शुक्रवार, 27 अप्रैल 2012

रास्‍ते की मुश्किल


रास्ते की मुश्किल

आप मेज को मेज तरह और घास को घास की तरह देखते हैं
इस दुनिया में से निकल जाना चाहते हैं चमचमाते तीर की तरह
तो मुश्किल यहाँ से शुरू होती है कि फिर भी आप होना चाहते हैं कवि

कुछ पुलिस अधीक्षक होकर, कुछ किराना व्यापारी संघ अध्यक्ष होकर
और कुछ तो मुख्यमंत्री होकर, कुछ घर-गृहस्थी से निबटकर 
बच्चों के शादी-ब्याह से फारिग होकर होना चाहते हैं कवि 
कि जीवन में कवि न होना चुनकर भी वे सब हो जाना चाहते हैं कवि

कवि होना या वैसी आकांक्षा रखना कोई बुरी बात नहीं
लेकिन तब मुमकिन है कि वे वाणिज्यिक कर अधिकारी या फूड इंस्पेक्टर नहीं हो पाते
जैसे तमाम कवि तमाम योग्यता के बावजूद तेहसीलदार भी नहीं हुए
जो हो गए वे नौकरी से निबाह नहीं पाए
और कभी किसी कवि ने इच्छा नहीं की और न अफसोस जताया
कि वह जिलाधीश क्यों नहीं हो पाया
और कुछ कवियों ने तो इतनी जोर से लात मारी कि कुर्सियाँ जाकर गिरीं कोसों दूर

यह सब पढ़-लिखकर, और जानकर भी, हिन्‍दी में एम ए करके, विभागाध्यक्ष होकर
या फिर पत्रकार से संपादक बनकर कुछ लोग तय करते हैं 
                                                 कि चलो, अब लिखी जाए कविता
और जल्दी ही फैलने लगती है उनकी ख्‍याति
कविताओं के साथ छपने लगती हैं तस्वीरें
फिर भी अपने एकांत में वे जानते हैं और बाकी सब तो समझते ही हैं
कि जिन्हें होना होता है कवि, चित्रकार, सितारवादक या कलाकार
उन्होंने गलती से भी नहीं सोचा होता है कि वे विधायक हो जाएँ या कोई ओहदेदार
या उनकी भी एक दुकान हो महाराणा प्रताप नगर में सरेबाजार 

तो आकांक्षा करना बुरा नहीं है
यह न समझना बड़ी मुश्किल है कि जिस रास्ते से आप चले ही नहीं
उस रास्ते की मंजिल तक पहुँच कैसे सकते हैं।
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रविवार, 1 अप्रैल 2012

मूर्खताऍं

करीब 16 साल पहले लिखी यह कविता 'अनंतिम' शीर्षक संकलन में संग्रहीत है।
आज अनायास ही पहली अप्रैल को इसकी स्‍मृति आ गई। हाजिर है।

मूर्खताऍं

मूर्खताऍं हमारी सहज बुद्धि का चमत्‍कार हैं
उन्‍हें सीखना नहीं पड्ता
और संभव भी नहीं कि उन्‍हें सिखाया जा सके

आज की बुद्धिमानियॉं
कल पता चलता है कि हमारी सर्वोत्‍तम मूर्खताऍं थीं
फिर ध्‍यान देने पर लगता है
यह जीवन टिका हुआ है मूर्खताओं पर ही

उनके लिए किसी प्रसंग की जरूरत नहीं
लेकिन वे प्रसंगों को स्‍मरणीय बना देती हैं
किसी को सुनाने के लिए याद करने पर
वे मुश्किल से ही आती हैं याद
क्‍योंकि वे इतनी अधिक हो चुकी होती हैं
कि चुनना आसान नहीं

उन पर रोने से कोई फायदा नहीं
हँसना तो और भी कठिन
वे अपने आप में कम अजीब नहीं होतीं
और अकसर हमें विपदाओं में से निकाल लाती हैं
हालॉंकि विपदाओं में डालने में भी उनकी ही भूमिका होती है

वे हमारी दिनचर्या का उपसर्ग हैं
छोटी-मोटी मूर्खताओं का तो हमें पता ही नहीं चल पाता
हम उनके इतने आदी हैं
कि अकसर ही हम एक-दूसरे से
उनकी आशा करते हैं।