सोमवार, 7 जून 2010

एक कराह फड़फडाकर उड़ती है

एक कराह फड़फड़ाकर उड़ती है
मिक्लोश राद्नोती


आधी रात के करीब मेरी माँ ने मुझे जन्म दिया
सुबह तक वह मर चुकी थी
जैसे तने से एक कोमल डाल फूटती है उसमें से मैं उगा

दिन का दुख अभी बाकी था
अपने सिर के नीचे तुम्हारा दायाँ हाथ
मैं तुम्हारी नब्ज में चलते हुये खून को सुनता रहा
तुम्हारी बाँहों में मैं एक बच्चा हूँ जो चुप है

मैं नदी और उसमें झुकी हुयी घास तक पहुँचता हूँ
भेड़ चरानेवाली एक छोटी लड़की झील में उतरकर
पानी को थरथराती है
और थरथराती हुई भेड़े पानी में इकट्ठा
झुककर बादलों से पानी पीती हैं
यहाँ कहीं भी रहूँ मैं हमेशा अपने घर में हूँ
और जब कभी कोई झाड़ी मेरे पैरों पर झुकती है
तो मैं उसका नाम जानता हूँ और उसके फूल का नाम भी

सन्नाटा दिल में बिगुल की तरह गूँजता है
और एक कराह फड़फड़ाकर उड़ती है
उसके पीछे वह धड़कन भी चुप हो जाती है
जो तकलीफ देती थी
मैं जंगल देखता हूँ, गीतों भरे बागान, अंगूर के खेत, कब्रस्तान
और एक छोटी बहुत बूढ़ी औरत
जो कब्रों की बीच रोती जा रही है
मैं गूँगे पत्थरों की बीच गढ्ढों में रहता हूँ

और लंबे अरसे से मैंने वाकई नाचना नहीं चाहा है
मेरे पास कभी कुछ नहीं था और न आगे कभी होगा
जाओ और जरा एक लम्हे के लिये
मेरी जिंदगी की इस दौलत पर विचार करो
मेरे कोई वारिस नहीं होंगे क्योंकि मैं कोई चाहता नहीं

मैं एक कवि हूँ और किसी को मेरी जरूरत नहीं है
मैं एक कवि हूँ जो इसी लायक है कि जला दिया जाये
क्योंकि वह सचाई का गवाह है
मैं वह हूँ जो जानता है कि बर्फ सफेद है
खून लाल है


मैं एक ऐसे जमाने में इस धरती पर रहा
जब विश्वासघात और हत्या का आदर होता था
जब माँ अपने ही बच्चे पर एक लानत थी
औरतें अपना गर्भ गिराकर खुश होतीं थीं
और जो जिन्दा थे वे ताबूत में कैद सड़ते हुये मुर्दों से रश्क करते थे
मैं एक ऐसे जमाने में इस धरती पर रहा
जब कवि भी चुप थे

जब जेल में बिजली झपकती है तो अंदर सारे कैदी
और बाहर पहरा देते सारे संतरी जानते हैं कि
उस वक्त एक ही आदमी के शरीर में सारी बिजली
एक साथ दौड़ रही है
न मुझे कोई याद बचाएगी न कोई जादू
हम सपने देखते हैं तो एक-दूसरे का हाथ पकड़े रहते हैं

वे हमेशा कहीं न कहीं हत्या करते हैं
सूरज चमक रहा था- मेरी बहिन जो मर चुकी थी याद आई
और वे सारी आत्माएँ जिन्हें मैंने चाहा था, जो अब नहीं थीं
मैं वह हूँ जिसे आखिरकार वे मार देंगे
क्योंकि मैंने खुद को कभी नहीं मारा

काश! पहले ही की तरह बेरों का ताजा मुरब्बा
पुराने बरामदे में ठंडा होता हुआ
गर्मियों के अंत में चुप्पी, उनींदी, धूप सेंकती
वृक्षों पर पत्तियों के बीच झूलते हुये नंगे फल
जहाँ सुबह धीरे-धीरे छाया पर छाया लिखती है
देखो, आकाश में आज पूरा चाँद है
मुझे छोड़कर न गुजर जाओ दोस्त, पुकारो
और मैं फिर उठ चलूँगा

तुम कवि थे इसलिए उन्होंने तुम्हें मार डाला
हवा तुम्हें बिखेर देगी लेकिन कुछ अरसे के बाद
एक पत्थर से वह गूँजेगा जो मैं आज कहता हूँ
और बेटे और बेटियाँ जब बड़े होंगे तो उसे समझ लेंगे
और तब वे हमारे घुटे हुये शब्दों को
साफ और ऊँचे शब्दो में कहेंगे
मेरी आवाज हर नई दीवार की नींव के पास सुनी जाएगी
यह दुनिया फिर से बनाई जाएगी

रात के रखवाले बादल, हम पर अपना विराट पंख फैला ले।
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विष्णु खरे द्वारा अनूदित मिक्लोश राद्नोती (हंगरी) की 20 कविताओं की पुस्तिका
‘हम सपने देखते हैं’ से, चुनी गई पंक्तियों से रचित कविता। बस यों ही। या शायद इसलिए कि यह जमाना भी कुछ वैसा ही है जैसा इस कविता में दर्ज है।