शनिवार, 29 सितंबर 2012

लेकिन वह तो परम्‍परा है

ब्‍लॉग के अपहरण के बाद फिर वह बरामद हुआ। 
फेसबुक के जरिए मित्रों ने इसमें तत्‍काल योगदान दिया।

बहरहाल, यह एक नई पोस्‍ट। 
यह कविता।

अकेले का विरोध

तुम्हारी नींद की निश्चिंतता में
वह एक कंकड़ है
एक छोटा-सा विचार
तुम्हारी चमकदार भाषा में एक शब्द
जिस पर तुम हकलाते हो
तुम्हारे रास्ते में एक गड्ढा है
तुम्हारी तेज रफतार के लिए दहशत

तुम्हें विचलित करता हुआ
वह इसी विराट जनसमूह में है
तुम उसे नाकुछ कहते हो
इस तरह तुम उस पर ध्यान देते हो

तुमने सितारों को जीत लिया है
आभूषणों  गुलामों  मूर्तियों   लोलुपों
और खण्डहरों को जीत लिया है
तुम्हारा अश्व लौट रहा है हिनहिनाता
तब यह छोटी-सी बात उल्लेखनीय है
कि अभी एक आदमी है जो तुम्हारे लिए खटका है
जो अकेला है लेकिन तुम्हारे विरोध में है

तुम्हारे लिए यह इतना जानलेवा है
इतना भयानक कि एक दिन तुम उसे
मार डालने का विचार करते हो
लेकिन वह तो कंकड़ है  गड्ढा है
एक शब्द है  लोककथा है  परंपरा है।
0000

शनिवार, 15 सितंबर 2012

तो इसमें नाराज होनेवाली क्या बात है?

महमूद दरवेश की कविता ‘परिचय पत्र’ का अनुवाद, यहाँ शीर्षक बदलकर।


तो इसमें नाराज होनेवाली क्या बात है?

इसे रिकॉर्ड में दर्ज करो।
    मैं एक अरब हूँ
और मेरे पहचान पत्र का नम्बर है पचास हजार
मेरे आठ बच्चे हैं
और नौवाँ गर्मियों के बाद आनेवाला है।
तो इसमें नाराज होनेवाली क्या बात है?

इसे रिकॉर्ड में दर्ज करो।
मैं एक अरब हूँ
खदान में अपने साथियों के साथ करता हूँ कठोर मेहनत
मेरे आठ बच्चे हैं जिनके लिए चट्टानों से जूझता
कमाता हूँ रोटियाँ, कपड़े और किताबें
और नहीं माँगता तुम्हारे दरवाजे पर भीख,
न ही झुकता हूँ तुम्हारी चौखट पर।
तो इसमें नाराज होनेवाली क्या बात है?

इसे रिकॉर्ड में दर्ज करो।
मैं एक अरब हूँ।
मैं एक नाम हूँ बिना किसी उपाधि के,
सहनशीलता से रहता आया एक ऐसे देश में
जहाँ हर चीज गुस्से के भँवर में रहती है।
मेरी जड़ें खोद दी गईं
समय की उत्पत्ति से ही पहले
युगों-कल्पों की कोंपल फूटने से पहले ही,
चीड़ और जैतून के पेड़ों से भी पहले,
घास की पत्तियों के आने से भी पहले।

मेरे पिता किसान परिवार से थे
किसी कुलीन सामंती खानदान से नहीं।
और मेरे दादा भी एक किसान थे
बिना किसी महान वंशावली के।
मेरा घर दरबान की झौंपड़ी जैसा है
घास और बल्लियों से बना हुआ
क्या आप संतुष्ट हैं मेरे इस जीवन-स्तर से ?
मैं एक नाम हूँ बिना किसी उपनाम के।

इसे रिकॉर्ड में दर्ज करो।
मैं एक अरब हूँ।
मेरे बालों का रंगः गहरा काला।
आँखों का रंगः भूरा।
विशेष पहचान चिन्हः
मेरे माथे पर पगड़ी और उस पर दो काली डोरियाँ
छुओगे तो रगड़ खा जाओगे।
मेरा पताः
मैं आया हूँ एक दूर, विस्मृत कर दिए गए गाँव से
जिसकी गलियों का कोई नाम नहीं
और जिसके सभी आदमी जुते हुए हैं खेतों और खदानों में
            तो इसमें नाराज होने की क्या बात है?

इसे रिकॉर्ड में दर्ज करो।
मैं एक अरब हूँ।
तुमने मेरे पुरखों के बगीचों को छीन लिया
और वह जमीन जिसे मैं जोतता था
मैं और मेरे बच्चे जोतते थे उस जमीन को,
और तुमने हमारे लिए और मेरे बाल-बच्चों के लिए
इन पत्थरों के अलावा कुछ नहीं छोड़ा।
क्या तुम्हारी सरकार इन्हें भी कब्जे में ले लेगी,
जैसी कि घोषणा की जा रही है?

बहरहाल!
इसे पहले पन्ने पर सबसे ऊपर दर्ज करोः
मैं लोगों से नफरत नहीं करता,
न ही किसी की संपत्ति पर करता हूँ अतिक्रमण
फिर भी, यदि मैं भूखा रहूँगा
तो खा जाऊँगा अपने लुटेरे का गोश्त

खबरदार, मेरी भूख से खबरदार
और मेरे क्रोध से!
000000

‘द विन्टेज बुक ऑव कंटेप्रेरी वर्ल्‍ड पोएट्री’ से, डेनिस जॉन्‍सन-डेवीज के अंग्रेजी अनुवाद के आधार पर हिन्दी में अनूदित। प्रकाशक- विन्टेज बुक्स, न्यूयॉर्क।

शुक्रवार, 7 सितंबर 2012

जहॉं हम मानते हैं कि हम ही सही हैं


इधर कुछ दिनों से येहूदा आमीखाई की यह कविता याद आती रही।
इसका भावानुवाद सह पुनर्लेखन जैसा कुछ किया है।
शायद इसका कुछ प्रासंगिक अर्थ भी निकले।


जहाँ हम मानते हैं कि हम ही सही हैं

जहाँ हम मानते हैं कि हम ही सही हैं
उस जगह फिर कभी
वसंत में भी फूल नहीं खिलेंगे

जहाँ सिर्फ हम सही होते हैं
वह जगह फिर बाड़े की जमीन की तरह
कठोर और खूँदी हुई हो जाती है

ये संशय और प्रेम ही होते हैं
जो दुनिया को उसी तरह खोदते रहते हैं
जैसे कोई छछूंदर या जुताई के लिए हल
और सुनाई देती है फिर एक फुसफुसाहट उसी जगह से
जहाँ कभी हुआ करता था एक उजड़ा हुआ मकान।
00000

बुधवार, 5 सितंबर 2012

जीवन विवेक ही साहित्‍य विवेक है




करीब दो बरस पहले  यह टिप्‍पणी लिखी गई थी। 
एक स्‍थानीय आयोजन से प्रेरित। बहरहाल।
एक-दो वाक्‍यों में संपादन के साथ यह यहॉं है।


साहित्यिक आयोजनों का अजैण्डा

साहित्य संबंधी आयोजनों को मोटे-मोटे दो वर्गीकरणों में देखा जा सकता है।
1.स्पष्ट कार्यसूची (अजैण्डे) के साथ आयोजन। 2.बिना कार्यसूची के साथ आयोजन।

पहले वर्ग में, किसी विचारधारा विशेष, जैसे वामविचार को केंद्र में रखकर, उसके अंतर्गत कुछ अभीष्ट या उद्देश्य बनाकर आयोजन किए जाते हैं। उनके इरादे, घोषणाएँ, प्रवृत्ति और पक्षधरता को साफ पहचाना जा सकता है। वहाँ साहित्य संबंधी एक दृष्टि, विचार सरणी होती है और कुछ साहित्यिक मापदण्ड और समझ के औजार भी उस दृष्टि और सरणी से निसृत होकर सामने रहते हैं। तत्संबंधी नयी चुनौतियाँ भी। विचारधाराओं से प्रेरित तमाम लेखक संगठनों के आयोजन इसी वर्ग में रखे जाएँगे। और वे भी आयोजन भी, जो वाम-विचारधारा विरोधी साहित्यिकों या संस्थाओं द्वारा संभव होते हैं।

लेकिन इन सभी का अजैण्डा असंदिग्ध रूप से जाहिर होता है। सार्वजनिक। उनके उद्देश्य स्पष्ट होते हैं। प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ, जन संस्कृति मंच, पूर्व में ‘परिमल’ के आयोजन और इधर अस्तित्व में आईं अनेक सांस्कृतिक दक्षिणपंथी संस्थाओं के कार्यक्रम, जिनकी वामविरोधी राजनीति स्पष्ट है। प्रायः इस तरह की संस्थाओं या संगठनों में औपचारिक/अनौपचारिक सदस्यता होती है और वे अपनी प्रतिबद्धताओं के लिए जवाबदेह होते हैं। इस वर्ग के ये कुछ उदाहरण हैं।

दूसरे वर्ग में मुख्यतः निजी महत्वाकांक्षाएँ, व्यक्तिगत यशकामना और/या व्यावसायिक समझ के साथ किए जानेवाले आयोजन हैं। वे किसी सामूहिक जनचेतना, व्यापक विचार या विचारधारा से प्रेरित नहीं होते। इसलिए कभी-कभार उनमें विभिन्न विचारधाराओं के लेखक भी, निजी कारणों से, एक साथ सक्रिय दीख सकते हैं। इनके एक, दो, दस आयोजनों को विश्लेषित कर लें तब भी कुछ हाथ नहीं आएगा। सिवाय इसके कि व्यक्तिगत वर्चस्व, नेतृत्व कामना के लिए, प्रकाशकीय लोभ-लाभ के लिए, पत्रिका की लांचिंग या प्रचार हेतु अथवा निजी धाक जमाने के लिए, पब्लिक रिलेशनशिप के लिए इनका आयोजन हुआ।

जब तक कोई ‘धन या अधिकार संपन्न व्यक्ति’, व्यवसायी या संक्षिप्त समूह इसके पीछे काम करता है, तब तक ये आयोजन होते हैं और फिर सिरे से गायब हो जाते हैं। फिर उनकी उतनी गूँज भी बाकी नहीं रहती जितनी एक छोटे से अंधे कुएँ में आवाज लगाने से होती है। उसका ऐतिहासिक महत्व तो दूर, उसकी किंचित उपलब्धि भी अल्प समय के बाद ही, कोई नहीं बता सकता। संक्षेप में कहें तो इनकी नियति एक ‘क्लब’ में बदल जाती है जहाँ साहित्य को लेकर, रचनाधर्मिता के संदर्भ में कोई ऐसी बात संभव नहीं जिसे गहन सर्जनात्मकता एवं बड़े विमर्श तक ले जाया जा सके। आयोजन के बाद उसे विचार की किसी परंपरा से जोड़ा जा सके। किसी आंदोलन के हिस्से की तरह उसे देखा जा सके या उस संदर्भ में नयी पीढ़ी को शिक्षित अथवा उत्प्रेरित किया जा सके।

ऐसे आयोजन, एक तरह के अवकाश को भरने या बोरियत दूर करने, साथ मिलजुलकर बैठने की इच्छा या समकालीनता में इस तरह ही सही, अपना नाम दर्ज कराने की सहज-सरल आकांक्षा, ध्यानाकर्षण की योजना अथवा समानांतर सत्ता संरचना की कामना से भी प्रेरित होते हैं और कई बार इस प्रतिवाद से भी कि उन्हें अपेक्षित रूप से स्वीकार नहीं मिला है। या उन्हें कमतर समझा गया है। या यह कि उन्हें और, और, और, और, और जगह चाहिए। लेकिन इनका जो भी आयोजक होगा, उसकी महत्वाकांक्षाओं या इरादों को समझा जा सकता है। हालॉंकि सतह पर तैरती चतुराई के कारण उनके वास्तविक उद्देश्य स्पष्ट होने में किंचित समय भी लग सकता है।

लेकिन एक बात यहाँ सबसे महत्वपूर्ण होती हैः वह यह कि इनका कोई घोषित अजैण्डा नहीं होता। या इनकी कोई कार्यसूची होती भी है तो उससे साहित्य या जीवन, (याद करें मुक्तिबोध का महान वाक्यः ‘जीवन विवेक ही साहित्य विवेक है।’) के प्रति, किसी भी विचारधारा और दृष्किोण से संबंध नहीं बैठाया जा सकता। इसलिए ऐसे आयोजन एक मिलन समारोह, पर्यटन, सामूहिक दस्तरखान के सुख, आनंददायी तस्वीरों और अन्य मधुर स्मृतियों में ही न्यून हो जाते हैं। इन्हें अन्य द्वारा वित्तपोषित ‘साहित्यिक किटी पार्टियों’ की तरह भी देखा जा सकता है।

एक अन्य उपवर्ग उन संस्थानों का बनता है जिनके पास शासकीय या गैरशासकीय स्त्रोतों से बजट है और वे उस बजट को खपाने के लिए, अपने संस्थान की क्रियाशीलता को बनाए रखने के लिए तमाम आयोजन करने को विवश हैं। प्रायः, जब तक कि संप्रति सरकारों का दबाब न हो, उनका किसी विचारधारा विशेष के प्रति विरोध या समर्थन नहीं होता। वहाँ कोई भा आ-जा सकता है और उनसे लाभ लिया जा सकता है। उसमें भागीदारी से किसी को कोई उज्र या ऐतराज नहीं होता, जब तक कि कुछ विचारधारात्मक सवालों से मुठभेड़ न हो। आकाशवाणी, दूरदर्शन, साहित्य अकादमियाँ, हिंदी उन्नयन संस्थाएँ आदि इसके उदाहरण हैं। इन संस्थाओं के पास भी, साहित्य को लेकर कोई विशिष्ट औचित्य या दृष्टि नहीं होती, सिवाय इस महान वाक्य के कि ‘वे साहित्य और रचनाकारों की सेवा कर रहे हैं और उनका जन्म बस यही करने के लिए हुआ है।’

बहरहाल, यदि पहले वर्ग के आयोजनों में किसी के द्वारा शिरकत की जा रही है तो वह खास तरह के वैचारिक अजैण्डा की जानकारी के साथ, उसके प्रति सहमति, प्रतिबद्धता या उत्सुकता से की जाएगी। और दूसरे वर्ग के आयोजन में शिरकत की जा रही है तो वह मूलतः मौज मस्ती, मेल-मिलाप, उत्सवधर्मिता और संबंधवाद के लिए। लेकिन प्रकारांतर से इस तरह लोग जाने-अनजाने किसी की महत्वाकांक्षा या छिपे हुए निजी अजैण्डा के सहभागी हो जाते हैं। और कई बार तो कृतज्ञ भी। जाहिर है कि शिरकत करते हुए तमाम लोग निजी रूप से निर्णय लेते हैं, अपना चुनाव करते हैं लेकिन फिर लाजिमी है कि वे जलसा उपरांत कुछ विचार भी करें। मसलन यह, कि आखिर क्या वे इन चीजों का वाकई हिस्सा होते रहना चाहते हैं!

ऐसा भी हो सकता है कि किसी आयोजन में विभिन्न विचारधाराओं से प्रेरित या विचारधाराहीन (??) लेखकों का जमावड़ा कराया जाए, उनके बीच मुठभेड़ कराई जाए और फिर उसे आयोजनकर्ता दिलचस्पी से देखें, अपनी स्पॉन्सरशिप का भरपूर आनंद उठाएँ। इसका कुछ विचारणीय पक्ष शायद तब भी हो सकता है कि जब वे कुछ गंभीर सवालों को खड़ा करें, उन्हें सूचीबद्ध करें, बताएँ कि ये महत्वपूर्ण निष्पत्तियाँ हैं, इन पर व्यापक विमर्श हो। इसलिए अपेक्षित होगा कि ये आयोजनकर्ता, औपचारिक तौर पर बताएँ कि इससे उनके किन उद्देश्यों की पूर्ति होती है और आगे भी इस तरह की ‘कांग्रेस’ करते रहने के पीछे उनकी क्या राजनीति, योजना, मंशा और आकांक्षा है। और इसे व्यापक करने की क्या रणनीति है।

निजी तौर पर यों मौज-मस्‍ती और हो-हल्‍ले का विरोधी नहीं हूँ लेकिन यह शायद आग्रह या दुराग्रह हो कि मैं हर उस आयोजन के समर्थन में आसानी से हूँ जिसका अजैण्डा जाहिर हो। भले ही, उनका वह आयोजकीय प्रयास असफल सिद्ध हो। कि मैं तत्संबंधी उद्देश्यों और आकांक्षाओं को पहले समझ तो लूँ। यानी फिर वही अमर सवालः ‘पार्टनर, तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है?’

पिछले कुछ वर्षों से यदि अजैण्डा आधारित आयोजन, विचारधारा संपन्न कार्यक्रम प्रचुरता से नहीं हो पा रहे हैं तो तमाम वामपंथी कहे और समझे जानेवाले लेखकों के लिए इसका अर्थ या विकल्प कदापि यह नहीं हो सकता कि अजैण्डाविहीन, मौजमस्ती मूलक आयोजनों में अपने को गर्क किया जाए।

और यह भी याद कर लेना यहाँ अप्रासंगिक न होगा कि दीर्घकालीन दृष्टि और किसी अजैण्डे के साथ काम करने से ही संगठन और संस्थाएँ बनती हैं। विमर्श आग्रगामी होता है। अजैण्डाविहीन ढ़ंग से काम करने से ‘गुट’ बनते हैं। भावुक, आभारी बनानेवाली, सी-सा मित्रताएँ बनती हैं। और इन्हीं सबके बीच आत्मतोषी रचनापाठ, कुछ आत्मीय विवाद, वैचारिक-उत्तेजनाविहीन कलह और आमोद-प्रमोद होता है। और यह किसी साहित्यिक आयोजन का अजैण्डा हो नहीं सकता।

इसलिए ऐसे आयोजनों को जब किसी उतावलेपन में, उत्साह में या अनुग्रहीत अनुभव करते हुए साहित्यिक उपलब्धि की तरह प्रचारित किया जाता है अथवा उस तरह से पेश करने की कोशिश की जाती है, इन आयोजनों के लिए फिर-फिर आकांक्षा प्रकट की जाती है तो कुछ सवाल नए सिरे से उठते हैं।
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मंगलवार, 4 सितंबर 2012

पुराने पन्‍नों से बरामद


यह कविता करीब दस बरस पहले की डायरी में से बरामद हुई। जो अभी अन्‍यथा अप्रकाशित ही है।
सोचा कि इसे यहॉं शेयर करूँ।


पहला शो

फिल्म का पहला शो देखने की किशोरावस्था की प्रतिज्ञा
और युवकोचित उत्साह की स्मृति में आए हैं हम यहाँ

भीड़ उसी तरह अपार है
और बुकिंग खिड़की के ठीक आगे उसी तरह अभेद्य
लेकिन अब कंधों पर चढ़ कर काउण्टर तक पहुँचना
न तो बस की बात है और न ही कोई तुक
जिन दूरियों पर आज हम यहाँ आ गए हैं सक्षम
वहॉं केवल सौ रूपए ज्यादा देने से मिल गई है निजात

टिकट जेब में हैं और पुराना उत्साह रंग मार रहा है
आने लगा है भीड़ का मजा
पहले शो का रोमांचवही फिकरेबाजी
तालियाँ,  सीटियॉं और एक हद के बाद न फिल्माए गए दृश्य की
स्‍वरों और व्‍यंजनों से होती क्षतिपूर्ति

इनमें शामिल होते हुए
लेकिन हम भीतर ही भीतर दूर छिटक रहे हैं धीरे-धीरे
जबकि इस पहले शो का कुल दृश्य उतना ही उत्तेजक
और उतना ही आय-हाय वाला है
जिसकी अव्यक्त चाह में हम चले आए हैं चार जन यहॉं

और इस जीवन के नये सिनेमा हॉल में
अचानक हो गए हैं ऐसे
             जैसे किसी प्राचीन श्वेत-श्याम वृत्तचित्र के हिस्से
जिसमें चलती तसवीरों और कहे गए संवादों के बीच का असंतुलन
तंद्रा को भंग करता है बार-बार।
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