शुक्रवार, 25 जुलाई 2014

जिसने अपनी आवाज का कभी सौदा नहीं किया

ब्रायन सिलास का पियानो इस सदी की शुरुआत में पहली बार सुना था। तबसे अब तक सैंकड़ों बार। सिलास को सुनने के बाद ही यह कविता संभव हुई थी जो अन्‍यथा कई सालों से दिमाग में चक्‍कर लगा रही थी। आज सुबह से ब्रायन सिलास काे अनवरत सुनते हुए यह कविता भी याद आई।
पियानो

उसके विशाल पहलू में हमेशा
एक मनुष्य के लिये जगह खाली है
वह जगह दिन-रात तुम्हारी प्रतीक्षा करती है

उसे वही बजा सकता है
जिसे कुछ अंदाजा हो जीवन की मुश्किलों का
जो रात का गाढ़ापन, तारों का प्रकाश और चांद का एकांत याद रखता है

उसमें से, तुमने सुना होगा, मादक आवाज उठती है
जिसमें शामिल होता है एक रुंधा हुआ स्वर
जो किसी बेचैन आदमी का ही हो सकता है
जिसने कभी अपनी आवाज का सौदा नहीं किया
वही आवाज तुम्हें रोक लेती है बाजू पकड़कर
जैसे वह किसी धीरोदात्त का टूटता हुआ संयम है
अपनी कथा कह देने के लिये आखिर उद्यत

तुम्हारी तरह उसके भीतर भी पके गले से उठता कोई संताप है
और धीरे-धीरे फैलती हुई उमंग

उसे तमाम वाद्ययंत्रों के बीच देखो
वह उस राजा की तरह दिखेगा
जो संगीत के पक्ष में अपना राजपाट ठुकराकर यहां आ गया है

यह भी कह सकते हैं कि वह अपने होने में जंगल में शेर की तरह है
लेकिन मैं उसे हाथी कहना पसंद करूंगा
ध्यान दें, उसकी धीर गंभीर और बिलखती आवाज में
गुर्राहट नहीं, अपने को रोकती, खुद को पीती हुई एक चिंघाड़ है
जो भीतर के विलाप, क्राेध और अवसाद को बदल देती है संगीत में

क्या तुमने वह दृश्य देखा है
जब उसके कंधे पर सिर रखकर कोई उसे बजाता है
और वह अपना सब कुछ अपनी आवाज को सौंप देता है
यहीं दिख सकती है समुद्र और हवा के खेल में उसकी दिलचस्पी

उसे कौन छुयेगा ?
वही,   सिर्फ वही-
जो अपनी पहचान
        उसकी पहचान में खो सकता है।
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सोमवार, 7 जुलाई 2014

एक अत्‍यंत महत्‍वपूर्ण खबर

यह खबर जनसत्‍ता एक्‍सप्रेस की साइट http://www.jansattaexpress.net/electronic/7024.html# से साभार यहॉं दी जा रही है। कि वे लोग जो इस खबर को किन्‍हीं वजहों से नहीं पढ़ पाए, उन तक यह पहुँचे, खासताैर पर साहित्‍य-विचार से जुड़े साथियों के बीच। इस बीच अंग्रेजी आउटलुक सहित अन्‍य कुछ जगहों पर विस्‍तार से इस बारे में लेख और आमुख लेख भी प्रकाशित किए गए हैं। इस खबर को बहुत बुरे दिनों की पुख्‍ता सूचना की तरह भी पढ़ा जा सकता है।
 
हाल ही में रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड ने नेटवर्क-18 समूह की 78 फीसदी हिस्सेदारी खरीदने की घोषणा की है। इस सौदे के बाद समूह के सभी खबरिया चैनलों और वेबसाइटों का स्वामित्व रिलायंस के हाथों में चला आया है।

मीडिया में रिलायंस के विस्तार के अगले चरण में कुछ अखबारी घरानों आ सकते हैं। रिलायंस की नजर उन अखबारों पर है जो क्षेत्रीय स्तर पर विभिन्न राज्यों में अपनी मजबूत पकड़ रखते हैं।

इस कंपनी के कर्ताधर्ता मुकेश अंबानी हैं। उनके इस पहल ने साफ कर दिया है कि आगे वे भारतीय मीडिया पर कब्जा जमाने की दिशा में बढ़ गए हैं। वो भी एक मजबूत कदम के साथ। हालांकि, अब से दो साल पहले भी मुकेश अंबानी की कंपनी ने नेटवर्क-18 के साथ एक सौदा किया था, जिसके तहत देश के सबसे बड़े क्षेत्रीय टेलीविजन नेटवर्क ई. टीवी का अधिग्रहण किया था। तब तक इस मीडिया कंपनी में रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड की भूमिका प्रत्यक्ष न होकर परोक्ष थी। इन बातों को विस्तार से समझने से पहले यह जानना रोचक रहेगा कि रिलायंस का नेटवर्क-18 के साथ मौजूदा सौदा क्या है।

रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड ने मीडिया जगत में अपनी धमक बढ़ाने के लिए ‘इंडिपेंडेंट मीडिया ट्रस्ट’ का गठन किया है। इसी ट्रस्ट को रिलायंस की ओर से मीडिया कंपनियों में हिस्सेदारी खरीदने का काम दिया गया है। रिलायंस की पूर्ण स्वामित्व वाले इस ट्रस्ट ने ही नेटवर्क-18 समूह की 78 फीसदी हिस्सेदारी खरीदने की घोषणा हाल में की है। यह सौदा 4,000 करोड़ रुपए में हुआ है। इस सौदे के बाद समूह के सभी खबरिया चैनलों और वेबसाइटों का स्वामित्व रिलायंस के हाथों में चला आया है। इन चैनलों में सीएनबीसी, टीवी-18, सीएनएन-आईबीएन, आईबीएन-7, और सीएनबीसी आवाज प्रमुख है। इसके अलावा नेटवर्क-18 के पास कई सफल वेबसाइट्स हैं। इस सौदे के बाद इनका स्वामित्व भी रिलायंस के पास चला जाएगा।

भारतीय मीडिया जगत के इस सौदे को बेहद अहम इसलिए भी माना जा रहा है, क्योंकि रिलायंस 4-जी कारोबार में ‘रिलायंस जिओ’ के नाम से उतर रही है। कंपनी के पास 4-जी का देशव्यापी लाइसेंस है। जानकारों का मानना है कि कंपनी को अपनी इस सेवा के लिए कोई ऐसी मीडिया कंपनी चाहिए, जो उसे खबरों से संबंधित सामग्री मुहैया करा सके। माना जा रहा है कि रिलायंस कंपनी के इस सौदे के पीछे की यह भी एक बड़ी वजह है। हालांकि, मीडिया की बारीकियों को समझने वालों का कहना है कि अगर रिलायंस को सिर्फ अपनी इस सेवा के लिए सामग्री की जरूरत थी, तो वह किसी भी मीडिया कंपनी से इसके लिए अलग से समझौता कर सकती थी। इसके लिए कंपनी को अलग से 4,000 करोड़ रुपए के भारी-भरकम सौदे की जरूरत नहीं थी। यह भी माना जा रहा है कि रिलायंस का हालिया कदम उसकी एक लंबी अवधि की योजना का हिस्सा है, जिसके तहत रिलायंस न सिर्फ भारतीय मीडिया जगत पर कब्जा जमाना चाहता है, बल्कि इसके साथ-साथ वह भारत में सूचनाओं के प्रचार-प्रसार पर भी अपना नियंत्रण स्थापित करना चाहता है।

बहरहाल, रिलायंस की ओर से नेटवर्क-18 का अधिग्रहण करने की खबर आने के बाद से इस खबरिया समूह में अफरा-तफरी का माहौल है। यहां काम करने वाले कई पत्रकारों ने इस्तीफा दे दिया है। समूह के निदेशक राघव बहल ने भी इस्तीफा दे दिया है। सीएनएन-आईबीएन के प्रधान संपादक राजदीप सरदेसाई और सागरिका घोष महीने भर की लंबी छुट्टी पर चले गए हैं। हालांकि, चर्चा यह भी है कि मुकेश अंबानी के करीबी मनोज मोदी ने राजदीप सरदेसाई से चैनल में बने रहने को कहा है। उन्हें भरोसा दिलाया गया है कि उनके काम करने की आजादी बनी रहेगी। लेकिन इसका मतलब यह नहीं होगा कि उन्हें पूरी तरह से संपादकीय आजादी मिली रहेगी। खैर, कंपनी के मुख्य वित्त अधिकारी ने भी कंपनी को अलविदा कह दिया है।

इस सौदे का अहम पहलू यह है कि अब रिलायंस का मीडिया समूह जो स्वरूप लेगा, उससे वह देश का सबसे बड़ा मीडिया समूह बन जाएगा। यहीं से देश की मीडिया के सामने सबसे बड़ा संकट पैदा होने का खतरा बन गया है। भारत में अभी कोई ऐसा कानून नहीं है, जिसके तहत मीडिया में एकाधिकार को रोका जाए। अमेरिका जैसे देशों में यह कानून है। भारत को विविधताओं वाला देश कहा जाता है, जो हर क्षेत्र में दिखलाई देता है। देश में जिस तरह की सांस्कृतिक और सामाजिक विविधता है, उसी तरह की विविधताएं मीडिया और इसके जरिए प्रसारित होने वाले सूचनाओं में भी दिखती हैं। लेकिन किसी एक कंपनी का मीडिया जगत पर एकाधिकार होगा तो इसका सबसे बड़ा खतरा इसकी विविधता पर होगा। इसके अलावा अगर एक ही कंपनी मीडिया के बहुत बड़े हिस्से पर नियंत्रण रखेगी तो एक खतरा यह भी बना रहेगा कि वह खबरों और सूचनाओं को अपने हिसाब से प्रसारित करे। उन खबरों को अपने हिसाब से खास दिशा में मोड़कर जनमत को प्रभावित करने की कोशिश करे।

रिलायंस को लेकर पहले से ही मुख्यधारा की मीडिया में भय का माहौल है। इसका हालिया उदाहरण वरिष्ठ पत्रकार परांजॉय गुहा ठाकुरता की किताब ‘गैस वॉर’ से जुड़ा है। ठाकुरता ने इस किताब में कृष्णा-गोदावरी बेसिन में रिलायंस की ओर से की गई गड़बड़ियों का विस्तार से वर्णन किया है। इतनी महत्वपूर्ण मुद्दे पर लिखी गई इस किताब को लेकर मुख्यधारा की मीडिया में गजब की खामोशी रही। मुख्यधारा के अखबारों और खबरिया चैनलों ने इस किताब पर कोई चर्चा नहीं की। इस खामोशी की वजह हर किसी को समझ में आ रही थी। दरअसल, मामला सीधे रिलायंस से जुड़ा था, इसलिए कोई भी मीडिया समूह इस पर कुछ बोलना नहीं चाह रहा था। कई मीडिया कंपनियों में रिलायंस ने प्रत्यक्ष या फिर अप्रत्यक्ष तौर पर हिस्सेदारी खरीद रखी है। कई वरिष्ठ पत्रकारों ने साझा बयान जारी कर मीडिया की इस खामोशी पर हैरानी भी जताई।

अब थोड़ा पीछे लौटते हैं। तब यह बात स्पष्ट हो जाती है कि मीडिया में रिलायंस की ओर से अपनी धमक बढ़ाने की यह पहली कोशिश नहीं है। इससे पहले भी रिलायंस ने नेटवर्क-18 को ई. टीवी समूह का अधिग्रहण करने के लिए 1,700 करोड़ रुपए का कर्ज दिया था। बदले में रिलायंस को अन्य फायदों के साथ-साथ 4-जी नेटवर्क के लिए सामग्री मुहैया कराने का वादा संबंधित समूह ने किया था। यह सौदा 2012 में आरआईएल के साथ हुए नेटवर्क-18 के करार का हिस्सा था। नेटवर्क-18 समूह ने ई. टीवी उत्तर प्रदेश, ई. टीवी मध्य प्रदेश और ई. टीवी राजस्थान सहित क्षेत्रीय हिंदी समाचार चैनलों में सौ प्रतिशत हिस्सेदारी खरीदी थी। साथ ही इसने ई. टीवी मराठी, ई. टीवी कन्नड़ और ई. टीवी बांग्ला सहित मनोरंजन चैनलों में 50 प्रतिशत हिस्सेदारी खरीदी थी। इसके अलावा समूह ने ई. टीवी तेलुगू और ई. टीवी तेलुगू न्यूज की 24.5 प्रतिशत हिस्सेदारी खरीदी थी।

यदि इससे भी पहले जाएं और बीती शताब्दी के अस्सी के दशक को याद करें तो यह साफ होता है कि अंबानी बंधु के पिता धीरूभाई अंबानी की दिलचस्पी भी मीडिया में थी। कंपनी के पास बिजनस एंड पॉलिटिकल ऑब्जर्वर के अलावा संडे ऑब्जर्वर जैसे अखबार थे। जानकार बताते हैं कि उस वक्त रिलायंस ने इन अखबारों को इंडियन एक्सप्रेस के मुकाबले खड़ा करने की कोशिश की थी, क्योंकि इंडियन एक्सप्रेस ने रिलायंस के खिलाफ लगातार खबरें प्रकाशित कर रहा था। दरअसल, इंडियन एक्सप्रेस अखबार रिलायंस और इंदिरा गांधी के आपसी संबंधों और इससे कंपनी को हुए लाभ को लेकर खबरें प्रकाशित कर रहा था। लेकिन उस दौर की तुलना में अगर मौजूदा दौर को देखें तो एक बड़ा फर्क यह नजर आता है कि उस समय एक नई मीडिया कंपनी को खड़ा करने की कोशिश कॉरपोरेट घराने करते थे। अब वे पहले से चल रही नामी कंपनियों को ही खरीद रहे हैं। रिलायंस की ओर से नेटवर्क-18 का अधिग्रहण इसी कड़ी का हिस्सा माना जा रहा है।

जब ई. टीवी के अधिग्रहण के लिए रिलायंस ने नेटवर्क-18 को कर्ज दिया था, उसी समय से इस समूह के खबरिया माध्यमों में रिलायंस के खिलाफ खबरें दिखनी बंद हो गईं। यह बात कोई और नहीं, बल्कि उसी समूह से निकले हुए लोग बता रहे हैं। जब रिलायंस से संबंधित कोई साक्षात्कार होना होता था तो उसके लिए तैयार किए गए सवालों को कई स्तरों से गुजरना पड़ता था। इनमें से कई वैसे सवाल निकाल दिए जाते थे जो रिलायंस के लिए परेशानी पैदा करने वाला हो सकता था।

इसके बावजूद रिलायंस के हाथों नेटवर्क-18 छोड़कर जा रहे राघव बहल अपने कर्मचारियों और पत्रकारों को भेजे आखिरी ई-मेल में लिखते हैं, “पूर्व और वर्तमान में उनकी टीम के साथ हजारों साथी जुड़े रहे। जिन्होंने अपने तेजस्वी कर्मों से नेटवर्क-18 को ऐसी स्थिति में पहुंचाया, जहां वह आज है। मैं इसके लिए उनका हार्दिक आभारी हूं। अंबानी एक अच्छे इंसान हैं और हमें इसमें कोई संदेह नहीं है कि नेटवर्क-18 इस व्यवस्था में आगे बढ़ने में कामयाब होगा। आप सभी के पास उत्साहित और आशावादी रहने की वजह मौजूद है।”

यह बताना जरूरी है कि नेटवर्क-18 से निकलने और कंपनी में उनके शेयरों के बदले राघव बहल को 707 करोड़ रुपए मिल रहे हैं। इसलिए अगर राघव बहल यदि मुकेश अंबानी के पक्ष में बोल रहे हैं तो इसमें किसी को कोई अचरज नहीं होना चाहिए। जानकारों का मानना है कि रिलायंस कंपनी इस योजना पर काम कर रही है कि आने वाले दिनों में वह नेटवर्क-18 समूह के तहत कई और मीडिया कंपनियों का अधिग्रहण करेगी।

मीडिया में रिलायंस के विस्तार के अगले चरण में कुछ अखबारी घरानों आ सकते हैं। रिलायंस की नजर उन अखबारों पर है जो क्षेत्रीय स्तर पर विभिन्न राज्यों में अपनी मजबूत पकड़ रखते हैं। दरअसल, रिलायंस एक ऐसे रास्ते पर बढ़ चला है, जिसमें सूचना तंत्र पर उसकी मजबूत पकड़ हो और वह अपने हितों के हिसाब से सूचनाओं के प्रसार पर अपना नियंत्रण बनाए रख सके।

मंगलवार, 1 जुलाई 2014

साहित्य में पूँजीवाद का ग्लूकोज

करीब साल भर पहले लिखी एक टीप का पुनर्लेखन।
यह संतुलनवाद है

जब पैसा पास में आ जाता है तो विचारधारा अनावश्यक जान पड़ने लगती है। आज साहित्य में नवधनाढ्यवर्ग कहीं अधिक ताकत के साथ घुस गया है और वह लगातार विचारधारा के विरोध में बात करता है। जबकि वह लगभग अपढ़ है। उसने अपने मंच बना लिए हैं, लघु पत्रिकाओं तक को वित्तीय सहायता प्रदान कर दी है। आप ऐसे लोगों को जरा नजदीक से देखें, जानें तो पता चलेगा कि इनके पास काफी धन-संपत्ति है। या ये ऐसी नौकरी में है जहाँ प्रचुर आर्थिक सुरक्षा है। शानदार पेंशन है। या बेहतर व्यवसाय है। अति साधन-संपन्नता है। जैसे ही धन का प्रवेश होता है, विचारधारा गायब होने लगती है। क्योंकि विचारधारा रहेगी तो खुद के खिलाफ ही मुश्किल पेश करेगी।

फिर ये  लोग अपनी मतिमंदता छिपाने के लिए मानवतावाद की दुहाई देने लगते हैं। जबकि शोषक भी मानव होता है और शोषित भी। अत्याचारी भी मनुष्य ही होता है और प्रताडि़त व्यक्ति भी मनुष्य है। फोर्ब्‍स सूची के अमीरों में भी मनुष्यों के नाम दर्ज हैं और निर्धनतम लोगों में भी मनुष्य ही रहते आए हैं। मानवतावाद की आड़ में आप पक्षधर होने से बचना चाहते हैं। अपनी राय और अपनी सहानुभूति को जाहिर नहीं करना चाहते। साहित्य में और जीवन में भी वंचित समाज के साथ खड़े नहीं होना चाहते। लेखक को विचारशील, पक्षधर की तरह पेश होना होता है, मानवाधिकार आयोग के माननीय सदस्य की तरह नहीं।

यहीं वे कारण हैं कि इधर वे तमाम पत्रिकाएँ, जिनमें हमारी अनेक आदर्श लघु पत्रिकाएँ भी शामिल हैं, जिन्हें अब हर तरफ से विज्ञापन चाहिए, आर्थिक सहारे चाहिए, अफसरों-व्यापारियों की कृपा चाहिए क्योंकि उन्हें पत्रिका से कमाई करना है, उन सबमें आप देख सकते हैं कि पिछले रास्तों से समावेशी दृष्टि प्रवेश कर चुकी है। उनकी विचारधारा क्षीण हो गई है और एक उदार छबि बनती जा रही है। वामपंथ या पक्षधरता उनके स्वभाव और आकांक्षा से विलोपित हो रही है। भले ही वे आज भी पक्षधर पत्रिका होने की घोषणा करती हैं। वे सच्ची आलोचना का एक प्रखर वाक्य भी हजम नहीं कर सकतीं। तुरंत वमन देखने को मिलेगा। लेकिन मजे की बात है कि वे लेखकों को मौके-बेमौके गरियाती-लतियाती रहती हैं कि लेखक प्रतिरोध नहीं कर रहे हैं। जबकि जितना भी प्रतिरोध सामने आ रहा है वह लेखकों की तरफ से ही संभव हुआ है। यद्यपि उस प्रतिरोध को समाज में तवज्जो नहीं मिल रही है, यह एक पृथक विचारणीय प्रश्न है, इसकी अनेक वजहें समाज में हैं। यह पराभव भी सामने है कि ऐसी पत्रिकाओं में दक्षिणपंथी विचार के लेखकों और दोयम दर्जे के रचनाकारों को जगह मिलना शुरू हो गई है, जबकि कुछ समय पहले इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। वे हर हाल में लोकप्रियता की तरफ बढ़ना चाहती हैं, उनके लिए श्रेष्ठता का और परिर्वतनकामी स्वप्न भंग हो चुका है। वे संतुलनवादी हो रही हैं।

दरअसल, यह पूॅंजीवाद है और धनलिप्सा है जो रिसकर सब दूर शिराओं में पैठ गई है। इसलिए इधर साहित्यिक गोष्ठियों में, पत्रिकाओं में कहीं कोई विचारोत्तेजक विमर्श नहीं है, कोई मतभेद नहीं, कोई झगड़ा-टंटा नहीं, चिंता की कोई लकीर नहीं है, एक सहज आश्वस्ति है, मित्रभाव है, बेधड़क आशा है और ‘हाई-टी’ है। तथा जो प्रतिवाद, यथार्थ और स्‍वप्‍न से संचालित लेखन है, उसके प्रति अवहेलना है।
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