मूर्ख मार्क्सबाज़ पापे छा गए. इनमें अकादमिक ग़ैर-अकादमिक ‘आलोचक’ भी घुस गए हैं. ज़ाहिर है लेखन भी इन ढोंगियों से बचा न होगा. लेकिन साहित्य में अब भी कुछ ऐसा है, और इसकी तफ़्तीश और विश्लेषण बहुत मनोरंजक  हो सकते हैं, कि जो ‘होक्स’ और ‘फ्रॉड’ हैं वे भी जानते-मानते हैं कि कौन असली है और कौन उनकी (व्यापक) बिरादरी का. मेरा हमेशा यह मानना रहा है कि कलाकार के रूप में आप अपना सर्वोत्तम और मार्क्सवादी के रूप में अपना क्रूरतम नैतिक देने की महत्तम कोशिश नहीं करते तो आप न तो सही आर्टिस्ट हैं न सही मार्क्सिस्ट.