रविवार, 26 सितंबर 2010

हर शहर में एक स्‍त्री का स्‍थापत्‍य

कुछ शहरों को याद करते हुये


अब रातें अपना काम करेंगी
झरनों की तरह मेरे ऊपर गिरेंगी
और मुझे भटकायेंगी जैसे बतायेंगी
कि यह शहर तुम्हारे लिये नया है
कभी-कभी नीम या पीपल दिखेगा दिलासा देता
फिर गलियाँ धीरे-धीरे अपनायेंगी और मेरी नसों में समा जाऍंगी

कहीं कोई पोखर, घाटियाँ, बिखरे हुये से पेड़
पुल, कोलाहल से भरे चौरस्ते और उदासी
झाड़ियाँ, मैदान, एक तरफ खिले हुये फूल
गिरती ओस और टूटती पत्तियाँ
हर शहर में एक स्त्री का स्थापत्य छिपा है

इस साँवली सड़क ने मुझे बाँहों में भर लिया है
तारों की परछाइयाँ मुझ पर सुलगती गिर रही हैं
मेरे माथे पर उनके चुंबनों की बौछार है
जिनकी चमक झील में गिरकर उछलती है

छूटता ही नहीं शहरों से मेरा प्रेम
उनके भीतर से उठती है मारक पुकार
वही है जो बार-बार मुझे उनकी तरफ लिवाये जाती है
और उन्हें किसी मादक प्रेम की तरह
अविस्मरणीय बनाती है।
00000

बुधवार, 15 सितंबर 2010

रहने की कोशिश कर सकता हूं

लंबे अंतराल के बाद यहां अपनी एक नयी कविता।

धूप में रहना है



जीवन ऐसा है कि धूप में रहना ही पड़ता है
अब मैं तेज धूप में हूं और रहना इस तरह जैसे ओस के संग रह रहा हूं
यह सचमुच मुश्किल है और लोग कहते हैं कि तुम्हें जीवन में रहना नहीं आता
मैं कुछ नहीं कह सकता केवल रहने की कोशिश कर सकता हूं
ज्यादा तरकीबें भी नहीं हैं मेरे पास सिर्फ कोशिश कर सकता हूं बार-बार
हालांकि यह अभिनय जैसा भी कुछ लग सकता है

अगर मैं ओस जैसा हूं
तो मैं चाह कर भी इसमें बहुत तब्दीली कर नहीं सकता
आलस, क्रांति, मेहनत या दुनियादारी की इसमें बहुत भूमिका नहीं
जैसा कि होता है आपके होने और मेरे होने में ही मेरी सीमा हो जाती है
और इससे असीम तकलीफें पैदा होती हैं और अपार प्रसन्नताएं भी

यह जो हताशा है, असहायता है, नाटक है
यह जो ठीक तरह न रह पाने की बदतमीजी, बदमजगी या मजबूरी है
और ये मुश्किलें जो घूरे की तरह इकट्ठा हैं मेरे आसपास
दरअसल यह सब मेरे ओस जैसा होने की मुश्किलें भी हैं
जिस पर किसी का कोई वश नहीं
लेकिन इतना असंभव तो मैं कर ही पा रहा हूं
कि तमतमाती धूप के भीतर रहे चला जा रहा हूं

हर कोई धूप के भीतर ओस को रहते देख नहीं सकता
इस तरह मैं हूं भी और नहीं भी हूं
आप मुझे सुविधा से, मक्कारी से या आसानी से नजरअंदाज कर सकते हैं।
00000

गुरुवार, 19 अगस्त 2010

क्‍योंकि हम हमेशा ही पराजित हुए

हम कहानी क्‍यों कहते हैं

यह अनुवाद वरिष्‍ठ कवि, मित्र आग्‍नेय जी के लिए


लाइजेल म्‍यूलर


1
क्‍योंकि हमारे पास कभी पत्तियॉं हुआ करती थीं
और सीलन भरे दिनों में
टीस उठती थी हमारी माँसपेशियों में
जो अब बहुत तकलीफदेह है, तबसे जब हमें
मैदान में विस्‍थापित कर दिया गया

और क्‍योंकि हमारे बच्‍चे विश्‍वास करते थे
कि वे उड़ सकते हैं, एक आदिम इच्‍छा हमारे भीतर बनी रही
तबसे जब हमारी बाहों की अस्थियॉं
तंतुवाद्य के आकार की थीं और साफ टूट गईं थीं
उनके पंखों के नीचे

और क्‍योंकि हमारे पास फेंफड़े होने से पहले ही
हम जानते थे कि यह तलहटी से कितना दूर है
हम खुली ऑंखों से तैरे
जैसे सपनों के रंगीन दुपटटे किसी चित्र दृश्‍य में तैरते हैं
और क्‍योंकि हम जाग गए थे

और सीख चुके थे बोलना

2
हम गुफाओं में आग के पास बैठे
और क्‍योंकि हम गरीब थे, हमने
एक विशाल खजाने की एक कहानी बनायी
जो केवल हमारे लिए ही खुलेगा

और क्‍योंकि हम हमेशा ही पराजित हुए
हमने असंभव पहेलियों का आविष्‍कार किया
जिन्‍हें केवल हम ही हल कर सकते थे
और ऐसे राक्षस जिन्‍हें केवल हम मार सकते थे
ऐसी स्त्रियां जो किसी और को प्‍यार नहीं कर सकती थीं

और क्‍योंकि हम जीवित बने रहे
बहनें और भाई, बेटियॉं और बेटे,
हमने ऐसी अस्थियों को खोजा जो धरती के
अँधेरे कोनों से जीवित हो सकीं
और पेड़ की सफेद चिडि़यों की तरह गीत गाये

3
क्‍योंकि हमारे जीवन की कहानी ही
हमारा जीवन हो गई

क्‍योंकि हममें से हर कोई
एक ही कहानी कहता है
लेकिन अलग तरह से कहता है

और हममें से कोई भी
एक तरह से दुबारा नहीं कहता है

क्‍योंकि नानी मकड़ी की तरह किस्‍से बुनती है
कि अपने बच्‍चों को मंत्रमुग्‍ध कर सके
और दादा हमें समझाना चाहते हैं
कि जो कुछ भी घटित हुआ
वह उनकी वजह से ही घटित हुआ

और हालॉंकि हम बेतरतीबी से सुनते हैं
एक कान से सुनते हैं,
हम शुरू करेंगे हमारी कहानी इस शब्‍द से-
'और'

सोमवार, 16 अगस्त 2010

लिखे जाने की आवाज का संगीत

छोटे से अंश का एक अनुवाद प्रस्‍तुत है, जिसने मुझे अपनी पर‍िधि में ले लिया है।

मैं हमेशा महसूस करता हूं कि शब्द मेरे शरीर में से निकलकर आते हैं, महज दिमाग में से नहीं। मैं कलम से कागज पर इस तरह सामान्य लिपि में कुछ जोर से लिखता हूं कि कलम से कागज पर लिखे जाने की आवाज आती है। मैं शब्दों को लिखे जाने की आवाज सुनता हूं। गद्य लिखने और वाक्य बनाने के इस यत्न को मैं अपने मस्तिष्क में बज रहे संगीत की संगति में पकड़ता हूं। यह सब बहुत श्रमसाध्य है, लिखना, लिखना और पुनर्लेखन कि उस तरह संगीत को प्राप्त कर पाना जैसा कि आप चाहते हैं। यह संगीत एक भौतिक शक्ति है। आप न केवल किताबें भौतिक रूप से लिखते हैं बल्कि उन्हें पढ़ना भी भौतिक क्रिया ही है।

भाषा की लय कुछ ऐसी होती है कि वह हमारे अपने शरीर की लय से संगति बैठाती है। एक उत्सुक पाठक किताब में उन अर्थों की खोज करता है जिन्हें उच्चरित नहीं किया जा सकता, वह उन्हें अपने शरीर में ही खोजता है। मैं सोचता हूं कि अधिकांश लोग गद्यसाहित्य को लेकर यही नहीं समझ पाते हैं। कविता का सांगितिक होना माना ही जाता है लेकिन लोग गद्य को इस तरह नहीं समझते हैं। वे पत्रकारिता को पढ़ते हुए तथ्यात्मक,कामकाजी,सूचनात्‍मक वाक्यों के, सतही विन्यास और चीजों के बेहद आदी हो चुके होते हैं।
- पॉल ऑस्‍टर (उपन्‍यासकार) के साक्षात्‍कार का एक अंश
'द बिलीवर' पत्रिका के फरवरी 2005 के अंक से, साभार।

सोमवार, 7 जून 2010

एक कराह फड़फडाकर उड़ती है

एक कराह फड़फड़ाकर उड़ती है
मिक्लोश राद्नोती


आधी रात के करीब मेरी माँ ने मुझे जन्म दिया
सुबह तक वह मर चुकी थी
जैसे तने से एक कोमल डाल फूटती है उसमें से मैं उगा

दिन का दुख अभी बाकी था
अपने सिर के नीचे तुम्हारा दायाँ हाथ
मैं तुम्हारी नब्ज में चलते हुये खून को सुनता रहा
तुम्हारी बाँहों में मैं एक बच्चा हूँ जो चुप है

मैं नदी और उसमें झुकी हुयी घास तक पहुँचता हूँ
भेड़ चरानेवाली एक छोटी लड़की झील में उतरकर
पानी को थरथराती है
और थरथराती हुई भेड़े पानी में इकट्ठा
झुककर बादलों से पानी पीती हैं
यहाँ कहीं भी रहूँ मैं हमेशा अपने घर में हूँ
और जब कभी कोई झाड़ी मेरे पैरों पर झुकती है
तो मैं उसका नाम जानता हूँ और उसके फूल का नाम भी

सन्नाटा दिल में बिगुल की तरह गूँजता है
और एक कराह फड़फड़ाकर उड़ती है
उसके पीछे वह धड़कन भी चुप हो जाती है
जो तकलीफ देती थी
मैं जंगल देखता हूँ, गीतों भरे बागान, अंगूर के खेत, कब्रस्तान
और एक छोटी बहुत बूढ़ी औरत
जो कब्रों की बीच रोती जा रही है
मैं गूँगे पत्थरों की बीच गढ्ढों में रहता हूँ

और लंबे अरसे से मैंने वाकई नाचना नहीं चाहा है
मेरे पास कभी कुछ नहीं था और न आगे कभी होगा
जाओ और जरा एक लम्हे के लिये
मेरी जिंदगी की इस दौलत पर विचार करो
मेरे कोई वारिस नहीं होंगे क्योंकि मैं कोई चाहता नहीं

मैं एक कवि हूँ और किसी को मेरी जरूरत नहीं है
मैं एक कवि हूँ जो इसी लायक है कि जला दिया जाये
क्योंकि वह सचाई का गवाह है
मैं वह हूँ जो जानता है कि बर्फ सफेद है
खून लाल है


मैं एक ऐसे जमाने में इस धरती पर रहा
जब विश्वासघात और हत्या का आदर होता था
जब माँ अपने ही बच्चे पर एक लानत थी
औरतें अपना गर्भ गिराकर खुश होतीं थीं
और जो जिन्दा थे वे ताबूत में कैद सड़ते हुये मुर्दों से रश्क करते थे
मैं एक ऐसे जमाने में इस धरती पर रहा
जब कवि भी चुप थे

जब जेल में बिजली झपकती है तो अंदर सारे कैदी
और बाहर पहरा देते सारे संतरी जानते हैं कि
उस वक्त एक ही आदमी के शरीर में सारी बिजली
एक साथ दौड़ रही है
न मुझे कोई याद बचाएगी न कोई जादू
हम सपने देखते हैं तो एक-दूसरे का हाथ पकड़े रहते हैं

वे हमेशा कहीं न कहीं हत्या करते हैं
सूरज चमक रहा था- मेरी बहिन जो मर चुकी थी याद आई
और वे सारी आत्माएँ जिन्हें मैंने चाहा था, जो अब नहीं थीं
मैं वह हूँ जिसे आखिरकार वे मार देंगे
क्योंकि मैंने खुद को कभी नहीं मारा

काश! पहले ही की तरह बेरों का ताजा मुरब्बा
पुराने बरामदे में ठंडा होता हुआ
गर्मियों के अंत में चुप्पी, उनींदी, धूप सेंकती
वृक्षों पर पत्तियों के बीच झूलते हुये नंगे फल
जहाँ सुबह धीरे-धीरे छाया पर छाया लिखती है
देखो, आकाश में आज पूरा चाँद है
मुझे छोड़कर न गुजर जाओ दोस्त, पुकारो
और मैं फिर उठ चलूँगा

तुम कवि थे इसलिए उन्होंने तुम्हें मार डाला
हवा तुम्हें बिखेर देगी लेकिन कुछ अरसे के बाद
एक पत्थर से वह गूँजेगा जो मैं आज कहता हूँ
और बेटे और बेटियाँ जब बड़े होंगे तो उसे समझ लेंगे
और तब वे हमारे घुटे हुये शब्दों को
साफ और ऊँचे शब्दो में कहेंगे
मेरी आवाज हर नई दीवार की नींव के पास सुनी जाएगी
यह दुनिया फिर से बनाई जाएगी

रात के रखवाले बादल, हम पर अपना विराट पंख फैला ले।
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विष्णु खरे द्वारा अनूदित मिक्लोश राद्नोती (हंगरी) की 20 कविताओं की पुस्तिका
‘हम सपने देखते हैं’ से, चुनी गई पंक्तियों से रचित कविता। बस यों ही। या शायद इसलिए कि यह जमाना भी कुछ वैसा ही है जैसा इस कविता में दर्ज है।

शनिवार, 27 फ़रवरी 2010

दुखद प्रतीक्षा

पाब्‍लो नेरूदा की कविता 'द अनहैप्‍पी वन' का अनुवाद।
अनुवाद अंतत: एक पुनर्रचना ही है।

दुखद प्रतीक्षा
पाब्लो नेरूदा

मैं उसे बीच दरवाजे पर प्रतीक्षा करते हुए छोड़कर
चला गया, दूर, बहुत दूर

वह नहीं जानती थी कि मैं वापस नहीं आऊंगा

एक कुत्ता गुजरा, एक साध्वी गुजरी
एक सप्ताह और एक साल गुजर गया

बारिश ने मेरे पाँवों के निशान धो दिए
और गली में घास उग आई
और एक के बाद एक पत्थरों की तरह,
बेडौल पत्थरों की तरह बरस उसके सिर पर गिरते रहे

फिर खून के ज्वालामुखी की तरह
युद्ध शुरू हो गया
खत्म हो गए बच्चे और मकान

लेकिन वह स्त्री नहीं मर सकी

पूरे देश में आग फैल गई
सौम्य, पीतवदन ईश्‍वर
जो हजारों सालों से ध्यानस्थ थे
टुकड़े-टुकड़े कर मंदिर से फेंक दिए गए
वे और अधिक ध्यानस्थ न रह सके

प्यारे मकान, वह बरामदा
जिसमें रस्सी के झूले में सोया मैं
उज्ज्वल पौधे, अनेक हाथों के आकार की पत्तियाँ,
चिमनियाँ, वाद्ययंत्र
सब ध्वस्त कर दिए गए और जला दिए गए

जहाँ पूरा एक शहर था
अब वहाँ एक अधजला खण्डहर रह गया था
ऐंठे हुए सरिये, प्रतिमाओं के मृत बेढंगे सिर
और सूखे खून का काला धब्बा

और वह एक स्त्री जो अब भी प्रतीक्षा करती है।
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सोमवार, 18 जनवरी 2010

गद्य के कुछ नमूने

गद्य के कुछ नमूने


1 ईश्‍वर रेडियम, ईथर अथवा कोई वैज्ञानिक योग है। ईश्‍वर एक रासायनिक प्रतिक्रिया है।

2 आप यह बता सकते हैं कि आपने क्‍या स्‍वप्‍न देखा और तोते ने क्‍या कहा क्‍योंकि पक्षी एक अयोग्‍य गवाह है।

3 उनके चेहरे पत्‍थरों पर नमक से बने चेहरों के समान थे।

4 न्‍यूयॉर्क किसी के भी लिए इतने प्रलोभन पैदा कर देता है कि कोई भी अपव्‍ययी हो जाता है।

5 मैं कपड़ों में आश्‍चर्यजनक सौदेबाजी और सुई-धागे से किया गया चमत्‍कार देखता आया हूं।

6 उसने चटखे हुए दर्पण में स्‍वयं को देखा। प्रतिबिम्‍ब संतोषजनक था।

7 जीवन अपने रहस्‍यमय घूंघट का एक कोना उसके लिए उठाने जा रहा था ताकि वह इसके आश्‍चर्य देख सके।

8 वह ऐसा दिखता था मानो एक रहस्‍यमय दुख में हो और उसकी शानदार मूंछें एक स्‍वप्‍न की तरह थीं।

9 वह उसे ऐसे देखता रहा जैसे रेगिस्‍तान में स्थित स्फिंक्‍स की मूर्ति तितली को देखती, यदि रेगिस्‍तान में तितलियां होतीं।

गद्य के ये नौ बिंदुओं में उदाहरण, ये कुछ वाक्‍य ओ हेनरी की एक कहानी में से चुने गए हैं।
कभी 'एक अधूरी कहानी' पढ़ते हुए मुझे ये वाक्‍य गद्य के अविस्‍मरणीय नमूनों की तरह लगे थे और उन्‍हें मैंने डायरी में लिख लिया था, यह सोचकर कि इन सब पर, पृथक पृथक कहानियां या कविताएं लिखूंगा। सं‍दर्भित कहानी के शीर्षक की तरह मेरे लिए यह बात अभी अधूरी ही है। लेकिन इनको यहां पढने का सुख तो सब तक पहुंचाया ही जा सकता है।

गुरुवार, 14 जनवरी 2010

एक सिम्‍फनी है

अकेली गहराती रात में एक खिडकी के पीछे एक अनाम लैम्‍प जल रहा है। जैसे इस लैम्‍प के जलने से ही यह रात इतनी गहरी है। लगता है कि मैं जगा हुआ हूं, अंधेरे में अपनी कल्‍पनाओं में डूबा, बस इसी वजह से ही उधर, वहां रोशनी है।

शायद हर चीज इसलिए जीवित है क्‍योंकि कुछ और भी है जो साथ में जीवित है।
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कोहरा या धुआं।
क्‍या यह धरती से उठ रहा था या आकाश से गिर रहा था। जैसे यह वास्‍तविकता नहीं है, अपनी आंखों की ही कोई पीड़ा है। जैसे कुछ ऐसा घटित होनेवाला है, जिसे हर चीज में अनुभव किया जा सकता है, उसी घटना की आशंका में दृश्‍यमान संसार ने अपने आसपास कोई परदा खींच लिया है।

दरअसल, आंखों के लिए यह कोहरा शीतल है लेकिन छूने पर ऊष्‍ण, जैसे दृष्टि और स्‍पर्श किसी एक ही अनुभव को जानने के लिए नितांत दो अलग तरीके हैं।
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उदास प्रसन्‍नता के साथ कभी-कभी मैं सोचता हूं कि मेरे ये वाक्‍य जिन्‍हें मैं लिखता हूं, भविष्‍य में किसी एक दिन, जिसका मैं हिस्‍सेदार भी नहीं होऊंगा, प्रंशसा के साथ पढे जाएंगे, आखिर मैं उन लोगों को पा सकूंगा जो मुझे 'समझ' सकेंगे, मेरे अपने लोग, एक मेरा वास्‍तविक परिवार जो अभी पैदा होना है और जो मुझे प्‍यार करेगा। लेकिन उस परिवार में मैं पैदा नहीं होऊंगा बल्कि मैं तो मर चुका होऊंगा। मैं किसी चौराहे की प्रतिमा की तरह रहकर समझा जाऊंगा, और इस तरह मिला कोई भी प्रेम, उस प्रेम के अभाव की भरपाई नहीं कर पाएगा जिसका अनुभव मुझे अपने जीवनकाल में होता रहा।
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मेरी आत्‍मा एक अजाना आर्केस्‍ट्रा है। मैं नहीं जानता कि कौन से वाद्ययंत्र, कौन सी सारंगी और वीणा के तार, नगाड़े और ढपलियां मैं अपने भीतर बजाता हूं या उनको झंकृत करता हूं।
कुल मिलाकर जो मैं सुनता हूं वह एक सिम्‍फनी है।
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फर्नेन्‍दो पेसोआ की चर्चित डायरी और मेरी प्रिय किताब 'द बुक ऑफ डिस्‍क्‍वाइट' की अनेक पंक्तियां ऐसी हैं जो बार-बार पढता हूं। अपने नाम के अनुरूप ही यह किताब व्‍याकुल बनाने में सक्षम है। एक सर्जनात्‍मक व्‍याकुलता इसमें व्‍याप्‍त है। उन सैंकडों पंक्तियों में से कुछ यहां लिख दी हैं।
यों ही। टूटे-फूटे अनुवाद में। नए साल की शुभकामनाओं के साथ।