मंगलवार, 6 जनवरी 2015

अावाजाही

इस आलेख का किंचित संपादित और संक्षिप्‍त रूप जनसत्‍ता में 4 जनवरी 2014 को प्रकाशित हुआ है। पूरा लेख आकार में और भी बड़ा है, जो किसी अन्‍य पत्रिका में प्रकाश्‍य है। उसके काफी कुछ महत्‍वपूर्ण बिंदु यहाँ समाहित हैं।

अन्य मंचों का उपयोग या उपभोग

किसी भी समस्या और उसके निदान के बारे में हालाँकि समन्यवादी तरीका एक आसान रास्ता है परंतु वह किस हद तक सही रास्ता है, यह विचारणीय है। जबकि प्रायः देखा गया है कि समन्यवाद किसी न किसी तरह के अवसरवाद में जाकर स्खलित होता है। लेकिन जब हम किसी विचार-विशेष में भरोसा करते हैं, किसी दृष्टि के साथ अपने को खड़ा पाते हैं तो फिर संगठन की जरूरत पड़ती है। क्योंकि ‘सामाजिक दर्शन या वैचारिकता’ को आप व्यक्तिगत तौर पर लागू नहीं कर सकते, वह अपनी प्रकृति, आकांक्षा और बुनियाद में ही सार्वजनिकता की माँग करती है। न्याय, स्वतंत्रता, समानता, लोकतांत्रिकता वगैरह बहुवचनीय उपस्थिति हैं। इन्हें किसी व्यापक समाज में ही घटित किया जा सकता है। तब एक संगठन चाहिए जिसके माध्यम से वैचारिकता और उसका क्रियान्वयन संभव हो।

ऐसे तमाम सांगठनिक मंचों का उपयोग, कोई अन्य विचारधारा संपृक्त व्यक्ति को क्यों करने देगा और उसे क्यों करना चाहिए, इस पर नानाप्रकार से बात जरूरी है। कि जब हमारा विचार, साहित्य, कला की समझ और अजैण्डा एकदम अलग है, बल्कि कहीं-कहीं एक-दूसरे के विपरीत है तो क्या हम एक-दूसरे को समझाने के लिए मंचों को शेयर करें? मंच, रचना या विचार शिविर नहीं होते हैं और न ही इस तरह की कोई मंशा वहाँ होती है कि धुर-विरोधी विचार को एक लोकतांत्रिक, सुविचारित और सदाशयी जगह उपलब्ध कराई जाए। दरअसल, साहित्य-संस्कृति में आज दक्षिणपंथी संगठन और संस्थाओं के सामने फिलहाल मुश्किल यह है कि उनके पास मान्य लेखक नहीं हैं। कार्यकर्ताओं और प्रचारकों को ही वे लेखक मान लेते हैं, जिन्हें सत्ता संरचनाओं के साथ मिलकर संस्थाओं में, परिषदों, अकादेमियों, पत्रिकाओं में पद दिए जाते हैं और इस तरह वे उन्हें शायद लेखक सिद्ध कर देना चाहते हैं। (हालाँकि, कुछ प्रतिष्ठित लेखक भी लोभ-लाभ के लिए उनकी तरफ आकर्षित होने लगते हैं। यह प्रक्रिया शुरू हो चुकी है।)

उनके इन उत्सवधर्मी और लेखकविहीन आयोजनों को कुछ गरिमा और लेखकीय व्यक्तित्व मिले, इसलिए ही वे उन तमाम सुप्रसिद्ध लेखकों को भी बुलाना चाहते हैं जिनमें अधिकांश, मोटे तौर पर अभी भी वामपंथी हैं या कहें कि दक्षिणपंथी तो कतई नहीं हैं। उन्हें वहाँ सिर्फ इसलिए आमंत्रित किया जाता है ताकि ऐसे कार्यक्रमों को वह वैधता और प्रतिष्ठा मिल सके जो उन्हें अन्यथा प्राप्त नहीं हो सकती। मगर ऐसा होता नहीं देखा गया है कि इन आयोजनों में जाकर किसी वामपंथी लेखक ने अपनी पूरी शक्ति और चेतना के साथ, प्रखरतापूर्वक दक्षिणपंथ या व्यक्तिवाद के विरोध में, अपनी विचारधारा को रेखांकित करते हुए उस मंच से बात कही हो, उसे चुनौती दी हो और बावजूद इसके, उस लेखक को संस्था विशेष ने फिर-फिर, बारम्बार न्यौता दिया हो। हाँ, कभी-कभी लेखकों को ऐसा भ्रम हो सकता है कि उन्हें अभिव्यक्ति की असीम स्वतंत्रता दी जा रही है क्योंकि दक्षिणपंथी संस्थाएँ सांस्कृतिक फासीवाद के शुरुआती दौर में एक घालमेली लोकतांत्रिकता का निर्माण करना चाहती हैं जहाँ किसी भी तरह का विमर्श हास्यास्पद, कारुणिक या समन्यवादी हो जाए। वे अपने खिलाफ किसी भी प्रतिरोध को नखविहीन या आपसदारी का बना देना चाहती हैं। जो लेखक नहीं जाते उनके संदर्भ में यह जताना चाहती हैं कि हम उन्हें आमंत्रित करते हैं, वे आते ही नहीं। यानी वे आएँ तो उनके आयोजकीय खाते में लेखक बढ़ते हैं और न आएँ तो उन पर दूरी बनाए रखने या छुआछूत का लांछन सहज ही लगाया ही जा सकता है।

दरअसल, हमने अपना मंच, अपना संगठन बनाया ही इसलिए है कि हम आपसे अलग, आपसे असहमत और अपने अजैण्डे साथ काम करना चाहते हैं। संख्या में चाहे हम फिर कम हों या ज्यादा। यह छुआछूत नहीं है, हमारी असहमति है, विरोध है और पृथक कार्य है। यों भी, दूसरों के मंच का उपयोग करना गहरी योजना, समझ और चतुराई की माँग करता है। किसी उदाहरण विशेष की गहराई में जाए बिना, उसे अनुकरणीय या आदर्श नहीं बनाया जा सकता। सामान्यीकरण करते हुए इसकी व्यापक छूट भी उचित नहीं। इसमें औसत का नियम नहीं लगाया जा सकता कि नदी में से पौने छह फीट का एक आदमी बिना डूबे निकल गया तो पौने छह फीट ऊँचाई के औसतवाले एक पूरे समूह को नदी में से पार उतरवा दिया जाए। (और फिर फासिज्म की नदी भी ऐसी जिसमें पानी लगातार बढ़ रहा हो।)

बहरहाल, इस विचलन के तीन कारण हो सकते हैंः
सत्ता संरचनाओं से लाभ उठाने की नीयत। सत्तापीठों से प्रतिरोध में इच्छा की कमी। और वामपंथी संगठनों की निष्क्रियता। इधर, इस तीसरी वजह से तमाम वरिष्ठ और युवतर लेखकों को वह ‘स्पेस’ उपलब्ध नहीं है जो आज से दस-बारह साल पहले तक मुमकिन था क्योंकि तब प्रलेस, जलेस, जसम के आयोजनों, गोष्ठियों की भरमार बड़े शहरों, छोटे कस्बों सहित सब जगहों पर थी। तब अधिकांश शासकीय, स्वायत्त संस्थानों, परिषदों और अकादेमियों में भी वामपंथी या तुलनात्मक रूप से गहरा साहित्यिक ज्ञान रखनेवाले लोग पदासीन थे और उनके आयोजनों में सहज, दुविधारहित शिरकत संभव थी। कि चलो, जो वहाँ बैठा है, उसकी साहित्यिक समझ स्वीकार्य है। वैचारिकता की लोकतांत्रिकता का सम्मान अपनी जगह है। लेकिन आज भाजपा शासित राज्यों की संस्थाओं में पदासीन सचिवों, संपादकों, न्यासियों, अध्यक्षों का बायोडाटा देखें तो इनमें से अधिसंख्य की साहित्यिक-सांस्कृतिक विपन्नता, कुटुम्बकम और मानवतावाद का अंदाजा भी आसानी से लगाया जा सकता है। उनके नाम पढ़कर हतप्रभ हुआ जा सकता है, वे किसी कोटि के भी लेखक नहीं है।

अब तमाम वामपंथी रुझान रखनेवाले लेखकों के सामने संकट यह आन पड़ा है कि जाएँ तो जाएँ कहाँ! लेकिन इसका समाधान यह कतई नहीं हो सकता कि कहीं भी चले जाएँ। या अचानक, बिना सोचे-विचारे ही समन्वयवादी, समझौतावादी हो जाएँ। सच्चा समाधान तो यहीं कहीं से निकलेगा कि अपने वैचारिक संगठनों की सक्रियता बढ़ाई जाए। अन्यथा छोटे-छोटे दल बनाए जाएँ, संस्थाओं की तरह काम किया जाए। अथवा जब तक कोई सक्रिय संगठन पुनः नहीं बनता, अकेले या कुछ समानधर्मा मित्रों के साथ अपना काम जारी रखें। प्रतिबद्धता और धीरज के साथ। इधर-उधर लपलपाने से कैसे काम होगा। हालाँकि तमाम वैचारिक सक्रियताओं के लिए दृश्य में एक वामपंथी राजनैतिक पार्टी की मजबूती भी चाहिए। यह अलग, विचारणीय और जरूरी मुद्दा है। तमाम लेखकों, किसानों, मजदूरों, छात्रों, स्त्रियों, उपेक्षितों, दलितों आदि के संगठन तमाम स्वायत्तता के बावजूद अंततः एक राजनैतिक पार्टी के ‘विंग्स’ ही होते हैं। लेकिन पार्टी रूपी पक्षी ही घायल हो तो ये ‘विंग्स’ कैसे उड़ान भर सकते हैं।

कई प्रदेशों में फासीवादी तत्व इतने मजबूत, एकीकृत, राजनीतिक रूप से शक्तिशाली और दुस्साहसी हो गए हैं कि आप धर्मान्धता या सांप्रदायिकता के खिलाफ अथवा पूँजीवादी संस्थानों के विरोध में कोई बयान दीजिए, लेख लिखिए, आप पर मुकदमा वगैरह जरूरत हुई तो बाद में चलेगा, फासीवादी संगठनों के तथाकथित सांस्कृतिक सदस्य, छुटपुट लोग, आपके ऊपर व्यक्तिगत आक्रमण कर देंगे और मुमकिन यही है कि आप इस तंत्र में उनके खिलाफ कुछ न कर पाएँ। यदि यह सब लिखने, कविताऍं पढ़ने, बयानबाजी करने के बावजूद आपके खिलाफ कुछ नहीं हो रहा है तो जाहिर है कि अभी आप उनके रास्ते में ठीक से अवरोध नहीं बने हैं।

फासीवादी संरचनाओं में कैसे और कितनी जगह खोजी जाए, यह एक वृहत्तर रणनीति तो हो सकती है लेकिन इसमें व्यक्तिगत स्तर पर नहीं बल्कि खास तरह के सामूहिक कौशल, चतुराई और विवेक की जरूरत होगी। इसलिए यहाँ ठहरकर यह सोचना ही होगा कि वे भला क्यों आपको आमंत्रित करेंगे, क्यों आपको जगह देंगे। जाहिर है कि उनकी भी कोई रणनीति शामिल रहेगी। वे कोई भोले या उदार संगठन नहीं हैं। उनकी अपनी योजनाएँ, प्रशिक्षण, कैमोफ्लाज, शिकारीपन और लक्ष्य हैं। यदि आप यह मानकर चल रहे हैं कि उनके मंच पर जाकर केवल आप उनका उपयोग कर रहे हैं तो इससे अधिक भोलापन कुछ नहीं हो सकता। यह गाफिल होना है। वे आपको उनके अपने तात्कालिक या दूरगामी लाभ और रणनीति के तहत ही बुलावा भेज रहे हैं।

फिर याद कर लें कि उपाय यही है कि अपने वैचारिक संगठनों को मजबूत और सक्रिय किया जाए। उसका विकल्प कुछ नहीं। चूँकि हमारे संगठन या समानधर्मी लोग उतने सक्रिय नहीं रह गए हैं इसलिए अब अन्य मंचों पर जाना मजबूरी है या यही उचित है, यह सोचना, दोहरा नुकसान करना है। जबकि यह आपकी-हमारी निष्क्रियता है। यदि आप अपने मंच से अपना राॅकेट लांच नहीं कर सकते तो किसी दूसरे प्लेटफाॅर्म से वह लांच हो नहीं सकता। या फिर वह इतनी प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष शर्तों पर और इतने कुहासे के साथ लांच होगा कि ‘लांचिंग’ ही एक संदिग्ध स्थिति में फँस जाएगी। आपके पास अपना मंच है, अपना मैदान है, आप वहाँ काम कीजिए।

इस भागमभाग भरी आकांक्षा में यह पक्ष भी गौण नहीं है कि अनेक वामपंथी लेखक जो उम्र में साठ-पैंसठ पूरे कर चुके हैं, जिन्हें अन्यथा तमाम तरह के पुरस्कार, सम्मान मिल चुके हैं और जो विभिन्न संस्थानों, प्रकाशनों में पदाधिकारी, संपादक वगैरह हैं, और हर शहर में ऐसे वरिष्ठजन की भरमार है, ये लेखक अपनी आयु के इस उत्तर जीवन में समन्यवादी हो सकने के लिए बिछे रहते हैं। जबकि अभी दशक-दो दशक पहले ही ये युवा तुर्क, गुस्सैल, नाराज, आक्रामक थे और अपने तेवरों के लिए विख्यात थे। हालाँकि अब शायद अधिक स्पष्टता से समझा जा सकता है कि इनमें से अधिसंख्य दरअसल महत्वाकांक्षी रूप से अवसरवादी थे। पहले वामपंथी होने से या उन लेखक-संगठनों में रहने से लाभ, प्रतिष्ठा, पुरस्कार, सम्मान, स्थान वगैरह मिल सकता था सो लिया। अब वरिष्ठ हैं, बुजुर्ग हैं, सम्मानित हैं, सामर्थ्‍यवान हैं  तो उनका तर्क है कि ‘कहाँ कहाँ नहीं जाओगे’, ‘किस किस को मना करोगे’, ‘यह तो छुआछूत है’। ‘चारों तरफ अब ऐसी ही संस्थाएँ हैं, ऐसे ही लोग हैं।’ ‘वे भी इसी समाज से हैं, सबसे ही तो अपना संबंध है।’ ‘सबको शिक्षित करना है। अपने ही जैसे लोगों के बीच में क्या बोलते रहना।’ ‘एक विशाल साहित्यिक परिवार है।’ अब ये समावेशीकरण पर जोर देते हैं, हर जगह से पैसा, चर्चा और सुविधा लेना है। हर जगह छपना चाहते हैं। कहीं के लिए भी साक्षात्कार और तस्वीरें ले जाइए। इनका कहना है कि हम तो भाई, इन सब चीजों से ऊपर उठ गए हैं और वक्त भी वैसा नहीं रहा। सचाई यह है कि ये उनके मंचों का ‘उपयोग’ नहीं, ‘उपभोग’ करना चाहते हैं। पुनः प्रश्न यह उठता है कि आपने अपना मंच या संगठन क्यों बनाया। इस संदर्भ में तर्क नहीं बल्कि देखा यह जाना चाहिए कि अंततः आप खड़े कहाँ होते हैं। और यदि आप बार-बार वहीं जाकर खड़े होते हैं तो फिर किसी भी तर्क का कोई मायना नहीं है। वह शब्दाडम्बर है। आपकी ‘पोजीशन’ ही अर्थवान है, वही अवस्थिति आपके विचारों का वास्तविक सूचकांक है।

यह भी कम अजीब स्थिति नहीं कि अपने पदभार के चलते दक्षिणपंथी संस्था या सत्ता में कोई वामपंथी रुझान का लेखकनुमा अधिकारी पदस्थ होते ही आशा करता है कि उसके रहते सभी वामपंथी लेखकों को इस संस्था में आना-जाना शुरू कर देना चाहिए। वह सोचता है कि ऐसा मानना उसका हक है। बल्कि यह उसकी उदारता, उसका साहस है कि वह किसी वामपंथी छबि के लेखक को आमंत्रित कर रहा है। कि वह उस संस्था के द्वार, उसकी पदस्थापना के सीमित समय के लिए ही सही, बावजूद विपरीत विचार की सरकार के, वाम लेखकों के लिए भी खोले दे रहा है। वह सारा दबाव लेखकों पर डालेगा बजाय इसके कि वह संस्था के भीतर उन कारणों को दूर करे जिनकी वजह से उस संस्था के प्रति बहिष्कार, विवाद या दुविधा है। हालाँकि वह चाहे तो भी ऐसा कुछ कर नहीं सकता क्योंकि वह तो दक्षिणपंथी सत्ताधीशों की प्रत्यक्ष या परोक्ष मेहरबानी पर ही वहाँ टिका हुआ है। ध्यान से देखें तो दिखेगा कि वह स्वयं दया का पात्र है, अपना ही कैरीकेचर है, इसलिए अब वह एक आभासी वातावरण बना देना चाहता है जिसके अंतर्गत उसे अपनी प्रशासकीय, संपादकीय या अकादेमिक श्रेष्ठता साबित कर देना है। फिर वह तमाम लेखकों को आमंत्रित, प्रलोभित करता है, निजी संबंधों का उपयोग करता है, तोड़-फोड़ करता है। यह दिलचस्प विडंबना है कि अनेक ‘तथाकथित प्रतिबद्ध लेखक’ वहाँ जाते हैं। लेकिन इससे समाज में, साहित्य की दुनिया में, वैचारिक संघर्ष में कुछ भी ऐसा घटित नहीं होता और न ही हो सकता है कि इस आवाजाही के पक्ष में खड़ा हुआ जा सके।

इसलिए कौन कहाँ बना रहता है, क्या करता है और किन रास्तों से गुजरता है या किन मुद्दों से कन्नी काट जाता है, ये सब बातें महत्वपूर्ण और निर्णायक हैं। कहीं भी, किसी भी विचार के मंच पर जाने के लिए यों किसी तर्क की जरूरत है भी नहीं। यह आपकी स्वतंत्रता का विषय भी हो सकता है लेकिन इसे किसी सिद्धांत की ओट में ‘सही’ या ‘जरूरी’ साबित करने की कोशिश हास्यास्पद है। खुशी की बात है कि आप और हम एक तरह से नहीं सोचते हैं, इसलिए इस विषय पर विवाद है और बना रहेगा। खुशी की बात है कि यह दुनिया इकहरी नहीं है।

और यदि यह आवाजाही, दूसरे मंचों का यह उपयोग संगठित तौर पर, नीतिगत तौर पर, किन्हीं बड़े वैचारिक, सुनियोजित, रणनीतिक आधारों पर किया जा रहा है तो स्वागतेय हो सकता है और इस रणनीति की तरफ उत्सुकता से भी देखा जा सकता है। लेकिन क्या ऐसा है? हम सब सहज ही जान सकते हैं कि ऐसा नहीं है।
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गुरुवार, 1 जनवरी 2015

सुचिंतित संपादकीय

सुप्रसिद्ध स्‍तंभ लेखक जय प्रकाश चाैकसे जी एक किताब अभी प्रभात प्रकाशन से आई है। जिसमें उनके 100 आलेख संकलित हैं। इस किताब की भूमिका लिखने का अवसर मुझे मिला। वह भूमिका यहॉं पेश है।

सिनेमाई अनुभव की साहित्यिक नोटबुक

फिल्म की दुनिया चकाचैंध, वैभव, माया, स्वप्न, आकांक्षा, प्यास और ऐश्वर्य की दुनिया है। शेष संसार के लिए वह एक चुंबक की तरह काम करती है। लेकिन उस दुनिया के बारे में लिखा जाना हमेशा चुनौतीपूर्ण रहा है। खासकर पत्रकारिता के संदर्भ में। हिंदी में तो और भी ज्यादा अकाल है। खासतौर पर जब दैनिक स्तंभ लिखा जा रहा हो। अक्सर ऐसा लेखन औसत से ऊपर नहीं हो पाता। लेकिन जय प्रकाश चौकसे का नियमित लेखन एक सुखद अपवाद है।

इसका सबसे बड़ा कारण है कि फिल्म से जुड़े किसी भी प्रसंग के बहाने जय प्रकाश चौकसे एक बहुत बड़ी सामाजिक दुनिया में प्रवेश कर जाते हैं। हर बार वे फिल्म की घटनाओं का अतिक्रमण करते हैं। जीवन और दर्शन की व्यापकता जैसे उनका अभीष्ट हो जाता है। फिर वहाँ साहित्य और कला अनुशासनों की इतनी आवाजाही है कि हमारे रोजमर्रा के तमाम अनुभवों और विचारों से टकराने का अवसर उपलब्ध है। यह अनेक खिड़कियों का एक साथ खुलना है। धीरे-धीरे हम जान लेते हैं कि यह महज फिल्मी खबरें नहीं हैं के बल्कि उसके बहाने व्यापक सरोकारों से सज्जित और चिंतित संपादकीय हैं।

और इस लेखन को जय प्रकाश चौकसे अपनी इतनी परिमार्जित भाषा के साथ संपन्न करते हैं कि उसे पढ़कर साहित्यिक रचना की अनुभूति होती है। यह भाषा ठस या बोझिल नहीं है। इसमें गतिशीलता है, संवाद की ताकत है। आत्मीयता है। वे हिंदी के कठिन और तत्सम शब्दों का इस्तेमाल भी इतनी सहजता से कर लेते हैं कि कोई अवरोध नहीं बनते। इस तरह वे संप्रेषण के लिए अटकते नहीं हैं और अखबारी भाषा की विपन्नता को भी लाँघ जाते हैं। उन्होंने भाषा का अपना एक मुहावरा बनाया है। इस तरह वे हिंदी गद्य को भी नये सिरे से समृद्ध करते हैं। हर पंक्ति पर लगता है कि आप एक सुपठित, सजग और व्यग्र लेखक के साथ हैं।

मनुष्य की मूल प्रवृत्तियों, आशा-निराशा, राग, द्वेष, ईष्र्या, प्रेम, लोभ, काम और इच्छाओं के साथ परम्परा तथा हमारे समय की आधुनिक जटिलताओं यथा- संस्थानों की समस्याओं, निजीकरण, भूमण्डलीकरण, अमीर-गरीब की बढ़ती खाई, बेरोजगारी, वंचितों की असहायता और धन के अश्लील प्रदर्शन, आत्मा का लुटा हुआ द्वीप, इन सबके बीच जय प्रकाश चौकसे ऐसे पुल बनाते हैं कि हम खुद वहाँ पहुँचकर इन प्रवृत्तियों का कुछ करीब से जायजा ले सकें। वे कुछ क्लोज अप और लाँग शाॅट्स के जरिए भी हमारे लिए दृश्य रच देते हैं। वे जो कुछ भी परदे के पीछे रह जाता है, नेपथ्य में ओझल है, उसे प्रतिदिन के रंगमंच पर ले आते है और ऐसा वे किसी अदाकारी अथवा नाटकीयता के जरिए नहीं बल्कि अनायासिता और सहजता से करते हैं।

यह उस लेखन का विशिष्ट उदाहरण है जो अंतर्वस्तु में श्रेष्ठ होते हुए भी लोकप्रियता के तत्व को बरकरार रखता है। श्रेष्ठ यदि लोकप्रिय हो जाये तो इससे अधिक स्वागतेय क्या होगा? इस प्रसंग में जय प्रकाश चौकसे को रेखांकित किया जाना चाहिए। फिल्म को माध्यम बनाकर यह सब लिखना दरअसल, एक नये प्रकार का साहित्य है। इसे किसी नयी विधा, नयी कोटि के अंतर्गत रखना होगा। ये सिनेमाई अनुभव की साहित्यिक नोटबुक है। जहाँ शब्दकला के बहुआयामी शिल्पों और संगीत का सुखद मेल, उसका आस्वाद उपस्थित है।

इसमें सामाजिक सरोकार, मनुष्य की चिंताएँ, घबराहट और जिजीविषा प्रखर रूप से शामिल है। ये लक्षण, उनके नियमित स्तंभ को किसी ‘प्रकाश स्तंभ’ में तबदील कर देते हैं जिसकी रोशनी में हम अपनी नौकाओं की दिशाएँ कुछ हद तक तो ठीक कर ही सकते हैं। स्वतंत्र भारत के व्यावसायिक हिंदी अखबार जगत में, हरिशंकर परसाई और शरद जोशी के बाद, इतने लंबे समय तक किसी स्तंभ को रोज लिखना ही अपने आप में एक विरल उदाहरण है। फिल्मों के बहाने लिखना तो शायद अकेली मिसाल है। यहाँ मेरा आशय यों ही कलम घिस देने से नहीं, एक पठनीय, लोकप्रिय और श्रेष्ठ लेखन से है। यह संयोग मुश्किल से होता है। जय प्रकाश चौकसे ने इसे संभव किया है। इसलिए ही उनको रोज पढ़ना, अब एक विस्तृत पाठक वर्ग की दिनचर्या है, आदत है।